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Wednesday, September 1, 2021

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बचपन की बातें, कौन भूलता है|

Posted: 01 Sep 2021 12:15 AM PDT

बचपन की बातें, कौन भूलता है|

बचपन की बातें, कौन भूलता है,
घरोंदे बनाना भी, कौन भूलता है।
बहती थी कश्ती, सदा सबसे आगे,
बरसात में नाव, कौन भूलता है।
कागज के जहाज, उड़ते गगन में,
कभी मार पड़ती, कौन भूलता है।
लड़ना झगड़ना, कुट्टी अब्बा करना,
छीन बांट खाना, कौन भूलता है।
हैं बातें बहुत सी, उस दौर की बाकी,
वो तख्ती पे लिखना, कौन भूलता है।
कभी होती लड़ाई, वह हथियार बनती,
फिर पिटना पीटाना, कौन भूलता है?

अ कीर्ति वर्द्धन
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श्रीकृष्ण

Posted: 31 Aug 2021 11:30 PM PDT

श्रीकृष्ण

संकलन अश्विनीकुमार तिवारी

द्रोणाचार्य सरीखे शास्त्रज्ञ गुरु भी धर्म का तत्व नहीं समझ पाए। भीष्म पितामह जैसे धर्म सम्राट को भी धर्म का तत्व शर शैय्या पर लेटने से पहले समझ न आया। यहाँ तक कि धर्म अधर्म के नाम पर दो फाड़ हुए राजाओं में धर्म पक्ष के अर्जुन भी धर्म के नाम पर युद्ध छोड़ भिखारी बनने को तैयार हैं। युद्ध जीतने के पश्चात भी धर्मराज युधिष्ठिर भीष्म के सामने नेत्रों में अश्रु लिए धर्म का तत्व जानने के लिए चरणानुगत हो रहे हैं। वहीं समस्त धर्म-अधर्म की उलझनों से घिरे वातावरण में, भ्रमित पात्रों के बीच, गायें चराने वाला ग्वाला धर्म का साक्षात् स्वरूप बना हुआ है। सारे शंकित पात्रों के प्रश्नों का समाधान आखिर में वही कर रहा है। उसके उपदेशों से जहाँ भिखारी बनने की इच्छा वाले अर्जुन रण में प्रलय मचाने को उतावले हो रहे हैं, वहीं अजेयानुजेय भीष्म अपने प्राणों को स्वयं थाली में सजाए खड़े हैं। जहाँ बड़े बड़े विद्वानों की बुद्धि भी भ्रमित हो अधर्म को धर्म मान लेती है वहीं श्री कृष्ण का हर एक कार्य मानो धर्म की गुत्थियां सुलझा रहा है। 

धर्म सदा देश-काल-परिस्थिति सापेक्ष होता है। कोई कर्म ऐसा नहीं है जो स्वयं में पाप या पुण्य हो। पाप पुण्य की इस महीन रेखा के भगवान श्रीकृष्ण पूर्णज्ञाता थे। दुष्टों के किसी भी प्रकार दमन को वे धर्मानुमोदित मानते थे। कर्णार्जुन युद्ध में निहत्थे कर्ण को मारना उन्होंने धर्मोचित बताया, आखिर सदा अधर्म के पोषक को धर्माचरण की आशा रखने का क्या अधिकार है? अनुचित रूप से मथुरा पर चढ़ाई करने आए कालयवन को धोखा देने में उन्होंने कुछ अनुचित नहीं समझा। अधार्मिकों के साथ यदि पूर्ण धर्म का पालन किया जाए तो अधार्मिकों का हौसला बढ़ता है और धर्म की ही हानि होती है। कहाँ कहाँ धर्म को प्रधानता देनी है और कहाँ कहाँ नीति को, यह उन्होंने खूब स्पष्ट किया। इस नीति-धर्म के सामंजस्य को भूलने के कारण ही भारत आतताइयों से पदाक्रांत हो गया। व्यक्तिगत धर्म जब सामाजिक धर्म की अवहेलना करता है तो अधर्म से कम नहीं रह जाता, ऐसी परिस्थिति में अकाट्य अनुकल्पों की श्री कृष्ण ने सर्जना की, चाहे अर्जुन द्वारा युधिष्ठिर पर शस्त्र उठाने का प्रसंग हो, या द्रोण के वध का प्रसंग हो या अश्वत्थामा को मारने की अर्जुन की प्रतिज्ञा का प्रसंग हो।

व्यावहारिक, राजनैतिक, धार्मिक ज्ञान से लेकर दार्शनिक ज्ञान आदि में से कौन से ज्ञान सर्वज्ञानमय कृष्ण में पूर्ण न थे? सर्वज्ञानमय पुरुष का ज्ञान सर्वशास्त्रमयी गीता में आलोकित हुआ और आज पांच हज़ार वर्ष बाद भी उसकी थाह न मिल सकी है। 700 श्लोकों के छोटे से ग्रन्थ से नित नए चमत्कारिक ज्ञान प्रस्फुटित हो रहे हैं। 

भगवान श्रीकृष्ण का जीवन बाल्यकाल से ही कांटों से भरा रहा।  पर क्षत्रियत्व बालपन से ही प्रौढ़ता को प्राप्त है। शिशु अवस्था में पूतना के विष बुझे स्तन चूस प्राण ही निगल लिए, वहीं नन्ही सी लातों से छकड़े उलटा दिए। कुमारावस्था में प्राचीन वृक्षों को एक झटके में उखाड़ रहे हैं। कंस के भेजे असुर नित्य आ रहे हैं, पर खेल-खेल में निबटा दिए जाते। किशोरावस्था में कंस के मल्ल अखाड़े में पछाड़े और मदमत्त हाथी मार गिराए। पूतना, तृणावर्त, शकटासुर, वत्सासुर, बकासुर, अघासुर, कालिय, शंखचूड, केशी, कंस, कुवलयापीड आदि दुष्ट राक्षसों और राजाओं का जिन्होंने दमन किया, भारत का कोई महावीर क्षत्रिय जिन्हें सामने खड़ा हो हरा न सका, जिन्होंने अकेले सारे भूमण्डल का भार उतार डाला, इंद्र तक को अवहेलित करने वाले ऐसे शूरवीर धर्मरक्षा के लिए रण छोड़ भाग खड़े होते हैं! वृन्दावन में गोपियों संग महारास, भूतभावन भोलेनाथ भी गोपी बन गए, उच्च गृहस्थ मर्यादा के लिए 12 वर्ष तपश्चर्या, यादव राज्य के प्रबंध के साथ पांडवों का हर पग पर सहायक होना, आज द्वारका में हैं, तो कल देहली में, परसों बद्री में समाधि जमी है, अभी युद्ध में चढ़ाई हो रही है तो अगले ही समय बंसी बजाकर भक्तों को प्रेमरस पिला रहे हैं, भक्तों को प्रेमसुधा पिलाई और खुद दावाग्निपान किया! श्रीभगवान की ऐसी लीला भक्त समझ भी कैसे सकें? वास्तव में तो श्रीकृष्ण की ऐसी विरोधभासिता में ही उनके पूर्णवतारत्व का रहस्य छिपा है। 

सर्वदा भयानक बनी रही परिस्थितियों में भी कृष्ण एक क्षण को शोकाकुल नहीं हुए, बल्कि विनोद का एक अवसर नहीं छोड़ते। ग्वालों के साथ बंसी बजा रहे हैं, गोप-गोपियाँ सब भूलकर नृत्य करते, जब समीप कृष्ण हैं तो और किसका ख्याल रहे? बंदरों पर मक्खन लुटा रहे, मट्टी खाकर माँ को छकाते हैं, छकड़ियों से माखन के मटके उल्टाए जाते, उखल में बंधकर यमलार्जुन का उद्धार किया, फलवाली दो तीन दाने धान के पाकर सब कुछ पा गयी है, अर्जुन के साथ सैर सपाटे का आनन्द लूटा जा रहा है। 

भगवान की लीलाओं पर आक्षेप करके अपने दुराचार साधने वाले नराकृति परब्रह्म स्वराट पुरुष श्रीकृष्ण की लीलाओं का रहस्य नहीं समझते। उनका सम्पूर्ण चरित्र शुद्ध सात्विक है, रज और तम गुण उन्हें छू भी नहीं गए हैं। जहाँ राजा महाराजाओं के बीच वे अग्रपूजा के लिए चुने जाते हैं वहीं युधिष्ठिर के यज्ञ में वे आगन्तुकों के पैर धोते और झूठन उठाते हैं, ऐसी निराभिमानिता कहीं और नहीं मिलती। सारा गोकुल जिनपर मरा जाता है, वहाँ एक बार निकलने के बाद वे झांकते भी नहीं, इसीसे उनकी निर्लिप्तता स्वतः सिद्ध है। भगवान श्री राम ने जहां साक्षात् पिता की साक्षात् आज्ञा से राज्य त्यागा, वहीं कंस को मारने पर श्री कृष्ण मथुरा का राज्य इसलिए ग्रहण नहीं करते क्योंकि उनके पुरखे यदु से महाराज ययाति ने मथुरा का राज्याधिकार छीन लिया है, पुरखे की परोक्ष आज्ञा का स्मरण कर राज्य ठुकरा दिया, अब उनको विलासी कहने वालों को क्या कहें? अपने व्यभिचार को छिपाने के लिए उन्हें रसिया छलिया कहने वाले उस द्रौपदी की कथा को ताक पर रख देते हैं जो सारे संसार में केवल कृष्ण को पुकारती है और कृष्ण ही उसकी लाज बचाते हैं। नरकासुर की कैद से 16100 कन्याओं को मुक्त कराया, उन परित्यक्ताओं को अपनी भार्या का स्थान दिया, प्रत्येक के लिए स्वयं 16100 रूपों में अभिव्यक्त होकर विवाह किया, प्रत्येक रानी के लिए दिव्य सामग्रियों से परिपूर्ण पृथक पृथक महल प्रकट किए। स्त्रीरक्षा का ऐसा महानतम उदाहरण प्रस्तुत करने वाले श्रीकृष्ण पर आक्षेप करने वालों की बुद्धि में ही दोष कहा जा सकता है। 

वास्तव में तो श्वेताशवतरोपनिषद श्रुति अनुसार परमपुरुष भगवान श्रीकृष्ण ही निखिलात्माओं के पति होने के कारण परमपति हैं। संसार के सब जीव उनके आगे स्त्री हैं क्योंकि एकमात्र वही सबके रक्षक और पालक होने से पतियों के भी पति एकमात्र पुरुष हैं। पर कृष्णलीलाएं सबके समझ नहीं आतीं, यह भी उनकी एक लीला ही है। उनकी लीलाओं में छिपे धर्मतत्व को न समझने वालों को भी भगवान ने ही उत्तर दे दिया, परीक्षित जब मृत पैदा हुए तो भगवान ने अपना धर्म आधार करते हुए कहा, "यदि मैंने धर्म और सत्य का कभी अतिक्रमण न किया हो तो यह बालक जी उठे", अब इसके बाद क्या कहना शेष है?

इसी महावीर योद्धा ने संसार में अनन्त अथाह प्रेमसरिता भी प्रवाहित की। जैसी प्रेम की नदी श्रीकृष्ण ने बहाई वैसा प्रवाह गंगा भी कभी नहीं पा सकीं। श्रीकृष्ण 'रसो वै सः' हैं, 'सर्व सौंदर्य निलय' हैं। जन्म के दिन से सब उनके दीवाने हैं। चम्पूकार ने कहा कि "जब भगवान का प्रगटन हुआ तो पृथ्वीदेवी, उस प्रियतमा पत्नी की तरह, जिसका पति बहुत समय बाद निकट आया हो, हर्ष की अधिकता से स्थूल हो गई।" श्रीकृष्ण के प्रेम ने सारे संसार को आच्छादित कर लिया। नन्हे कन्हैया अपनी प्यारी गैयाओं के पास भर जाते हैं तो थनों से दूध स्वतः छूट रहा है, दुग्धस्नान हुआ जाता है। पौधों के पास गए तो कलियाँ सुन्दर पुष्प बन इठलाती हैं। लताएं इस आशा में सुशोभित हैं कि गोपाल का पटका ही बन जाएंगी। मनुष्य ही नहीं सारे पशु पक्षियों में माधव की मादकता छाई है, कृष्ण का तो नाम ही 'चितचोर' है। असल में क्षत्रु भी क्षणभर को उनके प्रेम में आसन्न हो जाते हैं। सोने चांदी की थालियों में सजे राजमहलों के व्यंजन त्यागकर कृष्ण विदुरपत्नी के दिए केले के छिलकों में सन्तुष्ट हैं, काकी की दृष्टि मुखारविन्द पर अटकी है, वे केवल भाव के भूखे हैं। गोपांगनाओं की इच्छा को पूर्ण करने के लिए श्रीभगवान ने महारसमयी महारासलीला रचाई, जितनी गोपी उतने श्रीकृष्ण, गोपियों को महाभाव की प्राप्ति हुई। श्रीराधारानी वृषभानुनान्दिनी और श्रीकृष्णचन्द्र नंदनंदन का सम्बन्ध सर्वथा अकाट्य, लोकोत्तर वस्तु है।  श्रीराधारकृष्ण क्या हैं? दोनों-दोनों के भाव स्वरूप और दोनों-दोनों के रस स्वरूप हैं। श्रीराधारानी के भाव स्वरूप और रस स्वरूप हैं श्रीकृष्ण और श्रीकृष्णचन्द्र के भावस्वरूप-रसस्वरूप हैं श्री राधारानी। वल्लभाचार्य के शब्दों में। 

क्या संसार में आजतक कोई ऐसा जीव हुआ जिसको दुःख का स्पर्श भी न हुआ हो? जो सब लौकिक सुख भोगते हुए भी पूर्ण कर्तव्यनिष्ठ हो? संसार में लिप्त दिखकर भी आत्मनिष्ठ हो? दिव्य लोकोत्तर कर्मों द्वारा जो सारे जगत का तारणहार बना हुआ भी चिंता से दूर रहे? निःसन्देह ये पूर्ण पुरुषोत्तम श्रीभगवान के लक्षण हैं, जीवकोटि के पूर्णतः बाहर की बातें हैं। नराकृति परब्रह्म स्वराट पुरुष परमानंदघन भगवान् श्रीकृष्ण ही इस जगत के एकछत्र निरंकुश स्वामी हैं।  

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।
ज्ञानवैराग्ययोगश्चैव षष्णाम् भग इतीरणा।।
वैराग्यं ज्ञानमेश्वर्यं धर्मश्चेत्यात्मबुद्धयः।
बुद्धमः श्रीर्यशश्चैते षड वै भगवतो भगाः।।
इन सब लक्षणों की समग्रता भी श्री भगवान के लिए कम ही है।

अधिष्ठानभूत ब्रह्म श्री कृष्ण के लिए भगवान आद्य शंकराचार्य कहते है -
भूतेष्वन्तर्यामी ज्ञानमयः सच्चिदानन्दः। 
प्रकृतेः परः परात्मा यदुकुलतिलकः स एवायम्।।
जो ज्ञानस्वरूप, सच्चिदानन्द, प्रकृति से परे परमात्मा सब भूतों में अन्तर्यामी रूप से स्थित है, यह यदुकूल भूषण श्रीकृष्ण वही तो हैं।

आज भी सब संसार में सबसे अधिक प्रेम मनुष्यों का श्रीकृष्ण पर ही देखा जाता है, इहलोक और परलोक की हर श्रेणी में श्रीभगवान के भक्तों की जितनी संख्या है उतनी अन्य किसी की नहीं। जो जिस श्रेणी का है, अपने ही तरीके से भगवान को प्रसन्न करने में लगा है। संसार में मनुष्य ही नहीं पशु, पक्षी, लता, वृक्ष, पत्थर, पहाड़, नदियाँ, और ताल सभी के सभी माधव के स्तवन में मोहितचित्त हैं। सारा चर-अचर, दृश्य-अदृश्य जगत उन्हीं चितचोर के आकर्षण पाश में बंधा हुआ है। वे अचिन्त्य मोहन हमें अपनी अहैतुकी भक्ति देने की कृपा करें..

हमारे सत्य सनातन वैदिक धर्म के प्रखर दीप्त-प्रभाकर सर्वान्तरात्मा भगवान परात्पर परब्रह्म श्रीकृष्णचंद्र परमानंदकंद श्यामसुन्दर मदनमोहन व्रजेंद्रनंदन के प्राकट्यदिवस की सभी प्रभुभक्तों को हार्दिक शुभकामनाएं.. जय श्री कृष्ण.. जय गोविंद।  
✍🏻मुदित अग्रवाल
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जिहाद - मुंशी प्रेमचंद

Posted: 31 Aug 2021 11:07 PM PDT

जिहाद - मुंशी प्रेमचंद 

बहुत पुरानी बात है। हिंदुओं का एक काफ़िला अपने धर्म की रक्षा के लिए पश्चिमोत्तर के पर्वत-प्रदेश से भागा चला आ रहा था।
मुद्दतों से उस प्रांत में हिंदू और मुसलमान साथ-साथ रहते चले आये थे। धार्मिक द्वेष का नाम न था। पठानों के जिरगे हमेशा लड़ते रहते थे। उनकी तलवारों पर कभी जंग न लगने पाता था। बात-बात पर उनके दल संगठित हो जाते थे। शासन की कोई व्यवस्था न थी। हर एक जिरगे और कबीले की व्यवस्था अलग थी। आपस के झगड़ों को निपटाने का भी तलवार के सिवा और कोई साधन न था। जान का बदला जान था, खून का बदला खून; इस नियम में कोई अपवाद न था। यही उनका धर्म था, यही ईमान; मगर उस भीषण रक्तपात में भी हिंदू परिवार शांति से जीवन व्यतीत करते थे।

पर एक महीने से देश की हालत बदल गयी है। एक मुल्ला ने न जाने कहाँ से आ कर अनपढ़ धर्मशून्य पठानों में धर्म का भाव जागृत कर दिया है। उसकी वाणी में कोई ऐसी मोहिनी है कि बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुष खिंचे चले आते हैं।
वह शेरों की तरह गरज कर कहता है-खुदा ने तुम्हें इसलिए पैदा किया है कि दुनिया को इस्लाम की रोशनी से रोशन कर दो, दुनिया से कुफ्र का निशान मिटा दो। एक काफिर के दिल को इस्लाम के उजाले से रोशनी कर देने का सवाब सारी उम्र के रोजे, नमाज और जकात से कहीं ज्यादा है। जन्नत की हूरें तुम्हारी बलाएँ लेंगी और फरिश्ते तुम्हारे कदमों की खाक माथे पर मलेंगे, खुदा तुम्हारी पेशानी पर बोसे देगा।

और सारी जनता यह आवाज सुन कर मजहब के नारों से मतवाली हो जाती है। उसी धार्मिक उत्तेजना ने कुफ्र और इस्लाम का भेद उत्पन्न कर दिया है। प्रत्येक पठान जन्नत का सुख भोगने के लिए अधीर हो उठा है। उन्हीं हिंदुओं पर जो सदियों से शांति के साथ रहते थे, हमले होने लगे हैं। कहीं उनके मंदिर ढाये जाते हैं, कहीं उनके देवताओं को गालियाँ दी जाती हैं। कहीं उन्हें जबरदस्ती इस्लाम की दीक्षा दी जाती है। हिंदू संख्या में कम हैं, असंगठित हैं; बिखरे हुए हैं, इस नयी परिस्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं। उनके हाथ-पाँव फूले हुए हैं, कितने ही तो अपनी जमा-जथा छोड़ कर भाग खड़े हुए हैं, कुछ इस आँधी के शांत हो जाने का अवसर देख रहे हैं। यह काफिला भी उन्हीं भागनेवालों में था।

दोपहर का समय था। आसमान से आग बरस रही थी। पहाड़ों से ज्वाला-सी निकल रही थी। वृक्ष का कहीं नाम न था। ये लोग राज-पथ से हटे हुए, पेचीदा औघट रास्तों से चले आ रहे थे। पग-पग पर पकड़ लिये जाने का खटका लगा हुआ था। यहाँ तक कि भूख, प्यास और ताप से विकल होकर अंत को लोग एक उभरी हुई शिला की छाँह में विश्राम करने लगे। सहसा कुछ दूर पर एक कुआँ नजर आया। वहीं डेरे डाल दिये। भय लगा हुआ था कि जिहादियों का कोई दल पीछे से न आ रहा हो।

दो युवकों ने बंदूक भर कर कंधे पर रखीं और चारों तरफ गश्त करने लगे। बूढ़े कम्बल बिछा कर कमर सीधी करने लगे। स्त्रियाँ बालकों को गोद से उतार कर माथे का पसीना पोंछने और बिखरे हुए केशों को सँभालने लगीं। सभी के चेहरे मुरझाये हुए थे। सभी चिंता और भय से त्रास्त हो रहे थे, यहाँ तक कि बच्चे भी जोर से न रोते थे।

दोनों युवकों में एक लम्बा, गठीला रूपवान है। उसकी आँखों से अभिमान की रेखाएँ-सी निकल रही हैं, मानो वह अपने सामने किसी की हकीकत नहीं समझता, मानो उसकी एक-एक गत पर आकाश के देवता जयघोष कर रहे हैं। दूसरा कद का दुबला-पतला, रूपहीन-सा आदमी है, जिसके चेहरे से दीनता झलक रही है, मानो उसके लिए संसार में कोई आशा नहीं, मानो वह दीपक की भाँति रो-रो कर जीवन व्यतीत करने ही के लिए बनाया गया है। उसका नाम धर्मदास है; इसका ख़ज़ाँचन्द।

धर्मदास ने बंदूक को जमीन पर टिका कर एक चट्टान पर बैठते हुए कहा-तुमने अपने लिए क्या सोचा? कोई लाख-सवा लाख की सम्पत्ति रही होगी तुम्हारी ?

ख़ज़ाँचंद ने उदासीन भाव से उत्तर दिया-लाख-सवा लाख की तो नहीं,
हाँ, पचास-साठ हजार तो नकद ही थे।
'तो अब क्या करोगे ?'
'जो कुछ सिर पर आयेगा, झेलूँगा ! रावलपिंडी में दो-चार सम्बन्धी हैं, शायद कुछ मदद करें।
तुमने क्या सोचा है ?'
'मुझे क्या गम ! अपने दोनों हाथ अपने साथ हैं। वहाँ इन्हीं का सहारा था, आगे भी इन्हीं का सहारा है।'
'आज और कुशल से बीत जाये तो फिर कोई भय नहीं।'
'मैं तो मना रहा हूँ कि एकाध शिकार मिल जाय। एक दरजन भी आ जायँ तो भून कर रख दूँ।'

इतने में चट्टानों के नीचे से एक युवती हाथ में लोटा-डोर लिये निकली और सामने कुएँ की ओर चली। प्रभात की सुनहरी, मधुर, अरुणिमा मूर्तिमान हो गयी थी।

धर्मदास पानी लेकर लौट ही रहा था कि उसे पश्चिम की ओर से कई आदमी घोड़ों पर सवार आते दिखायी दिये। जरा और समीप आने पर मालूम हुआ कि कुल पाँच आदमी हैं। उनकी बंदूक की नलियाँ धूप में साफ चमक रही थीं। धर्मदास पानी लिये हुए दौड़ा कि कहीं रास्ते ही में सवार उसे न पकड़ लें लेकिन कंधे पर बंदूक और एक हाथ में लोटा-डोर लिये वह बहुत तेज न दौड़ सकता था। फासला दो सौ गज से कम न था। रास्ते में पत्थरों के ढेर टूटे-फूटे पड़े हुए थे। भय होता था कि कहीं ठोकर न लग जाय, कहीं पैर न फिसल जायँ। इधर सवार प्रतिक्षण समीप होते जाते थे। अरबी घोड़ों से उसका मुकाबला ही क्या, उस पर मंजिलों का धावा हुआ। मुश्किल से पचास कदम गया होगा कि सवार उसके सिर पर आ पहुँचे और तुरंत उसे घेर लिया। धर्मदास बड़ा साहसी था; पर मृत्यु को सामने खड़ी देख कर उसकी आँखों में अँधेरा छा गया, उसके हाथ से बंदूक छूट कर गिर पड़ी। पाँचों उसी के गाँव के महसूदी पठान थे। एक पठान ने कहा-उड़ा दो सिर मरदूद का। दग़ाबाज़ काफिर।

दूसरा-नहीं नहीं, ठहरो, अगर यह इस वक्त भी इस्लाम कबूल कर ले, तो हम इसे मुआफ कर सकते हैं। क्यों धर्मदास, तुम्हें इस दग़ा की क्या सजा दी जाय ? हमने तुम्हें रात-भर का वक्त फैसला करने के लिए दिया था। मगर तुम इसी वक्त जहन्नुम पहुँचा दिये जाओ; लेकिन हम तुम्हें फिर मौका देते हैं। यह आखिरी मौका है। अगर तुमने अब भी इस्लाम न कबूल किया, तो तुम्हें दिन की रोशनी देखनी नसीब न होगी।

धर्मदास ने हिचकिचाते हुए कहा-जिस बात को अक्ल नहीं मानती, उसे कैसे …
पहले सवार ने आवेश में आकर कहा-मजहब को अक्ल से कोई वास्ता नहीं।
तीसरा-कुफ्र है ! कुफ्र है !

पहला- उड़ा दो सिर मरदूद का, धुआँ इस पार।
दूसरा-ठहरो-ठहरो, मार डालना मुश्किल नहीं, जिला लेना मुश्किल है। तुम्हारे और साथी कहाँ हैं धर्मदास ?
धर्मदास-सब मेरे साथ ही हैं।

दूसरा-कलामे शरीफ़ की कसम; अगर तुम सब खुदा और उनके रसूल पर ईमान लाओ, तो कोई तुम्हें तेज निगाहों से देख भी न सकेगा।
धर्मदास-आप लोग सोचने के लिए और कुछ मौका न देंगे।
इस पर चारों सवार चिल्ला उठे-नहीं, नहीं, हम तुम्हें न जाने देंगे, यह आखिरी मौका है।
इतना कहते ही पहले सवार ने बंदूक छतिया ली और नली धर्मदास की छाती की ओर करके बोला-बस बोलो, क्या मंजूर है ?

धर्मदास सिर से पैर तक काँप कर बोला-अगर मैं इस्लाम कबूल कर लूँ तो मेरे साथियों को तो कोई तकलीफ न दी जायेगी ?
दूसरा-हाँ, अगर तुम जमानत करो कि वे भी इस्लाम कबूल कर लेंगे।
पहला-हम इस शर्त को नहीं मानते। तुम्हारे साथियों से हम खुद निपट लेंगे। तुम अपनी कहो। क्या चाहते हो ? हाँ या नहीं ?
धर्मदास ने जहर का घूँट पी कर कहा-मैं खुदा पर ईमान लाता हूँ।
पाँचों ने एक स्वर से कहा-अलहमद व लिल्लाह ! और बारी-बारी से धर्मदास को गले लगाया।
श्यामा हृदय को दोनों हाथों से थामे यह दृश्य देख रही थी। वह मन में पछता रही थी कि मैंने क्यों इन्हें पानी लाने भेजा ? अगर मालूम होता कि विधि यों धोखा देगा, तो मैं प्यासों मर जाती, पर इन्हें न जाने देती। श्यामा से कुछ दूर ख़ज़ाँचंद भी खड़ा था। श्यामा ने उसकी ओर क्षुब्ध नेत्रों से देख कर कहा- अब इनकी जान बचती नहीं मालूम होती।

ख़ज़ाँचंद-बंदूक भी हाथ से छूट पड़ी है।
श्यामा-न जाने क्या बातें हो रही हैं। अरे गजब ! दुष्ट ने उनकी ओर बंदूक तानी है !
ख़ज़ाँ.-जरा और समीप आ जायँ, तो मैं बंदूक चलाऊँ। इतनी दूर की मार इसमें नहीं है।
श्यामा-अरे ! देखो, वे सब धर्मदास को गले लगा रहे हैं। यह माजरा क्या है ?
ख़ज़ाँ.-कुछ समझ में नहीं आता।
श्यामा-कहीं इसने कलमा तो नहीं पढ़ लिया ?
ख़ज़ाँ.-नहीं, ऐसा क्या होगा, धर्मदास से मुझे ऐसी आशा नहीं है।
श्यामा-मैं समझ गयी। ठीक यही बात है। बंदूक चलाओ।
ख़ज़ाँ.-धर्मदास बीच में हैं। कहीं उन्हें न लग जाय।
श्यामा-कोई हर्ज नहीं। मैं चाहती हूँ, पहला निशाना धर्मदास ही पर पड़े। कायर ! निर्लज्ज ! प्राणों के लिए धर्म त्याग किया। ऐसी बेहयाई की जिंदगी से मर जाना कहीं अच्छा है। क्या सोचते हो। क्या तुम्हारे भी हाथ-पाँव फूल गये। लाओ, बंदूक मुझे दे दो। मैं इस कायर को अपने हाथों से मारूँगी।
ख़ज़ाँ.-मुझे तो विश्वास नहीं होता कि धर्मदास …

श्यामा-तुम्हें कभी विश्वास न आयेगा। लाओ, बंदूक मुझे दो। खडे़ क्या ताकते हो ? क्या जब वे सिर पर आ जायँगे, तब बंदूक चलाओ? क्या तुम्हें भी यह मंजूर है कि मुसलमान हो कर जान बचाओ ? अच्छी बात है, जाओ। श्यामा अपनी रक्षा आप कर सकती है; मगर उसे अब मुँह न दिखाना।

ख़ज़ाँचंद ने बंदूक चलायी। एक सवार की पगड़ी को उड़ाती हुई निकल गयी। जिहादियों ने 'अल्लाहो अकबर !' की हाँक लगायी। दूसरी गोली चली और घोड़े की छाती पर बैठी। घोड़ा वहीं गिर पड़ा। जिहादियों ने फिर 'अल्लाहो अकबर !' की सदा लगायी और आगे बढ़े। तीसरी गोली आयी। एक पठान लोट गया; पर इसके पहले कि चौथी गोली छूटे, पठान ख़ज़ाँचंद के सिर पर पहुँच गये और बंदूक उसके हाथ से छीन ली।

एक सवार ने ख़ज़ाँचंद की ओर बंदूक तान कर कहा-उड़ा दूँ सिर मरदूद का, इससे खून का बदला लेना है।
दूसरे सवार ने जो इनका सरदार मालूम होता था, कहा-नहीं-नहीं, यह दिलेर आदमी है। ख़ज़ाँचंद, तुम्हारे ऊपर दगा, खून और कुफ्र, ये तीन इल्ज़ाम हैं, और तुम्हें कत्ल कर देना ऐन सवाब है, लेकिन हम तुम्हें एक मौका और देते हैं। अगर तुम अब भी खुदा और रसूल पर ईमान लाओ, तो हम तुम्हें सीने से लगाने को तैयार हैं। इसके सिवा तुम्हारे गुनाहों का और कोई कफारा (प्रायश्चित्त) नहीं है। यह हमारा आखिरी फैसला है। बोलो, क्या मंजूर है ?
चारों पठानों ने कमर से तलवारें निकाल लीं, और उन्हें ख़ज़ाँचंद के सिर पर तान दिया मानो 'नहीं' का शब्द मुँह से निकलते ही चारों तलवारें उसकी गर्दन पर चल जायँगी !

ख़ज़ाँचंद का मुखमंडल विलक्षण तेज से आलोकित हो उठा। उसकी दोनों आँखें स्वर्गीय ज्योति से चमकने लगीं। दृढ़ता से बोला-तुम एक हिन्दू से यह प्रश्न कर रहे हो ? क्या तुम समझते हो कि जान के खौफ से वह अपना ईमान बेच डालेगा ? हिंदू को अपने ईश्वर तक पहुँचने के लिए किसी नबी, वली या पैगम्बर की जरूरत नहीं ! चारों पठानों ने कहा-काफिर ! काफिर !

ख़ज़ाँ.-अगर तुम मुझे काफिर समझते हो तो समझो। मैं अपने को तुमसे ज्यादा खुदापरस्त समझता हूँ। मैं उस धर्म को मानता हूँ, जिसकी बुनियाद अक्ल पर है। आदमी में अक्ल ही खुदा का नूर (प्रकाश) है और हमारा ईमान हमारी अक्ल …

चारों पठानों के मुँह से निकला 'काफिर ! काफिर !' और चारों तलवारें एक साथ ख़ज़ाँचंद की गर्दन पर गिर पड़ीं। लाश जमीन पर फड़कने लगी। धर्मदास सिर झुकाये खड़ा रहा। वह दिल में खुश था कि अब ख़ज़ाँचंद की सारी सम्पत्ति उसके हाथ लगेगी और वह श्यामा के साथ सुख से रहेगा; पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था। श्यामा अब तक मर्माहत-सी खड़ी यह दृश्य देख रही थी। ज्यों ही ख़ज़ाँचंद की लाश जमीन पर गिरी, वह झपट कर लाश के पास आयी और उसे गोद में लेकर आँचल से रक्त-प्रवाह को रोकने की चेष्टा करने लगी। उसके सारे कपड़े खून से तर हो गये। उसने बड़ी सुंदर बेल-बूटोंवाली साड़ियाँ पहनी होंगी, पर इस रक्त-रंजित साड़ी की शोभा अतुलनीय थी। बेल-बूटोंवाली साड़ियाँ रूप की शोभा बढ़ाती थीं, यह रक्त-रंजित साड़ी आत्मा की छवि दिखा रही थी।
ऐसा जान पड़ा मानो ख़ज़ाँचंद की बुझती आँखें एक अलौकिक ज्योति से प्रकाशमान हो गयी हैं। उन नेत्रों में कितना संतोष, कितनी तृप्ति, कितनी उत्कंठा भरी हुई थी। जीवन में जिसने प्रेम की भिक्षा भी न पायी, वह मरने पर उत्सर्ग जैसे स्वर्गीय रत्न का स्वामी बना हुआ था।

धर्मदास ने श्यामा का हाथ पकड़ कर कहा-श्यामा, होश में आओ, तुम्हारे सारे कपड़े खून से तर हो गये हैं। अब रोने से क्या हासिल होगा ? ये लोग हमारे मित्र हैं, हमें कोई कष्ट न देंगे। हम फिर अपने घर चलेंगे और जीवन के सुख भोगेंगे ?

श्यामा ने तिरस्कारपूर्ण नेत्रों से देख कर कहा-तुम्हें अपना घर बहुत प्यारा है, तो जाओ। मेरी चिंता मत करो, मैं अब न जाऊँगी। हाँ, अगर अब भी मुझसे कुछ प्रेम हो तो इन लोगों से इन्हीं तलवारों से मेरा भी अंत करा दो।

धर्मदास करुणा-कातर स्वर से बोला-श्यामा, यह तुम क्या कहती हो, तुम भूल गयीं कि हमसे-तुमसे क्या बातें हुई थीं ? मुझे खुद ख़ज़ाँचंद के मारे जाने का शोक है; पर भावी को कौन टाल सकता है ?

श्यामा-अगर यह भावी थी, तो यह भी भावी है कि मैं अपना अधम जीवन उस पवित्र आत्मा के शोक में काटूँ, जिसका मैंने सदैव निरादर किया। यह कहते-कहते श्यामा का शोकोद्गार, जो अब तक क्रोध और घृणा के नीचे दबा हुआ था, उबल पड़ा और वह ख़ज़ाँचंद के निस्पंद हाथों को अपने गले में डाल कर रोने लगी।

चारों पठान यह अलौकिक अनुराग और आत्म-समर्पण देख कर करुणार्द्र हो गये। सरदार ने धर्मदास से कहा-तुम इस पाकीजा खातून से कहो, हमारे साथ चले। हमारी जाति से इसे कोई तकलीफ न होगी। हम इसकी दिल से इज्जत करेंगे।

धर्मदास के हृदय में ईर्ष्या की आग धधक रही थी। वह रमणी, जिसे वह अपनी समझे बैठा था, इस वक्त उसका मुँह भी नहीं देखना चाहती थी। बोला-श्यामा, तुम चाहो इस लाश पर आँसुओं की नदी बहा दो, पर यह जिंदा न होगी। यहाँ से चलने की तैयारी करो। मैं साथ के और लोगों को भी जा कर समझाता हूँ। खान लोेग हमारी रक्षा करने का जिम्मा ले रहे हैं। हमारी जायदाद, जमीन, दौलत सब हमको मिल जायगी। ख़ज़ाँचंद की दोैलत के भी हमीं मालिक होंगे। अब देर न करो। रोने-धोने से अब कुछ हासिल नहीं।

श्यामा ने धर्मदास को आग्नेय नेत्रों से देख कर कहा-और इस वापसी की कीमत क्या देनी होगी ? वही जो तुमने दी है?

धर्मदास यह व्यंग्य न समझ सका। बोला-मैंने तो कोई कीमत नहीं दी। मेरे पास था ही क्या ?

श्यामा-ऐसा न कहो। तुम्हारे पास वह खजाना था, जो तुम्हें आज कई लाख वर्ष हुए ऋषियों ने प्रदान किया था। जिसकी रक्षा रघु और मनु, राम और कृष्ण, बुद्ध और शंकर, शिवाजी और गोविंदसिंह ने की थी। उस अमूल्य भंडार को आज तुमने तुच्छ प्राणों के लिए खो दिया। इन पाँवों पर लोटना तुम्हें मुबारक हो! तुम शौक से जाओ। जिन तलवारों ने वीर ख़ज़ाँचंद के जीवन का अंत किया, उन्होंने मेरे प्रेम का भी फैसला कर दिया। जीवन में इस वीरात्मा का मैंने जो निरादर और अपमान किया, इसके साथ जो उदासीनता दिखायी उसका अब मरने के बाद प्रायश्चित्त करूँगी। यह धर्म पर मरने वाला वीर था, धर्म को बेचनेवाला कायर नहीं ! अगर तुममें अब भी कुछ शर्म और हया है, तो इसका क्रिया-कर्म करने में मेरी मदद करो और यदि तुम्हारे स्वामियों को यह भी पसंद न हो, तो रहने दो, मैं सब कुछ कर लूँगी।

पठानों के हृदय दर्द से तड़प उठे। धर्मान्धता का प्रकोप शांत हो गया। देखते-देखते वहाँ लकड़ियों का ढेर लग गया। धर्मदास ग्लानि से सिर झुकाये बैठा था और चारों पठान लकड़ियाँ काट रहे थे। चिता तैयार हुई और जिन निर्दय हाथों ने ख़ज़ाँचंद की जान ली थी उन्हीं ने उसके शव को चिता पर रखा। ज्वाला प्रचंड हुई। अग्निदेव अपने अग्निमुख से उस धर्मवीर का यश गा रहे थे।

पठानों ने ख़ज़ाँचंद की सारी जंगम सम्पत्ति ला कर श्यामा को दे दी। श्यामा ने वहीं पर एक छोटा-सा मकान बनवाया और वीर ख़ज़ाँचंद की उपासना में जीवन के दिन काटने लगी। उसकी वृद्धा बुआ तो उसके साथ रह गयी, और सब लोग पठानों के साथ लौट गये, क्योंकि अब मुसलमान होने की शर्त न थी। ख़ज़ाँचंद के बलिदान ने धर्म के भूत को परास्त कर दिया। मगर धर्मदास को पठानों ने इस्लाम की दीक्षा लेने पर मजबूर किया। एक दिन नियत किया गया। मसजिद में मुल्लाओं का मेला लगा और लोग धर्मदास को उसके घर से बुलाने आये; पर उसका वहाँ पता न था। चारों तरफ तलाश हुई। कहीं निशान न मिला।

साल-भर गुजर गया। संध्या का समय था। श्यामा अपने झोंपड़े के सामने बैठी भविष्य की मधुर कल्पनाओं में मग्न थी। अतीत उसके लिए दुःख से भरा हुआ था। वर्तमान केवल एक निराशामय स्वप्न था। सारी अभिलाषाएँ भविष्य पर अवलम्बित थीं। और भविष्य भी वह, जिसका इस जीवन से कोई सम्बन्ध न था ! आकाश पर लालिमा छायी हुई थी। सामने की पर्वतमाला स्वर्णमयी शांति के आवरण से ढकी हुई थी। वृक्षों की काँपती हुई पत्तियों से सरसराहट की आवाज निकल रही थी, मानो कोई वियोगी आत्मा पत्तियों पर बैठी हुई सिसकियाँ भर रही हो।

उसी वक्त एक भिखारी फटे हुए कपड़े पहने झोंपड़ी के सामने खड़ा हो गया। कुत्ता जोर से भूँक उठा। श्यामा ने चौंक कर देखा और चिल्ला उठी-धर्मदास !

धर्मदास ने वहीं जमीन पर बैठते हुए कहा-हाँ श्यामा, मैं अभागा धर्मदास ही हूँ। साल-भर से मारा-मारा फिर रहा हूँ। मुझे खोज निकालने के लिए इनाम रख दिया गया है। सारा प्रांत मेरे पीछे पड़ा हुआ है। इस जीवन से अब ऊब उठा हूँ; पर मौत भी नहीं आती।

धर्मदास एक क्षण के लिए चुप हो गया। फिर बोला-क्यों श्यामा, क्या अभी तुम्हारा हृदय मेरी तरफ से साफ नहीं हुआ! तुमने मेरा अपराध क्षमा नहीं किया !
श्यामा ने उदासीन भाव से कहा-मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी।
'मैं अब भी हिंदू हूँ। मैंने इस्लाम नहीं कबूल किया है।'
'जानती हूँ !'
'यह जान कर भी तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती !'

श्यामा ने कठोर नेत्रों से देखा और उत्तेजित होकर बोली-तुम्हें अपने मुँह से ऐसी बातें निकालते शर्म नहीं आती ! मैं उस धर्मवीर की ब्याहता हूँ, जिसने हिंदू-जाति का मुख उज्ज्वल किया है। तुम समझते हो कि वह मर गया ! यह तुम्हारा भ्रम है। वह अमर है। मैं इस समय भी उसे स्वर्ग में बैठा देख रही हूँ। तुमने हिंदू-जाति को कलंकित किया है। मेरे सामने से दूर हो जाओ।

धर्मदास ने कुछ जवाब न दिया ! चुपके से उठा, एक लम्बी साँस ली और एक तरफ चल दिया।
प्रातःकाल श्यामा पानी भरने जा रही थी, तब उसने रास्ते में एक लाश पड़ी हुई देखी। दो-चार गिद्ध उस पर मँडरा रहे थे। उसका हृदय धड़कने लगा। समीप जा कर देखा और पहचान गयी। यह धर्मदास की लाश थी।

साभार -मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित कहानी जिहाद. ..
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जालियां वाला बाग़ आंदोलन कांग्रेस का आंदोलन था ही नहीं।

Posted: 31 Aug 2021 11:00 PM PDT

जालियां वाला बाग़ आंदोलन कांग्रेस का आंदोलन था ही नहीं।

अभी हाल में ही जालियां वाला बाग़ काफी चर्चा में है। कांग्रेस के अघोषित अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने ट्वीट में कहा कि कांग्रेस देश की सरकार को जालियां वाला बाग़ के शहीदों को अपमानित नहीं करने देगी। अभी तक जो भी जानकारी पुस्तकों में भारतीयों को उपलब्ध कराई गई है उसके अनुसार जालियां वाला बाग़ की घटना कांग्रेस की अगुआई में लड़े गए  भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक पड़ाव था। वस्तुतः यह एक असत्य है जो जान बूझकर फैलाया गया था।   वस्तुतः जालियां वाला बाग़ आंदोलन कांग्रेस का आंदोलन था ही नहीं।         इस आंदोलन की शुरुआत होम रूल लीग की बाल गंगाधर तिलक और एनी बेसेंट द्वारा घोषणा के बाद हुई थी। पंजाब में ये विरोध प्रदर्शन प्लेटफार्म टिकट लगाने की योजना के बाद शुरू हुआ था। ऐसा ही एक विरोध प्रदर्शन दिल्ली में स्वामी श्रद्धानंद ने 9 अप्रैल 1919 रामनवमी के दिन अंग्रेज सरकार के विरुद्ध किया था। अंतिम प्रदर्शन 13 अप्रैल को बैसाखी के दिन जलियांवाला बाग में हुआ था जहां इस कत्लेआम को अंजाम दिया गया।  जालियां वाला बाग़ में निहत्थे लोगों का यह कत्ले आम 13 अप्रैल 1919 को हुआ था। इसकी खबर भी तब के टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार ने 14 अप्रैल के अपने अखबार में कुछ यूं छापा था -पंजाब के अमृतसर से प्राप्त समाचार के अनुसार सरकारी अमले पर भीड़ के द्वारा हिंसक हमला किया गया। विद्रोहियों को सेना ने खदेड़ दिया इस क्रम में विद्रोहियों के करीब दो सौ लोग हताहत हुए हैं। यूरोप के अखबारो में इसकी खबर 13 दिसंबर को मेनचेस्टर गार्डियन में छपी। आब्जर्वर अखबार ने इसे 14 दिसंबर को छापा। न्यू यॉर्क टाइम्स और हिंदुस्तान टाइम्स ने तो छापने की जरूरत ही नहीं समझी। यहां तक की गाँधीजी के खुद के अखबार नवजीवन ने इसे 24 दिसंबर को छापा। नवजीवन ने जनरल डायर का नाम भी पहली बार 14 दिसंबर 1919 को छापा था। इसके पहले गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने 31 मई 1919 को अपनी सर की उपाधि को अंग्रेजों के अत्याचारों और पंजाब के लोगों को अत्यधिक सज़ा के विरोध में छोड़ दिया था हालांकि उन्होंने भी जलियांवाला बाग कत्लेआम का जिक्र नहीं किया था।  ऐसा भी नहीं है कि ब्रितानी सरकार इस घटना के बाद लज्जित थी या उन्हें इस घटना पर कोई अफसोस था। ब्रिटिश सरकार ने दो भारतीयों चौधरी बग्गा मल और महाशय रतन चंद को इस घटना के लिए जिम्मेवार मानते हुए मृत्यु दंड दिया था। दोनों ने मोती लाल नेहरुजो उस समय देश के नामी अकील और अंग्रेजों के करीबी थे से प्राण रक्षा की गुहार लगाई। मोतीलाल नेहरू ने तत्कालीन वाइसराय चेलमस्फोर्ड से क्षमादान की अपील भी की पर कोई परिणाम न निकला। इन दोनों के लिए तब महामना मैदान मोहन मालवीय ने ,जो उस समय कांग्रेस के कद्दावर नेता थे और हिन्दू महासभा के सबसे बड़े नेता थे, दखल दिया और दोनों  की मौत की सज़ा को आजीवन कारावास में बदलवाने में सफल रहे। दोनों को सज़ा काटने के बाद 1936 में जेल से रिहा किया गया। हालांकि सनद रहे कि मोतीलाल नेहरू ने  जलियांवाला बाग नामक एक ट्रस्ट की स्थापना जरूर की और स्वयं इसके प्रमुख बने। लोगों ने इस ट्रस्ट को जम कर दान दिया। इस पैसे से इस ट्रस्ट ने जलियांवाला बाग की 6.27 एकड़ जमीन 37 भिन्न भिन्न जमीन मालिकों से सितंबर 9320 में रु 50 हज़ार में खरीद ली। 1951 तक ये ट्रस्ट ही जलियांवाला बाग मेमोरियल की देखभाल करता रहा जब इसके रख रखाव के लिए कानून बना। नेहरू ने कांग्रेस के अध्यक्ष के साथ मौलाना अबुल कलाम आजाद और सैफुद्दीन किचलू को इस ट्रस्ट के आजीवन सदस्य बन दिया। कलाम 1958 में और किचलू 1963 में काल कलवित हुए। नेहरू स्वयं 1964 में निष्प्राण हो गए पर इन लोगोंके बदले किसी को भी इस ट्रस्ट में नियुक्त नहीं किया गया। इस ट्रस्ट में कांग्रेस प्रमुख की भूमिका को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया गया था। कागजातों से पता लगता है कि इंदिरा गांधी इस ट्रस्ट के अध्यक्ष के रूप में इसके घोषणाओं पर हस्ताक्षर करती रहीं जबकि उस समय वे कांग्रेस की अध्यक्ष भी नहीं थीं। उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष बाबू जगजीवन राम थे जो कानून के अनुसार ट्रस्ट के पदेन अध्यक्ष थे। इस कानून की नियमावली को 2019 में लाये गए संसोधन के माध्यम से बदला गया और अब इसके अध्यक्ष पद पर कांग्रेस के अध्यक्ष का होना अमान्य कर दिया गया है। इसके बदले लोकसभा में विपक्ष के नेता को या अगर कोई नेता विपक्ष नामित न हो तो जो सबसे बडा विपक्षी दल है उसके नेता को सदस्य होने की अहर्ता दी गयी है। इसे पूरी तरह राजनीतिक ट्रस्ट बना दिया गया है। यही वो बदलाव है जो कांग्रेस के आक्रोश का कारण है। शनैः शनैः मगर मजबूती से भारतीयों पर हुए सभी छल कपट को यह सरकार दूर कर रही है। कांग्रेस के अध्यक्ष के सभी आय के स्रोतों को ये सरकार बंद कर रही है और संवैधानिक संस्थाओं को मजबूत कर रही है। ज्ञात हो कि वर्तमान में इस बाग के जीर्णोद्धार की काफी आवश्यकता थी। जिस कुएं में लोगों ने जान बचाने के लिए छलांग लगाई थी वो गुटके के रैपरों से भरा था। बाग की दीवार पर कुत्ते पेशाब करते थे। ये दीवार पूरी तरह जर्जर थी और गिरने की कगार पर थी। दृश्यावलोकन के नाम पर एक 20 इंच का टीवी था। निवर्तमान सरकार ने अब वहां जीर्णोद्धार के साथ साथ एक थिएटर भी बना दिया है ताकि पर्यटकों को जालियां वाला बाग की कहानी दृश्य और श्रव्य माध्यम से दिखाया जा सके। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरेंद्र सिंह ने भी भारत सरकार के इस कदम की सराहना की है और राहुल गांधी के आरोपों को दरकिनार कर दिया है। - संकलनकर्ता मनोज मिश्रा
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संस्कृत में शास्त्रार्थ परम्परा और गया

Posted: 31 Aug 2021 10:48 PM PDT

संस्कृत में शास्त्रार्थ परम्परा और गया

हिंन्दी के भारतेंदु युग के पूर्व से ही शास्त्रज्ञों‌ में शास्त्र चिंतन‌  और विमर्ष  के प्रति जागरूकता के‌साथ उत्साह रहा है। वैसै  यह‌ परंपरा ‌अति प्राचीन है।।इसका‌  उत्स  गुरुकुलों से सम्बद्ध है जहाँ  शिष्य कुलगुरू के ‌समक्ष  किसी‌ निर्धारित  विषय पर अपना-अपना मत प्रस्तुत करते थे‌‌ जिससे उनकी  मेधा ,तर्क शक्ति का विकास होता था।आधुनिक बहस,अथवा‌ वाद-विवाद को भी शास्त्रार्थ की तरह कह सकते है किंतु  शास्त्रार्थ  थोड़ा अलग‌ है । शास्त्रीय विषयों की पूर्वापर समीक्षा‌ का एक रूप है शास्त्रार्थ ।आर्ष कुल की इस परम्परा का एक रूप  भाषा और  साहित्य प्रेमी राजाओं के राज दरवार में भी मिलता‌ है जहाँ ऐसे शास्त्रीय विषय जिससे‌ प्रजा का हित जुड़ा‌ हो‌,   उस पर दरवार में विद्वान  शास्त्रियों के बीच  मत प्रस्तुत किए जाने की प्रक्रिया होती।इस प्रक्रिया मे दो‌ विद्वान ही अधिकृत  होते।उन में जो राजा‌ को अपने  तर्क से प्रभावित करते उन्हे अन्य के साथ भी शास्त्रार्थ करना होता।जब सभी परास्त हो जाते तब विजयी को‌श्रेष्ठ घोषित करते हुए प्रधान के रूप में  मान्यता  मिल जाती।दरवार में नवरत्नों की संकल्पना भी इसी का परिणाम रही होगी। 
महाराजा विक्रमादित्य से भोजराज तक तो यह अतिशय सम्मान्य रही।बौद्धो के अनाचार औरअविवेकिता को परास्त करने तथा अद्वैतवाद की स्थापन ना के लिए जगद्गगुरू आदिशंकराचचार्य को अनेक लोगों से शास्त्रार्थ करना पड़ा था। मडन ममिश्र के साथ उनके शास्त्रार्थ विख्यात ही  है ।अपभंश काल में इसकी थारा क्षीण हो गयी।जैसे -जैसे भाषा रूप बदलती‌है , लोक सरोकार भी बदलते‌ हैं। लेकिन परम्परा समाप्त नहीं होती।बाणभट्ट के जीवन काल में ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिसमें शास्त्रार्थ की बात आई है। श्रीहर्ष स्वयं विद्वान के ‌साथ कवि हृदय भी थे। उन्होंने बाणभट्ट के पाण्डित्य को परख कर ही अपने दरवार में स्थान दिया था  । दोनों की अंतरंगता ऐसी बढी कि उन्हें हर्षचरितम् लिखने का अवसर  मिल गया । संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान कवि भारवि की भी शास्त्रार्थ चर्चा खूब होती‌है।
बाणभट्ट  और मयूर भट्ट में भी शास्त्रार्थ हो,,, संभाषहा है। उन दोनों के बिहार में होने से यहाँ की भूमि अत्यन्त गौरवान्वित है। उसी परम्परा को आगे बढ़ा ते‌ हुए शाकद्वीपीय ब्राह्मण  पारिवारिक उत्सवो में भी शास्त्रार्थ का आयोजन करने लगे। खास कर    विवाह के अवसर पर तो अवश्य।
‌पाठशालाओं में संस्कृत संवाद के साथ विषय के गहन अध्ययन के प्रति  रुचि बढ़ाने का साधन  भी था शास्त्रार्थ। यदि विषय का अध्ययन नहीं है त पराजय निश्चित है।इसके क ई मानक तत्व ध्यातव्य हैं।जैसे,संभाषण में स्प्ष्ट प्रवाह,विषय की समझ और शब्द भण्डार, ंसंकोच का अभाव, प्रभावित करने की क्षमता, द्बतीय पक्ष के कथन को सप्रमाण खंडित करने की मेधा।।इनसे अच्छे विद्वान  भी अवाक् हो जाते हैं।
‌एक बार आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री जब मात्र मध्यमा केविद्यार्थी थे तब अपनी बहन के व्याह में एक उम्म्रदराज पंडितजी  को  शास्त्रार्थ में परास्त कर दिया था, जिससे क्रुद्ध हो कर इन के पिताने ही बहुत डाँटा ,  किंतु  पराजित पंडित जी ने ही  बचाव किया था। प्राचीन  शास्त्रार्थियों 
‌ में पण्डित देवदत्त  मिश्रजी का नाम बहुत आदर पूर्वक लिया जाता है।ज जिस वर पक्ष अथवा कन्या पक्ष की  ओर से रहते दूसरे पक्ष में  चिंता हो जाती।इतने बड़े विद्वान के साथ कौन भिडे़।ऐसी जनश्रुति है कि उनके हाथ में ताड़ का पंखा रहता था। शास्त्रार्थ के क्रम में प्रतिपक्ष के निकट पहुँच जाते और पंखा चलाने भी लडते।संभव है यह भी कारण रहा हो जिससे लोघ डरते  होंं। गया  पंड़ित   और पांडित्य की  भूमि  रही हँ।पं  प्रसिद्ध नारायण मिश्र, ं सिंहेश्वर मिश्र, पं वंशीथर मिश्र ,आचार्य पं चन्द्रशेखर मिश्र,,पं गणैश दत्त मिश्र, व्याखरणावतार  पं जगन्नाथ पाठक,पं  राम लखण पाठक,, पं राम लखन मिश्र, पं  गोपाल मिश्र, पं  रामावतार मिश्र, पं शंकर दत्त  वैद्य,जैसै उदभट   विद्वान शास्त्रार्थ महारथी  अनेक हुए।।
‌यद्पपि यह परम्परा  केवल मग  ब्राह्मणों तक ही   सीनित रही।
‌अब इसमे भी  ऐसी गिरावठ  हुई कि शास्त्रार्थ तो दूर  संस्कृत ंंसंभाषण का भी टोटा हो गया जबकि अन्य स्थानो से संस्कृत के प्रति श्रद्धा के साथ प्रसारण  संबर्धन कार्य  प्रशंसनीय है।रामकृष्ण
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मथुरा-वृंदावन सहित उत्तर प्रदेश के तीर्थक्षेत्रों में मद्य-मांस पर प्रतिबंध का निर्णय लेनेवाली उत्तर प्रदेश की ‘योगी सरकार’ का अभिनंदन !

Posted: 31 Aug 2021 10:36 PM PDT

मथुरा-वृंदावन सहित उत्तर प्रदेश के तीर्थक्षेत्रों में मद्य-मांस 
पर प्रतिबंध का निर्णय लेनेवाली उत्तर प्रदेश की 'योगी सरकार' का अभिनंदन !

उत्तर प्रदेश की भांति पूरे देश के तीर्थक्षेत्रों में मद्य-मांस पर प्रतिबंध लगाया जाए ! - हिन्दू जनजागृति समिति
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथजी ने श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर मथुरा-वृंदावन सहित उत्तर प्रदेश के अन्य तीर्थक्षेत्रों में मद्य-मास के ब्रिकी पर पूर्णत: प्रतिबंध लगाने की घोषणा की है । 'योगी सरकार' का यह निर्णय अत्यंत सराहनीय है, हिन्दू जनजागृति समिति इसका स्वागत करती है ! इसके पूर्व हरिद्वार तीर्थक्षेत्र में भी इसी प्रकार
का निर्णय लिया गया है । सभी साधु संतों की यह बहुत पुरानी मांग थी । तीर्थक्षेत्र तथा धार्मिक क्षेत्रों की पवित्रता बनाए रखने के लिए मद्य-मास पर पूर्णत: प्रतिबंध आवश्यक है । यह आस्था की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । केवल उत्तर प्रदेश में ही नही; अपितु संपूर्ण भारत के सभी तीर्थक्षेत्र तथा धार्मिक स्थलों में मद्य-मास पर पूर्णता: प्रतिबंध लगाया जाए, यह मांग हिन्दू जनजागृति समिति ने केंद्र सरकार से की है ।
इसके पूर्व योगी सरकार ने इलाहाबाद, फैजाबाद आदि आक्रांताओं द्वारा दिए गए नाम बदलकर उन्हें प्रयागराज तथा अयोध्या किया । गोहत्या प्रतिबंध का निर्णय लिया । अन्य भी अनेक निर्णय उन्होंने लिए हैं । भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता को पुनर्जीवित करने का यह प्रशंसीय कार्य है । तीर्थक्षेत्रों की पवित्रता तथा आध्यात्मिक ऊर्जा को संजोए रखने
के लिए वहां वातावरण आध्यात्मिक होना आवश्यक है । इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर 'तीर्थक्षेत्र मंत्रालय' स्थापित हो, यह मांग समिति ने की है ।
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श्रीराम

Posted: 31 Aug 2021 10:14 PM PDT

श्रीराम 

अयोध्या में श्रीराम के, नाम से सब काम हों,
सनातन का गौरव, अयोध्या नगरी पहचान हो।
सरयू की धार शीतल, सदा नीरा बन बहती रहे,
संत शिरोमणी हनुमान का, अयोध्या धाम हो।
निवास करते जिस धरा, बजरंग द्वारपाल बन,
स्वर्ग से सुन्दर अयोध्या, विश्व स्वाभिमान हो।
जन्म स्थान धाम से, जनकपुर ससुराल तक,
राम सीता- राम से, चहूं दिशा गुंजायमान हों।
स्वर्ग से देवता भी, पुलकित हो पुष्प वर्षा करें,
अयोध्या का गौरव हो, हिंदुत्व का अभिमान हो।
राम राज्य की कल्पना, रामायण में कही गयी,
जन जन के सपनों का भारत, अयोध्या मुकाम हो।
कनक भवन मां सीता का, आश्रय स्थल बना रहे,
कौशल्या केकैयी सुमित्रा, माताओं का वरदान हो।
सेवा समर्पण हनुमान सा, लक्ष्मण सा भाई मिले,
राम सीता मन में बसें, अयोध्या मे मेरे प्राण हों।

अ कीर्ति वर्द्धन
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भगवद्गीता किन पुस्तकों से पढ़ी जाए?

Posted: 31 Aug 2021 09:53 PM PDT

भगवद्गीता किन पुस्तकों से पढ़ी जाए?

संकलन अश्विनीकुमार तिवारी
एक बड़ा ही मजेदार सा शेखुलर प्रश्न कभी कभी भगवद्गीता के बारे में पूछा जाता है। बच्चे पूछें तो चलता है, मगर धूप में बाल पका चुके कई क्यूट किस्म के उम्रदराज लोग भी ये सवाल लिए आ जाते हैं। उनको जानना होता है कि भगवान श्री कृष्ण जब भगवद्गीता का ज्ञान दे ही सकते थे, तो महाभारत का युद्ध शुरू होने पर अर्जुन को देने की क्या जरुरत थी? उससे बहुत पहले ही कई बार दुर्योधन से मिले थे, उसे ही दे देते। वो ज्ञानी हो जाता तो युद्ध होता ही नहीं और लाखों लोगों की जान बच जाती!

इस क्यूटियापे से भरे प्रश्न का जवाब भी भगवद्गीता में मिल जाता है। तीसरे अध्याय के छत्तीसवें श्लोक पर स्वामी रामसुखदास जी की एक टिप्पणी इसका समाधान कर देती है। ऐसा नहीं था कि श्री कृष्ण पहले कभी दुर्योधन को समझाने नहीं गए थे। ऐसी ही एक चर्चा का जिक्र गर्ग संहिता के अश्वमेघ पर्व (50.36) में आता है। यहाँ दुर्योधन ने कहा है – 

जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः।
केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।। (गर्गसंहिता अश्वमेध0 50। 36)

यानि मैं धर्मको जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्मको भी जानता हूँ, पर उससे मेरी निवृत्ति नहीं होती। मेरे हृदयमें स्थित कोई देव है, जो मुझसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ। यहाँ दुर्योधन कुछ पूछ नहीं रहा। ये निश्चयातम्क वाक्य है। जब पूछ ही नहीं रहा, सीखने को तैयार ही नहीं तो कोई कुछ सिखाये कैसे? ये जेन के प्रसिद्ध ग्लास में पानी भरने वाली स्थिति है। अगर कोई ग्लास, कोई कप पहले से ही पानी से भरा हो तो आप उसमें पानी कैसे भर सकते हैं? पहले उस भरे हुए को खाली करना होगा, तभी उसे भरा जा सकता है। इसकी तुलना भगवद्गीता में अर्जुन से कीजिये।

अर्जुन उवाच

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।3.36

अर्जुन पूछते हैं – वार्ष्णेय, मनुष्य जबरन बाध्य किये गए जैसा, इच्छा न होने पर भी किससे प्रेरित होकर पापपूर्ण आचरण करता है? ये बिलकुल वही बात है जो दुर्योधन ने कही थी। कोई है जो मुझसे करवाता है और मैं करता जाता हूँ। बस यहाँ अंतर ये है कि अर्जुन पूछ रहा है। वो जानना चाहता है, कैसे उससे बचा जाए कि पापपूर्ण आचरण न करना पड़े, बचने की कोशिश में है। और भगवान उसी की मदद करते हैं जो अपनी मदद स्वयं करना चाहता है। यहाँ ग्लास के खाली होने वाली स्थिति है इसलिए उसमें कुछ भरा जा सकता है।

बस इतना सा ही अंतर था जिसकी वजह से अर्जुन को भगवद्गीता की शिक्षा मिलती है और दुर्योधन को कुछ भी नहीं। बाकी ये जो एक श्लोक के बारे में बताया है, वो नर्सरी के स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको भगवद्गीता स्वयं पढ़नी होगी, ये तो याद ही होगा।

भगवद्गीता किन पुस्तकों से पढ़ी जाए?
किताबें बड़ी और मोटी कैसे हो जाती हैं? इसे समझने के लिए एक आसान सा उदाहरण है "माण्डुक्य उपनिषद"। ये 108 उपनिषदों की सूची में छठा उपनिषद। आकार में ये इतना छोटा है कि इसमें बारह ही मन्त्र होते हैं। ये सभी हिन्दुओं के लिए विशिष्ट माने जाने वाले ॐ से सम्बंधित हैं। इनपर गौड़पादाचार्य ने कारिका लिखी। कारिका श्लोकों के रूप में भाष्य की तरह उपनिषद का विवरण होता है। उन्होंने 215 श्लोक लिखे तो बारह में ये दो सौ पन्द्रह जोड़कर ये मोटी होने लगी। गौड़पादाचार्य के शिष्य थे गोविन्द भगवत्पाद। ये आदिशंकराचार्य के गुरु थे। तो जब आदिशंकराचार्य ने अपने गुरु के गुरु द्वारा लिखित माण्डुक्य कारिका पर भाष्य लिखा तो ये और मोटी हो गयी।
आज जब हम इसे हिंदी या अंग्रेजी अनुवाद के रूप में पढ़ते हैं, तो ये करीब तीन सौ पन्नों की किताब हो जाती है। अब माण्डुक्य उपनिषद के बारह वाक्य, सिर्फ एक पन्ने के नहीं होते। ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि कई ऐसे शब्द या भाव हैं, जिनसे अब हम परिचित नहीं। उपनिषदों या दर्शनशास्त्र की चर्चा रोज नहीं होती, इसलिए श्लोक के एक शब्द के लिए कई बार अनुवादक को पूरा वाक्य लिखना पड़ता है। उदाहरण के लिए माण्डुक्य उपनिषद में "तुरीय अवस्था" की बात की गयी होती है। अधिकांश लोगों के लिए "तुरीय" बिलकुल नया शब्द होगा।
ऐसा ही भगवद्गीता के साथ भी होता है। भगवद्गीता में सात सौ श्लोक होते हैं। थोड़े समय पहले तक गीता प्रेस से ये भी एक पन्ने में प्रिंट होकर मिलता था। वहीँ से तबीजी या गुटका संस्करण के रूप में ये अभी भी इंसान के अंगूठे जितने आकार में मिल जाता है। अगर हिंदी अनुवाद (टीका) भी इसमें जोड़ दें तो एक सिगरेट के डब्बे जितने बड़े आकार (और उससे काफी कम मूल्य पर) ये आसानी से उपलब्ध है। जब इसमें शंकरभाष्य जोड़ दिया जाता है तो इसका आकार बढ़ जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि भाष्य में सिर्फ सीधा श्लोकों का अनुवाद नहीं होगा। भाष्य लिखने वाले अपने (अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, या द्वैत जैसे) मत का भाष्य के जरिये प्रतिपादन भी करते हैं।
आदिशंकराचार्य ने अद्वैत मत के आधार पर अपना भाष्य लिखा था। आज ये सबसे आसानी से हिंदी या अंग्रेजी में अनुवाद के रूप में उपलब्ध है। उनके बाद रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत के आधार पर अपना भाष्य लिखा। ये भी आसानी से हिंदी और अंग्रेजी में (संक्षित रूपं ) में उपलब्ध हो जाते हैं। द्वैत पर माधवाचार्य का लिखा भाष्य बहुत आसानी से उपलब्ध नहीं है, लेकिन थोड़ा ढूँढने पर वो भी ऑनलाइन मिल सकता है। भाष्य एक मत का प्रतिपादन और दूसरे मतों का खंडन होता है। उदाहरण के तौर पर माधवाचार्य अद्वैत वालों को महायान बौद्ध दर्शन को हिन्दुओं पर थोपा जाना बताते थे। उनके हिसाब से भगवान विष्णु के सभी अवतारों का एक समान स्थान था, जबकि वैष्णवों में ही अलग-अलग पंथ वाले कोई श्रीराम को तो कोई श्री कृष्ण को श्रेष्ठ मानते दिखेंगे। अलग-अलग भारतीय दर्शनों पर अगर पढ़ना हो तो माधवाचार्य विद्यारण्य की लिखी सर्व दर्शन संग्रह देख सकते हैं।
हर व्यक्ति की रूचि, उसका झुकाव, अलग अलग सिद्धांतों की ओर होता है। किसी को अद्वैत सहज लग सकता है, लेकिन कई लोगों को अद्वैत उतना आसान नहीं लगे, ये भी हो सकता है। अगर अद्वैत के सिद्धांतों के हिसाब से चलना सजह लगता हो तो फिर आपके लिए विकल्प कई हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि आदिशंकराचार्य से लेकर स्वामी विवेकानंद तक कई बड़े भारतीय दार्शनिक अद्वैत के मतों का ही प्रतिपादन करते थे। इसलिए आपको आज जो भगवद्गीता पर लिखी पुस्तकें आसानी से मिलती हैं, उनमें से अधिकांश अद्वैत मत की ही हैं। यूट्यूब पर आसानी से अद्वैत मत के कई वीडियो भी मौजूद हैं। आप वहां से भी आसानी से इन्हें देख-सुन सकते हैं।
वापस किताबों की ओर चलें, तो सबसे पहले सरल अर्थ के लिए आपको भगवद्गीता पर लिखी कोई टीका पढ़नी चाहिए। गीता प्रेस की दुकानों में आसानी से टीका उपलब्ध हो जाएगी। टीका सहित भी भगवद्गीता पूरी पढ़ लेने में मुश्किल से तीन घंटे का समय लगेगा, इसलिए एक-दो बार पढ़ने का समय तो कोई भी निकाल सकता है। इससे एक स्तर ऊपर आने पर गीता प्रेस से ही "तत्वविवेचनी" नाम का भाष्य देख सकते हैं। ये बहुत पुराने दौर में नहीं लिखा गया, फिर भी इसकी हिन्दी थोड़ी सी मुश्किल लग सकती है। किसी किसी का हर शब्द का अर्थ और फिर श्लोक पर टिप्पणियाँ देखने का मन हो, ऐसा भी हो सकता है। इसके लिए गीता प्रेस से ही आने वाली "साधक संजीवनी" देख सकते हैं। ये दोनों किताबें आकार में बड़ी हैं, इसलिए इन्हें हमेशा साथ लिए घूमना तो संभव नहीं होगा, लेकिन घर पर आप आसानी से इन्हें पढ़ सकते हैं।
सीधे टीका या भाष्य के अलावा भी कई विद्वानों ने भगवद्गीता पर लेख लिखे हैं। बाल गंगाधर तिलक की "गीता रहस्य" में शुरूआती हिस्से के लेखों से भी भगवद्गीता के बारे में काफी कुछ पता चलता है। बाल गंगाधर तिलक की किताब अब शायद कॉपीराइट से मुक्त होगी, इसलिए कई अलग अलग प्रकाशनों से अलग अलग मूल्य पर उपलब्ध है। भगवद्गीता पर श्री औरोबिन्दो ने भी काफी लिखा है। उनकी पुस्तक भी हिंदी और अंग्रेजी दोनों में उपलब्ध है। श्री औरोबिंदों की पुस्तकें क्लिष्ट लग सकती हैं। अगर आपकी भगवद्गीता में बहुत रूचि ना हो तो संभावना है कि आप इन्हें आधे में ही छोड़ देंगे। उसकी तुलना में बाल गंगाधर तिलक की भाषा कहीं अधिक सरल है।
भगवद्गीता का अनुवाद एस. राधाकृष्णन ने भी किया है, और उसकी भाषा भी अपेक्षाकृत सरल है। जहाँ भी पुस्तकों की दुकानें उपलब्ध हों, वहाँ मेरी सलाह गीता प्रेस की किताबें लेकर, उनसे शुरुआत करने की रहती है। कोई दूसरी किताबें पढ़ना चाहें, तो वो भी पाठक की इच्छा पर है।
मिथलांचल में सुनाई जाने वाली कहानियों में से एक कहानी दो भाइयों की भी है | अब ये जो दोनों भाई थे वो दोनों के दोनों एक नंबर के काहिल, कामचोर, निकम्मे, आवारा किस्म के थे | थोड़े में समझ लीजिये कि बिलकुल मेरे टाइप रहे होंगे ! तो भाई जो बड़े वाला था उसे लगा कि पढ़ाई मुश्किल है | सबक याद करो, सवाल हल करो, ना पढ़ो तो उस ज़माने में मास्टर जी छड़ी भी रखते थे | जब बर्दाश्त नहीं हुआ तो बड़े वाले ने पढ़ाई छोड़ दी | प्राथमिक शिक्षा के बाद वो पिताजी के साथ खेती में जुट गया |

छोटे को भी उसने सिखाया कि मुझे कुछ दिन देखने दे | अगर ये काम पढ़ने से आसान लगा तो तू भी आ जाना पढ़ाई छोड़ के खेतों में | अब किसानों का काम भी आसान तो होता नहीं ! सुबह सवेरे जागो, हल, मिट्टी, गोबर, मवेशी, सौ आफतें हैं | बड़े वाले को और मुश्किल हुई | आखिर उसने छोटे से सलाह की और तय किया कि सबसे आसान साधू हो जाना है ! सारा दिन मस्ती में गांजा फूंको, और खाने का इंतजाम तो हो ही जाएगा | तो उसने तय किया कि वो पहले भागेगा और पीछे से छोटे को भी बुला लेगा |

साधू होने के बारे में स्वामी सर्वप्रियानन्द बताते हैं कि शुरू में ही उनपर चालीस बच्चों का छात्रावास संभालने की जिम्मेदारी डाल दी गई थी | ऐसा होते ही स्वामी सर्वप्रियानन्द ने सोचा कि अगर वो संसारी ही रहते, सन्यासी ना होते तो क्या होता ? ज्यादा से ज्यादा दो बच्चे होते उनके या तीन, बहुत होता तो चार होते | यहाँ तो सर मुंडाते ही ओले पड़ गए, चालीस बच्चे ! तो बड़े वाले भाई के साथ भी ऐसा ही हुआ | आश्रम के सुबह उठने का समय, स्वाध्याय, सफाई, भिक्षाटन के नियम, नयी आफत खड़ी हुई |

उधर जो छोटा वाला था, उसने बड़े भाई को चिट्ठी लिखी | पूछा बड़े भाई, मास्साब की छड़ी खा खा के मेरे अंग विशेष सूज गए हैं अब तो ! अगर तुम आश्रम में स्थापित हो गए तो जल्दी बताओ, मैं भी निकल कर आता हूँ | चिट्ठी पाते ही बड़े वाले ने जवाब दिया | अरे छोटे यहाँ तो रोज़ सुबह चार बजे, स्कूल से भी ज्यादा मेहनत से श्लोक रटने पड़ते हैं | गांजा पीना तो छोड़ो, चिलम भी छूने को नहीं मिला है अब तक | हर सुबह खांखड़ (भिक्षापात्र) मांजना (साफ़ करना) पड़ता है सो अलग ! तू स्कूल में मन लगा कर पढ़ाई कर, मैं भी वापिस आ रहा हूँ |

सबसे आसान पढ़ना ही होता है |

अब पढ़ने जैसे आसान काम के बारे में सोचिये कि कितने लोग पढ़ते हैं ? अगर पढ़ने का ही पूछा जाए, तो हिन्दुओं के धर्मग्रन्थ मानी जाने वाली रामचरितमानस या भगवद्गीता ही पूरी कितनी लोगों ने पढ़ी होती है ? पूरी पहले शब्द से आखरी अक्षर तक आपने पढ़ी है क्या ? कई लोग एक जनवरी को नया साल शुरू होने पर कोई प्रण भी लेते हैं, वही रेसोल्युशन | कई बार ये सिगरेट छोड़ने, रोज जिम जाने जैसे मुश्किल काम का होता है | टूट भी जाता है | पढ़ने जैसे आसान काम का भी लिया जा सकता है |

किसी एक किताब को पूरा पूरा पढ़ डालने का रेसोल्युशन लिया जा सकता है | कोई भी एक धर्मग्रन्थ पूरा पढ़ डालना इतना नामुमकिन भी नहीं होगा | सबसे कम कीमत में हर जगह उपलब्ध गीता प्रेस की किताबें तो हैं ही | उसके अलावा अगर रामचरितमानस की सोच रहे हैं तो पंडित विजयानंद त्रिपाठी की लिखी हुई विजया टीका अच्छी है | इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के हिंदी के प्रोफेसर योगेन्द्र प्रताप सिंह ने रामचरितमानस पर काफी कुछ लिखा है | चाहें तो उन्हें देख सकते हैं | अलग अलग सोपानों पर भी उनकी किताब मिल जाती है |
बाकी अगर कथित और दस्तावेजी तौर पर पढ़े-लिखे होने के वाबजूद आपने एक भी रामायण, रामचरितमानस या गीता उपनिषद कुछ नहीं पढ़ा तो 'भक्तों' को अनपढ़-जाहिल कहते समय कोई बहुत गलत कह रहा होता है क्या ?
✍🏻आनन्द कुमार 

विभिन्न प्रकार की गीता - - - - 

गीता का अर्थ है भगवान् ने गाया हुआ गीत। .
भगवद गीता भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कही थी। यह 18 अध्याय , 700 श्लोकों से बनी है। 
- गीता को कई लोग गीत गोविन्दम या भागवत समझ बैठते है।
- गीता महाभारत के छटवे अध्याय भीष्म पर्व में है। 
गीत गोविन्दम 13 शताब्दी ने जयदेव द्वारा लिखित राधा कृष्ण पर काव्य है। भागवत पुराण विष्णु के अवतारों की कथा है। गीता इन दोनों से पुरानी है। 
- अणु गीता- जब युद्ध समाप्त हो गया और पांडवों का राज्य स्थापित हो गया और युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हो गया तब अर्जुन ने श्रीकॄष्ण से कहा कि कुछ समझ नही आया! ज़रा संक्षेप में फिर से बताना। अर्जुन को फिर से समझाने के लिए अब जो गीता कही गई वह 36 अध्याय की थी। इसे अणु गीता कहा जाता है। यह महाभारत के 36 वे अध्याय अश्वमेध पर्व में कही गई है। 
- उद्धव गीता - इसे हंस गीता भी कहा जाता है। भागवत पुराण में जब श्रीकृष्ण अपनी लीला समाप्त कर वैकुंठ जा रहे थे तो अपने जीवन का ज्ञान मित्र उद्धव से कहा था। 
- व्याध गीता- एक शिकारी जो ऋषि को ज्ञान देता है कि गृहस्थाश्रम में आजीविका और दूसरों की सेवा के लिए पशुओं का वध भी जब कर्म समझ कर किया जाता है तो वह किसी भी सन्यासी द्वारा केवल स्वयं के लिए किये गए तप से बढ़ कर है जिसमे वह दुनिया को छोड़ देता है। 
- गुरु गीता- स्कन्द पुराण में वर्णित भगवान् शिव द्वारा दिए गए उत्तर जो माँ शक्ति की जिज्ञासा को शांत करने के लिए दिए गए थे। 
- गणेश गीता- गणेश पुराण में गजानन राजा वरेण्य को सत्य से अवगत कराते है। .

- अवधूत गीता- भगवान् दत्तात्रेय द्वारा परम सत्य का दर्शन कराती गीता। 
- अष्टावक्र गीता- जिसमे अष्टावक्र राजा जनक से आत्म तत्व बताते है। 
- राम गीता- सीता को वन में छोड़ कर आने के बाद जब लक्ष्मण दुखी होते है तो उनके दुःख को हरने के लिए भगवान् राम जो उपदेश देते है वह राम गीता है। 
- महाभारत में ही और भी कई गीता है जैसे पाराशर गीता , पांडव गीता , पिंगला गीता।
और भी कई है गीता है जैसे देवी पुराण से देवीगीता, स्कन्दपुराण से ब्रम्हगीता, यमगीता, सूर्यगीता, बुद्ध गीता , जैन महावीर गीता आदी। 
पर भारत के लिए वर्तमान परिपेक्ष में भगवद गीता अर्थात जो सोलह कला अवतार श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय भक्त , सखा अर्जुन का द्वंद्व हरने को कही वह सबसे अधिक पूज्य और अनुकरणीय है। इसके पाठ से और अर्थ समझने से हर एक के जीवन के प्रश्नों के उत्तर साधक को प्राप्त होते है। प्रत्येक श्लोक को पढ़ने पर हर बार अलग अलग अर्थ प्रकट होते है। 
.कई अंधविश्वासों का हरण होता है और मोक्ष पाने का हर मार्ग सांख्य योग , ज्ञान योग , भक्तियोग और राज योग के रूप में प्राप्त होता है।
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अनाथों के नाथ भगवान श्री कृष्ण

Posted: 31 Aug 2021 09:44 PM PDT

अनाथों के नाथ भगवान श्री कृष्ण 

डॉ. इंदु कुमारी
आधी रात को जन्म भये ,
कारावास का खुले वज्र कपाट ;
दैत्य प्रहरी सो गए    ऐसे , 
रह गए    शून्य     सपाट ।
भादौ की कालिमा रातों  में , 
सूझै न हाथों को   हाथ ; 
मूसलाधार बरस रहे ऐसे ।
खुशियों की आयी सौगात
बिजली चमक रही चमचम
मेघा गरज रहे है डमडम
हो गए प्रिय का आगमन
प्रकृति कर रहे हैं स्वागत 
झुूमती है चारो दिशाएं
भक्तों की जगी आशाएं
यमुना जी उमड़ पडी़ है
कब आएंगे नाथ  हमारे
शेषनाग छतरी बनने को
आकुल-व्याकुल हो रहे
सबके नैनों के तारे कान्हा
बि खे रे मंद -मंद मुस्कान
बेफिक्र हो जाओ प्यारे
कर जोड़ करें गुणगान
सब पर होगी प्रेम बारिश
हम अनाथ हैं तेरे   बिन ।
     हिन्दी विभाग , मधेपुरा ( बिहार )
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आज 1 सितम्बर 2021, बुधवार का दैनिक पंचांग एवं राशिफल - सभी १२ राशियों के लिए कैसा रहेगा आज का दिन ? क्या है आप की राशी में विशेष ? जाने प्रशिद्ध ज्योतिषाचार्य पं. प्रेम सागर पाण्डेय से |

Posted: 31 Aug 2021 09:39 PM PDT

आज 1 सितम्बर 2021, बुधवार का दैनिक पंचांग एवं राशिफल - सभी १२ राशियों के लिए कैसा रहेगा आज का दिन ? क्या है आप की राशी में विशेष ? जाने प्रशिद्ध ज्योतिषाचार्य पं. प्रेम सागर पाण्डेय से |

श्री गणेशाय नम: !!

दैनिक पंचांग

 1 सितम्बर 2021, बुधवार

पंचांग   

🔅 तिथि  दशमी  रात्रि  03:46:14

🔅 नक्षत्र  मृगशिरा  दिन  11:48:26

🔅 करण  वणिज  17:29:16

🔅 पक्ष  कृष्ण 

🔅 योग  वज्र  09:38:09

🔅 वार  बुधवार 

सूर्य व चन्द्र से संबंधित गणनाएँ

🔅 सूर्योदय  05:44:46

🔅 चन्द्रोदय  25:07:00 

🔅 चन्द्र राशि  मिथुन 

🔅 सूर्यास्त  18:16:41

🔅 चन्द्रास्त  14:46:00 

🔅 ऋतु  शरद 

हिन्दू मास एवं वर्ष

🔅 शक सम्वत  1943  प्लव

🔅 कलि सम्वत  5123 

🔅 दिन काल  12:44:27 

🔅 विक्रम सम्वत  2078 

🔅 मास अमांत  श्रावण 

🔅 मास पूर्णिमांत  भाद्रपद 

शुभ और अशुभ समय

शुभ समय   

🔅 अभिजित  कोई नहीं

अशुभ समय   

🔅 दुष्टमुहूर्त  11:55:31 - 12:46:29

🔅 कंटक  17:01:18 - 17:52:16

🔅 यमघण्ट  08:31:40 - 09:22:38

🔅 राहु काल  12:21:00 - 13:56:33

🔅 कुलिक  11:55:31 - 12:46:29

🔅 कालवेला या अर्द्धयाम  06:49:44 - 07:40:42

🔅 यमगण्ड  07:34:20 - 09:09:53

🔅 गुलिक काल  10:45:27 - 12:21:00

दिशा शूल   

🔅 दिशा शूल  उत्तर 

चन्द्रबल और ताराबल

ताराबल 

🔅 भरणी, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, आश्लेषा, पूर्वा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, ज्येष्ठा, पूर्वाषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, रेवती 

चन्द्रबल 

🔅 मेष, मिथुन, सिंह, कन्या, धनु, मकर 

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पं.प्रेम सागर पाण्डेय्

राशिफल 1 सितम्बर 2021, बुधवार

मेष (Aries): लक्ष्मीजी की कृपा आज आप पर बरसेगी। सामाजिक रूप से यश और कीर्ति में वृद्धि होने की संभावना है। व्यापार में लाभ होगा। विवाहोत्सुकों के विवाह का आयोजन सफलतापूर्वक होगा। स्वास्थ्य बिगड़ सकता है। पूंजी निवेश करने से पहले सोच लें। परिवारजनों के साथ विरोध रहेगा, इसलिए मौन रहना ही उचित होगा। वाहन चलाते समय सावधान रहें।

शुभ रंग  =  पींक

शुभ अंक  :  8

वृषभ (Tauras): आज का दिन शुभ फलदायी है। विशेषकर व्यवसाय करनेवालों के लिए आज का दिन बहुत लाभदायी रहेगा। व्यवसाय में पदोन्नती का भी योग है। कार्यालय में उच्च अधिकारी का सहकार प्राप्त होगा। पारिवारिक जीवन में भी सुख और संतोष प्राप्त होगा। मित्रों से मुलाकात आनंद प्रदान करेगी।

शुभ रंग =  हरा

शुभ अंक  :  6

मिथुन (Gemini): प्रतिकूलता लेकर आएगा आज का दिन। मानसिक रूप से व्यग्रता और शारीरिक रुप से शिथिलता का अनुभव होगा। कार्य करने का उत्साह नहीं रहेगा। व्यवसायिक स्थल पर भी उच्चाधिकारी और सहकर्मियों का व्यवहार नकारात्मक रहेगा। धन खर्च हो सकता है। संतान की चिंता से मन व्यग्र रहेगा। प्रतिस्पर्धियों से सावधानी बरतें।

शुभ रंग  =  हरा

शुभ अंक  :  3

कर्क (Cancer): आज दिनभर शारीरिक और मानसिक रुप से अस्वस्थता बनी रहेगी इसलिए नकारात्मकता से दूर रहें। क्रोध पर संयम रखें। खर्च अधिक रहेगा। परिवारजनों के बीच में घर्षण न हो इसका ध्यान रखें। नये कार्यों का प्रारंभ आज न करें। नए परिचय भी कुछ खास लाभदायी सिद्ध नहीं हो पाएंगे। सरकार-विरोधी प्रवृत्तियों से दूर रहना ही लाभदायी होगा।

शुभ रंग  =  आसमानी

शुभ अंक  :  7

सिंह (Leo): पति-पत्नी के बीच में अनबन होने से दांपत्यजीवन में कलेश हो सकता है। आप दोनों में से किसी का स्वास्थ्य न बिगड़े इसका भी ध्यान रखें। सांसारिक और अन्य प्रश्नो के कारण भी आप का मन आज उदासीन रहेगा। सामाजिक क्षेत्र में अपयश प्राप्त न हो इसका ध्यान रखें। भागीदारों के साथ भी व्यवहार में मतभेद का निर्माण हो सकता है। कोर्ट-कचहरी से दूर रहें।

शुभ रंग  =  पींक

शुभ अंक  :  8

कन्या (Virgo): व्यवसायिक क्षेत्र में आज यश प्राप्त होने की संभावनाएं अधिक हैं। सहकर्मचारियों का सहयोग प्राप्त होगा। पारिवारिक वातावरण में सुख का अनुभव होगा। शारीरिक और मानसिक रूप से भी आप स्वस्थ रहेंगे। आर्थिक लाभ होगा। रोगी व्यक्ति के स्वास्थ्य में सुधार होगा। प्रतिस्पर्धियों पर विजय प्राप्त होगी।

शुभ रंग  =  हरा

शुभ अंक  :  3

तुला (Libra): वैचारिक रूप से विशालता और वाणी की मधुरता अन्य लोगों को प्रभावित करेगी जिससे संबंधों में मेल-जोल बना रहेगा। चर्चा-विचारणा में भी आप प्रभाव जमा सकेंगे। परिश्रम की तुलना में परिणाम संतोषजनक नहीं प्राप्त होगा। कार्य में संभलकर आगे बढ़ना होगा। अजीर्ण की पीड़ा होने से खान-पान में ध्यान रखें। साहित्य लेखन की प्रवृत्ति में अभिरुचि बढे़गी।

शुभ रंग  =  क्रीम

शुभ अंक  :  2

वृश्चिक (Scorpio): स्नेहीजनों के साथ संबंधों में सावधानी बरतनी होगी। शारीरिक और मानसिकरुप से अस्वस्थता के कारण व्यग्रता बनी रहेगी। माता का स्वास्थ्य बिगड़ सकता है। धन और कीर्ति की हानि होगी। पारिवारिक वातावरण कलेशपूर्ण रहेगा। मन में प्रसन्नता का अभाव रहने से अनिद्रा भी आपको आज सिखाएगा।

शुभ रंग  =  गुलाबी

शुभ अंक  :  5

धनु (Sagittarius): प्रतिस्पर्धी आज परास्त होंगे। शारीरिक और मानसिकरुप से स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा। नए कार्य का शुभारंभ करने के लिए समय अनुकूल है। स्नेहीजनों के साथ समय आनंद सहित बिताएंगे। आध्यात्मिकता का भी आनंद आप के जीवन में बना रहेगा। मित्रों और स्नेहीजनों के साथ भेंट होने से हर्ष होगा।

शुभ रंग  =  केशरी

शुभ अंक  :  6

मकर (Capricorn): आज का दिन मिश्र फलदायी है। परिवारजनों के साथ गलतफहमी या मनमुटाव के प्रसंग बनने से मन में ग्लानि छाई रहेगी। निरर्थक खर्च होगा। आरोग्य के विषय में ध्यान रखें। विद्यर्थियों को आज अभ्यास में रुचि नहीं होगी। शेयर में पूंजी-निवेश करने का आयोजन आप कर सकेंगे। गृहणियों को आज असंतोष रहेगा। आध्यात्मिकता से शांति मिलेगी।

शुभ रंग  =  हरा

शुभ अंक  :  3

कुंभ (Aquarius): आर्थिक दृष्टिकोण से आज का दिन लाभदायी है। परिवार का वातावरण आनंद से भरा रहेगा। मित्रों और परिवारजनों के साथ आनंदपूर्वक समय बीतेगा। प्रवास और पर्यटन का आनंद भी आज आप उठा सकेंगे। आध्यात्मिकता का आश्रय लेकर वैचारिक नकारात्मकता को दूर करने की सलाह देते हैं।

शुभ रंग  =  आसमानी

शुभ अंक  :  7

मीन (Pisces): कोर्ट-कचहरी या स्थावर संपत्ति की झंझट में आज न पड़ने की सलाह है। आज सभी कार्यो में मन की एकाग्रता से फायदा होगा। स्वास्थ्य संभालिएगा। स्वजनों के वियोग का प्रसंग उपस्थित होगा। परिवारजनों के साथ मतभेद रहेगा। मिल रहे लाभ पाने में हानि न हो जाए इसका ध्यान भी रखिएगा। लेन-देन में सोच-विचार कर निर्णय लीजिएगा।

शुभ रंग  =  पींक

शुभ अंक  :  8

 प्रेम सागर पाण्डेय् ,नक्षत्र ज्योतिष वास्तु अनुसंधान केन्द्र ,नि:शुल्क परामर्श -  रविवार , दूरभाष  9122608219  /  9835654844
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परिसंपत्ति मुद्रीकरण के बारे में पूरा सच जानना जरूरी है

Posted: 31 Aug 2021 09:29 PM PDT

परिसंपत्ति मुद्रीकरण के बारे में पूरा सच जानना जरूरी है

हरदीप एस पुरी
''जब-तक सच घर से बाहर निकलता है, तब-तक झूठ आधी दुनिया घूम लेता है'' लोगों में चिंता और भय उत्‍पन्‍न करने के लिए किस तरह से झूठ, अर्धसत्य एवं भ्रामक सूचनाओं का इस्‍तेमाल किया जाता है, उसे यह प्रसिद्ध उद्धरण अक्षरश: बयां करता है। हमारे प्रमुख विपक्षी दल अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता को बनाए रखने की अपनी हताशा में अक्‍सर इन गलत तौर-तरीकों का सहारा लेते रहते हैं।
पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम का कहना है, 'बड़ा झूठ बेनकाब हो गया है।'वाकई, ऐसा हो गया है। लेकिन स्‍वयं उनका ही झूठ बेनकाब हुआ है। यही नहीं, इससे उनकी अपनी पार्टी का यह पाखंड भी उजागर हो गया है – ऐसा आखिरकार कैसे हो सकता है कि जब कांग्रेस की सरकार थी तो जो देश के लिए अच्छा था, वही देश के लिए एकदम से बुरा हो गया है जब प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी और भाजपा के नेतृत्व में सरकार है। उनका संपूर्ण कथन पूरी तरह से झूठे दावों और अर्धसत्य से भरा पड़ा है। यह बड़े अफसोस की बात है कि एक वरिष्ठ सांसद और एक पूर्व केंद्रीय मंत्री को अपना राजनीतिक हित साधने के लिए ऐसा करना पड़ता है। हालांकि, इसमें वे पूरी तरह से विफल रहे हैं।
मोदी सरकार ने महज एक हस्‍ताक्षर करके भारत की सार्वजनिक परिसंपत्तियों को शून्य या बर्बादी के कगार पर पहुंचा दिया है, चिदंबरम के इस दावे से यही प्रतीत होता है कि वह या तो यह समझ ही नहीं पाए हैं कि राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन (एनएमपी) के तहत आखिरकार क्या किया जाना है या वह सब कुछ समझ तो रहे हैं, लेकिन पूरी सच्‍चाई को तोड़-मरोड़ कर पेश करना चाहते हैं। वह जानबूझकर रणनीतिक विनिवेश को परिसंपत्ति मुद्रीकरण के साथ आपस में मिलाकर भ्रमित कर रहे हैं। कटु सच्‍चाई यही है कि एनएमपी की कोई भी परिसंपत्ति बेची नहीं जाएगी। इन परिसंपत्तियों को उन शर्तों पर एक खुली और पारदर्शी बोली प्रक्रिया के जरिए निजी भागीदारों को पट्टे या लीज पर दिया जाएगा, जिनसे जनता के हितों की रक्षा करने के साथ-साथ और भी बहुत कुछ हासिल होगा। इसकी पूरी प्रक्रिया देश के कानून और अदालतों की अपेक्षाओं पर खरी उतरेगी। निजी भागीदार संबंधित परिसंपत्तियों का संचालन एवं रखरखाव करेगा और पट्टे या लीज की अवधि पूरी हो जाने पर उन्हें सरकार को वापस कर देगा।
पूर्व वित्त मंत्री उन अभि‍नव तरीकों के उपयोग के बारे में स्‍वयं को अनभिज्ञ दिखा रहे हैं जिनका इस्‍तेमाल सरकार अपनी परिसंपत्तियों के मुद्रीकरण में करेगी। इसके लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट ट्रस्ट्स (इनविट) और रियल एस्टेट इन्वेस्टमेंट ट्रस्ट्स (रीट) का उपयोग किया जाएगा, जो म्यूचुअल फंड की तरह विभि‍न्‍न निवेश का संयोजन (पूलिंग) करेंगे जिसे अवसंरचना (इन्फ्रास्ट्रक्चर) और रियल एस्टेट में लगाया जाएगा। इससे भारत के लोग और प्रमुख वित्तीय निवेशक हमारी राष्ट्रीय परिसंपत्तियों में निवेश कर सकेंगे। कुछ इनविट और रीट पहले से ही शेयर बाजारों में सूचीबद्ध हैं।
पूर्व वित्त मंत्री ने मखौल उड़ाने के अंदाज में परिसंपत्तियों के मुद्रीकरण से हर साल प्राप्‍त होने वाले जिस 1.5 लाख करोड़ रुपये को 'किराया' कहा है उसकी बदौलत देश में नई अवसंरचना के निर्माण में नए सिरे से कहीं ज्‍यादा सरकारी निवेश करने का मार्ग प्रशस्‍त होगा। परिसंपत्तियों के मुद्रीकरण का असली उद्देश्‍य यही है। दुर्भाग्यवश, 2जी, कोलगेट, सीडब्ल्यूजी और आदर्श जैसे घोटालों के कारण संप्रग सरकार एक अलग तरह के मुद्रीकरण पर फोकस करती रही थी।
इस देश के ईमानदार करदाताओं पर और अधिक बोझ डाले बिना ही भारत की अवसंरचना को विश्वस्तरीय बनाने के लिए सरकार को वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता है। पिछले सात वर्षों में देश भर में बनाए गए राजमार्गों की कुल लंबाई विगत 70 वर्षों में बनाए गए राजमार्गों की समग्र लंबाई से डेढ़ गुना अधिक है। इसी तरह पिछले सात वर्षों में शहरी क्षेत्र में किया गया कुल निवेश 2004-2014 के बीच के 10 वर्षों में किए गए कुल निवेश से सात गुना अधिक है।
विडंबना यह है कि श्री चिदंबरम ने इसे गलत साबित करने के क्रम में संप्रग सरकार द्वारा उठाए गए उन छोटे-छोटे प्रगतिशील कदमों को भी नकार दिया है जो सार्वजनिक परिसंपत्ति के मुद्रीकरण के लिए उठाए गए थे। दिल्ली और मुंबई हवाई अड्डों का निजीकरण संप्रग सरकार के कार्यकाल में हुआ। उस दौरान श्री चिदंबरम वित्त मंत्री थे। इतना ही नहीं वह इस मामले में निर्णय लेने के लिए जिम्‍मेदार मंत्री समूह के अध्यक्ष भी थे। श्री चिदंबरम लिखते हैं कि रेलवे एक रणनीतिक क्षेत्र है और इसे निजी भागीदारी के लिए खुला नहीं होना चाहिए। जब 2008 में संप्रग सरकार ने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पुनर्विकास के लिए रिक्‍वेस्‍ट फॉर क्‍वालिफिकेशन यानी पात्रता आवेदन आमंत्रित किया था तो उन्‍होंने विरोध क्‍यों नहीं किया था? संप्रग के बाद भी कई राज्‍यों में कांग्रेस की सरकार ने सार्वजनिक परिसंपत्ति के मुद्रीकरण के लिए नीतिगत निर्णय लिए हैं। फरवरी 2020 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा मुंबई-पुणे एक्सप्रेसवे का मुद्रीकरण 8,262 करोड़ रुपये में किया गया। उस दौरान श्री चिदंबरम और उनकी पार्टी मुख्‍यमंत्री उद्धव ठाकरे को ऐसा करने से रोक सकते थे।
इसके बाद पूर्व वित्त मंत्री ने कुछ क्षेत्रों में एकाधिकार पैदा होने की आशंका जताते हुए एक हौवा खड़ा किया है। उन्‍होंने गैर-प्रतिस्पर्धी प्रथाओं के लिए अमेरिका द्वारा कुछ टेक कंपनियों पर नकेल कसने, दक्षिण कोरिया द्वारा चाएबोल्स यानी बड़े कारोबारी घरानों पर सख्‍ती और चीन द्वारा अपने कुछ इंटरनेट दिग्गजों के परिशोधन का हवाला दिया है। भारत में भी ऐसे संस्थान हैं जो गैर-प्रतिस्पर्धी प्रथाओं से संबंधित मुद्दों को निपटाते हैं। यहां क्षेत्र विशेष के लिए नियामक हैं। यहां भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग है। उपभोक्ता न्यायालय हैं। ये सभी भारत सरकार से बिल्कुल स्वतंत्र संस्‍थान हैं और इनके पास किसी भी गैर-प्रतिस्पर्धी प्रथा को रोकने के लिए पर्याप्‍त अधिकार हैं। सरकार बाजार में प्रतिस्पर्धा को बनाए रखने के लिए भी प्रतिबद्ध है और वह प्रक्रियाओं को इस तरह से तैयार करेगी जिससे कि बाजार की ताकतों के एकजुट होने की संभावना कम से कम रहे। रेलवे ट्रैक जैसे कुछ क्षेत्रों में स्‍वाभाविक एकाधिकार है और इसलिए वहां किसी भी परिसंपत्ति का मुद्रीकरण नहीं होगा।
पूर्व वित्त मंत्री ने रोजगार जैसे मामलों में भी हौवा खड़ा किया है। निजीकरण के मामलों का वाजपेयी सरकार द्वारा किए गए अध्ययन से पता चला है कि परिचालन का प्रबंधन कहीं अधिक कुशलता से किए जाने पर वास्‍तव में रोजगार की संभावनाएं बढ़ती हैं। सरकार जब प्राप्‍त राजस्‍व का नए सिरे से निवेश करेगी तो मुद्रीकरण वाली परिसंपत्तियों में नौकरियां बढ़ने के अलावा कई नए रोजगार भी सृजित होंगे। इसका एक सकारात्मक मल्‍टीप्लायर इफेक्‍ट होगा यानी प्रभाव कई गुना बढ़ जाएगा। वित्त मंत्री रह चुके किसी व्यक्ति को इसकी सराहना करनी चाहिए।
अंत में, श्री चिदंबरम ने सरकार पर एनएमपी के बारे में गोपनीयता का आरोप लगाया है। इसमें कोई सच्चाई नहीं है। परिसंपत्ति मुद्रीकरण की घोषणा कई महीने पहले फरवरी 2021 में केंद्रीय बजट में की गई थी। उसके लिए वेबिनार और राष्ट्रीय स्तर के विचार-विमर्श के कई दौर आयोजित किए गए। पिछले सप्‍ताह जो घोषणा की गई वह उसकी एक रूपरेखा थी। इससे पहले सरकार ने 2016 में एक रणनीतिक विनिवेश नीति की घोषणा की थी।
हमारी सरकार दूरदर्शी एवं जन-समर्थक सुधार के लिए प्रतिबद्ध है। हम दृढ़ विश्वास के साथ काम कर रहे हैं। छल और गोपनीयता कांग्रेस शैली के दांव-पेंच रहे हैं। यह सरकार पारदर्शिता और राष्ट्रहित से कोई समझौता नहीं करती है।लेखक केंद्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस और आवास एवं शहरी कार्य मंत्री हैं।
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