जनवादी पत्रकार संघ |
*कांग्रेस: अपने को साबित करने की कोशिश में लगे @राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार भोपाल* Posted: 22 Aug 2020 09:44 PM PDT २३ ०८ २०२० कांग्रेस : अपने को साबित करने की कोशिश में लगे यह एक सर्वमान्य सत्य है कि लोकतंत्र की जीवन्तता के लिए जितनी जवाबदार और जवाब देह सरकार की जरूरत होती है तो उतना सशक्त विपक्ष भी आवश्यक है |किसी एक का अधिक मजबूत होना और किसी एक का जरूरत से ज्यादा कमजोर होना लोकतंत्र के स्वरूप के बदलने के संकेत होते हैं | भारत में ऐसा ही दृश्य बनता दिख रहा है, सरकार को प्रतिपक्ष को आत्मवलोकन की जरूरत है | वैसे सत्तारूढ़ भाजपा के स्थान पर कोई और दल सता में होता तो उसका व्यवहार ऐसा ही होता इसमें कोई दो मत नहीं हो सकते, पर यदि भाजपा प्रतिपक्ष में होती तो क्या उसका व्यवहार वर्तमान प्रतिपक्ष कांग्रेस सा होता ? आपका उत्तर कुछ भी हो सकता है आज कार्यशैली को लेकर भले ही दोनों में समानता दिखती है, परन्तु सन्गठन के स्तर पर अलग होने से उस प्रतिपक्ष का रूप कुछ अलग होता | कहने को कांग्रेस भारत का सबसे पुराना राजनीतिक दल है| आज उसमे नेतृत्व संकट सुलझने के बजाय उलझता ज्यादा दिख रहा है। पिछले साल लोकसभा चुनाव में निस्तेज प्रदर्शन के बाद अध्यक्ष पद से राहुल गांधी का इस्तीफा और कांग्रेस का वापस सोनिया गांधी की शरण में जाना कोई चमत्कार नहीं दिखा सका । वैसे भी सबसे लम्बे समय तक कांग्रेस अध्यक्ष रहने वाली सोनिया गाँधी का अंतरिम अध्यक्ष चुने जाने अर्थ यही था कि पद त्यागने की राहुल की हठ के मद्देनजर यह अंतरिम व्यवस्था है और कांग्रेस को जल्द नया अध्यक्ष मिल जायेगा | कांग्रेस अपनी इस नाकामी के लिए कोरोना महामारी के नाम के पीछे छिपा सकती है, लेकिन यह शुतुरमुर्गी रवैया है ।जो कांग्रेस अपने इतिहास और स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका पर गर्व करती है, उसका ऐसा रवैया किसी को पसंद नहीं आया | देश में २०१४ के लोकसभा चुनाव के बाद सशक्त विपक्ष तो कल्पना की चीज बनकर रह गया है। लगातार सिकुड़ते जनाधार वाली कांग्रेस की जगह अब लगभग पूरी तरह भाजपा ने ले ली है, तो कई राज्यों में तो क्षेत्रीय दल कांग्रेस से ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका में आ गये हैं | इसके बावजूद भी आज की परिस्थिति में राष्ट्रीय स्तर पर और कुछ राज्यों में कांग्रेस के बिना सशक्त विपक्ष की भूमिका असंभव है |यह अलग बात है कि पिछली लोकसभा में ४४ और वर्तमान लोकसभा में ५२ सीटों पर सिमटने के कारण कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का पद राजनीति के कारण नहीं मिला जबकि सदन में सबसे बड़ा दल वही है और भाजपा के बाद देश के सबसे ज्यादा राज्यों में भी कांग्रेस की ही सरकारें हैं। ऐसे में कांग्रेस को खारिज कर देना न तो तर्कसंगत है और न ही लोकतंत्र के हित में। यहाँ सवाल यह है क्या खुद कांग्रेस को अपनी इस जिम्मेदारी-जवाबदेही का अहसास है? कटु सत्य यही है कि इस प्रश्न का उत्तर न में ही है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के हर फैसले का सोशल मीडिया और प्रेस कानफ्रेंस के जरिये विरोध करने के अलावा सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाने में कांग्रेस पिछले छह साल में नाकाम ही रही है। आज कांग्रेस को सबसे पहले अपना घर दुरुस्त करना होगा। जो राजनीतिक दल साल भर में नया अध्यक्ष न चुन पाये और लंबे अंतराल के बाद मिली मध्य प्रदेश की सत्ता भी अंतर्कलह के चलते गंवा दे, वह कैसे कह सकता है सब कुछ ठीक है |आजादी के बाद लगातार और सबसे ज्यादा समय सत्ता में रहने से उत्पन्न अहम उसकी सबसे बड़ी समस्या है |कांग्रेस अपनी समस्याओं को आंतरिक बता कर हमेशा जवाबदेही से मुंह चुरा रही है उसे समझना चाहिए कि न तो यह किसी परिवार का आंतरिक मामला है और न ही वह कोई कारपोरेट हाउस है। वह एक राजनीतिक दल है, जिसे अपनी रीति-नीति के लिए जनसाधारण के प्रति भी जिम्मेदार-जवाबदेह होना चाहिए आज नहीं तो कल उसे इस सत्य का सामना करना पड़ेगा | आज, सोनिया के अंतरिम अध्यक्ष -काल में यह धारणा और भी मजबूत हुई है कि फिलहाल तो मां-बेटे ही एक-दूसरे का विकल्प हैं। ऐसे में जनाधार वाले स्वाभिमानी नेता किनारा कर रहे हैं या किनारे कर दिये जा रहे हैं और कुछ दरबारी केंद्रीय भूमिका निभा रहे हैं। वैसे कांग्रेस से शुरू हुई यह राजनीतिक विकृति तेजी से दूसरे दलों में भी फैल रही है। जनाधार वाले नेताओं से लगभग रिक्त कांग्रेस का किसी भरोसेमंद को खडाऊं अध्यक्ष बनाने से बेहतर होगा कि प्रियंका वाड्रा आगे बढ़कर मोदी और भाजपा से सीधा मोर्चा लेते हुए कांग्रेस के कायाकल्प की कोशिश करें |वैसे ही अब कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ ज्यादा शेष नहीं है। साभार राकेश दुबे जी वरिष्ठ पत्रकार भोपाल आप एक फ्रीलांसर पत्रकार हैं विभिन्न अखबारों में वर्षों तक संपादक के पद पर रहे हैं समय-समय पर पत्रकारिता के क्षेत्र में कई उत्कृष्ट सम्मान भी आपको प्राप्त हुए। |
*महल के खिलाफ कांग्रेस@ राकेश अचल वरिष्ठ पत्रकार ग्वालियर * Posted: 22 Aug 2020 09:17 PM PDT ग्वालियर /एक जमाना था जब ग्वालियर-चंबल अंचल में सिर्फ दो सियासी ताकतें होती थी,एक महल और दूसरी जैसी मिल .अब जेसी मिल [जयाजीराव कॉटन मिल ] रही नहीं लेकिन 'महल' जस का तस सियासी ताकत बना हुआ है.महल से कांग्रेस और भाजपा ने हमेशा ताकत ली और अपनी जमीन बनाई,अब ये दूसरा मौक़ा है जब कांग्रेस महलविहीन ही नहीं है अपितु खुलकर महल के खिलाफ सड़कों पर उतर आयी है .कांग्रेस 1967 और 1996 में भी कांग्रेस महल विहीन थी लेकिन महल के खिलाफ सड़कों पर नहीं उतरी थी . ग्वालियर की राजनीति में महल की भागीदारी नई नहीं है. महल हिन्दू सभा से निकलकर कांग्रेस और जनसंघ से होती हुआ भाजपा में पूरी तरह विलीन हो गया है .इस तरह आप कह सकते हैं कि आज भले ही महल भाजपामय हो गया हो लेकिन उसके डीएनए में कांग्रेस ही है .राजमाता कांग्रेस के जरिये ही राजनीति में आईं थी और उनके बेटे माधवराव सिंधिया तथा पौत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी कांग्रेस से ही राजनीति का ककहरा सीखा .राजमाता ने कांग्रेस छोड़ी तो जीवन पर्यन्त कांग्रेस में वापस नहीं लौटीं लेकिन उनके पुत्र माधवराव सिंधिया अल्पकाल के लिए कांग्रेस से बाहर रहने के बाद दोबारा कांग्रेस का हिस्सा बन गए और जीवनपर्यन्त कांग्रेस में रहे .अब ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड़कर भाजपा के साथ हैं.अब देखना ये है कि वे भाजपा के साथ अपना पूरा जीवन काट सकते हैं या अपने पिता की ही तरह दोबारा कांग्रेस में लौट जायेंगे ? ग्वालियर में ,मै 1971 से महल को राजनीति में अपना वजूद बनाये देख रहा हूँ .देश,प्रदेश में चाहे किसी भी दल की सत्ता रही हो ग्वालियर का महल हमेशा प्रासंगिक रहा है .हर दल ने महल को सिरमाथे पर बैठाया .लेकिन ये पहला मौक़ा है कि महल का कोई प्रतिनिधि अब कांग्रेस के साथ नहीं है. इसीलिए कांग्रेस भी पूरी ताकत से महल के खिलाफ सड़कों पर पहली बार मोर्चा खोलकर खड़ी नजर आई है .पहले लग रहा था कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस से बाहर जाते ही अंचल में कांग्रेस का कोई नाम लेने वाला नहीं रहेगा,लेकिन अब ये धारणा निर्मूल साबित हो गयी है. दलबदल का नया इतिहास लिखकर पहली बार ग्वालियर पहुंचे सिंधिया के खिलाफ कांग्रेस का जबरदस्त प्रदर्शन देखकर सब हैरान हो गए. जिला पुलिस और प्रशासन को सिंधिया के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे कांग्रेसियों को सम्हालना मुश्किल हो गया .कांग्रेसियों ने गिरफ्तारियां दीं ,धरने और प्रदर्शन किये और ये साबित करने का प्रयास किया की कांग्रेस सिंधिया के बिना भी ज़िंदा है .कांग्रेस की यही एकजुटता अगर आगे भी कायम रहती है तो निश्चित ही सिंधिया यानि महल के लिए एक नई चुनौती खड़ी हो जाएगी .महल की नींद में खलल तो पड़ ही चुका है . ग्वालियर -चंबल अंचल में कांग्रेस के पास सिंधिया के जाने के बाद पूर्व मंत्री डॉ गोविंद सिंह,केपी सिंह,राकेश चौधरी,लाखन सिंह जैसे अनेक नेता हैं जो भविष्य में कांग्रेस का नेतृत्व कर सिंधिया के खिलाफ कांग्रेस को ताकत दे सकते हैं,लेकिन इनमें एक भी महल की tkkar का नेता नहीं है .ग्वालियर में कांग्रेस का महल विरोध 1984 में माधवराव सिंधिया के कांग्रेस के नेता के रूप में ग्वालियर से चुनाव लड़ने के बाद लगभग थम गया था ,किन्तु एक बार फिर परिदृश्य बदल गया है .सिंधिया के सिपाहसालार रहे और ग्वालियर से पांच बार लोकसभा का चुनाव लड़कर हार चुके कांग्रेस के अशोक सिंह ,पूर्व मंत्री लाखन सिंह अभी भी कांग्रेस में ही हैं .ये महल के आभामंडल के सामने कब तक टिक पाएंगे ये आगामी महीने होने वाले विधानसभा के उपचुनावों के नतीजों से साफ़ हो जाएगा . ग्वालियर-चंबल अंचल ही विधानसभा उपचुनावों का असली रणक्षेत्र है क्योंकि इसी अंचल से सर्वाधिक 16 सीटों के लिए चुनाव होना है. ऐसा माना जाता है कि कांग्रेस के कब्जे वाली ये सभी सीटें 2018 में ज्योतिरादित्य सिंधिया की वजह से कांग्रेस को मिलीं थी.भाजपा को लगता है कि सिंधिया के कांग्रेस में आने के बाद ये सभी सीटें अब भाजपा के पास आ जायेंगीं ,क्योंकि सिंधिया अब उनके साथ हैं .कांग्रेस ने बीते चार दशक से महल यानि सिंधिया के खिलाफ कोई मोर्चा नहीं खोला.1996 में भी नहीं जबकि माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस के बाहर जाकर एक अनाम पार्टी के टिकिट पर चुनाव लड़ा था .उस समय कांग्रेस के विरिष्ठ नेता और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शशिभूषण बाजपेयी सिंधिया के खिलाफ चुनाव लड़े थे .कांग्रेस को उस समय भी उसके पूरे वोट मिले यही,सिंधिया के समर्थन में तब भाजपा ने अपने प्रत्याशी को मैदान से हटा लिया था ,लेकिन अब ये सौजन्य नदारद दिखाई दे रहा है .कांग्रेस पूरी ताकत से सिंधिया के खिलाफ खड़ी दिखाई दे रही है . प्रदेश में सत्ता परिवर्तन की नई इबारत लिखने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए अब उपचुनाव में इस अंचल से सभी सोलह सीटें जीतना बहुत जरूरी हो गया है,ऐसा किये बिना न महल की आभा बचेगी और न खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया की .ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ने का ये कदम तब उठाया है जब उनके सामने सिंधिया घराने कोई नयी पीढ़ी यानि अपने पुत्र को भी अपना उत्तराधिकारी बनाने का काम भी करना है .ज्योतिरादित्य के बेटे महाआर्यमन अभी 24 साल के हैं और राजनीति में पूरी दिलचस्पी लेते हैं .ज्योतिरादित्य सिंधिया जब परिस्थितवश राजनीति में आये थे तब उनकी उम्र 30 वर्ष की थी . मध्यप्रदेश में ये दशक महल की राजनीति को किस दिशा में ले जाएगा ये कहना अभी कठिन है ,लेकिन सबकी दिलचस्पी इसमें अवश्य है .ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में चमकते हुए गए हैं ,भाजपा उनकी आभा को कब तक अपनी ऊर्जा से आलोकित करेगी ये भी अभी भविष्य के गर्त में हैं.राजनीति के लिए सिंधिया और सिंधिया के लिए राजनीति पहले भी महत्वपूर्ण थे और आज भी हैं .दोनों का ये रिश्ता कितनी दूर तक जाएगा राजनीति का कोई पंडित ही बता सकता है,मेरे लिए ये सम्भव नहीं है .मैंने सिंधिया परिवार की तीन पीढ़ियों को राजनीति करते देख लिया है और यदि समय रहा तो चौथी पीढ़ी को भी राजनीति में कदम रखते देखूंगा ,लेकिन ये जरूरी भी नहीं है ,क्योंकि पता नहीं तब तक मेरी उँगलियाँ लेपटाप पर नृत्य कर पाएंगी या नहीं ? 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