दिव्य रश्मि न्यूज़ चैनल |
- कहाँ गये रणछोड़ ?
- फिर बता कमियां
- कलिवर्ज्य और सन्यास
- बालकृष्ण झांकी
- भगवान् गोविन्द का तेज अनन्त है।
- जय श्री कृष्णा
- युग;युग आता बारंबार
- जब - जब होते रहे दो इकट्ठे एक साथ
- बताओ तो सही?
- खेल : शारीरिक क्षमता का विकास
- कोयल और काग
- अफगानी मुसलमानों को सरकार ने यदि शरण दी तो आर्य समाज करेगा आंदोलन : डॉ राकेश कुमार आर्य
- 'श्रीकृष्ण जन्माष्टमी' का महत्व तथा आपातकाल के समय भक्ति के साथ 'श्रीकृष्ण जन्माष्टमी' कैसे मनाएं ?
- आज 30 - अगस्त – 2021 सोमवार का दैनिक पंचांग एवं राशिफल - सभी १२ राशियों के लिए कैसा रहेगा आज का दिन ? क्या है आप की राशी में विशेष ? जाने प्रशिद्ध ज्योतिषाचार्य पं. प्रेम सागर पाण्डेय से |
- सृजन पथ को क्यों छोड़ा है
- सन्यास की वर्जना वाले हिन्दू सम्प्रदाय
- धर्मज्ञ और वेदज्ञ ब्राह्मण ही धर्मविषयों में प्रमाण हैं
- दिव्यांगों के लिये विशेष कैम्प आयोजित
- कुंडलिया सम्हल कर चल
- असमिया लोग भादो के महीने को बहुत ही पवित्र मानते हैं ।
- गया ;चिकित्सा की परंपरा और प्रकर्ष
- 101 साल बाद कृष्ण जन्माष्टमी पर बन रहा विशेष संयोग
- डा.भगवती शरण मिश्र का निधन अपूर्णीय क्षति है
- पंडित श्री सुरेश दत्त मिश्र जी को भावभीनी श्रद्धांजली
Posted: 29 Aug 2021 10:39 PM PDT कहाँ गये रणछोड़ ?चीर हरण नित हो रहे, द्रोपदियॅा लाचार। दुष्शासन मदमस्त हैं, बढा खूब ब्यभिचार।। नाम धर्म का ले यहाँ, मची हुई है लूट। जाति-धर्म के नाम पर, डाल रहे हैं फूट।। दिन दूना बढ़ने लगा, देखो यहाँ अधर्म । बहुत दिनों से यहाँ पर, दिखें नहीं शुभ कर्म।। तुम भी नटवरलाल हो, ये भी नटवरलाल। झूठों ने इस दौर का, हाल किया बेहाल।। धुप्प अंधेरा हर तरफ, साफ न कोई कोण। रोटी के लाले पड़े , कहाँ गये रणछोण।। मॅहगाई चाटे जड़े गाल हो गये लाल। समाधान के नाम पर, सिर्फ बजाते गाल ।। कंस पूतना का किया था तुमने उद्धार। इसयुग के जो कंस हैं, उनसे कैसा प्यार।। कन्हा अब तो आइये, हुये सभी हलकान। पानी सर पर चढ़ गया, कुछ तो करें निदान।। चलते पुर्जा आप हरि, आओ लेकर चक्र। ढोगी भक्तों का करो, जड से खत्म कुचक्र।। * ~जयराम जय पर्णिका,11/1,कृष्ण विहार, आवास विकास, कल्याणपुर, कानपुर -208017(उ प्र) दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
Posted: 29 Aug 2021 10:34 PM PDT फिर बता कमियां ---:भारतका एक ब्राह्मण. संजय कुमार मिश्र "अणु" एक समान, कहाँ फिर पाती है- अंगुलियां।। और ये पैर, कहाँ फिर पाता है- उठा एडियां।। कांपता है पैर, इधर-उधर जाने में, देख परिस्थितियां।। थरथरा है हाथ, खुद हाथ लगाने में, पा कुरीतियां।। कहाँ स्वीकारता है पेट, हरेक का भेट- चाहे हो लाख खुबियां।। कहाँ लगता है मुंह, देख देह रुह- इशारे पा या युक्तियाँ।। हर कोई नहीं होता संग, अंग,प्रत्यंग,अंतरंग- रहती हीं है दुरियां।। कहाँ सबको मिलता कंधा, चाहे वह लाख हो बंधा- या फिर रहे मजबूरियां।। हमेशा नहीं मिलती हैं अंगुलियां। साथ रहकर भी रखती है दूरियां।। खुद देखकर तुम तय करलो इसे- वजह क्या है?फिर बता कमियां।। ---------------------------------------- वलिदाद,अरवल(बिहार)804402. दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
Posted: 29 Aug 2021 10:30 PM PDT प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज वर्तमान में कलिवर्ष 5122 (मतान्तर से 5123) चल रहा है। कलियुग के 4400 वर्षों के उपरांत सन्यास को वर्जित किया गया था। यह बात प्रायः उठाई जाती है। परंतु स्मृतिमुक्ताफल एवं यतिधर्मसंग्रह के अनुसार जब तक वर्णाश्रम धर्म की परंपरा चलती रहेगी तब तक सन्यास और अन्य परंपरायें भी चलती रहंेगी - अग्न्याधेयं गवालम्भं संन्यासं पलपैतृकम्। देवरेण सुतोत्पत्तिं कलौ पन्च विवर्जयेत्।। तस्यापवादमाह स एव। यावद्वर्णविभागोऽस्ति यावद्वेदः प्रवर्तते। तावन्न्यासोऽग्निहोत्रं च कर्तव्यं तु कलौ युगे।। (स्मृतिमुक्ताफल, वर्णाश्रम, पृष्ठ 176 तथा यतिधर्मसंग्रह, पृष्ठ 2 एवं 3, पांडुरंग वामनकाणे कृत धर्मशास्त्र का इतिहास, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ द्वारा प्रकाशित, प्रथम भाग, चतुर्थ संस्करण 1992 में पृष्ठ 501 एवं 502 में उद्धृत) अर्थात् अग्न्याधेय, यज्ञ में स्पर्श पूर्वक गाय को मुक्त छोड़ देना (वृषभ छोड़ने या वृषोत्सर्ग से यह भिन्न है। इसमें गायों को मुक्त छोड़ने की बात है।), सन्यास, पल-पैतृक तथा पति के नहीं रहने पर अथवा पति की अनुमति से देवर से पुत्र की उत्पत्ति - ये पांच बातें कलि के 4400 वर्ष बीतने के बाद वर्जित हैं। परंतु इसका अपवाद भी शास्त्र में निर्दिष्ट है। जब तक समाज के एक बड़े हिस्से में वर्ण व्यवस्था एवं आश्रम व्यवस्था प्रवर्तित है और वेदों का पठन-पाठन प्रवर्तित है, तब तक यज्ञ, अग्निहोत्र एवं सन्यास कलियुग में भी कर्तव्य है। हेमाद्रि (13वीं शताब्दी ईस्वी) ने 7 कलिवर्ज्य गिनाये हैं और कुछ अन्य विद्वानों ने (17वीं शताब्दी ईस्वी में) 26 कलिवर्ज्यों का उल्लेख किया है। इसमें मुख्य हैं - बड़े बेटे को पैतृक सम्पत्ति का अधिकांश या सम्पूर्ण देना, नियोग, औरस तथा दत्तक पुत्र को छोड़कर अन्य पुत्रों की परम्परा चलाना, विधवा विवाह, भूख की स्थिति में तीन दिन तक भूखे रहने पर शूद्रों या नीच लोगों से भी अन्न ग्रहण करना, समुद्र यात्रा, दीर्घकालीन यज्ञ सत्रों का आयोजन, कमन्डलु धारण, वानप्रस्थ आश्रम, पतित की संगति से प्राप्त अपवित्रता, वर्जित स्त्रियों के साथ रतिसंबंध रखने पर प्रायश्चित के उपरांत जाति संसर्ग, दूसरे के लिये अपने जीवन का परित्याग, भोजन से बचे हुये पदार्थ का दान, अपने चरवाहे (गौरक्षक) या अपने दास या किसी भी वर्ण के अपने वंशानुगत मित्र अथवा किसी भी वर्ण के साझेदार के यहां ब्राह्मण द्वारा भोजन करना, दूर-दूर तक तीर्थों की यात्रा पर जाना, स्त्रियों द्वारा तीर्थयात्रा, आपत्ति की स्थिति में ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रिय एवं वैश्य की वृत्तियों को धारण करना, ब्राह्मणों द्वारा भविष्य के लिये धन या अन्न का संग्रह ना करना, ब्राह्मणों द्वारा लगातार यात्रायें करना, अपवित्र स्त्रियों के साथ शास्त्र से अनुमोदित सामाजिक संसर्ग की अनुमति, सन्यासी द्वारा सभी वर्णों के सदस्यों से भिक्षा लेना, ब्राह्मणों द्वारा अपने घर में शूद्र के द्वारा भोजन बनवाना, वृद्ध लोगों द्वारा आत्महत्या करना, सन्यास ग्रहण, दीर्घअवधि का ब्रह्मचर्य आदि। परंतु इन कलिवर्ज्यों का सम्पूर्ण पालन कभी देखने को नहीं मिलता। इसका अर्थ है कि विभिन्न धर्मशास्त्रकारों ने इन कलिवर्ज्यों की उपेक्षा की अनुमति अवश्य दी होगी। क्यांेकि 15 अगस्त 1947 ईस्वी तक सम्पूर्ण हिन्दू समाज में धर्मशास्त्रों के पालन पर सर्वानुमति थी। अतः इन कलिवर्ज्य की उपेक्षा तब तक असंभव है, जब तक धर्मशास्त्र में ही इस उपेक्षा की अनुमति ना हो। इसी संदर्भ में हमने स्मृतिमुक्ताफल और यतिधर्मसंग्रह के श्लोकों को उद्धृत किया है। ऐसा लगता है कि जब तक वेदों के प्रति आदरपूर्ण पठन-पाठन विद्यमान है और वर्णव्यवस्था के प्रति आदरभाव विद्यमान है, तब तक ये कलिवर्ज्य उपेक्षणीय माने गये हैं। क्योंकि 18वीं शताब्दी ईस्वी तक मराठे एवं गुजराती तथा दक्षिण भारत के सभी प्रतापी हिन्दू सम्राट निरंतर समुद्र यात्रा करते रहे हैं और अत्यंत समृद्ध नौसेना रखते रहे हैं एवं भारतीय व्यापारी 20वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य तक समुद्री मार्गों से व्यापार करते रहे हैं और वे पूर्णतः धर्मनिष्ठ माने जाते रहे हैं। 20वीं शताब्दी ईस्वी के उत्तरार्द्ध के बाद भी भारतीय व्यापारी समुद्री मार्ग से व्यापार करते रहे हैं, परंतु उसका उल्लेख इस संदर्भ में सम्यक नहीं है। क्योंकि 15 अगस्त 1947 ईस्वी के बाद तो हिन्दू धर्मशास्त्रों को वर्तमान भारतीय राज्य ने कोई विधिक मान्यता ही नहीं दे रखी है और हिन्दू धर्म को कोई वैसा राजकीय संरक्षण भी नहीं दिया है, जैसा कि विश्व के सभी राष्ट्रराज्यों में बहुसंख्यकों को प्राप्त है। अतः धर्मशास्त्रों को समाज व्यवस्था का अंग नहीं रहने देने वाला वर्तमान भारतीय राज्य सनातन धर्म से उदासीन राज्य है और शक्तिशाली तथा सम्पन्न हिन्दुओं ने इस पर कोई प्रभावपूर्ण आपत्ति भी विगत 75 वर्षों में नहीं की हैै। अपितु विचित्र वाग्जाल से युक्त चर्चायें ही वे लोग भी इन विषयों पर करते रहे हैं। धर्मशास्त्रों को अस्वीकृत करने वाली शासन व्यवस्था के प्रति सक्षम विरोध के अभाव में वर्तमान सामाजिक कार्यों को धर्मशास्त्रों की निरंतरता में नहीं देखा जा सकता। परंतु तीर्थयात्रा, पूजापाठ, मठ-मंदिर, यज्ञ-हवन, दान-पुण्य आदि अभी भी धर्मशास्त्रों को ही प्रमाण मानते हुये किये जाते हैं। अतः उस संदर्भ में धर्मशास्त्र ही महत्वपूर्ण हैं। प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
Posted: 29 Aug 2021 10:26 PM PDT बालकृष्ण झांकीनंद के नन्दन, भर आँख में अंजन, भाल पै चन्दन, विचरत शोभित हैं; उस देवकीनंदन, कंस निकन्दन पर- गोकुल की मैया, कित मोहित हैं! इन कजरारी अखियन पर भारी- सखियों की अखियाँ लोहित हैं; बसुदेव लला बालकला देखन- पाटलिपुत्र के सारे लोभित हैं! मोर पंख मयूख मुकुट संग- कान के कुण्डल कित दमकत हैं; हाथ में मुरली, डगमग पग से- इत-उत जो झूमत, चमकत हैं! एक रूप बालकृष्ण के धर - यशोदा के लला सब विलसत हैं; मुख में ले बैन, चमकावत नैन- देखहू सब प्यारे हुलसत हैं! झांकी में पधारे प्यारे कृष्ण के- नयनों के सब मतवारे हैं; नाचत-गावत, सब धूम मचावत- कृष्ण सों ही सारे न्यारे हैं! राधा को लख-लख सगरे राधा- अपने-अपने मन को तारे हैं; इस झांकी की अपूर्व छटा में- किसके हिय फूटे नहीं हुलारे हैं! - योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे. पी. मिश्र) जन्माष्टमी की शुभकामनाएँ! दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
भगवान् गोविन्द का तेज अनन्त है। Posted: 29 Aug 2021 10:20 PM PDT भगवान् गोविन्द का तेज अनन्त है।संकलन अश्विनीकुमार तिवारी अनन्ततेजा गोविन्द: शत्रुपूगेषु निव्यर्थ:। पुरुष: सनातनमयो यत: कृष्णस्ततो जय:।। (*महाभारत, भीष्म पर्व 21/13-14) 🚩 भगवान् गोविन्द का तेज अनन्त है। वे वैरियों के समुदाय में भी कभी व्यथित नहीं होते क्योंकि वे सनातन पुरुष अर्थात् परमात्मा हैं। जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है। 🦚 श्रीकृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव की बधाई...। नगरी - जहां श्रीकृष्ण की पूजा का प्राचीनतम प्रमाण है #Nagri_madhyamika चित्तौड़गढ़ का इलाका तब शिबियों के अधिकार में था और चारों ही ओर गोचारकों की बहुलता थी। ये गोठां कहे जाते थे, इनके बीच जो क्षेत्र था वह 'माध्यमिका' कहा जाता था। देशज भाषा में मज्झमिका। यही वह क्षेत्र था जहां चांदी की उपलब्धता को देखकर यवनों की सेना ने सेनापति अपोलोडोटस के नेतृत्व में हमला किया। स्वयं पतंजलि ने उस घेरे को देखा और अपने 'महाभाष्य' में उसका जिक्र किया। यह वह दौर था जबकि मिनेण्डर ने भारत पर हमला किया था और बौद्ध मत को स्वीकार किया था। यह स्थान वही है जिसको पाण्डवों ने विजित किया और उस विजय की याद को व्यासजी ने 'महाभारत' में लिखा। इस माध्यमिका के नष्ट होने का प्रमाण सर्वप्रथम वराहमिहिर ने दिया है। ह्वेनसांग ने इस इलाके का वर्णन किया है, खासकर यहां की उपज निपज का। यह मुख्यमार्ग पर था और विदिशा, मथुरा से जुड़ा हुआ था। गुजरात के वस्त्रापथ-जूनागढ़ से लगा हुआ। नगरी तक उत्तरी भारत के कई यात्रियों का आना जाना लगा रहता था। इनमें समुद्रतटीय लोग भी थे तो बाहर से आने वाले भी। यहां से वैष्णव मत के प्रचार का श्रीगण्ोश हुआ और संकर्षण या बलदेव के साथ ही वासुदेव श्रीकृष्ण की पूजा के लिए स्थण्डिल जैसे स्थान का प्रयोग किया गया जो वर्तमान के मंदिर का प्रारंभिक रूप था। यह स्थण्डिल वाटिका के भीतर होता था। यह बाड़ी नारायण वाटिका के नाम से ख्यात हुई। दूसरी सदी ईसापूर्व में अश्वमेध यज्ञ करने वाले पराशरी पुत्र सर्वतात ने इस नारायण वाटिका के लिए परकोटा बनवाया और उस पर दो शिलालेख एक ही पाठ वाले लगाए। यह शिलालेख आज तक मौजूद है, ब्राह्मीलिपि वाला। उदयपुर के राजकीय पुरातत्व विभाग के संग्रहालय में देखा जा सकता है। प्रो. भांडारकर को इस शिलालेख को पढ़ने का श्रेय है। उन्होंने जब इस मान्यता को उठाया तो वासुदेव शरण अग्रवाल ने स्वीकारा कि यही वह स्थान है जहां विदिशा के हेलियोदोरस के गरुडस्तंभ के निर्माण से पूर्व वासुदेव श्रीकृष्ण की पूजा आरंभ हो चुकी थी। इस प्रकार यहां श्रीकृष्ण की पूजा का प्राचीनतम प्रमाण मिलता है, अब वह नारायणवाटिका नहीं रही, मगर वहां लगा प्रकाशस्तंभ आज भी इस तथ्य को अपने हृदय में संजोये हुए है। बार बार मुझे यह नगरी गांव याद आता है जिसने दुनिया के लिए वासुदेव काे पहली बार प्रतिष्ठा के योग्य समझा और उसकी सशक्त शुरुआत पराशरी पुत्र महाराजा सर्वतात ने की थी। श्रीकृष्ण और यूनान के प्रसंग... #जन्माष्टमी भारत में धर्म और आस्था के मूलाधार श्रीकृष्ण को माना गया है। उनके गीता में कहे गए वचनों पर कौन विश्वास नहीं करता। भारत में छपने ज्यादा छपने और बिकने वाला ग्रंथ ही श्रीमद़भगवदगीता है। किंतु, यूनान की माइथोलॉजी बताती है कि श्रीकृष्ण का यूनान के साथ गहरा संबंध रहा है। सबसे पहले प्रो. भांडारकर और जेकोबी ने इस संबंध में अपने मत दिए थे। हाल ही मेरे परम सहयोगी इंडोलॉजी के विद्वान प्रो. भंवर शर्मा, उदयपुर ने यूनानी माइथोलॉजी का अनुवाद किया तो पाया कि भारतीय कृष्णकथा का अद़भुत संबंध यूनान से रहा है। एक-एक कथा प्रसंग में यूनान पैठा हुआ है। फिर, श्रीकृष्ण के साथ जिस मुद्रा का संबंध हरिवंश में बताया गया है, वह 'दीनार' है। यह कहां की मुद्रा है, हरिवंश में आया है - माथुराणां च सर्वेषां भागा दीनारका दश।। सूतमागध बंदीनामेकैकस्य सहस्रकम़। (हरिवंश, विष्णुपर्व 55, 51-52) पढने वालों को गुस्सा भी हो सकता है, फिर यह भी कहा जा सकता है कि भारत से ही यह कथा यूनान गई... भारतवर्ष की प्रभाव क्षेत्र की सीमा आज से कहीं ज्यादा थी। उनके अनुवाद-अध्ययन के कुछ प्रसंग : क्रीट के राजा देवक्लीयन का सबसे बडा पुत्र हेलेन सभी ग्रीकों का पिता कहा गया है। इससे इओनियन, एकियन, एओलियन और डोरियन-- चार वंश चले। हेलेन, हेली, हेलीली आदि श्रीकृष्ण के ही नाम हैं - गोपालसहस्रनाम स्तोत्र में आया है - कोलाहलो हली हाली हेली हल धरो प्रियो। (श्लोक 20) कथा आई है कि स्वर्ग के राजा यूरेनस ( तुलनीय -उग्रसेन) को क्रोनस (कंस) राज्य छीनकर अपनी बहन ह्रिया को (पत्नी बनाकर, महाभारत काल में ऐसी परंपरा के प्रसंग महाकाव्य में आए हैं) अपने अधिकार में कर लेता है। दिवंगत होते हुए उसकी माता पृथवी और पिता यह भविष्य करते हैं- क्रोनस को उसके बहन के पुत्रों में से एक राजसिंहासन से हटाएगा। वह पांच बच्चों को जिंदा खा गया। बहन ह्रिया घबरा गई। उसने अगले पुत्र जयस (श्रीकृष्ण का पर्याय जय : पांचजन्यकरो रामी त्रिरामी वनजो जय, गोपालसहस्रनाम 47) को जब पैदा किया तो नील नदी ( तु. यमुना) में स्नान कराकर भूमि को सौंप दिया जो कि पर्वतीय प्रदेश में ( तु. गोवर्धन पार के गांव में) छिपा आई। वनदेवी इयो (गायों) और अजदेवी (वृष्णि, बकरी) ने उसका लालन पालन किया। कोनस जब ये जान गया तो ह्रिया ने उसे कपडे में पत्थर बांधकर दे दिया। वह उसे भी खा गया। जब उसे धोखे का पता चला तो जेयस नाग (कालिय) बन गया। यह जेयस इडा के पहाडों में बसे ग्वालों के बीच बडा हुआ और तरकीब से क्रोनस का पानेरी बना। एक बार उसने क्रोनस को कुछ ऐसा पिला दिया कि उसके पेट से जयस के पूर्व भाई-बहन बाहर आ गए जिन्होंने जयस को अपना मुखिया चुना। जेयस ने क्रोनस को अपने वज्र से मार गिराया। यूनानी माइथोलॉजी के मुताबिक जेयस की पहली विजय, पहली सदी ई. पूर्व के लेखक थालस के अनुसार टाय के घेरे में 322 साल पहले हुई, अर्थात् 1505 ईसा पूर्व। अधिकांश विद्वानों ने कृष्ण व कंस का इतिहास में यही काल तय किया है। इस कथा में एराधिन के साथ जयस के संबंध राधा-कृष्ण के प्रसंगों के परिचायक है। जेयस ने बैल का रूप धरकर लीबिया की राजकन्या यूरोपी (तु. रुकमिणी) का हरण किया। उससे तीन पुत्र हुए मीनो, राधामंथिस और सर्पदन। मीनों क्रीट के शासक हुए और राधामंथिस स्मृतिकार। मीनों की पत्नी पेसिफी हुई जो सबके लिए चमक लिए थी, अर्थात् कीर्ति। पुराणों में वृषभानु की पत्नी का नाम भी कीर्ति ही आया है। अगली एक कथा में एद्रोस्टस ( तु. द्रुपद) की पुत्री देयदामिथा (द्रोपदी) चचेरे भाइयों के रूप में शतम् (कोरव) और नेस्टर (घोंसले वाला, शकुनी) आदि के आख्यान है...। है न भारतीय पुराणों की कथा की साम्यता रखने वाला प्रसंग...। यवनों ने विदिशा में हेरक्लीज का स्तंभ बनाया। यह हेरक्लीज ही हरिकृष्ण है जो ग्रीक साहित्य में बहुत महत्व रखता है। (न्याय, अजमेर के दीपावली अंक, 1962 में प्रकाशित प्रो. शर्मा का लेख और साक्षात्कार पर आधारित) श्रीमदभगवद्गीता की रचना कहां हुई ? भगवद्गीता महाभारत का विशिष्ट अंग है, किंतु इसकी रचना कहां हुई, जन्माष्टमी को पाठ करते-करते यह सवाल मेरे मन में रहा और मैं अंतर्साक्ष्य की खोज में ही एक-एक श्लोक पर विचार करता रहा। यह माना गया है कि यह ग्रंथ महाभारत के 'नारायणीय खंड' में स्मरण किया गया है। संयोग से वहां इसका नाम 'हरिगीता' आया है। इसका आशय है कि नारायणीय की रचना से पूर्व गीता की रचना हो गई थी और इसी कारण नारायणीय में इसका उल्लेख हुआ है। अध्ययन से विदित होता है कि जिस भगवद्गीता को भगवान कृष्ण ने करुक्षेत्र में अर्जुन को कहा, वह ग्रंथ रूप में उस क्षेत्र में सामने आया जो अव्वल पश्चिम भारत के अंतर्गत था। बहुत संभव है कि वह राजस्थान हो, चूंकि इस पर भृगु वंशीयों का प्रभाव है और वे इसी क्षेत्र में फैले हुए थे जिन्हें मनुस्मृति की रचना का भी श्रेय है। उन्होंने ही महाभारत के मूल संस्करण 'जय संहिता' की भी रचना की। गीता में महर्षियों में भृगु को विष्णु का रूप बताया गया है - महर्षीणां भृगुरहं। (गीता 10, 25) गीता में वैवस्वत, इक्ष्वाकु आदि मनुओं के नाम आए हैं। तब चार मनुओं की ही मान्यता थी, न कि चौदह -चत्वारो मनवस्तथा। (10, 6) इसके संस्कृत रूप का रचनाकार मरुभूमि और जलीय भूमि अर्थात् गुजरात के क्षेत्र को भली भांति जानता था। उस काल में, गुर्जरत्रा से पूर्व पूरा क्षेत्र एक ही था, अपरांत। रचनाकार पिंडोदक या जलीय क्रिया को जानता था। उदाहरण के तौर पर यह कहा गया है कि जैसे अनेक नदियों का जल अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में बिना विचलित किए ही समा जाता है - आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्। (2, 70) जल में रस की बात आई है- रसोअहमप्सु। (7, ग्रंथकार ने नाव शब्द नौका के लिए काम में लिया है (वायुर्नावमिवाम्भसि, 2, 67), यह नाव, नावडू, आदि नाम से राजस्थानी और अन्य निकटवर्ती भाषाओं में प्रचलित है। तरना जैसा शब्द आया है- मायामेतां तरन्ति ते। (9, 14) मिट्टी, भाटा, सोना जैसी कहावत इस प्रदेश में पर्याप्त प्रचलित रही है, गीताकार भी इससे चूका नहीं है- समलोष्टाश्मकांचन:। (6, होरा शब्द इधर ही पहले प्रचलित हुआ, जो काल के संदर्भ में आता था- ते अहोरात्रविदो जना:। (8, 17) भगवद्गीता में इसी प्रकार की शब्दावली का प्रयोग हुआ है। कुछ स्थल ज्ञातव्य है -- रचनाकार विराट का नाम लेना नहीं भूला है। यह राजस्थान के अंतर्गत रहा है। समुद्र से प्राप्त शंखों का उल्लेख हुआ है और उनके नामों का विशेष् रूप से जिक्र हुआ है। समुद्र क्षेत्र के निवासी अथवा समुद्रवर्ती को ही शंखों की इस तरह की जानकारी होती है। (पांचजन्य, देवदत्त पौंड्र्, अनन्तविजय, सुघोष, मणिपुष्पक आदि शंखों के नाम, पहला अध्याय) पहले अध्याय में शंख के साथ वाद्यों के रूप में भेरी, पणव, आनक या ढोल, गोमुखा आदि का नाम है, ये इसी क्षेत्र में प्रचलित थे। जिन निमित्तों का जिक्र हुआ है, उन पर सर्वाधिक विचार इसी क्षेत्र में हुआ। विशेषकर कुषाणकाल में इन पर अंगविज्जा नामक ग्रंथ ही लिखा गया। ग्राम इधर बहुत प्रचलितत शब्द रहा है, गीता में अनेकत्र इंद्रियग्राम, भूतग्राम शब्दों का व्यवहार हुआ है- भूतग्राम: स एवायं। (8, 19) वैदिक क्रियाएं इधर ही अधिक प्रचलित थीं, अभिलेखीय प्रमाण भी इधर से ही मिले हैं। मरुभूमि का निवासी ही जानता है कि भतूलिया आकाश में व्याप्त वायु को बता सकता है, गीताकार को यह उदाहरण बहुत भाया है- यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान्। (9, 6) ऐसे ही ओर भी उदाहरण हो सकते हैं जो इस ग्रन्थ को राजस्थान की भूमि से संबद्ध करता है। प्रसिद्ध विद्वान सुकथंकर की अवधारणा इसे पश्चिम भारतीय रचना बताती है और वे इसे भार्गवों के प्रभाव से प्रेरित मानते हैं। (सुकथंकर मेमोरियल एडिशन, पेज 308-16, विशेष द्रष्टव्य - सुवीरा जायसवाल - वैष्णवधर्म का उदभव और विकास, पेज 11-12) विंटरनिट्ज का मत है कि यह मूलत: भागवतों की रचना थी, ईसा पूर्व दूसरी सदी में किसी समय इसकी रचना हुई। एक विनम्र विचार- अब थोड़ी सी चर्चा दाऊ भैया की भी करते हैं जिनका जन्म भी भादो माह में हुआ था- दाऊ भैया : बलदेव : संकर्षण * कृषि और उत्पादों के संस्करण के जनक जिनको खेती से जुड़े समाज ने प्रथमत: महत्व दिया। विष्णु धर्मोत्तर पुराण के अनुसार इनके चिह्न हल और मूसल के अंकन से कृषि करने वाली स्त्रियां अपने घरों की भित्तियां सजाती थीं ताकि समाज जनों को खेती के महत्व का बोध हो... भागवत जन कृषि को महत्व देने वाले हुए क्योंकि यज्ञादि सभी अनुष्ठान उत्पादन से ही संभव होते हैं। दूधारणी : बलदेव की पूजा का दुग्धपर्व मेवाड़-मालवा में भादौ मास में प्राय: शुक्ल पक्ष की सप्तमी को कई जगह 'दूधारणी' पर्व मनाया जाता है। यह पर्व अहीर-गुर्जरों के भारत में प्रसार के काल से ही प्रचलित रहा है और खासकर कृषिजीवी जातियों की बहुलता वाले गांवों में मनाया जाता है। पशुधन की सम्पन्नता पर आधारित है। यद्यपि आज यह देवनारायण की पूजा के साथ जुड़ गया है, मगर यह बलदेव की पूजा का प्राचीन लोकपर्व है। उस काल का, जबकि बलदेव को "संकर्षण" कहा जाता था। वे हलधर है, हल कृषि का चिन्ह है और कर्षण होने से वे संकर्षण अर्थात हल खींचने वाले कहलाए। मेवाड़ के नगरी मे मिले ईसापूर्व पहली-दूसरी सदी के अभिलेख में वासुदेव कृष्ण से पूर्व संकर्षण का नाम मिलता है। मेवाड़ में बलदेव के मंदिर कम ही हैं, पहला नगरी में नारायण वाटिका के रूप में बना और फिर चित्तौड़गढ़ जिले के आकोला, मेरे जन्म के गांव में 1857 ई. में महाराणा स्वरूपसिंह के शासनकाल में बना। इस पर्व के क्रम में जिन परिवारों में दूधारू पशु होते हैं, उनका दूध निकालकर एकत्रित किया जाता है। प्राय: पंचमी तिथि की संध्या और छठ की सुबह का दूध न बेचा जाता है, न ही गटका जाता है बल्कि जमा कर गांव के चौरे पर पहुंचा दिया जाता है। वहीं पर बडे़ चूल्हों पर कडाहे चढ़ाए जाते हैं और खीर बनाई जाती है। पहले तो यह खीर षष्ठितंडुल (साठ दिन में पकने वाले चावल) अथवा सांवा (ऋषिधान्य, शाल्यान्न) की बनाई जाती थी मगर आजकल बाजार में मिलने वाले चावल या गेहूं के रवे से तैयार की जाती है। इस खीर का ही पूरी बस्ती के निवासी पान करते हैं, खासकर बालकों को इस दूध का वितरण किया जाता है। बच्चों को माताएं ही नहीं, पिता और पितामह भी मनुहार के साथ पिलाते हैं। इस पर्व के दिन गायों को बांधा नहीं जाता, बैलों को हांका नहीं जाता। प्राचीन लोकपर्वों की यही विशेषता थी कि उनमें आनुष्ठानिक जटिलता नहीं मिलती। उदयपुर के पास कानपुर, गोरेला आदि में यह बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है ओर पलाश के पत्तों के दोनें बनाकर उनमें खीर का पान किया जाता है। मित्र प्रमोद सोनी ने एक चित्र भेजा तो मैंने यह लिख दिया। प्रमोद को धन्यवाद और आपकी खिदमत में मेरी मान्यताओं का यह विवेचन। (श्रीकृष्ण जुगनू - मेवाड का प्रारंभिक इतिहास, तृतीय अध्याय) मेरे मित्र ' Nirdesh K. Singh ' ने कुछ समय पूर्व 'राष्ट्रीय संग्रहालय' में रखी तथाकथित 'विष्णु' प्रतिमा को देखा, और जैसा कि उस प्रतिमा के बारे में संग्रहालय ने जानकारी दी, उस जानकारी को हम सभी तक पहुंचाया . इस प्रतिमा के बारे में बताया गया कि यह 'विष्णु' की प्रतिमा है जो 'मेहरौली' से प्राप्त हुई और 'गहड्वाल काल' की है... बहुत बहुत शुक्रिया निर्देश भाई ... आपकी वजह से हमको बहुत सी नयी बातें पता चलती हैं .. लेकिन , मुझे जानकर अचम्भा हुआ कि 'गहड्वाल' तो कभी दिल्ली के शासक नहीं रहे फिर सोचा कि हो सकता है, प्रतिमा कन्नौज में रही हो और समय के साथ दिल्ली आ पहुंची हो ... परन्तु उत्सुकता के कारण मैं अपने आप को रोक नहीं सका और इस शनिवार को मैं भी 'राष्ट्रीय संग्रहालय' पहुँच गया और प्रतिमा पर लिखे 'लेख' को सावधानी से समझने की कोशिश की कुछ छायांकन भी किया साथ ही जब विद्वानों की पुस्तकों को मेहरौली की इस प्रतिमा के परिपेक्ष्य खंगाला तो जो हाथ लगा वो इस प्रकार से है .. सन 1958-59 के दौरान भारतीय पुरातत्व विभाग को क़ुतुब मीनार के दक्षिण पूर्व में सतह से कुछ नीचे 'संकर्षण' की प्रतिमा मिली जिस के पैरों के नीचे 'नागिरी' लिपि में संस्कृत का एक लेख उत्कीर्ण है . लेख के अनुसार इस प्रतिमा को विक्रम सम्वत 1204 तदानुसार 1147 ईस्वी में माघ सुदी नवमी दिन शुक्रवार को रोहितका (रोहतक) के व्यापारी गोविंद पुत्र .... ने प्रतिअर्पित किया था . जिस स्थान पर यह प्रतिमा मिली उसके समीप ही पत्थर के चबूतरे पर 'पंचरथ' मन्दिर की बाह्य योजना अंकित थी . इसका अर्थ यह निकाला जा सकता है कि उस 'पंचरथ' मंदिर में संभवतः यह प्रतिमा स्थापित रही होगी . 'संकर्षण' बलराम को कहा जाता है , ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों से ही 'बलराम' को भारतीय धार्मिक कार्यों में स्थान मिलना शुरू हो गया था . 'पांचरात्र' के 'चतुर्व्यूह' सिद्धांत में वसुदेव और देवकी पुत्र 'कृष्ण' के सम्बन्धियों का जिनमे 'बलराम संकर्षण' भी आते हैं का बहुत महत्व है. इस सिद्धांत के अनुसार वासुदेव 'कृष्ण' से 'संकर्षण' (जीव) की उतपत्ति होती है, 'संकर्षण' से 'प्रद्युम्न' (मन) की उतपत्ति होती ..... धीरे धीरे परिवर्ती काल में 'विष्णु' के चौबीस प्रमुख रूपों में 'संकर्षण' को भी एक रूप माना गया है. 'संकर्षण' की शक्ति को 'लक्ष्मी' कहा जाता है, संकर्षण की चतुर्भुजी प्रतिमा के लक्षण इस प्रकार है १. मुख्य बायीं भुजा – चक्र २. पार्श्व बायीं भुजा – पद्म (कमल) ३. मुख्य दायीं भुजा – गदा ४. पार्श्व दायीं भुजा – शंख 'महरौली' में मिली प्रतिमा पूरी तरह से इन लक्षणों से युक्त है. मेहरौली की इस प्रतिमा में न केवल विष्णु के दस अवतार यथा मत्स्य, कूर्म , वराह , नृसिंह , वामन , परशुराम , राम , कृष्ण , बुद्ध और घोड़े पर बैठे हुए कल्कि शामिल हैं बल्कि 'संकर्षण' के बायीं और 'शिव' और दायीं और 'ब्रह्मा' जी भी विराजमान हैं. इस प्रतिमा का आधार 'सप्तरथ' आकार का है . तो कहा जा सकता है कि है कि ईसा की बारहवीं सदी तक अन्य देवी देवताओं के साथ 'संकर्षण' की आराधना भी महत्वपूर्ण हो गयी थी . इसीलिए तो 'रोहतक' का व्यापारी 'गोविन्द' सन 1147 ईस्वी में दिल्ली के तोमर राजा 'विजयपालदेव' (1130-1151) के समय में कुतुबमीनार के समीप पंचरथ मंदिर में 'संकर्षण' की प्रतिमा स्थापित करता है. यहाँ यह कहना आवश्यक है कि 'रोहितका' अथवा 'रोहतक' भी उस समय का एक प्रमुख स्थान रहा होगा . इस प्रतिमा का कन्नौज के गहड्वालों से कुछ लेना देना नहीं है, और ना ही कभी गहड्वालों ने दिल्ली पर शासन किया ......... हाँ , इतना अवश्य है कि जिस समय 'रोहितका' का व्यापारी 'गोविन्द' दिल्ली में यह प्रतिमा समर्पित कर रहा था उस समय कन्नौज पर 'गोविन्दचन्द्र गहड्वाल' शासन कर रहा था .... और यह मात्र संयोग है... दाऊ भैया : बलदेव : संकर्षण * कृषि और उत्पादों के संस्करण के जनक जिनको खेती से जुड़े समाज ने प्रथमत: महत्व दिया। विष्णु धर्मोत्तर पुराण के अनुसार इनके चिह्न हल और मूसल के अंकन से कृषि करने वाली स्त्रियां अपने घरों की भित्तियां सजाती थीं ताकि समाज जनों को खेती के महत्व का बोध हो... भागवत जन कृषि को महत्व देने वाले हुए क्योंकि यज्ञादि सभी अनुष्ठान उत्पादन से ही संभव होते हैं। ✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनू जी की पोस्टों से संग्रहितदिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
Posted: 29 Aug 2021 10:17 PM PDT जय श्री कृष्णाबह रहा था भवसागर में तृण सा, धूल कण इस धरा पर व्यर्थ सा। था नहीं लक्ष्य जीवन का भी कुछ, धरा पर आ गया बारिश की बूंद सा। था नहीं कोई ठौर रहने के लिए, दर्द का दरिया था सहने के लिए। बस पकड़ ली कान्हा ने अंगुली, बूंद से दरिया बना बहने के लिए। मिल गया लक्ष्य प्यास बुझाऊंगा, सहरा से समन्दर बहता जाऊंगा। पशु पक्षी मानव धरा तृप्त होगी, जो बचूंगा सागर में जा समाऊंगा। डॉ अ कीर्ति वर्द्धन दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
Posted: 29 Aug 2021 10:13 PM PDT युग;युग आता बारंबार --:भारतका एक ब्राह्मण. संजय कुमार मिश्र "अणु" ---------------------------------------- यदुकुल में जन्म लिया, अतिक्रुर कंश की कारा। गोकुल में जा बचपन काटा, बहा अमिट प्रेम की धारा।1। दुष्टों का संहार किया वह, गोचारण कर वंशी वादन। वका,तृण,पुतना को मारा- कर कालिया नाग का मर्दन।2। किया गोवर्धन पर्वत धारण, यमलार्जुन का उद्धार किया किया गोपी का चिर हरण।3। नंद यशोदा का मन मोहन, वृंदावन का रास रचइया। कहते कान्हा,कृष्ण,लला- कोई गोवर्धनधारी कन्हइया।4। कुब्जा का उद्धार किया, क्रुर कंश का संहार किया। किया धर्म का संरक्षण वह धरती पर नव उपकार किया।5। द्रौपदी का मान बचाया वह, किया दुष्ट कौरवों का संहार। दिया गीता का विमल ज्ञान, कह युग-युग आता बारंबार।6। ---------------------------------------- वलिदाद,अरवल(बिहार)804402. दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
जब - जब होते रहे दो इकट्ठे एक साथ Posted: 29 Aug 2021 08:40 AM PDT जब - जब होते रहे दो इकट्ठे एक साथजब - जब होते रहे दो इकट्ठे एक साथ , कहीं भी सहजता पूर्वक करते साफ हाथ। हाल की बात चोरी करते पकड़े गए रंगे हाथ, खूब मार पड़ी थी भेजे गए पुलिस के साथ। तब लूटने निकले थे दोनों महिला के भेष में , पहन लाल साड़ी, लंबे - लंबे नकली केश में । अपने ही घर से चोर उचक्के निकलते हैं, गिरगिट से भी जल्दी अपना रंग बदलते हैं । आस्तीन में मारकर कुंडली बैठ जाते हैं , मौका पाकर समाज में जहर उगलने लगते हैं। ✍️ डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश" दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
Posted: 29 Aug 2021 08:33 AM PDT बताओ तो सही? ~ डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश" """"""""""""""""""""v"""""""""""""""""""" अहंकारी सुख की जिंदगी जी नहीं पाता, अपने आप से छलावा क्यों कर रहे हो? बद से बदतर अब हो चली है जिंदगियाँ, सभी रो रहे हैं और तुम मुस्कुरा रहे हो? देकर जख्म निरीहों को तुम यह बताओ , क्या चैन की जिंदगी तुम जी रहे हो? उजाड़ कर चमन के फूलों को सारे, कंटीले रेगनी का फसल लगा रहे हो? तुम्हारे बाद भी कोई आयेगा खानदान में , क्या मिलेंगे जो ऐसा कर्म किए जा रहे हो? अपनी जिंदगी के लिए सोंचो या ना सोंचो , अगली पीढी को क्यों बर्वाद कर रहे हो? दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
Posted: 29 Aug 2021 07:40 AM PDT खेल : शारीरिक क्षमता का विकाससत्येन्द्र कुमार पाठक जहानाबाद । मानवीय जीवन की क्षमताओं का विकास खेल है । विश्व के देशों में खेल परंपराओं का सम्मान करने के लिए कबड्डी, मैराथन, बास्केटबॉल, हॉकी आदिपर राष्ट्रीय खेल दिवस हैं। सच्चिदानंद शिक्षा एवं समाज कल्याण संस्थान की ओर से आयोजित राष्ट्रीय खेल दिवस पर खेल संगोष्टी के में जिला हिंदी साहित्य सम्मेलन के उपाध्यक्ष साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि खेल इंसानियत का समन्वय आवर शारीरिक क्षमता का विकास का विकास के लिये द्योतक है । भारत में राष्ट्रीय खेल दिवस 29 अगस्त को हॉकी खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद की जयंती पर मनाया जाता है। 1928, 1932 और 1936 में भारत के लिए ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले हॉकी खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद सिंह के जन्मदिन का प्रतीक है। मेजर ध्यान चंद ने 400 से अधिक गोल किये थे । मेजर ध्यानचंद जन्मदिन पर राष्ट्रीय खेल दिवस समारोह में राष्ट्रपति राजीव गांधी खेल रत्न, अर्जुन और द्रोणाचार्य पुरस्कार नामित लोगों को प्रदान करते हैं । देश में हर साल 29 अगस्त को राष्ट्रीय खेल दिवस पर राष्ट्रीय खेल पुरस्कार भी दिए जाते हैं । मेजर ध्यानचंद का जन्म 29 अगस्त 1905 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में एक राजपूत परिवार में हुआ था । मेजर ध्यानचंद ने वर्ष 1928, 1932 और 1936 में तीन ओलंपिक स्वर्ण पदक जीते थे । भारत सरकार ने ध्यानचंद को 1956 में देश के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण से सम्मानित किया था ।1928 में पहली बर ओलंपिक ,1928 में नीदरलैंड्स में खेले गए ओलंपिक में ध्यानचंद ने 5 मैच में सबसे ज्यादा 14 गोल किए और भारत को गोल्ड मेडल जिताया था । 1928 के करिश्मे को दोहराने में ध्यानचंद को परेशानी नहीं हुई । 1932 में लोस एंजलिस में खेले गए ओलंपिक में जापान के खिलाफ अपने पहले ही मुकाबले को भारत ने 11-1 से जीत लिया. इतना ही नहीं इस टूर्नामेंट के फाइनल में भारत ने यूएसए को 24-1 से हराकर एक ऐसा वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया जो बाद में साल 2003 में जाकर टूटा. इस ओलंपिक में एक बार फिर भारत गोल्ड मेडलिस्ट बना ।साल 1936: में अलिगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़े ध्यानचंद के लिए ये ओलम्पिक सबसे ज्यादा यादगार रहने वाला था. ध्यानचंद की कप्तानी में बर्लिन पहुंची भारतीय टीम से एक बार फिर गोल्ड की उम्मीद थी । भारतीय टीम इस टूर्नामेंट में भी उम्मीदों पर खरी उतरी और विरोधी टीमों को पस्त करते हुए फाइनल तक पहुंची. फाइनल में भारत की भिड़ंत जर्मन चांसर एडोल्फ हिटलर की टीम जर्मनी से होनी थी ।इस मैच को देखने के लिए खुद हिटलर भी पहुंचे थे. लेकिन हिटलर की मौजूदगी या गैर-मौजूदगी से भारतीय टीम या ध्यानचंद के प्रदर्शन पर कोई असर नहीं पड़ने वाला था. हालांकि इस मैच से पहले भारतीय टीम तनाव में थी क्योंकि इससे पहले वाले मुकाबले में भारतीय टीम को जर्मनी से हार का सामना करना पड़ा था. लेकिन मैदान पर उतरने के बाद वो तनाव खुद बा खुद दूर हो गया ।मैच के पहले हाफ में जर्मनी ने भारत को एक भी गोल नहीं करने दिया. इसके बाद दूसरे हाफ में भारतीय टीम ने एक के बाद एक गोल दागने शुरु किए और जर्मनी को चारो खाने चित कर दिया. हालांकि दूसरे हाफ में जर्मनी भी एक गोल दागने में सफल रही जो कि इस ओलंपिक में भारत के खिलाफ लगा एकमात्र गोल था । हिटलर ने मेजर ध्यानचंद की हॉकी स्टिक चैक करने के लिए मंगवाई ।बर्लिन में 1936 में हुए ओलंपिक खेलों के बाद उनके प्रदर्शन से प्रभावित होकर हिटलर ने उन्हें डिनर पर आमंत्रित किया था. हिटलर ने उन्हें जर्मनी की तरफ से हॉकी खेलने का प्रस्ताव दिया था परन्तु मेजर ध्यानचंद ने इसे ठुकरा दिया और कहा कि उनका देश भारत है और वे इसके लिए ही खेलेंगे ।मेजर ध्यानचंद ने साल 1948 में अपना आखिरी मैच खेला और अपने पूरे कार्यकाल में कुल 400 से अधिक गोल किए एक रिकॉर्ड है ।मेजर ध्यानचंद को भारत के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान और 1956 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया । मेजर ध्यान चंद के जन्म दिवस 29 अगस्त को राष्ट्रीय खेल दिवस खिलाड़ियों के लिये स्वर्णिम है । दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
Posted: 29 Aug 2021 07:37 AM PDT कोयल और काग --:भारतका एक ब्राह्मण. संजय कुमार मिश्र "अणु" कोयल और काग दोनों एक राशि एक रंग।। पर दोनों में है बडी भिन्नता, एक कोमल एक में कर्कशता दोनों नभ चर दोनों अंडज- फिर भी भिन्न है ढंग।। एक रहता है आम्रवन में, दूसरा मिलता है सर्वत्र एक अवसर पर बोलता है एक बोलने को स्वतंत्र कोयल को सब चाहते हैं- कौवे को सब करता तंग।। एक समय कौवा का होता है खोज समझ रहे हैं सब- वह अवसर श्राद्ध का भोज पर कोयल न हुई कभी- ऐसे लोगों के संग।। एक बोली है पहचान, नहीं तो दोनों एक समान, पर है दोनों में भेद जैसे धरती आसमान, एक है शांतिप्रिय अंतेवासी दूसरा प्रिय हुडदंग।। दोनों की जाति एक, पर एक दुष्ट एक नेक, वो जानता है वह भेद जिसका है सजग विवेक, एक को प्रिय कुचेष्टा- दूसरे को मादक,मधुप,अनंग।। ---------------------------------------- वलिदाद,अरवल(बिहार)804402. दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
अफगानी मुसलमानों को सरकार ने यदि शरण दी तो आर्य समाज करेगा आंदोलन : डॉ राकेश कुमार आर्य Posted: 29 Aug 2021 07:33 AM PDT अफगानी मुसलमानों को सरकार ने यदि शरण दी तो आर्य समाज करेगा आंदोलन : डॉ राकेश कुमार आर्यदादरी। यहां ग्राम आकिलपुर जागीर में आर्य समाज की ओर से योगिराज श्री कृष्ण जी महाराज के जन्मोत्सव जन्माष्टमी के अवसर पर एक यज्ञ का आयोजन किया गया जिसमें बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया । इस अवसर पर एक प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार से मांग की गई है कि अफगानिस्तान से आने वाले शरणार्थियों को शरण न दी जाए । सभी वक्ताओं का मत था कि हमारी उदारता का मुस्लिम शरणार्थियों ने हमेशा गलत फायदा उठाया है । अब केंद्र सरकार को इतिहास से सबक लेते हुए ऐसी किसी उदारता को दिखाने की गलती नहीं करनी चाहिए। इस संबंध में आर्य प्रतिनिधि सभा जनपद गौतम बुद्ध नगर के प्रधान और आर्य समाज के क्रांतिकारी नेता महेंद्र सिंह आर्य ने प्रस्ताव का सुझाव दिया जिसे सभा के समक्ष इतिहास विद डॉक्टर राकेश कुमार आर्य ने प्रस्तुत किया । जिसका सभी उपस्थित लोगों ने समर्थन किया। डॉ आर्य ने अपने संबोधन में कहा कि हमने इतिहास में अपनी सद्गुण विकृति की प्रवृत्ति के चलते कई बार ठोकरें खाई हैं। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि जैसलमेर के राजा लूणकरण भाटी के समय में अफगानिस्तान से ही एक पठान शासक उनका शरणार्थी बनकर आ गया था। बाद में उसने ही राजा लूणकरण के साथ विश्वासघात किया और राजा को धोखे से मारने में सफल हो गया । इतिहास की ऐसी अनेकों घटनाएं हैं, जिनमें हमने विदेशी तथाकथित शरणार्थियों से धोखा खाया है। इसलिए अब केंद्र सरकार को सावधानी से आगे बढ़ना चाहिए । इसी विषय में आर्य प्रतिनिधि सभा जनपद गौतम बुद्ध नगर के प्रधान महेंद्र सिंह आर्य ने कहा कि आर्य समाज पहले दिन से ही क्रांतिकारी पैदा करता रहा है। आज भी उसके पास क्रांतिकारियों की एक बड़ी फौज है । यदि केंद्र सरकार हमारे प्रस्ताव को नहीं मानती है और अफगानिस्तानी शरणार्थियों को शरण देने की गलती करती है तो आर्य समाज सड़कों पर उतर कर केंद्र सरकार के इस निर्णय का विरोध करेगा। उन्होंने कहा कि लचीलेपन और उदारता से हमने बहुत कुछ खोया है । अब हमें इतिहास से सबक लेना चाहिए और खोने के लिए नहीं बल्कि कुछ पाने के लिए काम करना चाहिए। कार्यक्रम में स्वामी मोहन देव जी ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि इस्लाम को मानने वाले लोग कभी भी इस देश के प्रति वफादार नहीं हुए। उन्होंने कहा कि इस्लाम का भाईचारा कभी भी हिंदुओं के साथ मिलकर चलने की प्रेरणा नहीं देता। वह हिंदुस्तान को दारुल हरब की श्रेणी में रखकर इसके इस्लामीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा देने वाले लोगों को ही अपना भाई मानता है। स्वामी चेतन देव जी ने कहा कि देश में जितने भर भी मदरसे हैं वे सब आतंकवाद की शिक्षा देते हैं । यदि श्री कृष्ण महाराज आज होते तो देश के गद्दारों और देश की संस्कृति को मिटाने वाले मदरसों के विरुद्ध कठोर कानूनी कार्यवाही करते। यज्ञ के ब्रह्मा वेदों के प्रकांड पंडित और आर्य समाज के सुप्रसिद्ध विद्वान आचार्य दिवाकर रहे। जिन्होंने आर्य समाज की आध्यात्मिक विचारधारा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि इसी विचारधारा को अपनाकर विश्व शांति स्थापित की जा सकती है। इसी से श्री कृष्ण जी के विचारों का प्रचार-प्रसार किया जा सकता है । आर्य समाज जनपद गौतम बुद्ध नगर की ओर से पारित किए गए प्रस्ताव में कहा गया है कि श्री कृष्ण जी महाराज के सपनों का भारत बनाने के लिए हमें गद्दारों आतंकवादियों और देश की एकता और अखंडता के विरुद्ध काम करने वाले लोगों का विनाश करने के लिए संकल्पित होना चाहिए। कार्यक्रम में आर्य समाज के प्रसिद्ध विद्वान विक्रम देव शास्त्री निधि अपने विचार व्यक्त किए । इस अवसर पर प्रेम सिंह आर्य ,ब्रह्मपाल आर्य , दिवाकर आर्य, विजेंदर आर्य, चतुर सिंह आर्य , सूबेदार जतन सिंह, प्रेमचंद आर्य, मेहर चंद महाशय, सतवीर आर्य सहित अनेकों गणमान्य लोगों ने भाग लिया। कार्यक्रम का आयोजन श्री चरण सिंह आर्य और उनके साथियों ने किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता जयपाल सिंह आर्य द्वारा की गई ।जिन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में आर्य समाज के क्रांतिकारी विचारों को देश हित में बताते हुए कहा कि इन्हीं विचारों को अपनाकर देश की रक्षा की जा सकती है। कार्यक्रम का सफल संचालन लीलू आर्य द्वारा किया गया। दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
'श्रीकृष्ण जन्माष्टमी' का महत्व तथा आपातकाल के समय भक्ति के साथ 'श्रीकृष्ण जन्माष्टमी' कैसे मनाएं ? Posted: 29 Aug 2021 07:30 AM PDT 'श्रीकृष्ण जन्माष्टमी' का महत्व तथा आपातकाल के समय भक्ति के साथ 'श्रीकृष्ण जन्माष्टमी' कैसे मनाएं ?पूर्ण अवतार श्रीकृष्ण ने भाद्रपद कृष्ण पक्ष अष्टमी को पृथ्वी पर जन्म लिया था । उन्होंने बचपन से ही अपने असाधारण कार्यों से भक्तों पर आने वाली विपत्तियों को दूर किया। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी हर साल भारत में मंदिरों और धार्मिक संस्थानों में बड़े स्तर पर मनाई जाती है। त्योहार मनाने के तरीके विभिन्न प्रांतों में भिन्न-भिन्न होते हैं। कई लोग त्योहार के अवसर पर एक साथ आते हैं और इसे भक्ति के साथ मनाते हैं। इस बार श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 30 अगस्त को है। सनातन संस्था द्वारा संकलित इस लेख में हम श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का महत्व जानेंगे। इस साल भी कोरोना की पृष्ठभूमि में हमेशा की तरह श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाने की मर्यादा हो सकती है। वर्तमान लेख में हम यह भी देखेंगे कि आपात (कोरोना संकट) प्रतिबंधों में एक साथ न आने पर भी श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की पूजा अपने घर में कैसे की जा सकती है। यह लेख हिंदू धर्म द्वारा बताए गए 'आपध्दर्म' के हिस्से के रूप में चर्चा करता है। महत्व - जन्माष्टमी के दिन भगवान श्रीकृष्ण का तत्व सामान्य से 1000 गुना अधिक कार्यरत रहता हैं। इस तिथि पर 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' का जप करने के साथ-साथ भगवान कृष्ण की अन्य उपासना भावपूर्ण करने से श्रीकृष्ण तत्व का अधिक लाभ प्राप्त करने में मदद मिलती है। इस दिन व्रत रखने से मासिक धर्म, अशुद्धता और स्पर्श का प्रभाव महिलाओं पर कम होता है (ऋषि पंचमी के व्रत से भी यही परिणाम होता है)। (क्षौरादि तपस्या से पुरुषों पर प्रभाव कम होता है और वास्तु पर प्रभाव उदकशांति से कम होता है।) पर्व मनाने की विधि - इस दिन, दिन भर उपवास कर के बारह बजे बालकृष्ण का जन्मदिन मनाया जाता है। तदुपरांत प्रसाद ग्रहण कर के उपवास का समापन करते हैं अथवा दूसरे दिन सवेरे दहीकाला का प्रसाद ग्रहण कर के उपवास का समापन करते हैं । भगवान कृष्ण की पूजा का समय - भगवान श्रीकृष्ण के जन्म का समय रात के 12 बजे है। इसलिए उससे पहले पूजा की तैयारी कर लेनी चाहिए। संभव हो तो रात के 12 बजे भगवान कृष्ण का पालना (गीत) लगाएं । भगवान कृष्ण की पूजा - भगवान कृष्ण जन्म के गीत होने के बाद, भगवान कृष्ण की मूर्तियों या चित्रों की पूजा करनी चाहिए। षोडशोपचार पूजन : जो लोग भगवान कृष्ण की षोडशोपचार पूजा कर सकते हैं, उन्हें ऐसा करना चाहिए। पंचोपचार पूजन : जो लोग भगवान कृष्ण की 'षोडशोपचार पूजा' नहीं कर सकते, उन्हें 'पंचोपचार पूजा' करनी चाहिए। पूजन करते समय 'सपरिवाराय श्रीकृष्णाय नमः' कहकर एक एक उपचार श्रीकृष्ण को अर्पण करें। भगवान कृष्ण को दही-पोहा और मक्खन का भोग लगाना चाहिए। फिर भगवान कृष्ण की आरती करें। (पंचोपचार पूजा: गंध, हल्दी-कुमकुम, फूल, धूप, दीप और प्रसाद।) भगवान श्रीकृष्ण की पूजा कैसे करें ? : भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करने से पहले, उपासक स्वयं को अपनी मध्यमा उंगली से दो खड़ी रेखाओं का गंध लगाये। भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करते समय छोटी उंगली के पास वाली उंगली यानी अनामिका से गंध लगाना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण को हल्दी-कुमकुम चढ़ाते समय पहले हल्दी और फिर दाहिने हाथ के अंगूठे और अनामिका से कुमकुम लें और चरणों में अर्पित करें । अँगूठे और अनामिका को मिलाने से बनी मुद्रा उपासक के शरीर में अनाहत चक्र को जागृत करती है। यह भक्तिभाव बनाने में मदद करता है। हम भगवान श्रीकृष्ण को तुलसी दल क्यों अर्पित करते हैं? : देवता की पवित्रता देवता का सूक्ष्म कण है। जिन वस्तुओं में किसी विशिष्ट देवता के पवित्रक अन्य वस्तुओं से अधिक आकर्षित करने की क्षमता होती है, वे उस देवता को अर्पित की जाती हैं, तो स्वाभाविक रूप से देवता की मूर्ति में देवता का तत्व प्रकट होता है और इसलिए हमें देवता के चैतन्य का लाभ जल्दी मिलता है। तुलसी कृष्ण तत्व में समृद्ध है। काली तुलसी भगवान कृष्ण के मारक तत्व का प्रतीक है, जबकि हरी तुलसी भगवान कृष्ण के तारक तत्व का प्रतीक है। इसलिए भगवान कृष्ण को तुलसी चढ़ाते है। भगवान कृष्ण को कौन से फूल चढ़ाएं ? : चूंकि कृष्ण कमल के फूलों में भगवान कृष्ण की पवित्रकों को आकर्षित करने की उच्चतम क्षमता होती है, इसलिए इन फूलों को भगवान कृष्ण को चढ़ाना चाहिए । यदि फूल एक निश्चित संख्या में और एक निश्चित आकार में देवता के चरणों में अर्पण करें तो देवता का तत्व उन फूलों की ओर आकर्षित होता है। इसके अनुसार भगवान कृष्ण को फूल चढ़ाते समय उन्हें तीन या तीन के गुणांक में लंब गोलाकार रूप में अर्पित करना चाहिए। भगवान कृष्ण को इत्र लगाते समय चंदन का इत्र लगाएं। भगवान कृष्ण की पूजा करते समय, उनके अधिक मारक तत्वों को आकर्षित करने के लिए चंदन, केवड़ा, चंपा, चमेली, खस, और अंबर इनमें से किसी भी अगरबत्ती का उपयोग करे । श्रीकृष्ण की मानसपूजा - जो लोग किसी कारणवश श्रीकृष्ण की पूजा नहीं कर सकते, उन्हें श्रीकृष्ण की 'मानसपूजा' करनी चाहिए। ('मानसपूजा' का अर्थ है कि वास्तविक पूजा करना संभव न होने पर भगवान कृष्ण की मानसिक रूप से पूजा करना।) पूजन के बाद नामजप करना - पूजन के कुछ समय बाद भगवान कृष्ण का 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः' यह जप करें। अर्जुन की तरह निस्सिम भक्ति' के लिए भगवान कृष्ण से प्रार्थना करना - इसके उपरांत भगवान श्रीकृष्ण द्वारा श्रीमद्भगवतगीता में दिए हुए, न में भक्त: प्रणश्यति । अर्थात मेरे भक्तों का कभी नाश नहीं होगा । इस वचन का स्मरण कर, अर्जुन के जैसी भक्ती निर्माण होने के लिए श्रीकृष्ण को मन से प्रार्थना करें।' दहीकला - विभिन्न खाद्य पदार्थ, दही, दूध, मक्खन को एक साथ मिलाने का अर्थ है 'काला'। व्रजमंडल में गाय चराने के दौरान, भगवान कृष्ण ने अपने और अपने साथियों के भोजन को मिलाकर भोजन का काला किया और सभी के साथ ग्रहण किया। इस कथा के बाद गोकुलाष्टमी के दूसरे दिन दही को काला करके व दही हांडी तोड़ने का रिवाज हो गया। आजकल दहीकाला के अवसर पर तोड़फोड़, अश्लील नृत्य, महिलाओं के साथ छेड़खानी आदि कृत्य बड़े पैमाने पर होते हैं। इन दुराचारों के कारण पर्व की पवित्रता नष्ट हो जाती है और धर्म के लिए हानिकारक होता है। उपरोक्त दुराचारों को रोकने के प्रयास किए जाने से ही त्योहार की पवित्रता बनी रहेगी और त्योहार का वास्तविक लाभ सभी को होगा। ऐसा करने से समष्टि स्तर पर भगवान कृष्ण की उपासना होती है। हिंदुओं की रक्षा के लिए धर्म संस्थापना के कार्य में भाग लेकर श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त करें ! तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय : (अर्जुन, उठो, लड़ने के लिए तैयार हो जाओ!) भगवान कृष्ण के उपरोक्त आदेश के अनुसार, अर्जुन ने धर्म की रक्षा की और वह भगवान कृष्ण को प्रिय हो गया ! हिंदुओं, देवताओं के व्यंग्य, धर्मांतरण, लव जिहाद, मंदिरों की चोरी, गोहत्या, मूर्ति-भंग के माध्यम से अपनी क्षमता के अनुसार धर्म पर होने वाले हमलों के विरुद्ध लड़ाई लड़ें! भगवान श्रीकृष्ण धर्म की स्थापना के आराध्य देवता हैं। वर्तमान में धर्म की स्थापना के लिए कार्य करना ही सर्वोत्तम समष्टि साधना है। धर्म की स्थापना का अर्थ है समाज और राष्ट्र निर्माण को आदर्श बनाना। धर्मनिष्ठ हिन्दुओं, धर्म की स्थापना के लिए अर्थात् धर्माधिष्ठित हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए कार्य करो! संदर्भ : सनातन संस्था का लघुग्रंथ 'श्रीकृष्ण' दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
Posted: 29 Aug 2021 08:29 AM PDT
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Posted: 29 Aug 2021 04:29 AM PDT सृजन पथ को क्यों छोड़ा हैरे ! विध्वंस पथ के राही सृजन पथ तू क्यों छोड़ा है। जानबूझ या अनजाने में क्यों प्रगति रथ को मोड़ा है।। तुम्हें अवाध गति से जाना था संकल्पित लक्ष्य को पाना था। रोके चट्टान भीषण तूफान, तुम्हें हर चुनौती से टकराना था।। साधन सुविधा विज्ञान- ज्ञान तेरे लिए सभी सुलभ था। सब छोड़ बता क्यों भटक गया माना क्यों पथ दुर्लभ था।। हिंसा अशांति विध्वंस राह चुन, स्वयं को दानवता संग जोड़ा है। कहता "विवेक" मिट जाओगे, तू मानवता गर छोड़ा है।। डॉ .विवेकानंद मिश्र , डॉक्टर विवेकानंद पथ, गोल बगीचा गया बिहार 9431 2075 70 दिनांक 25 अगस्त 21 दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
सन्यास की वर्जना वाले हिन्दू सम्प्रदाय Posted: 29 Aug 2021 04:25 AM PDT -प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज स्वामी रामानुजाचार्य, स्वामी वल्लभाचार्य एवं स्वामी मध्वाचार्य के अनेक शिष्यों ने बहुत से मठ स्थापित किये। स्वामी वल्लभाचार्य ने सन्यास नहीं लिया और उनके शिष्यों ने भी सन्यास नहीं लिया। उनका मत है कि कलयुग में सन्यास वर्जित है। उन्होंने श्रीमद् भागवत पुराण के तृतीय स्कंध के चतुर्थ अध्याय का उल्लेख करते हुये उद्धव को परम भागवत कहे जाने का उदाहरण दिया तथा स्मरण दिलाया कि स्वयं श्रीहरि ने यह कहा है कि संयमी-शिरोमणि भक्त श्री उद्धव मेरे ज्ञान को ग्रहण करने के सच्चे अधिकारी हैं। अस्माल्लोकादुपरते मयि ज्ञानं मदाश्रयम्। अर्हत्युद्धव एवाद्धा सम्प्रत्यात्मवतां वरः।। नोद्धवोऽण्वपि मन्न्यूनो यद्गुणैर्नार्दितः प्रभुः। अतो मद्वयुनं लोकं ग्राहयन्निह तिष्ठतु।। (श्रीमद्भागवत महापुराण 3/4/30, 31) अर्थात् श्रीहरि ने कहा कि इस लोक से मेरे चले जाने पर श्रेष्ठ आत्मवान् एवं संयमी उद्धव ही मेरे ज्ञान के उत्तराधिकारी होंगे। क्योंकि वे आत्मजयी हैं, विषयों से अविचलित रहते हैं और मेरे द्वारा दिये गये ज्ञान की शिक्षा लोक को देने के अधिकारी हैं। अतः इस आधार पर स्वामी वल्लभाचार्य जी ने भागवत होने पर बल दिया और सन्यास को कलियुग में वर्जित किये जाने का आधार लिया तथा सन्यास को निषिद्ध घोषित किया। मुख्य बात यह है कि जो बहुत से मठ बने, वे मुख्यतः उस समय अव्यवस्था और अराजकता का शिकार हो गये, जिस समय हिन्दू से मुसलमान बने बहुत से अनाचारी भारतीय लोगों ने काम और लोभ की अधिकता से लुब्ध होकर मजहब का सहारा लेकर लूट-पाट और हिंसा तेज की तथा समाज के वीर और विद्वान लोग उस युद्ध में उलझने को विवश हो गये। उस स्थिति में समाज के अनाचारी लोगों पर नियंत्रण की सहज स्थिति नहीं रही और ऐसे लोग मनमानी करने लगे। बहुत से लोग बहुत ही कम पढ़ लिख कर महंत बनने की अभिलाषा से सन्यासी बनने लगे और इस प्रकार वे सम्पत्ति से समृद्ध मठों के स्वामी हो गये। यहां तक कि जिन्हें ठीक से संस्कृत भाषा का ज्ञान नहीं होता और जो धर्मशास्त्रों को पढ़ तक नहीं सकते, ऐसे लोग भी सन्यासी होने लगे तथा इसके बाद अनेक मठों में उससे जुड़े लोगों ने सन्यासी महंतों की मृत्यु निकट देखकर अपने किसी प्रिय गृहस्थ को पकड़कर महंत का चेला बनाने लगे और इस प्रकार सन्यासी की मृत्यु के बाद वह सदाचारविहीन चेला ही महंत बनने लगा। हिन्दू राजा आतताईयांे के आक्रमण को निरस्त करने में अधिक समय और शक्ति तथा ध्यान देने को विवश होने के कारण और मठों पर राज्य के नियंत्रण की कोई परंपरा नहीं होने के कारण शिष्ट परिषदों आदि को बुलाकर धर्मनिर्णय के लिये समय नहीं निकाल सके और विशेषकर 15वीं शताब्दी ईस्वी से इस विषय में अराजकता और मनमानी फैलती गई। अभी तक वही स्थिति है। वर्तमान राज्यकर्ताओं ने इसमें अपने लिये एक अवसर ढूंढ निकाला है और इस विषय में भारत में प्रशासन करने वाले अंग्रेजों की नकल करते हुये जो नीति अंग्रेज हिन्दू राजाओं के राज्य हड़पने के लिये अवसर ढूंढने के काम में अपनाते थे, वही नीति वर्तमान राज्यकर्ता हिन्दू मठों और मंदिरों की सम्पत्ति हड़पने के लिये अवसर ढूंढने के काम में अपनाते हैं और लोगों की शिकायत पर या अपने ही दल के कार्यकर्ताओं की प्रायोजित शिकायत पर मंदिरों का प्रबंधन राजकीय कर्मचारियों को सौंप देते हैं जो वहां की सम्पत्ति का तथा दान और दक्षिणा में आये हुये धन का उपयोग स्वयं के लिये और अपने को नियुक्त करने वाले उपकारी शासकों के लिये निर्बंध रूप से करते हैं। शिष्ट परिषदांे के विषय में हम आगे विचार करेंगे। यहां महत्व की बात यह है कि धर्मशास्त्र किसी व्यक्ति के सन्यासी होने के बाद भ्रष्ट या च्युत होने वाले व्यक्ति की भीषण निंदा की। जो व्यक्ति सन्यासी होने के बाद ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन नहीं करे, धर्मज्ञ राज्यकर्ता को उस व्यक्ति के मस्तक पर कुत्ते के पैर का निशान अंकित कर देशनिकाला दे देना चाहिये। परंतु अराजकता और आपसी कलह की स्थिति में राजाओं के लिये यह किया जाना संभव नहीं हुआ और सन्यास आश्रम में कहीं-कहीं नियमभ्रष्टता पनप गई। यद्यपि परंपरागत आश्रमों में बहुलांश सन्यासी संयम और तपस्वी जीवन के लिये ही आज भी प्रसिद्ध हैं। किसी भी अन्य मजहब या रिलीजन के शीर्ष लोगों में उस स्तर के तपस्वी और संयमी लोग सामान्यतः नहीं पाये जाते। ब्रिटिश प्रभाव वाले क्षेत्रों में सर्वप्रथम महंतों को एंग्लो-क्रिश्चियन कानूनों वाली कचहरी में मुकदमें के लिये जाते सर्वप्रथम देखा गया है। यहां तक कि अपने क्षेत्र में पालकी पर चढ़ने का अधिकार मुझे है, अमुक अन्य महंत को नहीं है, इस प्रकार की हास्यास्पद दावेदारियां भी कचहरी में वाद के रूप में दायर की गईं। पादरियों का अनुसरण करते हुये 19वीं शताब्दी ईस्वी में कतिपय महंत लोग चेली के रूप में रक्षिता स्त्री रखने लगे, जबकि यह शास्त्रों के अनुसार भयंकर अपराध माना जाता है। वायुपुराण का कहना है कि ऐसा व्यक्ति मृत्यु के उपरांत हजारों वर्षों तक नाली का कीड़ा बना रहता है और फिर क्रमशः चूहा, गिद्ध, कुत्ता, बन्दर, सुअर, वृक्ष, पुष्प, फल और अंत में प्रेत योनि में जन्म लेते हुये मनुष्य के रूप में चाण्डाल के घर में जन्म लेता है। परंतु ऐसे कठोर नियमों को जो पढ़ ही नहीं सकते थे, ऐसे लोग भी महंत बनने लगे। प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
धर्मज्ञ और वेदज्ञ ब्राह्मण ही धर्मविषयों में प्रमाण हैं Posted: 29 Aug 2021 04:04 AM PDT -प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज इस प्रकार धर्मविषयों में वेदज्ञ, सदाचारी, धर्मज्ञ ब्राह्मण ही प्रमाण है। उनके परामर्श से ही राज्यकर्ता निर्णय लें, यह धर्मशास्त्र की व्यवस्था है और इस व्यवस्था का पालन भारत के 350 से अधिक हिन्दू राज्यों में 15 अगस्त 1947 तक निरंतर होता रहा है। यद्यपि किसी-किसी हिन्दू राजा में भी प्रमाद आ जाये और वह शास्त्र की आज्ञा के पालन में शिथिल हो जाये, यह दोष स्वाभाविक है। परंतु हिन्दू समाज में अत्यन्त प्राचीन काल से यह परंपरा और इसकी मान्यता होने के कारण किसी भी शासक पर इस जनमत का दबाव रहना अनिवार्य है। इसीलिये आंग्ल ईसाई व्यवस्था से प्रेरित अथवा सत्ता हस्तांतरण की संधि के अनुरूप काम करने को उत्सुक राज्यकर्ताओं ने जनमत को ही अपने अनुकूल और नियंत्रित करने की व्यवस्था रची और शिक्षा तथा संचार माध्यमों पर राज्यकर्ताओं का एकाधिकार बनाने वाली व्यवस्था सुनिश्चित की। यहां यह महत्वपूर्ण है कि तत्कालीन कांग्रेस राज्यकर्ताओं ने यह जो शिक्षा और संचार माध्यमों पर अपना एकाधिकार सुनिश्चित किया, वह सत्ता हस्तांतरण की संधि के दायरे से बाहर की चीज है। संधि तो इंग्लैंड और भारत की साझा संस्कृति तथा साझा इतिहास-बोध भारत में राज्य के द्वारा फैलाये जाने के विषय में थी। परंतु शिक्षा और संचार माध्यमों पर राज्य का एकाधिकार सोवियत संघ के कम्युनिस्ट शासन से प्रेरित होकर स्थापित किया गया था। ब्रिटेन मेें ऐसी कोई परंपरा नहीं है और सत्ता हस्तांतरण करने वालों ने सोवियत संघ का अनुसरण करने की कोई शर्त नहीं रखी थी। अतः स्पष्ट है कि सत्ता हस्तांतरण की वही शर्त नये राज्यकर्ताओं ने मानी, जो उन्हें प्रिय थी। शेष उन्होंने सबकुछ अपने मन का ही किया। ब्रिटेन का अनुसरण करने पर बहुसंख्यकों के धर्म को राजकीय संरक्षण देना अनिवार्य होता। परंतु नये राज्यकर्ताओं ने वह तो नहीं ही किया, बहुसंख्यकों के धर्म को संरक्षण देना तो दूर, शासन द्वारा वित्त पोषित संस्थाओं में हिन्दू धर्म का शिक्षण भी निषिद्ध कर दिया। इसका इंग्लैंड या ब्रिटेन की किसी भी शर्त या किसी भी परंपरा से कोई रिश्ता दूर-दूर तक नहीं है। भारत में इंग्लैंड ने शासन का यह कर्तव्य सुनिश्चित किया था कि वे बहुसंख्यकों के धर्म को भी उतनी ही स्वाधीनता और वैसा ही संरक्षण तथा संसाधन देंगे, जैसा वे भारत में अपने शासन के अंतर्गत आने वाले (लगभग आधे भारत) क्षेत्र के अल्पसंख्यक समूहों के मजहब और रिलीजन को देंगे। नये कांग्रेस राज्यकर्ताओं ने ब्रिटिश भारत की उस परंपरा का भी क्रमशः सम्पूर्ण विलोप कर दिया और केवल अल्पसंख्यकों के रिलीजन और मजहब को विशेष संरक्षण देने की अनूठी व्यवस्था रची तथा शासन द्वारा वित्त पोषण के जरिये उन मजहब तथा रिलीजन की शिक्षा का विशेष प्रबंध किया। यह नागरिकों के साथ खुले भेदभाव तथा बहुसंख्यकों के प्रति विरोध की नीति एवं विचित्र परंपरा स्थापित की गई। प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
दिव्यांगों के लिये विशेष कैम्प आयोजित Posted: 29 Aug 2021 03:17 AM PDT दिव्यांगों के लिये विशेष कैम्प आयोजितजितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 29 अगस्त :: भारत विकास विकलांग अस्पताल-सह-संजय आनंद रिसर्च सेंटर में दिव्यांगों के लिये विशेष कैम्प का आयोजन किया गया। कैम्प में अस्पताल के अध्यक्ष देशबंधु गुप्ता, महामंत्री पद्मश्री बिमल जैन, प्रबंध न्यासी विवेक माथुर तथा विशिष्ट अतिथि के रूप में नोएडा दिल्ली से आई प्रीति अग्रवाल एवं मंजु शर्मा मौजूद थी। अस्पताल की गतिविधियों का अवलोकन तथा कोरोना नियमों को ध्यान में रखते हुए 10 मरीजों का प्लास्टर, 5 मरीजों को कृत्रिम अंग तथा 7 मरीजों को श्रवण यंत्र प्रदान किया गया। अस्पताल प्रबंधन की ओर से विशिष्ट अतिथियों प्रीति अग्रवाल एवं मंजू शर्मा को शॉल एवं अस्पताल के प्रतीक चिह्न देकर सम्मानित किया गया। उक्त अवसर पर दीदीजी फाउंडेशन की संस्थापक और अंतर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय और राजकीय सम्मान से सम्मानित समाज सेविका डॉ नम्रता आनंद एवं विजय यादव के अतिरिक्त पटना के समाजसेवियों की उपस्थिति गौरवान्वित करने योग्य थी। दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
Posted: 29 Aug 2021 03:08 AM PDT कुंडलिया सम्हल कर चलचल बातें करें प्रेम की, शिकायत जाए पीट। खटाश भी कुछ कम हो, दूरियां भी जाय मिट।। दूरियां भी जाय मिट, गावें मधुर संगीत। लड़ते नहीं हर बात में, रूठ जायेंगे मीत।। प्रेम कुंजी है जीत का, कभी न होती हार। भरोसा जीते सबका, पाता जग में प्यार।। झूठे झगड़े क्यों करते, सब जायेंगें रूठ। वर्चस्व की लड़ाई में, बनते रहते झूठ।। धर्म-कर्म की बात करो, जीवित रहे संस्कार। सबकि नजर में वो गिरे, जो करता अहंकार।। झूठ टिक नहीं सकता, सत्य की होती जीत। प्रेम पड़ जाता फीका, मरती नहीं है प्रीत।। अहंकार खा जाता है, मानवीय गुणों को। गिरा देता है सम्मान, जितना भी सम्हल कर चल ।। ✍️ डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश" दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
असमिया लोग भादो के महीने को बहुत ही पवित्र मानते हैं । Posted: 29 Aug 2021 03:05 AM PDT असमिया लोग भादो के महीने को बहुत ही पवित्र मानते हैं ।संकलन अश्विनी कुमार तिवारी भादो का महीना चल रहा है और हम असमिया लोग भादो के महीने को बहुत ही पवित्र मानते हैं । जैसे बाहर श्रावण के महीने को माना जाता है ठीक वैसे ही। हर गाँव का नामघर हर दिन शंख,घंटा,ताल,खोल,डबा (पारंपरिक वाद्य) आदि और भक्तों के नाम-कीर्तन की मंगल ध्वनि से मुखरित रहता है ।सुबह और शाम को महिलायें इकट्ठे होकर नाम(ईश्वर का गुणानुकीर्तन) गातीं हैं और रात को पुरुष । कहीं-कहीं इस नियम में थोड़ा-बहुत अंतर भी रहता है । इसी महीने में असम के मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के महान संत श्रीमंत शंकरदेव,श्रीश्री माधव देव आदि महापुरुषों की तिथियाँ भी पड़ती हैं । उस दिन सुबह महिलायें और शाम को पुरुष इकट्ठे होकर नाम-कीर्तन करते हैं । दूसरे गाँवों का तो अंदाज़ा नहीं पर मेरे गाँव में समाज के लोग बारी-बारी से इकट्ठे हुए भक्तों को जाकर कभी चाय-बिस्किट,कभी खीर,कभी खिचड़ी और कभी कुछ और दे आते हैं । आपलोगों को तो पता ही है कि यह वैष्णव भक्ति परंपरा है और यहाँ निर्गुण ईश्वर की उपासना होती है। तो नामघरों में मूर्ति की जगह गुरु आसन होता है जैसा कि चित्र में है । वहाँ श्री श्री मद्भाग्वत गीता पोथी रखी हुई होती है । नाम-कीर्तन हो जाने के बाद हर दिन वैसे प्रसाद वितरण तो नहीं होता । पर तिथिवालें विशेष दिनों में भिगोये हुए कच्चे मूंग-चने और फलों का प्रसाद दिया जाता है और वो भी केले के या कमल के पत्तों पर। वैसे हर असमिया पारंपरिक धार्मिक अनुष्ठानों में यही प्रसाद दिया जाता है। मिठाई देने का नियम यहाँ नहीं है । इन दिनों मेरी माँ रोज़ नामघर जा रही हैं । जिस दिन मेरे परिवार की ओर से भक्तों के लिये कुछ चढ़ायेंगे उस दिन मैं भी जाऊँगी । ✍🏻लेखिका : राजश्री डी. कुशा उत्पाटन का दिन भादौ की अमावस पर कुशा संग्रह का काम जब से समझ आई तब से हो रहा है। इस बार उदयपुर की मशहूर झील उदयसागर के पिछवाड़े के खेतों से कुशा का संग्रह किया और उसके पूले मित्रों तक पहुंचाये। कुशा के प्रयोग की सबको जानकारी है। महिलाएं कुछ ज्यादा ही ध्यान रखती हैं क्योंकि ग्रहण, सूतक, अर्पण - तर्पण आदि के दौरान हम से ज्यादा स्त्रियां ही कुशा को याद और उपयोग करती हैं। सीता के काल से ही स्त्रियों को मालूम है कि कुशा रावण जैसी बला को टाल सकती है तो वे ही आगे चलकर बेटे का नाम कुसला या कुश रखती हैं! कुसल भूमि पर कितने कोसल, कौशल या कुशलगढ़ बसे और कुश उत्पाटन में दक्ष व्यक्ति को ही कुश या कुशल नाम मिला! कुशाग्र नामकरण का आधार क्या है? संस्कृत वाले इस घास के बारे में और भी जानते होंगे लेकिन चेटक विद्या और अंत्यकर्म प्रवीण लोग जानते होंगे कि कुशा के पुत्तल (पुतले) कब और क्यों बनते हैं? और, कुशा से कुशवाह, दाभ से दाभी जैसे वंशों की कहानियों के पीछे क्या कारण हैं? कुशा उत्पादन वाले, बेड़च नदी के डब्बा छोर के एक खेत का नाम ही "कुसला" है, ऐसा पता चला। मित्र श्री उपेन्द्रसिंह अधिकारी और मैं वहां की तुलसीबाई के खेत पर जा पहुंचे और उनके परिवार के वृद्ध भेराजी द्वारा बताए कोने में कुशा उखाड़ने में जुट गए। बात - बात में पता चला कि कुशा मीठे पानी वाली भूमि पर होती है। मुझे तुरंत याद आया कि भेराजी और तुलसीबाई ने कब वराहमिहिर को पढ़ा जिसने मुंज, काश और कुशा को मीठे पानी का संकेत देने वाली वाली घास बताया है! (दकार्गल विद्या) वराह ने कुशा के आधार पर मीठे पानी का ज्ञान इस देहात से ही लिया हो और इसके गुण - धर्म को पहचान कर अध्येता वैदिक महर्षि बने। कुशा हमारे घर में बारहों मास होनी चाहिए, यह मां का आदेश है! कहती थीं : पशुओं ने इसको नहीं खाया, मानवों के हित में छोड़ रखा है ताकि वे मीठे पानी की पहचान कर सकें, सूतक जैसे उत्पातों से निजात पा सकें। इसीलिए वह भादवी अमावस को हमें खेत पर लेे जाती थीं और कहानी में कहती थीं तुम जिसको घास कहते हो, उसने क्या - क्या नहीं दिया! पूछती जाती : क्यों कुशा का आसन बनाया गया! कब बना? कुशा उत्पादन कहां होता है और क्यों होता है? कुश द्वीप, हिन्दू कुश, कुशावर्त... जैसे नाम कैसे पड़े! यही उपयोगी घास मानी गई जिसके रज्जू से लेकर आसन और वितान तक बने, अंगूठी और मृदभांड रखने के लिए इंडोनिया (अंग्रेजी नाम नहीं) बनाई गईं... आदि मानव भी इसको जानता था और इसी कारण ज्ञानियों ने भी बात को आगे बढ़ाया लेकिन उन्होंने संस्कृत भाषा में कहा जबकि यह सब लोक के ज्ञान में है। ✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू एक कहावत है अपने इधर 'जाड़े' को लेकर, कर्मा में एक आना जितिया में चार आना दशहरा में दस आना आर, सोहराय में सोलह आना। मने कर्मा के बाद जाड़े की शुरुआत व सोहराय(दिवाली) आते-आते कोट स्वेटर का बॉडी में चढ़ जाना। ये केवल जाड़े से ही सम्बंधित नहीं है बल्कि धान की फसल के लिए भी सेम है। धान का चक्र भी इन्हीं के अंतराल में खत्म होने को आता। सावन-भादो तक में रोपाई.. और जब रोपा खत्म हो के धान हरियाने लगती है व जड़ मजबूत हो लहलहाने लगती है तो 'करम परब' आता है। धान के पत्ते काट कर चढ़ाया जाता आखड़ा में। .. याने 'एक आना'। जितिया आते-आते धान की बालियां फूटने-फूटने को आती.. बाली में दूध नहीं होता.. फोंक-फोंक धान की बाली। याने दूसरा फेज.. याने 'चार आना'। दशहरा(दांसाय) आते-आते बालियों में दूध भरने लगता व कड़क रूप धारण करने लगता। याने 'दस आना'। और सोहराय आते-आते भरी हुई बालियां झुकने लगती.. सोहरने लगती.. याने सोहराय का आगमन .. हरियाली सुनहरे रंग में परिवर्तित होने लगती। काटने को आमंत्रित करने लगती। याने धान पक के तैयार.. 'सोलह आना' तैयार। ||कर्मा परब || सावन बीत गया है.. अपनी झमझमाती बरखा की बौछारों से ताल-तलैयों को सराबोर करते हुए चहुंओर हरियाली का सौगात दे गया है.. प्रकृति बोल पड़ी है। ..अभी भादो का महीना चल रहा है.. खेतों में धान लहलहा रही हैं.. ठेरका और घंटियों की आवाज़ और चरवाहों के हाँकों के बीच गाय-गोरु पुरे मगन के साथ चर रही हैं.. तो कुछ खुले और छूटे टाइप के बाछा बाड़े से भागकर खेत में लगी धान की दावत उड़ा रहे हैं, तो कुछ घंटों के बाद खेत मालकिन/मालिक उन बाछों को खदेड़ते हुए बाछा मालिक के पुरे खानदान की कुंडली निकालते हुए उनके घरों में घुसा दे रहे हैं.. और फिर अगले दिन से उस बाछे के गर्दन में बड़ा सा ठेरका या फिर लठ बाँध दिया जा रहा है।.. खेतों में धान के पौधों के साथ खरपतवार भी उग आये है.. डेढ़-दो महीने पहले ब्याह कर ससुराल आई नई बहुएं अपनी सासु माँ के संग खेतों में खरपतवार को निका रही है.. किसी खेत में 'बोकी' लग गया है तो कीटनाशक का छिड़काव किया जा रहा है..। .. भादो का महीना है.. कभी इतनी जोर से बारिश तो कभी इतनी तेज धूप और उमस की क्या कहने.. एक पल चादर ओढ़ने को मन करता तो दूजे पल सब कुछ उतार फेंक देने को... घर में रखा नून और गुड़ पिघल रहा है.. घरजवाई का ससुराल में टिकने का हिम्मत नहीं हो रहा है.. तबे तो ये कहावत बनी "भादोक गर्मी में घरजवाँय भागल हलेय!"। तो वहीँ नवविवाहितों का प्रेम अपने चरम में हैं। लेकिन इन्हीं गहन प्रेम के बीच नवविवाहिता का मन ससुराल में नहीं लग रहा है, बरबस ही उनका मन नईहर की ओर खींचा चला जा रहा है, क्योंकि "कर्मा परब" जो आने वाला है। नवविवाहिता अपने पति को न कह के अपने देवर से कहती है .. " आय गेलय भादर मास लाइग गेलक नईहरक आस 2 छोटो देउरा हो.. कह दिहक ददा के तोहाइर करम खेले जाइब नईहर।" जी हाँ, झारखण्डी जनमानस की प्रकृतिरूपा ममत्वप्रिया कन्या झंकृत हो उठी है.. झारखण्ड के भूमण्डल में 'कर्मा परब' की आहट सुनाई पड़ने लगी है.. नवविवाहिताएं नईहर जाने को आतुर है.. बेसब्री से अपने भाइयों का लियान के लिए इंतज़ार कर रही हैं.. वहीँ नईहर में इनकी छोटी बहनें अपनी दीदियों का। सब मिल के एक साथ में पाँतवार हो के कदमताल के साथ 'जावा' नाचने के लिए लालायित हो उठी है. .. अखाड़े की साफ़-सफाई और चाक-चौबंध का पूरा प्रबन्ध किया जा रहा है। भाद्र मास के शुक्ल पक्ष के एकादशी के दिन 'कर्मा परब' मनाया जाता है। एकादशी के ठीक सात या फिर नौ दिन पहले नवयुवतियां पास के बाँध या फिर नदी में स्नान कर करम डाली में सात या नौ प्रकार के दलहन या शस्यबीज ( धान, कुरथी,मुंग,बिरही,घँघरा,गेहूँ,चना,मकई और सेम) का नेगविधि से रोपन करती है जिसे 'जावा उठाना' कहते है। और साथ ही साथ सब कोई अपना निजी जावा भी 'टुपला' में उठाती है। मुख्य जावा डाली के साथ अन्य जावा को अखाड़ा में रख कर सात/नौ दिन युवतियां 'करम गोसाई' की गीतों के माध्यम से नृत्य करते हुए आराधना करती है।.. पूरा वातावरण संगीतमय हो उठता है… सुबह और देर रात तक युवतियां आखरा में नृत्य करती है.. "छोटे मोटे उड़ेन फेरवा मुठिएक डाइढ़ गो ताही तरे सुरुजा देवा खेला ले जावाञ।" "जाउआ माञ जाउआ, किआ किआ जाउआ.. जाउलँ भाइरे कुरथि बहुला"! जैसे गीतों से पूरी प्रकृति झंकृत हो उठती है। करम गोसाई से अच्छे फसल की उपज के लिए कामना किया जाता है। कर्मा की नृत्य-शैली एक अलग किसिम की होती है। माना जाता है कि करम-नाच से उत्पन्न शारीरिक प्रक्रिया से नवयुवतियों में मातृत्व शक्ति की वृद्धि होती है, बांझपन की समस्या नहीं होती है एवम् प्रसव सुगमतापूर्वक व खतरा रहित होता है। कर्मा परब भाई-बहन के पवित्र रिश्ते का परब है.. भाई-बहन के रिश्ते को और भी प्रगाढ़ता प्रदान करता है.. भाई बहन के रक्षा के धर्म के प्रति कृत-संकल्प होता है. इसलिए कहा जाता है "बहिनेक करम, भायेक धरम". . बहनें अपने भाईयों के दीर्घायु होने का कामना करते हुए गाती है, "देहु देहु करम गसाञ, देहु आसिस रे भइआ मरअ बाढ़तअ लाखअ बरिस रे। देबो जे कर्मति देबो आसिस रे भइया तोर बढ़तउ लाखों बरिस रे।" मेरी छुटकी ने दस दिन पहले ही फोन करके बोल दी थी 'दादा .. इस बार के कर्मा के साड़ी का बजट पिछले साल से दुगुना रहेगा.. आप नहीं आ रहे है तो ये आपकी सज़ा है!" मेरी छुटकी तुम दोगुना क्या चार गुना पाँच गुना ज्यादा महँगा साड़ी खरीदना.. खेद है बहन नहीं आ पा रहा हूँ इस कर्मा में। पूरा झारखण्ड कर्मा के रंग में रंगा हुआ है.. कर्मा के गीतों के साथ पूरी प्रकृति झूम रही हैं.. धान की बालियां फूटने को आतुर है। कल एकादशी है .. सभी आखरा में करम वृक्ष की डाली गाड़कर करम गोसाई की पुरे नेगाचारि और विधि-विधान के साथ पूजा करेंगे। मांदर की मधुरमय थापों के साथ झूमर गान होगा.. पूरी रात जागरण होगा। करम गोसाई से प्रार्थना है कि इस साल भी फसल की उपज अच्छी हो और बहनों की सारी मनोकामनाएं परिपूर्ण हो। . जय करम गोसाइ। ✍🏻गंगा महतो खोपोली, झारखण्ड दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
गया ;चिकित्सा की परंपरा और प्रकर्ष Posted: 29 Aug 2021 03:01 AM PDT गया ;चिकित्सा की परंपरा और प्रकर्षडा रामकृष्ण चिकित्सा जीवन की आवश्यकता है।शरीर है तो इसे स्वस्थ रखने का दायित्व भी शरीर धारिओं का ही होता है। वैसै स्वस्थ रहने केलिए अनेक प्रकार की पद्धतियाँ परंपरा से ही चली आरही हैं जिनमें योग ,आयुर्वेद ,प्राकृतिक चिकित्सा भारतीय मूल पद्धति के रूप में रही हैं ।बाद में जुड़ी यूनानी और उसके बाद जुड़ी होमियो पैथी एवं एलोपैथी। आयुर्वेदीय चिकित्सा पद्धति सबसे पुरानी पद्धति रही है ।धन्वन्त्री को आयुर्विज्ञान के देवता के रूप में माना गया है। इन्ही से इस पद्धति का आरंभ मना जाता है।महर्षि चरक,सुश्रुत जैसे देव तुल्य ऋषियों ने मानव चिकित्सा के क्षेत्र में अपूर्ब योगदान किया जिससे मानव जीवन की रक्षाान्य हुए हैं। में अत्यधिक सहायता मिली है। इस क्षेत्र में उपचार के औषधीय तथा शल्य दोनों प्रकार सर्व मान्य हैं ।किंतु प्राय': औषधिक उपचार विशेष प्रचलित रहा है। गयि एख ऐसा स्थान है जहाँ प्राचीन और नवीन सभी चिकित्सा पद्धतियाँ विद्यमान हैं।आरंभिक चरण में वैद्यों के घरों में ही निवास और चिकित्सालय दोनों होतें थे।बाद में चिकित्सा केलिए अलग व्यवस्था की गयी होगी।चूकि आयुर्विज्ञान का उन्होने अध्ययन कर इस कार्य मे रूचि ली इसलिए वैद्य कहलाए।आयुर्वेदस्तु पंचमो वेद:के अनुसार भी वैद्य हुए। आयुर्वेदम् विदन्ति इति वैद्य:।गया में बड़े यशस्वी वैद्यों में क ई रहे जिनमे श्रीकृष्णमिश्र पुरानी गोदाम,उनके बिद उनके पुत्र लक्ष्मी प्रसाद मिश्र,फिर उनके पुत्र ईश्वरी प्रसाद मिश्र। थीरेन्द्र मिश्र उर्फ बुल्लू वैद्य ,पीपर पा़ती,हीरा वैद्य धामी टोला, हरदेव मिश्र मेखलौट गंज जो संस्कृत महाविद्यालय,खरखुरा, मे आयुर्वेद चिकित्सक और अध्यापक भी रहे तथा प्राचार्य पद पर रहते हुए संसार से मुक्त हुए। हरिश्चन्द मिक्ष दानूलाल जैन दातव्य औषधालय,रमना। नंदलाल मिश्र।हरिद्वार मिश्र, दारोगा प्रसाद मिश्र,पूर्व प्राध्यापक भागलपुर आ म विद्लय।कारू वैद्य ऊपरडीह। वेदनाथ मिश्र,ब्राह्मणी घाट।लक्ष्मीनाथ मिश्र डबूर,उनके पुत्र डा अवैद्यनाथ मिश्र।गंगाधर मिश्र जहानावाद (ये सभी अब उपलब्ध नहीं)।वर्तमान में डा रामदत्त मिश्र,डा विवेकानंद मिश्र,डा शशांक शेखर मिश्र आदि अथर्ववेदीय औषधियों के द्बारा उपचार मे संलग्न हैं। आयुर्वेदिक दवाओं केथोक व खुदरा विक्रेताओं में वैद्यनाथ आयुर्वेद भवन,डाबर डा एस के बर्मन,,साथना औषधालय(दूकान बंद हो ग ई)झंडू फार्मेसी आदि का प्रशंसनीय योगदान रहा। मेरा संपर्क प्राय:सभी वैद्यों से रहा है।अत:कह सकता हूँ कि ज्ञान की विशिष्टता और यशस्विता में ताल मेल हो ही आवश्यक नहीं। बहुत अच्छे जानकार हो सकते हैं पर रोगी को लाभ नहीं तो उस के लिए तो ऐसे चिकित्सक व्यर्थ हुए। यह बात अन्य प्रणालियों में भी समझा जा सकता है।अंग्रेजी शासन में जब गया साहेबगंज था यहाँ पिंडदान कें लिए आने वाले यात्रियों की सुविधा को ध्यान में रखकर गोलपत्थर के पास टिकारी राज द्बारा उपलब्ध करायी गया जमीन मे१८८७ईमें एक चिकित्सालय का निर्माण कराया गया।यह निर्माण बंगाल के लेफ्टिनेन्ट गवर्नर स्टुवर्र्ट केल्विन वेएले की स्मृति में हुआ था।उस समय आरंभिक अवस्था मे इसकी एक प्रबंध समिति थी जिसमें राय बिदेश्वरी प्रसाद राय काशीनाथ जैसेगण्य मान्य लोग थे।आगे चलकर यह प्रबंध नगरपालिका ,जिला परिषद् और फिर प्रांतीय प्रशासन में चला गया।धीरे-धीरे विकास होनें लगा। डाक्टरों की संख्या भी बढ़ी। बाद में लेडी एलमेमोर के नाम पर एक जनानी अस्पताल भी बना। फिर संक्रामक रोग ्एवं कुष्टर रोग अस्पतताल भी चालू हुए ।अब तो इस शहर मे निजी अस्पतालो ं की भरमार है।मेडिकल कालेज के अभाव भी डा विजय कुमाम सिंह ने दूर कर दिया। अनुग्रह नारायण सिंह इनके नाना थे स्वतंत्रता सेनानी और कांग्रसी नेता,सो उनकी स्मृति मे इस कालोज तथा अस्पताल कका नाम रखा गया अनुग्रह नारायण मेमोरियल मेडिकल कालेज और अस्पताल।जब तक यह डा विजय की देख रेख में रहा प्रशंसनीय रहा।साफ-सफाई,अनुशासन,पढाई रोगियों की सेवा और उनके साथ व्यवहार स्मरणीय रहा।किंतु जैसे ही सरकार का हाथ बढ़ा गुणात्मकता का ह्रास आरंभ होगया जो समाचार माध्यमो के लिए आए दिन विषय बनता गया। चिकित्सकीय संदर्भ बाजारवादी जाल में उलझता चला जा रहा। गया में होममियो पैथी चिकित्सा प्रणाली भी मजेदार रही है।प्रसिद्ध। डाक्टरो में ईश्वरी प्रसाद, मुरारपुर, राजा बाबू अदर गया,प्रभात कुमार रामसागर, बांके बाबू पीपरपांती,केशव प्रसाद सिन्हा गोलपत्थर के अतिरिक्त अनेक अनाम,गौण भी इस कार्य मे यशस्वी हुए हैं।अनेक ऐसे डाक्टर जिनका न कोई दवाखाना नकोई वोर्ड,न इस्ताहार पेशा दूसररा पर शौक होमियो चिकित्सा। एक घटना उदाहरण के लिए रख रहर हूँ--एक थे सूर्यवंश सहाय पेशे से वकील ,रूचि होमियो पैथी चिकित्सा।एक छ:माह की बच्ची के कान के पास ऐसा घघाव हुआ कि लगता वह दलो शिर वाली है ।गया के सारे डाक्टर हार चुके थे,शल्य चिकित्सा भी कम उम्र के कारण संभव नहीं था।मृत्यु सामने खड़ थी । ऐसी हलते में संयोग वश कचहरी से लौटते हुए उन्होंने बच्ची को देखा उसके माता-पिता को ढाढस बँधाया,और पहली खुराक लेकर तीनदिन तक देखने के लिए कहकर चले गये। तीन दिन बाद स्वयं पहुँचे,फिर दवा दी । चले थेये।इसी तरह पंद्रह दिन बीत गये पिता की चिंता स्वाभाविक थी ।एक दिन कचहरी जा कर मिल आए। उसी शाम वकील साहव आए कई क्षणों तक बच्ची और घाव को निहा ते रहे ।बिना कुछ कहे लेकिन मुसकुराते हुए चले गये। दूसरे ही दिन बच्चों की नाक से खून, मवाद की तरह निकलना शुरू हुआ।घवराहट के साथ रोना -थोना शुरू हुआ।वकील साहव गोसाई बाग गली में ही रहते थे। घवराहट मे जा कर हाल सुनाया गया।वकील साहब जोर से हँसने लगे।उनकी पत्नी ने डाटने के लहजे में कहा,क्या कर रहे हैं आप।ये घवरराए है और आप हंँस रहे है। हाँ, आज बहुत खुश हूं। मैं जीत गया। फिर बोले,कह देना आज शाम तक आधी बिमारी दूर। लौट कर आए तो यहाँ घाव का जो भाग कड़ा लगता था मुलायम होने लगा था।।वकील साहब कचहरी जाते समय देखते गये।तीन दिन में ही घव बेर के बरावर हो गया।एक महीने बादतो लगता भी नहीं कि कभी घाव था।ऐसा चमत्कार !सहायजी चलते फिरते चिकित्सक थे।जेब मे रखने लायक कपडे़ का बनाक ई खानों ववाला पर्स था जिस मे अनेक छोटी पतली शीशियाँ होतीं हमेशा साथ रखते।ऐसे ही मेरे अभिन्न डा सच्चिदानन्द प्रेमी जी हैं।बाजाप्ता डिग्री है।दवाखाना नहीं दवा बता दी तो रामबाण ।अब तो सरकारो का ध्यान भी आयुर्वेद ,यूनानी,होमियो पैथ पर है । डिग्री धारको की नियुक्ति हो रही है। लेकिन इस पेशे में पहले की तरह सेवा भाव का सर्वथा अभभाव है।कुछ है तो व्यावसायिकता। दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
101 साल बाद कृष्ण जन्माष्टमी पर बन रहा विशेष संयोग Posted: 29 Aug 2021 02:53 AM PDT 101 साल बाद कृष्ण जन्माष्टमी पर बन रहा विशेष संयोगआचार्य श्री कन्हैया तिवारीजी के कलम से कृष्ण जन्माष्टमी पर इस बार 101 साल बाद जयंती योग का दुर्लभ संयोग बन रहा है 30 अगस्त यानी कल श्री कृष्ण जन्माष्टमी मनाया जाएगा बीते कई वर्ष बाद इस बार वैष्णो तथा गृहस्थ आश्रम में रहने वाले प्राणी के साथ जन्मोत्सव मनाएंगे श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार भगवान श्री कृष्ण का जन्म भाद्र कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि सोमवार रोहिणी नक्षत्र व वृष राशि में मध्य रात्रि में हुआ था ज्योतिषाचार्य मुरली जोशी जी के द्वारा कहा गया है कि भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ था इसलिए प्रत्येक वर्ष भाद्र कृष्ण अष्टमी तिथि को श्रद्धालु जन्माष्टमी मनाते हैं इस वर्ष 30 अगस्त को धूमधाम से जन्माष्टमी मनाया जाएगा इस वर्ष जन्माष्टमी पर बहुत ही विशेष संयोग बन रहे हैं 30 अगस्त का दिन सोमवार है अष्टमी तिथि 29 अगस्त रात 10:10 पर आ रहा है सोमवार यानी 30 अगस्त को रात्रि 12:24 तक रहेगी उसके बाद नवमी तिथि प्रवेश कर रहा है तथा इस दौरान चंद्रमा वृष राशि पर मौजूद रहेंगे सभी संयोग के साथ रोहिणी नक्षत्र भी 30 अगस्त के मौजूद रहेंगे रोहिणी नक्षत्र का प्रवेश 30 अगस्त प्रातः काल6,49 बजे हो जाएगा अर्धरात्रि को अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र एक साथ मिल जाने से जयंती योग का निर्माण होता है इसी योग में कृष्ण जन्माष्टमी का पर्व मनाया जाएगा प कन्हैया तिवारी जी ने यह भी कहा कि 101 वर्ष के बाद ऐसा योग और संजोग दोनों मिला है अष्टमी तिथि रोहिणी नक्षत्र दिन सोमवार तीनों एक साथ मिलना अति दुर्लभ की बात है 3 जन्मों के पापों से मुक्त होते हैं कन्हैया तिवारीजी ने कहा कि निर्णय सिंधु ग्रंथ के अनुसार ऐसे संजोग जब श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर बनते हैं तो भक्तों को ऐसे संजोग का लाभ उठाना चाहिए श्रद्धालु को इसे हाथ नहीं जाने देना चाहिए इस संयोग में जन्माष्टमी व्रत करने से 3 जन्मों के जाने अनजाने होने वाले पापों से मनुष्य को मुक्ति मिलती है संतान प्राप्ति के लिए करें जन्माष्टमी का व्रत कहते है की संतान प्राप्ति के लिए महिलाएं जन्माष्टमी का व्रत करें महिलाओं का इस दिन भगवान श्री कृष्ण के। बाल स्वरूप गोपाल का पूजन कर पंचामृत से स्नान कर नया वस्त्र धारण कराकर गोपाल मंत्र का जाप करना चाहिए इससे उन्हें यशस्वी दीर्घायु पुत्र प्राप्त होते हैं पंडित कन्हैया तिवारी मीठापुर पटना दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
डा.भगवती शरण मिश्र का निधन अपूर्णीय क्षति है Posted: 29 Aug 2021 02:45 AM PDT डा.भगवती शरण मिश्र का निधन अपूर्णीय क्षति हैमहान साहित्य सेवी पूर्व आई.ए.एस और बिहार राजभाषा विभाग के पूर्व निदेशक रहे डा.भगवती शरण मिश्र जी का निधन 26/08/21 को हुआ।यह साहित्य समाज के लिए अपूर्णीय क्षति है।डा.मिश्र जी हिंदी,संस्कृत, बंगला,मैथिली,अंग्रेजी साहित्य के भी अधिति विद्वान थे।वे मैथिली अकादमी के अध्यक्ष रहे थे।मुजफ्फरपुर नगर निगम के भी प्रशासक रहे थे।भारतीय रेल सेवा के भी पदाधिकारी रह चुके थे। डा. मिश्र जी का जन्म रोहतास जिले के संझौली प्रखंड अंतर्गत बेनसागर गांव में हुआ था।वे एक कुशल साहित्यकार, समाजसेवी और उदार हृदय व्यक्ति थे।सदा समाज हित मे वे निमग्न रहे। इनके द्वारा रचित उपन्यास 'पुरुषोत्तम' और 'पवनपुत्र' बडे चर्चित रहे।हिन्दी की मासिक पत्रिका 'कादंबिनी ' के नियमित लेखक रहे हैं।पटना के 'शांति बाबा आश्रम' के विषय में भी इन्होंने लिखा। इन्हें के पुत्र डा. दुर्गा शरण मिश्र जी है जो आज पिता के नक्शे कदम पर है।वे भी योग्य प्रशासक और राजभाषा अधिकारी हैं।वर्तमान समय में डा. मिश्र जी का निवास दिल्ली में था जहां उन्होने अंतिम सांस ली और वहीं पर अंतिम संस्कार भी सम्पन्न हुआ। वे मग समाज के शिरोमणि थे।उनका इस तरह.से चला जाना साहित्य और समाज के लिए बडी रिक्तता है।इसकी भारपाई निकट भविष्य में संभव नहीं है।मैं दिवंगत डा.मिश्र जी को श्रद्धासुमन अर्पित करता हूं।भगवान से प्रार्थना है उन्हे सायुज्य प्रदान करें। ---:भारतका एक ब्राह्मण. संजय कुमार मिश्र "अणु" दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
पंडित श्री सुरेश दत्त मिश्र जी को भावभीनी श्रद्धांजली Posted: 29 Aug 2021 02:41 AM PDT पंडित श्री सुरेश दत्त मिश्र जी को भावभीनी श्रद्धांजली पंडित श्री सुरेश दत्त मिश्र जी का जन्म गया जिला प्रखंड टेकारी ग्राम स्यानंदपुर गांव में हुआ।ये बिहार राजभाषा विभाग के उच्च अधिकारी रहे। साहित्य और समाज सेवा से इनका संबंध अन्यतम रहा।दोनों क्षेत्र में इनका अपूर्व योगदान रहा है।हलांकि ये राजभाषा हिन्दी के सेवक थे पर अपनी मातृभाषा की सेवा का व्यामोह न त्याग सके।अभी हाल हीं में उनकी कृति 'रामायण' का विमोचन भी हुआ था जो कि मगही भाषा में निबद्ध है।बहुत सी रचनाएं हिन्दी भाषा को दिए हैं। ये साहित्य सेवी के साथ हीं साथ प्रसिद्ध समाज सेवी भी थे।सामाजिक स्तर पर आज 'सूर्यपूजा परिषद' इसका प्रमाण है।जबकि साहित्यिक क्षेत्र में 'दिव्य रश्मि' इन्हीं का अवदान है।इन दोनों के संस्थापक और आजन्म संरक्षक रहे। विगत दिनों उनका स्वर्गवास पटना के आई.जी.आई.एम.एस.मे हो गया।इनके निधन की बात सुनते हीं साहित्यिक और सामाजिक क्षेत्र में शोक छा गया।ऐसे कर्मठ,सजग साहित्य सेवी,कुशल प्रशासक को खोकर हम और हमारा समाज आज हतप्रभ है।उनके धरोहरों का यह समाज सदा ऋणी रहेगा।वे भले आज हमलोगों के बीच न रहें पर.वांग्मय रुप में वे सदा सर्वदा हमलोगोँ का मार्गदर्शन करते रहेंगे। बताते चलें कि दिव्य रश्मि के संपादक डा. राकेश दत्त मिश्र जी के ये पिता थे।इनके निधन से हम मर्माहत हैं।दिवंगत आत्मा की शांति के लिए प्रभु से प्रार्थी हूं।उन्हे अपने दिव्य धाम में सायुज्य दें। महामानव श्री सुरेश दत्त मिश्र जी के प्रयाण काल में मैं साश्रु श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं। ---:भारणका एक ब्राह्मण. संजय कुमार मिश्र "अणु"दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
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