दिव्य रश्मि न्यूज़ चैनल |
- आओ बच्चों तुम्हें सुनाऊं
- शत्रु का बल आंके बिना अगर लड़ने कूद पड़ें, तो आमतौर पर ऐसी ही वीरगति प्राप्त होती है
- चावल का जिक्र किसी भी बाइबिल में नहीं आता
- आज 19 - जनवरी - 2021, मंगलवार को क्या है आप की राशी में विशेष ?
- श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के लिए राज्यपाल ने दिये 2 लाख 1 हजार रूपये
- सैयद शाहनवाज हुसैन एवं श्री मुकेश सहनी के नामांकन में शामिल हुए मुख्यमंत्री
- हिन्दी ‘पाक्षिक सनातन प्रभात’ का 21 वां वर्षगांठ समारोह भावपूर्ण वातावरण में संपन्न !
| Posted: 18 Jan 2021 09:33 PM PST आओ बच्चों तुम्हें सुनाऊं | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| शत्रु का बल आंके बिना अगर लड़ने कूद पड़ें, तो आमतौर पर ऐसी ही वीरगति प्राप्त होती है Posted: 18 Jan 2021 09:03 PM PST शत्रु का बल आंके बिना अगर लड़ने कूद पड़ें, तो आमतौर पर ऐसी ही वीरगति प्राप्त होती है|
संकलन अश्विनीकुमार तिवारी जाड़े का मौसम है तो कई "कार्डिगन" भी आजकल बाहर ही होंगे। इस ख़ास किस्म के ऊनी वस्त्र का नाम "कार्डिगन" एक ब्रिटिश सैन्य अधिकारी के नाम पर होता है जो सेवेंथ अर्ल ऑफ़ कार्डिगन थे। ये प्रसिद्ध युद्ध "बैटल ऑफ़ बलाक्लावा" में लड़े थे। कभी अंग्रेजी कविता "चार्ज ऑफ़ द लाइट ब्रिगेड" (अल्फ्रेड टेनीसन) पढ़ी होगी, तो वो इसी युद्ध के बारे में है। इसमें एक घुड़सवार टुकड़ी बेवकूफी भरा हमला करती है और मशीनगन बैटरी के सामने लड़ने की कोशिश करते लगभग सभी घुड़सवार मारे जाते हैं। अगर कुछ वर्ष पहले आई फिल्म "वॉर हॉर्स" देखी हो, तो उसमें भी घुड़सवारों का एक ऐसा ही बेवकूफी भरा हमला दिखाया जाता है। शत्रु का बल आंके बिना अगर लड़ने कूद पड़ें, तो आमतौर पर ऐसी ही वीरगति प्राप्त होती है। अब अगर सुन्दरकाण्ड देखेंगे, तो हनुमान जी जब माता सीता की खोज में लंका पहुँचते हैं तो उनके पास भी बिलकुल ऐसा ही अवसर था। वायु मार्ग से आ रहे थे, सीधा लंका के अन्दर ही कहीं कूद पड़ते! क्या दिक्कत थी? लेकिन हनुमान जी "चार्ज ऑफ़ द लाइट ब्रिगेड" करके अपना नाम वीरों की सूची में लिखवाने पर नहीं तुले थे। बहुत वीरता से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए, या गिरफ्तार कर लिए गए और जिस सेना के लिए लड़ रहे हैं, उसे विजय मिलने के बदले हार मिल गयी तो क्या फायदा? व्यक्तिगत यश या जातिय गौरव से कहीं अधिक महत्वपूर्ण सामुदायिक हित होता है। तो लंका पहुंचकर हनुमान जी सीधे नगर में नहीं घुस जाते हैं। वो एक पहाड़ी पर चढ़ जाते हैं, जहाँ से नगर को देखा जा सके। वहां से वो किले को देखते हैं, वहां कई योद्धा मौजूद हैं, ये भी देखते हैं, बाजार, चहल-पहल देखते हैं और अंत में तय करते हैं कि अभी ही किले में घुसना समझदारी नहीं होगी। रात के समय आकार छोटा करके लंका में घुसना समझदारी होती इसलिए वो आराम से बैठकर रात होने की प्रतीक्षा करते हैं। थोड़ी ही देर पहले उन्होंने मैनाक को विश्राम के लिए मना किया था। वहां रुके होते, तो क्या रात होने तक सुस्ता लेने का अभी समय मिलता? ये श्रेय और प्रेय का सिद्धांत है। अभी मजेदार लगे लेकिन लम्बे समय में उससे नुकसान हो, ऐसे काम को प्रेय कहा जाता है। जैसे अलार्म बजने पर भी पांच मिनट और सो जाना, और बाद में काम में देरी होना। इसकी तुलना में प्रेय वो है जो अभी उतना मजेदार नहीं लगता, लेकिन लम्बे समय में इसका फायदा हो सकता है। जैसे एक कोई नियम तय करना (रोज दौड़ने या मॉर्निंग वाक पर जाने या कोई पुस्तक पढ़ना) जो हर रोज करते समय भारी लगता है, लेकिन लम्बे समय में इसके फायदे नजर आने लगते हैं। तो हनुमान जी रुकते हैं, आगे क्या करना होगा, इसका जायजा लेते हैं और फिर अंत में आकार छोटा करके लंका में घुस जाने की कोशिश करते हैं। इस कोशिश का भी कोई फायदा नहीं होता। लंकिनी जो लंका की सुरक्षा पर तैनात थी, उसकी नजर से वो आकार में छोटे होने पर भी नहीं बच पाते। यहाँ दोनों ही देखने लायक हैं। लंकिनी इसलिए देखने लायक है क्योंकि उस समय लंका पर कोई आक्रमण होने का भय नहीं था। वैसे भी सबको तो रावण ने ही हरा-हरा कर कैद कर रखा था, तो उसकी लंका पर आक्रमण कौन करता? इसके बाद भी लंकिनी अपने काम में कोई चूक नहीं कर रही होती है। वो पूरी सावधानी बरतती है और चुपके से घुस जाने की कोशिश कर रहे हनुमान जी को रोक लेती है। हनुमान जी इसलिए देखने लायक हैं क्योंकि थोड़ी ही देर पहले वो सिंहिका को मारकर आये हैं लेकिन लंकिनी को वो जान से नहीं मार देते। एक घूँसा पड़ते ही जब लंकिनी को समझ में आ जाता है कि ब्रह्मा के वर के अनुरूप राक्षसों का अंत समय आ गया है तो वो लंकिनी को जाने देते हैं। पहला तो यहाँ ये नजर आ जाता है कि स्त्री-पुरुष में कोई भेदभाव नहीं किया जा रहा। अभी के भारतीय कानूनों जैसा मामला नहीं है कि पुरुषों के लिए अलग और स्त्रियों के लिए अलग सजाएं होंगी। जैसे पहले वो व्यक्तिगत यश के लिए बिना सोचे समझे लंका में नहीं कूदते, वैसे ही यहाँ भी वो व्यक्तिगत यश के लिए स्त्री के लिए अलग, कोई नैतिकता का बुरका नहीं पहनने लगते। सुन्दरकाण्ड के इस हिस्से से व्यक्तिगत यश की अभिलाषा, नैतिकता के झूठे दंभ-अहंकार या कहिये कि मैं की भावना को छोड़कर हम पर विचार करना सीखा जा सकता है। जहाँ तक मेरा सवाल है, अष्ट सिद्धियों में से एक भी तो मेरे हाथ आज भी नहीं आई है! कल बंदरों की तरह बीज फिर से खोदकर देखेंगे, कल शायद मेरे पेड़ उग आयें! हिन्दुओं को एक समाज कहना कितना उचित होगा? समाजशास्त्र के हिसाब से समाज की पहचान उसके सामाजिक स्थलों से होती है। उदाहरण के तौर पर चर्च, जहाँ हर सन्डे को एक मास होगा। लोग इकठ्ठा होंगे, कोई भाषण देगा, किसी सामाजिक मुद्दे पर चर्चा भी हो जाएगी। ऐसा ही मस्जिदों में होगा। लोग जुम्मे के रोज इकठ्ठा होंगे, नमाज तो होगी ही, कोई सामाजिक मुद्दा हुआ तो उसपर चर्चा भी हो जाएगी। हिन्दुओं के पास ऐसा क्या है? सड़क के किनारे किसी पेड़ के नीचे विग्रह की स्थापना करके बने मंदिर? वहां सौ लोगों के जमा होने, किसी धार्मिक-सामाजिक मुद्दे पर चर्चा करने की जगह भी है क्या? एक समाज के तौर पर लोगों को कई बार एक दूसरे की मदद की जरूरत होती है। अगर ऐसी कोई जगह हो जहाँ लोग इकठ्ठा होते हों और वहां पता चले कि समाज के किसी व्यक्ति का कोई परिजन अस्पताल में है, उसे रक्तदान की जरुरत है, तो क्या होगा? सौ लोगों में कोई न कोई तो होगा जो रक्तदान के लिए तैयार हो जाये? अगर समाज के इकठ्ठा होने की ऐसी जगह ही न हो, तब क्या होगा? जिनका सामाजिक स्तर ऊँचा है, उनके लिए तो मदद जुटाना आसान होगा, लेकिन जो निचले पायदान पर है वो यहाँ वहाँ हाथ पांव मारने को मजबूर होगा। ऐसी किसी स्थिति में जिसने मदद की हो, उसके लिए मदद पाने वाले को तोड़कर अपनी तरफ मिला लेना कितना मुश्किल होगा? ऐसी ही एक दूसरी व्यवस्था को उदाहरण के तौर पर देखें तो उसे "सौराठ सभा" कहा जाता था। ये मैथिल ब्राह्मणों की ऐसी सभा होती थी जहाँ विवाह तय होते थे। जिस स्थान पर हजार-दो हजार परिवारों के लोग बैठे हों, वहाँ एक उचित वर-वधु ढूँढना आसान होगा या अकेले अपने स्तर पर? किसी मैट्रिमोनियल साईट के जरिये इससे अधिक विकल्प मिलेंगे? क्या इतनी भीड़ वाले सामाजिक स्थान पर कोई बेशर्मी से दहेज़ मांगेगा या दहेज़ की बात चुपके से रिश्वत की तरह की जाती होगी? समय और श्रम भी बचता होगा। इस व्यवस्था से कई सुविधाएँ होतीं, लेकिन अब ये व्यवस्था करीब-करीब मृत है, तो इसकी सुविधाएँ भी नहीं के बराबर ही समझिये। ऐसा भी नहीं है कि इसे किसी सरकार बहादुर या विदेशी आक्रमणकारियों ने इस व्यवस्था को नष्ट कर डाला हो। इसे आम लोगों ने खुद ही नष्ट किया था। जहाँ तक मंदिरों का प्रश्न है, मंदिर के आस पास जो बैठने या लोगों के इकठ्ठा होने की जगह होती थी, उसे नष्ट करने का श्रेय भी उत्तर भारत में समाज पर अधिक और सरकार पर कम जाता है। जगह घेरकर वहां चार और मूर्तियाँ स्थापित करके ज्यादा चंदा बटोरने की लालसा से लेकर उस जगह में दुकानें बनवाकर जगह हथियाने का लालच, सभी इसके पीछे जिम्मेदार रहे हैं। एक साथ सौ लोगों के बैठने की जगह न होने का नुकसान सीधा संस्कृति पर पड़ता है। इसे आसानी से देखा जा सकता है। जिसे शास्त्रीय संगीत कहते हैं, उसका अभ्यास करने वालों का मंदिर में (विशेष रूप से आरती गाने के समय) मौजूद होना कोई अनोखी बात नहीं थी। सिर्फ पटना को देखें तो अस्सी के दशक तक यहाँ दुर्गा पूजा के अवसर पर दस दिन तो भारत का हर प्रसिद्ध संगीतकार किसी न किसी दुर्गा पूजा के पंडाल में संगीत साधना में लगा दिखता था। आज पूछेंगे तो कुछ बुजुर्ग लोग अफ़सोस में सर हिलाते उसे याद करेंगे। पूजा में घूमने निकले बच्चे जब शास्त्रीय संगीतकारों को देखते, उनका संगीत सुनने को रूकती भीड़ को देखते तो वो भी सीखने को प्रेरित होते। आज जो मिल्लेनियल पीढ़ी रागों का नाम भी नहीं जानती, उसके लिए कहीं न कहीं वो शुगर फ्री पीढ़ी जिम्मेदार है जो इस परंपरा को शेखुलरिज्म के नाम पर खा गयी। हिन्दुओं की संस्कृति का संरक्षण, उसकी सुरक्षा और उसका संवर्धन हर हिन्दू का जन्मजात कर्तव्य है। जबतक जन्मसिद्ध अधिकारों का सुख बिना कर्तव्यों को पूरा किये लेते रहेंगे, तबतक हर पीढ़ी को अपनी पिछली पीढ़ी से कम ही मिलेगा। ये बिलकुल जमीन-जायदाद जैसा मामला है। अगर आपने अपने बाप-दादाओं के जुटाए में कुछ जोड़ा नहीं, सिर्फ उसका उपभोग करके आगे निकल लिए, तो आपके बच्चों को तो आपसे कम ही मिलेगा न? इसमें कौन सा राकेट साइंस था जो किसी धर्मगुरु, किसी स्वामी जी के आकर सिखाने का इन्तजार कर रहे थे? एक समाज के रूप में, एक संस्कृति के रूप में, अगर हिन्दुओं का क्षय हो रहा है तो इसके लिए कहीं न कहीं हम-आप भी जिम्मेदार हैं। जिन पुस्तकों को शास्त्र कहा जाता है, वो अगर एक घर में थी भी तो उसमें एक दो और पुस्तकें लाकर हमने और आपने नहीं जोड़ा। जिसे शास्त्रीय संगीत कहते हैं, उसके वाद्य यंत्र हम-आप घर नहीं लाये। उनकी रिकॉर्डिंग इन्टरनेट से ही सही, ढूँढकर हमने-आपने नहीं बजाये हैं। संस्कृति जिन पकवानों की बात करती थी, उन्हें बनाने में बड़ा कष्ट होता। इसलिए उनके बदले पिज्जा-बिरयानी का आर्डर तो हमने-आपने ही दिया है न? परंपरागत वस्त्रों को पर्व-त्योहारों पर भी निकालने के बदले विदेशी परिधानों में सजने का शौक किसे था? वो भी हमारा ही था। एक समाज के रूप में हम अपनी हार का प्रबंध खुद ही कर रहे हैं। धीमा है, लेकिन एक एक इंच करके पीछे हटना तो जारी है। बाकी अंगद के पैर जमाने की कथा तो जानी-पहचानी होगी न? बिना उद्देश्य के तो इतनी सदियों से सुनाई नहीं जाती होगी? पीछे खिसकते जाने के बदले कहीं पैर जमाने की कोशिश कीजिये। अंगद वाला डीएनए कहीं न कहीं हममें-आपमें भी तो छुपा हुआ, पड़ा ही होगा न? आयाम के बारे में कभी सोचा है? लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई जैसी चीजों के जरिये आयाम (डाइमेंशन) नापते हैं। अक्सर ये विज्ञान में भौतिकी (फिजिक्स) में पढ़ाया जाता है, यानी साइंस का सब्जेक्ट है। शायद इसी वजह से हिन्दी साहित्य में जब हाल के दौर में कहानियां लिखी गयीं तो इसका जिक्र कम आया। सभी आयामों में न हो तो कोई वस्तु अस्तित्व में नहीं हो सकती। इसलिए तीनों आयाम होने जरूरी हैं। जैसे किसी चीज़ की लम्बाई हो, मगर चौड़ाई न हो, बिलकुल शून्य हो ऐसा हो सकता है? आपने परिभाषाओं में जो सरल रेखा (स्ट्रैट लाइन) के बारे में पढ़ा होगा उसे याद कीजिये। ये दो बिन्दुओं के बीच की दूरी होती है। यानी लम्बाई है मगर चौड़ाई, या ऊंचाई? इसलिए सरल रेखा एक थ्योरी है, वास्तविकता नहीं होती है। अपने स्केल को आप घिस-घिस के पतला करना शुरू कर दें, ताकि उसकी लम्बाई तो बारह इंच रहे, मगर चौड़ाई एक इंच से कम होने लगे, तो क्या नतीजा होगा? पतला करते करते जब उसकी चौड़ाई एक मिलीमीटर और फिर उससे भी कम होते होते शून्य पर पहुंचेगी तो स्केल ही ख़त्म हो गया होगा! आयाम सिर्फ तीन नहीं होते। लम्बाई, चौड़ाई और उंचाई के अलावा भी एक चौथा आयाम होता है। इस आयाम को समय कहते हैं। मान लीजिये हम एक बक्से की बात करें जो एक फीट लम्बा, छह इंच चौड़ा और छः इंच ऊँचा हो तो इसकी कल्पना की जा सकती है। लेकिन ये सिर्फ कल्पना ही है, वास्तविकता में वो डब्बा तभी हो सकता है जब हम ये बताएं कि वो इस तारिख को बना था और इतने समय दुनियां में था। अगर कोई ईसा मसीह का नाम बताये, और ये बता ही न पाए कि वो जन्मे कब थे, मृत्यु कब हुई, किस समय में थे तो? इतने लम्बे, इतने मोटे थे, ये आयाम बता देने से काम नहीं होता। वो काल्पनिक हो जायेंगे! संस्कृत और दूसरी पुरानी भाषाओँ के साहित्यों में इस चौथे आयाम समय की भी बात होती है। अगर अंग्रेजी के काल्पनिक उपन्यासों को भी देखेंगे तो अलग-अलग आयामों की बात होगी। जैसे "ऐलिस इन वंडरलैंड" की बच्ची अपने समय आदि आयामों से निकलकर कहीं और पहुँच जाती है। ऐसे ही हाल में आई "नार्निया" श्रृंखला की फिल्मों में भी एक दरवाजा दिखता है जिसमें घुसते ही आप किसी और आयाम में कहीं और, बदले हुए समय में पहुँच जाते हैं। अगर रामचरितमानस को हिंदी साहित्य का हिस्सा मानेंगे तो ऐसे अलग आयामों में जाने वाले दरवाजे वहां भी दिखते हैं। रामचरितमानस सीधे ही वाल्मीकि रामायण पर आधारित है, इसलिए ये दूसरे आयाम में पहुँच जाने का दरवाजा वहां भी मिलता है। ऐसे आसानी से याद नहीं आ रहा होगा। ये किष्किन्धाकाण्ड में है। हाल की अंग्रेजी फिल्म "थॉर" में जैसा "वर्म होल" होता है, ये कुछ वैसा ही था। इसमें एक तरफ से आप किसी और आयाम में होते हैं, मगर निकलते ही किसी दूसरे आयाम में पहुँच जाते हैं। अब भी याद नहीं आया हो तो हाल ही में टीवी पर देखी रामानंद सागर वाली रामायण का वो हिस्सा याद कीजिये जहाँ बूढ़ा गिद्ध सम्पाती वानरों को मरने के लिए प्रस्तुत देखकर प्रसन्न हो रहा होता है। ये सभी सम्पाती के पहुंचे कैसे थे? इसके पीछे की कहानी स्थापित नैरेटिव को तोड़ देती है, इसलिए बताई नहीं जाती। इससे थोड़ी देर पहले हनुमान, अंगद, जाम्बवन्त और उनका दल कहीं पश्चिमी भारत में वनों में भटक रहे होते हैं। काफी प्रयास के बाद भी उन्हें सीता मिली नहीं थी और सबको प्यास भी लगी थी। ऐसे में हनुमान एक पहाड़ी पर चढ़ जाते हैं ताकि पानी ढूंढ सकें। वहां से उन्हें एक गुफा में घुस रहे बगुले दिखते हैं। बगुले हैं तो पानी भी होगा, ऐसा सोचकर वो सभी को उस गुफा में ले जाते हैं जहाँ उनकी भेंट एक तपस्विनी से होती है। इस तपस्विनी की कृपा से एक और तो वो किसी वन में से गुफा में घुसते हैं, लेकिन दूसरी तरफ जब वो निकलते हैं तो वो समुद्र का किनारा होता है, जहाँ थोड़ी ही देर में उनकी भेंट सम्पाती से हो जाती है। इस तपस्विनी के बारे में और विस्तार ढूंढना भी मुश्किल नहीं है। थोड़ा आगे पीछे जाने पर रामायण में वो भी मिल जाता है। वाल्मीकि रामायण के मुताबिक इस गुफा का वर्णन बिलकुल वैसा ही है जैसा कि "थॉर" फिल्म के वर्म-होल में दिखता है। यहाँ बताया गया है कि गुफा में अँधेरा था, लेकिन सिंह आदि पशु बहुत तेजी से उड़ते हुए से एक ओर से दूसरी ओर जा रहे होते हैं! यहाँ जो तपस्विनी थीं उनका नाम स्वयंप्रभा था। वो मय नाम के असुर के महल की सुरक्षा कर रही थीं। ये असुर अपनी पत्नी अप्सरा हेमा के साथ वहाँ रहता था। इंद्र से लड़ाई में घायल हो जाने के बाद मय वो जगह छोड़कर चला गया था। हेमा के उस महल की सुरक्षा और देखभाल की जिम्मेदारी तपस्विनी स्वयंप्रभा की थी। स्वयंप्रभा एक ऋषि मेरुसवर्णी की पुत्री थीं, और उनकी कृपा के बिना इस मायावी महल से निकलना संभव नहीं था। हनुमान आदि वानरों को स्वयंप्रभा का आतिथ्य प्राप्त होता है, और उनकी कृपा से ही वो गुफा से निकलने पर सीधा सम्पाती के पास, समुद्र किनारे पहुँच जाते हैं। रामायण में कई तपस्विनियों की चर्चा थी, ये नैरेटिव में "स्त्रियों को शिक्षा नहीं दी जाती थी" जैसे कथानक गढ़ने के लिए सुविधाजनक नहीं होता। ऊपर से अपने शोध में समय में यात्रा करने के लिए, आइन्स्टाइन वर्म-होल को भी एक तरीका बताते हैं। विज्ञान जिन्होंने पढ़ा न हो, उनके लिए ऐसी वैज्ञानिक सोच अय्यारी या जादूगरी होती। इसलिए भी संभवतः स्वयंप्रभा की कहानी आमतौर पर सुनाई नहीं देती। इस लिहाज से देखें तो "साइंस फिक्शन" जैसी चीज़ें लिखने में रूचि रखने वालों का भी हाल के दौर में महाभारत-रामायण जैसे महाकाव्यों की ओर मुड़ना अच्छा है। बाकी जो पहले से लिखा रखा है उसे एक नए दृष्टिकोण से देख रहे (हमारे जैसे) लेखकों का भी विरोध के बदले स्वागत होना चाहिए। जो नए दौर की विदेशी फिल्मों में दिखता है, वैसा कुछ पहले से रामायण-महाभारत में नहीं लिखा गया होगा, ऐसा जरूरी नहीं है। रामायण एक बार नहीं कई बार लिखी गई है | वाल्मीकि रामायण के बाद अलग अलग समय में अलग अलग लोगों ने अपने अपने हिसाब से इसकी व्याख्या, इसकी कहानी लिखी | समय, स्थान, व्यक्तिगत अभिरुचियों के हिसाब से इसमें अंतर भी आये | इसलिए तकनिकी रूप से हर किताब को रामायण कहते भी नहीं | कुछ ख़ास नियमों के पालन पर ही रामायण बनती है | जैसे अगर जैन धर्म में चलने वाली राम कथा देखेंगे तो उसमें कहानी थोड़ी अलग है | आज के विदेश यानि जैसे बर्मा, इंडोनेशिया, कंबोडिया, लाओस, थाईलैंड, जापान जैसी जगहों पर चलने वाली राम कथा भी रामायण से थोड़ी अलग होती है | सबसे प्रचलित राम कथाओं में तुलसीकृत रामचरितमानस का नाम शायद सबसे ऊपर आएगा | ये ऐसी भाषा में लिखा गया है जिसे याद रखना काफी आसान है | उसके अलावा इसके हनुमान चालीसा जैसे हिस्से कई लोगों को जबानी याद होते हैं इसलिए भी ये सबको जाना पहचाना लगता है | तुलसीदास के बारे में मान्यता है कि उनके ज़माने के पंडित उन्हें कोई सम्मान नहीं देते थे | उन्हें रामायण पर कुछ भी लिखने का अधिकारी ही नहीं मानते थे ! उनकी लिखी रामचरितमानस में भी कथाक्रम वाल्मीकि रामायण से भिन्न था | कहते हैं जांच के लिए जब उस काल में लिखी रामायणों को रखा गया तो पंडित जन तुलसीदासजी की किताब राम कथाओं के ढेर में सबसे नीचे रख देते | शाम में कपाट बंद होते, अगली सुबह जब कपाट खुलते तो रामचरितमानस सबसे ऊपर आ गई होती ! एक दो बार तो सबने अनदेखा किया मगर बार बार कब तक एक अच्छी किताब को दबाते ? आखिर सबको मानना ही पड़ा कि रामचरितमानस अच्छी है | बाकी जो उसकी जगह थी वो हिन्दू जनमानस ने उसे दे ही रखी है | जैसे ये रामचरितमानस के ऊपर आ जाने की लोक कथा है वैसे ही, कई शेखुलर ताकतों के दुष्प्रचार के वाबजूद अजीब अजीब से सवाल सर उठाते ही रहते हैं | जैसे शुरुआत का ये कपट था कि आर्य कहीं बाहर से आये और उन्होंने द्रविड़ों को अपना गुलाम बना लिया | लेकिन इतिहास के नाम पर परोसे गए टनों लुगदी साहित्य के नीचे से सत्य फिर से सर निकाल लेता था ! एक तो मध्य प्रदेश की गुफाओं में भित्तिचित्र दिखा देते हैं कि भारतीय लोग पहले से ही घोड़े पालते थे इसलिए सिर्फ घुड़सवार, रथारूढ़ हमलावरों का उनसे जीत जाना संभव नहीं लगता | ऊपर से वो जिस रास्ते से रथारूढ़ आर्यों का आना बताते हैं वो रास्ता भी रथ के लायक नहीं | ऐसी ही कुछ बातों के आधार पर बाबा साहेब अम्बेडकर ने अपनी किताबों में लिखा कि आर्य कहीं बाहर से आये लोग नहीं थे | एक ऐसा ही अन्य झूठ भाषा को लेकर भी चलाया जाता रहा | वेटिकन पोषित शेखुलर ताकतें बरसों इस मिथ्या प्रचार में लगी हैं कि संस्कृत एक मृत भाषा है | हिन्दुओं की इस भाषा को कुचलने के लिए कई आर्थिक अवरोध भी खड़े किये गए | आज की तारिख में संस्कृत के शिक्षकों की सरकारी तनख्वाह भी अन्य भाषा के शिक्षकों से कम है | विदेशी भाषाओँ को सीखने में ज्यादा फायदा है कहकर भारत के एक बड़े वर्ग को बरगलाने की कोशिश भी की जाती रही | लेकिन जनसाधारण ने अभिजात्य दलालों के प्रयासों को कभी कामयाब नहीं होने दिया है | सत्ता पोषित, वेटिकेन फण्ड पर अघाए, हिन्दू हितों को हड्डियों की तरह चबाने के प्रयासों में लगे इन कुत्तों पर जब तब लट्ठ पड़ते ही रहे हैं | अब समय है कि हम ऐसे प्रयासों को तेज करें | कल तक सोशल मीडिया के अभाव में जो आवाज दबा दी जाती है उसकी गूँज धमाकों की तरह सुना कर विदेशी डीएनए धारकों के कान फाड़ने होंगे | सुधर्मा संस्कृत दैनिक एक ऐसे ही प्रयास में पिछले चार दशकों से भी ज्यादा से लगा हुआ है | वो विश्व का इकलौता संस्कृत दैनिक निकालते हैं | आइये उनके इस महती कार्य में योगदान करें | एक छोटा सा गिलहरी प्रयास भी रामसेतु बनाने में मायने रखता है |✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| चावल का जिक्र किसी भी बाइबिल में नहीं आता Posted: 18 Jan 2021 07:29 AM PST चावल का जिक्र किसी भी बाइबिल में नहीं आता
संकलन अश्विनीकुमार तिवारी चावल का जिक्र किसी भी बाइबिल में नहीं आता, ईजिप्ट की सभ्यता भी इसका जिक्र नहीं करती। पश्चिम की ओर पहली बार इसे सिकंदर लेकर गया और अरस्तु ने इसका जिक्र "ओरीज़ोन" नाम से किया है। नील की घाटी में तो पहली बार 639 AD के लगभग इसकी खेती का जिक्र मिलता है। ध्यान देने लायक है कि पश्चिम में डिस्कवरी और इन्वेंशन दो अलग अलग शब्द हैं और दोनों काम की मान्यता है। दूसरी तरफ भारत में अविष्कार की महत्ता तो है, लेकिन अगर पहले से पता नहीं था और किसी ने सिर्फ ढूंढ निकाला हो तो खोज के लिए कोई विशेष सम्मान नहीं मिलता। इस वजह से पश्चिमी देशों के वास्को डी गामा और कोलंबस जैसों को समुद्री रास्ते ढूँढने के लिए अविष्कारक के बदले खोजी की मान्यता मिलती है लेकिन भारत जिसने पूरी दुनियां को चावल की खेती सिखाई उसे स्वीकारने में भारतीय लोगों को ही हिचक होने लगती है। कैंसर के जिक्र के साथ जब पंजाब का जिक्र किया था तो ये नहीं बताया था कि पंजाब सिर्फ भारत का 17% गेहूं ही नहीं उपजाता, करीब 11% धान की पैदावार भी यहीं होती है। किसी सभ्यता-संस्कृति में किसी चीज़ का महत्व उसके लिए मौजूद पर्यायवाची शब्दों में भी दिखता है। जैसे भारत में सूर्य के कई पर्यायवाची सूरज, अरुण, दिनकर जैसे मिलेंगे, सन (Sun) के लिए उतने नहीं मिलते। भारतीय संस्कृति में खेत से धान आता है, बाजार से चावल लाते हैं और पका कर भात परोसा जाता है। शादियों में दुल्हन अपने पीछे परिवार पर, धान छिड़कती विदा होती है जो प्रतीकात्मक रूप से कहता है तुम धान की तरह ही एकजुट रहना, टूटना मत। तुलसी के पत्ते भले गणेश जी की पूजा से हटाने पड़ें, लेकिन किसी भी पूजा में से अक्षत (चावल) हटाना, तांत्रिक विधानों में भी नामुमकिन सा दिखेगा। विश्व भर में धान जंगली रूप में उगता था, लेकिन इसकी खेती का काम भारत से ही शुरू हुआ। अफ्रीका में भी धान की खेती जावा के रास्ते करीब 3500 साल पहले पहुंची। अमेरिका-रूस वगैरह के लिए तो ये 1400-1700 के लगभग, हाल की ही चीज़ है। जापान में ये तीन हज़ार साल पहले शायद कोरिया या चीन के रास्ते पहुँच गया था। वो संस्कृति को महत्व देते हैं, भारत की तरह नकारते नहीं, इसलिए उनका नए साल का निशान धान के पुआल से बांटी रस्सी होती है। धान की खेती के सदियों पुराने प्रमाण क्यों मिल जाते हैं ? क्योंकि इसे सड़ाने के लिए मिट्टी-पानी-हवा तीनों चाहिए। लगातार हमले झेलते भारत के लिए इस वजह से भी ये महत्वपूर्ण रहा। किसान मिट्टी की कोठियों में इसे जमीन में गहरे गाड़ कर भाग जाते और सेनाओं के लौटने पर वापस आकर धान निकाल सकते थे। पुराने चावल का मोल बढ़ता ही था, घटता भी नहीं था। हड़प्पा (लोथल और रंगपुर, गुजरात) जैसी सभ्यताओं के युग से भी दबे धान खुदाई में निकल आये हैं। नाम के महत्व पर ध्यान देने से भी इतिहास खुलता है। जैसे चावल के लिए लैटिन शब्द ओरीज़ा (Oryza) और अंग्रेजी शब्द राइस (Rice) दोनों तमिल शब्द "अरिसी" से निकलते हैं। अरब व्यापारी जब अरिसी अपने साथ ले गए तो उसे अल-रूज़ और अररुज़ बना दिया। यही स्पेनिश में पहुंचते पहुँचते अर्रोज़ हो गया और ग्रीक में ओरिज़ा बन गया। इटालियन में ये रिसो (Riso), in हो गया, फ़्रांसिसी में रिज़ (Riz)और लगभग ऐसा ही जर्मन में रेइज़ (Reis) बन गया। संस्कृत में धान को व्रीहि कहते हैं ये तेलगु में जाकर वारी हुआ, अफ्रीका के पूर्वी हिस्सों में इसे वैरी (Vary) बुलाया जाता है। फारसी (ईरान की भाषा) में जो ब्रिन्ज (Brinz) कहा जाता है वो भी इसी से आया है। साठ दिन में पकने वाला साठी चावल इतने समय से भारत में महत्वपूर्ण है कि चाणक्य के अर्थशास्त्र में भी उसका जिक्र आता है। गौतम बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोधन भी धान से आता है और बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति के समय भी सुजाता के खीर खिलाने का जिक्र आता है। एक किस्सा ये भी है कि गौतम बुद्ध के एक शिष्य को किसी साधू का पता चला जो अपने तलवों पर कोई लेप लगाते, और लेप लगते ही हवा में उड़कर गायब हो जाते। बुद्ध के शिष्य नागार्जुन भी उनके पास जा पहुंचे और शिष्य बनकर चोरी छिपे ये विधि सीखने लगे। एक दिन उन्होंने चुपके से साधू की गैरमौजूदगी में लेप बनाने की कोशिश शुरू कर दी। लेप तैयार हुआ तो तलवों पर लगाया और उड़ चले, लेकिन उड़ते ही वो गायब होने के बदले जमीन पर आ गिरे। चोट लगी लेकिन नागार्जुन ने पुनः प्रयास किया। गुरु जबतक वापस आते तबतक कई बार गिरकर नागार्जुन खूब खरोंच और नील पड़वा चुके थे। साधू ने लौटकर उन्हें इस हाल में देखा तो घबराते हुए पूछा कि ये क्या हुआ ? नागार्जुन ने शर्मिंदा होते आने का असली कारण और अपनी चोरी बताई। साधू ने उनका लेप सूंघकर देखा और हंसकर कहा बेटा बाकी सब तुमने ठीक किया है, बस इसमें साठी चावल नहीं मिलाये। मिलाते तो लेप बिलकुल सही बन जाता ! सिर्फ किस्से-कहानियों में धान-चावल नहीं है, धान-चावल की नस्लों को सहेजने के लिए एक जीन बैंक भी है। अपनी ही संस्कृति पर शर्मिंदा होते भारत में नहीं है ये इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टिट्यूट (IRRI) फिल्लिपिंस में है। फिल्लिपिंस का ही बनाउ (Banaue) चावल की खेती के लिए आठवें आश्चर्य की तरह देखा जाता है। यहाँ 26000 स्क्वायर किलोमीटर के इलाके में चावल के खेत हैं। ये टेरेस फार्मिंग जैसी जगह है, पहाड़ी के अलग अलग स्तर पर, कुछ खेत तो समुद्र तल से 3000 फीट की ऊंचाई पर भी हैं। इनमें से कुछ खेत हजारों साल पुराने हैं और सड़ती वनस्पति को लेकर पहाड़ी से बहते पानी से एक ही बार में खेतों में सिंचाई और खाद डालने, दोनों का काम हो जाता है। इस आठवें अजूबे के साथ नौवां अजूबा ये है कि भारत में जहाँ चावल की खेती 16000 से 19000 साल पुरानी परम्परा होती है, वो अपनी परंपरा को अपना कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता ! कृषि पर शर्माने के बदले उसे भी स्वीकारने की जरूरत तो है ही। चावल की दो किस्में होती है | कच्चा चावल और पक्का चावल कहते हैं कहीं कहीं, कहीं अरबा और उसना | अगर धान को उबलने के बाद चावल बना है तो वो बेकार माना जाता है आयुर्वेद में | कच्चा या अरबा चावल को अक्षत की तरह पूजा में इस्तेमाल किया जाता है | जो तिलक लगाते समय आपके सर पर चिपकाये जाते हैं | आयुर्वेद का हिसाब देखें तो इन्हें पीस कर पिया जाता है, या थोड़ी देर भिगो कर खाया जाता है शक्ति के लिए | इसके साथ इस्तेमाल होती है हल्दी | ये जख्म, चोट को ठीक करने के लिए इस्तेमाल होती है | अब जो दूसरी चीज़ उठाई जाती थी उसे देखते हैं | पान उठाया जाता था | कहावत हो ती है आज भी, किसी मुश्किल काम का बीड़ा उठाना | भाई ये जो बारात निकलते समय की परम्पराएँ थी वो किसके लिए ? हमेशा से तो होती नहीं थी ये ! फिर अचानक गजनवी के हमले के बाद से बारात के साथ निकलने वाले बीड़ा क्यों उठाने लगे ? कौन सा भारी काम करने निकलते थे ? ये चावल एनर्जी के लिए ये हल्दी चोट के लिए ? कौन हमला करता था बारात पर ? जाहिर है की जो लोग दामाद के पैर छूने को तैयार होते हैं वो तो नहीं ही करते होंगे न ? फिर कौन थे ? समाज शास्त्र पढ़ा तो है आपने ! परम्पराएँ ऐसे ही नहीं बनती साहब | शरमाते क्यों हैं बताइए न, कौन हमला करता था बारात पर ? पिछले एक दशक के दौरान पता नहीं कब भटिंडा से बीकानेर जाने वाली एक ट्रेन का नाम "कैंसर एक्सप्रेस" पड़ गया। लोग अब ऐसे नाम से ट्रेन को बुलाये जाने पर चौंकते नहीं। कोई प्रतिक्रिया ही ना आना और भी अजीब लगता है। पंजाब के भटिंडा, फरीदकोट, मंसा, संगरूर जैसे कुछ जिले जिनको मालवा भी कहा जाता था, वो पूरा इलाका ही कैंसर को आम बीमारी मानने लगा है। इसकी वजह भी बिलकुल सीधी-साधारण सी है। हरित क्रांति लाने में जुटे, कृषि वैज्ञानिकों ने बताया कि इतने खेत में पचास मिलीलीटर कीटनाशक लगेगा, उससे सुनकर आये किसान ने सोच ये चार पांच चम्मच में क्या होगा भला ? तो उसने पचास का सौ कर दिया लेकिन पंजाब का "किसान" खुद तो खेती करता नहीं उसने अपने बिहारी मजदूर को कीटनाशक छिड़कने दिया। मजदूर ने सोचा ये भी कम है, तो सौ बढ़कर डेढ़ सौ मिलीलीटर हो गया। जब ज्ञानी-गुनी जन चाय और तम्बाकू में कैंसर की वजह ढूंढ रहे थे तो उनके पेट में लीटर-किलो के हिसाब से पेस्टीसाइड जा रहा था। पंजाब के किसान प्रति हेक्टेयर 923 ग्राम कीटनाशक इस्तेमाल कर रहे होते हैं, जबकि देश भर में ये औसत 570 ग्राम/हेक्टयेर है। पंजाब में सिर्फ खाने का गेहूं ही नहीं उपज रहा होता यहाँ कपास भी उपजता है। वैज्ञानिक मानते हैं की कपास पर इस्तेमाल होने इन वाले 15 कीटनाशकों में से 7 या तो स्पष्ट रूप से या परोक्ष रूप से कैंसर की वजह होते हैं। खेती भारत में एक परंपरा है, संस्कृति है। संस्कृति वो नहीं होती जो आप कभी पर्व-त्यौहार पर एक बार कभी साल छह महीने में करते हों, वो हर रोज़ सहज ही दोहराई जा रही चीज़ होती है। अपने मवेशी को चारा देना, खेतों को देखने जाना, बीज संरक्षण, जल संसाधन ये सब रोज दोहराई जा रही संस्कृति का ही हिस्सा हैं। खाने में गेहूं की रोटी ना हो, या पहनने को सूती-कपास ना हो ऐसा एक दो दिन के लिए करना भी भारत के एक बड़े वर्ग के लिए अजीब सा हाल हो जाएगा। इस संस्कृति को हमने छोड़ा कैसे ? ज्यादा उपज के लालच में प्रकृति से छेड़छाड़ भर नहीं की है। सबसे पहले उसके लिए अपनी परम्पराओं को तिलांजलि दे डाली। बीज जो संरक्षित होते थे, स्थानीय लाला के पास से खरीदे-कर्ज पे लिए जाते थे उनके लिए कहीं दूर की समाजवादी दिल्ली पर आश्रित रहना शुरू किया। जो तकनीक दादा-दादी की गोद में बैठे सीख ली थी, वो बेकार मान ली। फिल्मों ने बताया लाला धूर्त, पंडित पाखंडी, जमींदार जालिम है। हमने एक, दो, चार बार, बार-बार देखा और उसे ही सच मान लिया। बार बार एक ही बात देखते सुनते हमने मान लिया कि पुराना, परंपरागत तो कोई ज्ञान-विज्ञान है ही नहीं हमारे पास ! "स्वदेश" का इंजिनियर कहीं अमेरिका से आएगा तो पानी-बिजली लाएगा, गाँव में इनका कोई पारंपरिक विकल्प कैसे हो सकता है ? नतीजा ये हुआ कि रोग प्रतिरोधक, कीड़े ना लगने वाली फसलें पिछले कुछ ही सालों में गायब हो गई। बीज खरीदे जाने लगे, संरक्षित भी किये जाते हैं ये कोई सोचता तक नहीं। किसी ने जानने की जहमत नहीं उठाई की आर.एच.रिछरिया के भारत के उन्नीस हज़ार किस्म के चावल कहाँ गए। उनकी किताब 1960 के दशक में ही आकर खो गई और जब बरसों बाद कोरापुट (ओड़िसा) के किसान डॉ. देबल देव के साथ मिलकर धान के परंपरागत बीज संरक्षित करने निकले तो भी वो करीब दो हज़ार बीज एक छोटे से इलाके से ही जुटा लेने में कामयाब हो गए। इसमें जो फसलें हैं वो बीमारी-कीड़ों से ही मुक्त नहीं हैं। कुछ ऐसी हैं जो कम से कम पानी में, कोई दूसरी खारे पानी में, तो कोई बाढ़ झेलकर भी बच जाने वाली नस्लें हैं। इनमें से किसी को कीटनाशक की भी जरूरत नहीं होती इसलिए इनको लगाने का खर्च भी न्यूनतम है। रासायनिक खाद-कीटनाशक के इस्तेमाल को बंद कर के उत्तर पूर्व का मनिपुर करीब करीब 100% जैविक (organic) खेती करने लगा है। अन्य राज्यों में भी किसानों ने समाजवादी भाषण सुनना बंद कर के जैविक खेती की शुरुआत की है। कम पढ़े लिखे के मुकाबले अब शिक्षित युवा भी खेती में आने लगे हैं। संस्कृति से कट चुके किसानों के परिवार जहाँ मजदूरी के लिए शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं, वहीँ युवाओं का एक बड़ा वर्ग खेती की तरफ भी लौटने लगा है। पंजाबी पुट लिए अक्षय कुमार अभिनीत एक फिल्म आई थी "चांदनी चौक टू चाइना"। वहां आलू के अन्धविश्वास में जकड़े नायक को उसका मार्शल आर्ट्स का गुरु सिखाता है कि मुझे तुम्हारी उन हज़ार मूव्स से खतरा नहीं जिसे तुमने एक बार किया है, मुझे उस एक मूव से डर है जिसका अभ्यास तुमने हज़ार बार किया है। नैमिषारण्य में जब संस्कृति के रोज दोहराए जाने वाली चीज़ की बात हो रही थी तो मेरे दिमाग में कोई कला-शिल्प, नाटक-नृत्य नहीं आ रहे थे। मेरे दिमाग में रोटी-कपड़े के लिए की जा रही खेती चल रही थी जो रोज की जाती है। हमारी संस्कृति तो कृषि है। बाकी संस्कृति को किसी आयातित विचारधारा ने कैंसर की तरह जकड़ लिया है, या फिर संस्कृति को छोड़कर, आयातित खाते-सोचते-पहनते हम कैंसर की जकड़ में आ गए हैं, ये एक बड़ा सवाल होता है। और बाकी जो है, सो तो हैइये है ! रोटी तो पहचानते हैं ना हुज़ूर ? ~~~~~~~~ ये इसलिए पुछा क्योंकि रोटी से जुड़ा कुछ पूछना था | रात में या सुबह के नाश्ते में जब रोटी आप खाते हैं तो वो कैसरोल में रखा होता है | नाम अंग्रेजी का है, Casserole तो जाहिर है ये भारत का कोई परंपरागत बर्तन तो है नहीं | आया कहाँ से ? जिन्हें भारत में टीवी का शुरुआती दौर याद होगा उन्हें एक प्रसिद्ध पारिवारिक सीरियल भी याद होगा | उसका नाम था 'बुनियाद' | रात में जिस वक्त आता था वो टाइम उस दौर में खाना खाने का समय होता था | उसी सीरियल के बीच में कैसरोल का प्रचार आया करता था | लोग जब खाना खा रहे होते थे रोटी उसी वक्त बनाई जाती थी | अब घर की महिलाएं अगर रोटियां सेक रहीं हों, और पुरुष भी चौके में खाना खा रहे हों, तो टीवी पर 'बुनियाद' कैसे देखेंगे ? उसी दौर में कैसरोल का प्रचार आना शुरू हुआ जिसमें कहा जाता था कि रोटियां पहले ही बना के कैसरोल में रख लीजिये | वो गर्म ही रहेंगी तो आप आराम से बैठ कर टीवी देख सकती है | अब कई महिलाएं तो पड़ोसियों के घर टीवी देख रही होती थी, कई जो अपने घर में देख रही होती थीं, उन्हें भी ये आईडिया सही लगा | इस तरह धीरे से भारत के हर घर में कैसरोल आ गया, और रोटियां पहले से बना के रखी जाने लगी | यकीन ना हो तो मम्मी से पूछिए, नानी के पास था क्या कैसरोल ? अभी कन्फर्म हो जाएगा | खैर तो कैसरोल से जो समस्या आई वो ये थी कि रखी हुई रोटियां थोड़ी काली सी पड़ जाती थी | इसके लिए दूसरा तरीका इस्तेमाल होने लगा | मिल वाले आटे को पहले छलनी से छान कर जो चोकर निकाला जाता था वो परथन में इस्तेमाल होता था | अब मैदे जैसा बारीक आटा मिल से ही छनवा कर इस्तेमाल किया जाने लगा | मक्का, जौ जैसी चीज़ें जो गेहूं के साथ ही मिला कर पिसवाई जाती थी वो भी बंद हो गया | इस तरह दिखने में खूबसूरत लगने वाले आटे का फैशन आया | अस्सी के दशक के सीरियल और प्रचार के असर से पिछले करीब बीस साल लोगों ने लाइफस्टाइल डिजीज को आमंत्रण दिया | फिर धीरे लोगों को समझ आने लगा कि ये कम उम्र में डायबिटीज, हार्ट की प्रॉब्लम और ब्लड प्रेशर की समस्याएँ है क्या ! ऐसी कई बिमारियों को मिला कर फिर लाइफस्टाइल डिजीज कहा जाने लगा | लोग अब फिर से पंचरत्न आटे और ये मिक्स आटा तो वो मिक्स आटा खरीदने लगे हैं | वो भी आम आटे से कहीं महंगे दामों पर ! आटे का चोकर भी अब उतनी घटिया चीज़ नहीं नहीं होती | देर रात तक ना खाने के बदले, शाम में जल्दी खा लेना भी अब स्टेटस सिंबल है | धीरे धीरे लोगों को समझ आने लगा है कि भारत की सांस्कृतिक परम्पराएँ बेहतर थी | कांग्रेसी युग में कुछ मुट्ठी भर लोगों ने अपने कम्युनिस्ट चाटुकारों के जरिये जो फैलाया था वो मोह माया ही थी | भारत का बहुसंख्यक समाज अपनी परम्पराओं में ही इकोसिस्टम को शामिल रखता है | असली मूर्ख वो थे जो परम्पराओं का वैज्ञानिक कारण ढूँढने के बदले उन्हें पोंगापंथ घोषित कर रहे थे | उन्होंने कोई वैज्ञानिक जांच किये बिना ही जिन चीज़ों को सिरे से खारिज़ कर दिया था, उनके बंद होते ही पर्यावरण और शरीर पर उनका असर भी दिखने लगा | तथाकथित प्रगतिशील जमात को अब दिवाली पर वायु-प्रदुषण और होली पर पानी की बर्बादी का रोना रोने के बदले वैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत करने चाहिए | गाड़ियों से, फैक्ट्री से, ए.सी. से, फ्रिज से प्रदुषण कितना ? पटाखों-दिए से कितना ? दिए से कीड़े ना मरे तो इकोसिस्टम पर क्या असर होगा ? होली के समय भी बता दीजियेगा | कार धोने से कितना पानी बर्बाद होगा, होली खेलने में कितना ? शेव करने में कितना बहा दिया जाता ? अगर पानी ना छिड़का तो धूल उड़ने से होने वाले प्रदुषण का क्या होगा ? बाकी अधूरी तो कई साल हम सुन चुके हैं, और माफ़ी तो आप कैराना, डॉ. नारंग, वेमुल्ला जैसे संवेदनशील मामलों में भी नहीं मांगते ! इसमें भी आधा ही बताया होगा, सिर्फ अश्वत्थामा मर गया तक, मनुष्य कि हाथी भी बताते ना ? जिन लोगों ने पिछले कई सालों से टीवी देखा होगा उन्हें पुराने ज़माने के टीवी पर आने वाले प्रचार भी याद होंगे | जब टीवी पर रामायण – महाभारत का युग था उस ज़माने के प्रचार ? "वाशिंग पाउडर निरमा" वाला प्रचार सबको याद होगा | उस प्रचार के पीछे बजने वाली धुन बदली नहीं है इसलिए याद रखना आसान है | एक प्रीति जिंटा वाला "लिरिल" का प्रचार भी कई लोगों को याद होगा | हरे भरे से स्विम सूट में, झरने में इठलाती नवयौवना ! खैर हम जिस प्रचार की याद दिलाने बैठे हैं वो "कोलगेट" टूथ पेस्ट का था | उसमें शुरू में एक पहलवान दिखाते थे जो खूब वर्जिश कर रहा होता है | अखाड़े में मुग्दर घुमाता हुआ | जैसे ही वो कसरत के बाद, दाँतों से एक अखरोट तोड़ने की कोशिश करता है, वैसे ही वो दर्द के मारे जबड़ा पकड़ लेता है | फ़ौरन एक दूसरा आदमी पूछता है दांत कैसे साफ़ करते हो ? जवाब में जब पहलवान कोयला दिखता है तो दूसरा आदमी पूछता है, क्या पहलवान बदन के लिए इतना कुछ और दांतों के लिए कोयला ? ये कोयले के बदले टूथ पेस्ट नामक अभिजात्य वर्ग के प्रोडक्ट को बेचने का प्रयास था | अब जरा अभी के उसी कोलगेट टूथ पेस्ट के प्रचार को देखिये | चारकोल वाला टूथ पेस्ट का ऐड तो देखा ही होगा, क्यों ? अब ये बताइये कि जौंडिस के लिए कौन सी दवा ली जाती है ? एलोपैथिक कम्पोजीशन है या आयुर्वेदिक है देखा तो नहीं होगा कभी ! देख लीजिये, लीवर के लिए एलोपैथी में दवाएं नहीं होती, लगभग हरेक आयुर्वेदिक ही होती हैं | इसके अलावा प्लास्टिक सर्जरी के नाम से विख्यात जो तरीका है वो भी 100% भारतीय है | कैसे शुरू हुआ था उसका किस्सा जब भी नेट पर या मेडिकल जर्नल में ढूँढेंगे तो वही लिखा मिलेगा | भारत की दो तीन पीढियां यही देख देख कर बड़ी हुई हैं कि जो भी भारतीय है वो बुरा है | बेकार है | इस सोच के साथ बड़े हुए बुढऊ, सेक्युलर होने के नाम पर भारत की हर चीज़ की बुराई करते अभी भी दिखेंगे | उन्हें संस्कृत बुरा लगेगा, गणित भी विदेशों से आया लगता है | सर्जरी नाई भी किया करते थे, कह दो, तो कहेंगे बिना पढ़े कैसे करते होंगे ? मगर फिर जब भयानक पूँजी के जोर पर वही उन्हें परोसा जाए तो वो उन्हें एलीट लगने लगेगा | ये दरअसल बरसों की कंडीशनिंग का नतीजा है, जिसने उन्हें बीमार, बहुत बीमार बना दिया है | ये बीमार मष्तिष्क और बिगड़ी हुई मानसिकता का नतीजा है | मस्तिष्क सम्बन्धी रोगों के लिए अक्सर आयुर्वेद में ब्राह्मी और भृंगराज जैसी बूटियाँ दी जाती हैं | ये दोनों अक्सर नालियों के पास अपने आप उग आने वाली बूटियाँ हैं | बाकी अपने गंदे नाले से सर निकाल कर एक विशेष प्रजाति के प्राणी अपने आप ब्राह्मी बूटी कभी नहीं चरते ये भी एक निर्विवाद सत्य है | ✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहीत दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| आज 19 - जनवरी - 2021, मंगलवार को क्या है आप की राशी में विशेष ? Posted: 18 Jan 2021 06:48 AM PST
आज 19 - जनवरी - 2021, मंगलवार को क्या है आप की राशी में विशेष ? दैनिक पंचांग एवं राशिफल - सभी 12 राशियों के लिए कैसा रहेगा आज का दिन जाने प्रशिद्ध ज्योतिषाचार्य पं. प्रेम सागर पाण्डेय से श्री गणेशाय नम: पंचांग 19 - जनवरी - 2021, मंगलवार तिथि षष्ठी दिन 11:28:16 नक्षत्र उत्तराभाद्रपद दिन 10:41:56 करण : तैतिल 11:00:27 गर 24:05:17 पक्ष शुक्ल योग शिव 18:46:59 वार मंगलवार सूर्य व चन्द्र से संबंधित गणनाएँ सूर्योदय 06:41:20 चन्द्रोदय 11:15:00 चन्द्र राशि मीन सूर्यास्त 05:19:15 चन्द्रास्त 23:41:00 ऋतु शिशिर हिन्दू मास एवं वर्ष शक सम्वत 1942 शार्वरी कलि सम्वत 5122 दिन काल 10:34:45 विक्रम सम्वत 2077 मास अमांत पौष मास पूर्णिमांत पौष शुभ और अशुभ समय शुभ समय :- अभिजित 12:10:45 - 12:53:04 अशुभ समय :- दुष्टमुहूर्त : 09:21:29 - 10:03:48 कंटक 07:56:51 - 08:39:10 यमघण्ट 10:46:07 - 11:28:26 राहु काल 15:10:36 - 16:29:57 कुलिक 13:35:23 - 14:17:42 कालवेला या अर्द्धयाम 09:21:29 - 10:03:48 यमगण्ड 09:53:13 - 11:12:34 गुलिक काल 12:31:55 - 13:51:15 दिशा शूल उत्तर चन्द्रबल और ताराबल
आज का दैनिक राशिफल 19 - जनवरी - 2021, मंगलवार
पं. प्रेम सागर पाण्डेय् ,नक्षत्र ज्योतिष वास्तु अनुसंधान केन्द्र ,नि:शुल्क परामर्श - रविवार , दूरभाष 9122608219 / 9835654844 दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के लिए राज्यपाल ने दिये 2 लाख 1 हजार रूपये Posted: 18 Jan 2021 06:06 AM PST श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के लिए राज्यपाल ने दिये 2 लाख 1 हजार रूपयेपटना, 18 जनवरी। अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि मंदिर के नवनिर्माण के लिए बिहार के राज्यपाल फागू चैहान ने 2,01,000/- (दो लाख एक हजार) रूपये की समर्पण राशि अर्पित की। उन्होंने अपना समर्पण चेक से प्रदान किया। महामहिम राज्यपाल से उक्त चेक विश्व हिन्दू परिषद् के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद्मश्री डाॅ. आर. एन. सिंह ने प्राप्त किया। पद्मश्री डाॅ. आर. एन. सिंह श्री राम जन्मभूमि समर्पण निधि समिति के बिहार प्रदेश अध्यक्ष भी हैं। इस अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के क्षेत्र प्रचारक (बिहार-झारखंड) रामदत्त चक्रधर, श्री राम जन्मभूमि समर्पण निधि समिति के प्रदेश मंत्री डाॅ. मोहन सिंह, रा.स्व.संघ के दक्षिण बिहार प्रांत प्रचारक राणा प्रताप, बिहार भाजपा के प्रदेश संगठन महामंत्री नागेन्द्र एवं विश्व हिन्दू परिषद् के क्षेत्रीय संगठन मंत्री (बिहार-झारखंड) केशव राजू भी उपस्थित थे। महामहिम राज्यपाल से मिलने के बाद पत्रकारों से बातचीत करते हुए विश्व हिन्दू परिषद् के क्षेत्र संगठन मंत्री केशव राजू ने बताया कि महामहिम अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए उत्साहित हैं। उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद अयोध्या में भव्य मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ है। राम मंदिर निर्माण में ही राष्ट्र नवनिर्माण के बीज छिपे हैं। गत वर्ष अयोध्या से जनकपुर के लिए एक यात्रा निकली थी। उस यात्रा का स्मरण करते हुए महामहिम ने कहा कि नेपाल की एक प्रमुख महिला राजनेता यात्रा को देखकर भावुक हो गयी थी। उन्होंने कहा कि उनके यहां भगवान श्रीराम को पहुना कहा जाता है। लेकिन, दुर्भाग्य है कि पहुना का अपना घर नहीं है। ऐसे में वे लोग जनकपुर से अपनी बेटी को कैसे विदा कर सकते हैं? माता जानकी का जन्म स्थान जनकपुर है, जो नेपाल में पड़ता है। उन्होंने केन्द्र सरकार को धन्यवाद देते हुए कहा कि राम सर्किट में अयोध्या से जनकपुर तक एक अच्छी सड़क बनवाई जा रही है। इससे श्रद्धालुओं को दोनों स्थान की यात्रा करने में सुविधा होगी। दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| सैयद शाहनवाज हुसैन एवं श्री मुकेश सहनी के नामांकन में शामिल हुए मुख्यमंत्री Posted: 18 Jan 2021 05:57 AM PST
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| हिन्दी ‘पाक्षिक सनातन प्रभात’ का 21 वां वर्षगांठ समारोह भावपूर्ण वातावरण में संपन्न ! Posted: 18 Jan 2021 05:52 AM PST हिन्दी 'पाक्षिक सनातन प्रभात' का 21 वां वर्षगांठ समारोह भावपूर्ण वातावरण में संपन्न ! भारतवर्ष हिन्दू राष्ट्र बन जाए, तो संपूर्ण विश्व का कल्याण होगा ! - पू. (डॉ.) शिवनारायण सेन, संपादक, मासिक 'ट्रुथ' 'ट्रुथ'(Truth) मासिक पत्रिका के संपादक और बंगाल के 'शास्त्र धर्म प्रचार सभा' के सहसचिव पू. (डॉ.) शिवनारायण सेन ने प्रतिपादित किया कि, हिन्दू धर्म वैज्ञानिक चिंतन से समृद्ध है । भारत में संगीत, विद्या, स्थापत्त्य, गणित आदि अनेक विषयों पर प्राचीन काल से शोध हुआ है । तमिलनाडु के प्राचीन श्री वराह मंदिर में गर्भावस्था की विभिन्न आकृतियां पत्थर पर कुरेदी गई हैं । अर्थात हमारे पूर्वजों को उस विषय का ज्ञान था । ऐसे अनेक विषयों का ज्ञान हमारे पास पहले से था । इसलिए आध्यात्मिक ज्ञान से जागतिक कल्याण तथा उसका पोषण करने की क्षमता केवल भारत में ही है । एक बार भारतवर्ष धर्माधिष्ठित हिन्दू राष्ट्र बन जाए, तो संपूर्ण विश्व का ही कल्याण होनेवाला है । वे 'ऑनलाइन' संपन्न हुए 'हिन्दी पाक्षिक सनातन प्रभात' के 21 वें वर्षगांठ समारोह में बोल रहे थे । इस कार्यक्रम का प्रारंभ हिन्दू जनजागृति समिति के राष्ट्रीय मार्गदर्शक सद्गुरु (डॉ.) चारुदत्त पिंगळेजी के करकमलों से दीपप्रज्वलन द्वारा किया गया । उसके उपरांत हिन्दी 'पाक्षिक सनातन प्रभात' के वर्षगांठ के अंक का लोकार्पण 'हिन्दू फ्रंट फॉर जस्टिस' के अध्यक्ष पू. (अधिवक्ता) हरि शंकर जैन के करकमलों द्वारा किया गया । इस अवसर पर सनातन संस्था के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. जयंत बाळाजी आठवलेजी ने आशीर्वादरूपी दिए शुभसंदेश का वाचन भी किया गया । इस कार्यक्रम में सनातन प्रभात के पाठक राजस्थान के प.पू. स्वामी संवित सोमगिरी महाराज, सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता उमेश शर्मा, 'लष्कर-ए-हिन्द' के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री. ईश्वरप्रसाद खंडेलवाल ने अपने मनोगत व्यक्त किए । यह कार्यक्रम 'यू-ट्यूब' और 'फेसबुक' के माध्यम से 26,444 लोगों ने देखा । इस अवसर पर सनातन संस्था के राष्ट्रीय प्रवक्ता और 'सनातन प्रभात' के सहायक संपादक श्री. चेतन राजहंस ने कहा कि 'द्रष्टा संतों ने 12 वर्ष पूर्व ही एक समाचार के निमित्त बताया था कि ''तीसरे विश्ववृद्ध के लिए चीन उत्तरदायी सिद्ध होगा ।'' चीनी वस्तुआें का बहिष्कार करने हेतु भी कहा था । आज गलवान-लद्दाख प्रकरणों से चीन और भारत के मध्य की तनावपूर्ण स्थिति को देखते हुए उस दूरदृष्टि की प्रतीति होती है । 'सनातन प्रभात' में प्रकाशित 'लव जिहाद' के षड्यंत्र से मुक्त हुई हिन्दू युवतियों के अनुभव और समाचार का संदर्भ लेकर हिन्दू जनजागृति समिति ने 'लव जिहाद' का ग्रंथ प्रकाशित किया । इस ग्रंथ की 11 भाषाआें में 4 लाख प्रतियां संपूर्ण देश में वितरित हुई । उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा आदि राज्यों में 'लव जिहाद' के विरोध में बनाया गया कानून हम उस समय की गई जागृति का परिणाम मानते हैं । हिन्दुआें पर होनेवाले आघातों के विरोध में हिन्दुआें को जागृत करने का काम 'सनातन प्रभात' ने किया है । इस समय हिन्दू जनजागृति समिति के उत्तर पूर्व भारत के प्रचारक पू. नीलेश सिंगबाळजी बोले, 'मंदिर सरकारीकरण कानून, एन.सी.ई.आर.टी. के पाठ्यपुस्तकों में इतिहास का विकृतीकरण, कुंभमेले के समय रेलवे द्वारा लगाया गया अधिभार तथा कोरोना की पृष्ठभूमि पर जगन्नाथ यात्रा स्थगित करने का न्यायालय का आदेश और इनके समान अनेक विषयों में समिति द्वार किए गए संघर्ष के कारण हिन्दुआें को सफलता मिली है । इसलिए समाज भी इस संबंध में जागृत हुआ है । |
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