क्रांतिदूत - 🌐

Breaking

Home Top Ad

Post Top Ad

Friday, July 24, 2020

क्रांतिदूत

क्रांतिदूत


जनसँख्या नियंत्रण और वीर हकीकतराय !

Posted: 23 Jul 2020 10:11 PM PDT



कुछ समय पूर्व एक टीवी डिवेट में रवीश जी को सुना था | बहस चल रही थी जनसंख्या नियंत्रण को लेकर, लेकिन उसमें यह बिंदु भी आया कि हिन्दुओं की तुलना में आनुपातिक रूप से मुस्लिम आबादी तेजी से बढ़ रही है | | रवीश जी ने शाइस्तगी से फ़रमाया कि बेमतलब की बातें हैं, मान भी लिया जाए कि देश में मुस्लिम बहुसंख्यक हो गए, तो भी कहाँ का आसमान टूट पडेगा ? 

मुझे चासनी में लपेट कर बात करना नहीं आता | प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में बहुसंख्यक का मतलब है सत्ता पर काबिज होना | मेरा मानना है कि जब तक देश में हिन्दू बहुसंख्यक है, तभी तक सहिष्णुता और सेक्यूलर शब्द जैसे प्रयोग चल रहे हैं | रवीश जी जैसे तथाकथित सेक्यूलरों के तर्क सुनकर मेरी आँखों के सामने अठारवीं सदी का मंजर घूमने लगता है | मेरी हैरत तब और बढ़ जाती है, जब जनसंख्या नियंत्रण जैसे महत्वपूर्ण सवाल को मुस्लिम विरोधी बता दिया जाता है | तो ऐसे लोगों को मैं कहना चाहता हूँ, कि हाँ जनसंख्या नियंत्रण इसलिए भी जरूरी है कि सर्व धर्म समभाव बाले सहिष्णु हिन्दू बहुसंख्यक बने रहें | एक बार हिन्दू अल्पसंख्यक हुआ, उसके बाद क्या होगा यह जानने के लिए चलते हैं एक पुरानी कहानी की ओर | 

यह कहानी है १७३४ की | पंजाब के सियालकोट में भागमल नामक एक सज्जन अपने बेटे हकीकत राय को फारसी की शिक्षा दिलवाने एक मौलवी जी के पास लेकर गए | जन्‍म से ही कुशाग्र बुद्धि के बालक हकीकत ने 4-5 वर्ष की आयु से ही इतिहास तथा संस्कृत आदि पढ़ना शुरू कर दिया था | उस जमाने में बाल विवाह आम बात थे, तो हकीकत की शादी के बाद पिता को लगा कि मुस्लिम राज्य में रोजी रोटी कमाने और अपने पैरों पर खड़े होने के लिए फारसी सीखना भी जरूरी है, इसलिए वे उसे मदरसे में मौलवी के पास लेकर गए | मौलवी साहब को दस्तूर के मुताबिक़ मिठाई और कुछ धन देकर पिता ने बेटे को मदरसे में भर्ती करा दिया और उसकी शिक्षा भी शुरू हो गई | धीरे धीरे उसकी प्रतिभा ने मौलवी साहब को भी प्रभावित कर लिया | जो भी पाठ दिया जाता, वह उसे तुरंत याद कर लेता, समझ लेता | लेकिन जब वे बार बार उसकी तारीफ़ करने लगे, तो सहपाठी छात्र कुढने लगे | एक दिन मौलवी की अनुपस्थिति में हकीकत अपना पाठ याद कर रहा था, तब शेष बच्चे खेलने और ऊधम मचाने में जुट गए | लेकिन तभी खेलते बच्चों में से एक का ध्यान हकीकत की तरफ गया | उसने दूसरों से कहा – 

देखो देखो हम सब खेल रहे हैं और ये हकीकत का बच्चा पढ़ रहा है | इसे भी साथ मिलाओ, वर्ना मियाँ जी के आते ही उनके कान भरेगा और हमारी उलटी सीधी शिकायत करेगा | अगर हील हुज्जत करे तो दो चपत लगाओ | 

सभी हकीकत से कुढ़े बैठे थे, सो सबको बात जम गई और उन लोगों ने उसे साथ खेलने के लिए बुलाया | हकीकत के मना करने पर सब लोग उसके हाथ पकड़कर खींचने लगे | हकीकत ने झल्ला कर कहा, देखो मुझे तंग मत करो, वर्ना दुर्गा भवानी की कसम, मैं मुल्ला जी से जरूर तुम्हारी शिकायत करूंगा | 

यह एक शब्द दुर्गा भवानी की कसम उसे बहुत भारी पड़ गया | कुछ लड़कों ने दुर्गा जी को लेकर अनाप शनाप गाली गलौच देना शुरू कर दिया | हकीकत ने उन्हें टोका, देखो मुझसे झगडा करना है, तो करो, मुझे मारो पीटो, लेकिन हमारे देवी देवताओं को गालियाँ देने का क्या मतलव है | 

लेकिन जब लडके नहीं माने और अपशब्दों की मानो बाढ़ ही आ गई, तब हकीकत राय ने भी तुर्की बतुर्की जबाब देते हुए कहा कि जो बातें तुम लोग दुर्गा भवानी के लिए कह रहे हो, जो अल्फाज दुर्गा जी के लिए बोल रहे हो, बही सब अपनी फातिमा के लिए समझ लो | 

और उसके बाद बच्चों का यह छोटा सा बादविवाद देखते ही देखते, कितना बढ़ गया, यह पढकर सुनकर ही हैरत होती है | मौलवी साहब के आते ही लड़कों ने इकट्ठे होकर हकीकत की शिकायत की | सुनते ही मुल्ला जी पूर्व में की गईं हकीकत की सारी तारीफें भूल गए | उसकी जो पिटाई दूसरे लड़कों ने की थी, वह कोई मुद्दा ही नहीं समझा गया, उन्हें याद रहा तो केवल यह कि एक काफिर लडके ने रसूल जादी के खिलाफ अपशब्द निकाले हैं | 

ईश निंदा कानून जैसे शब्दों की उस जमाने में जरूरत ही कहाँ थी | दुर्गा जी को क्या कहा गया, कौन पूछने वाला था ? आनन् फानन में मौलवी साहब ने हकीकत राय को शहर काजी के सामने प्रस्‍तुत कर दिया । सारे झमेले की बात सुनकर हकीकत के परिजन भी वहां पहुँच गए | इन सब द्वारा लाख सही बात बताने के बाद भी काजी ने उनकी एक न सुनी और निर्णय सुनाया कि शरियत के अनुसार इसके लिये मृत्युदण्ड है | या तो बालक मुसलमान बन जाये, अन्यथा इसका सर कलम कर दिया जाए । काजी का गुस्सा इतने पर ही नहीं थमा, उसने माता पिता व सगे सम्‍बन्धियों को भी इसके लिए कसूरवार मान लिया, एक गुस्ताख लडके को जन्म देना क्या कम था, इन काफिरों की इतनी हिम्मत कि उसके बचाव में मेरे सामने आकर बहस की | डाल दो इन लोगों को भी जेल की काल कोठरी में | 

घर में हकीकत की मां कौरां का रो रोकर बुरा हाल था | समाज के लोगों को जानकारी मिली तो वे भी दौड़े आये, पर इतना भर हुआ कि काजी ने उनके कहने पर परिवार के लोगों को छोड़ दिया, वह भी इस शर्त पर कि वे हकीकत को इस्लाम कबूलने के लिए मनाएं | मातापिता ने समझाया भी कि मेरे लाल मुसलमान बन जा, तू हमारी आँखों के आगे कम से कम जिन्‍दा तो रहेगा। किन्‍तु हकीकत राय ने उन लोगों को ही जाजबाब कर दिया | उसने काजी से मुखातिब होकर पूछा – 

जनाब क्या इस्लाम कबूल करने के बाद मुझे मरना नहीं पडेगा ? काजी ने कहा बेशक ? हकीकत ने अपनी बात और स्पष्ट की – क्या कभी नहीं मरूंगा ? काजी की समझ में अब जाकर आया, उसने कहा - क्या मूर्खतापूर्ण बाहियात सवाल है, जो पैदा हुआ है एक न एक दिन उसे मरना तो पडेगा ही | हकीकत हंस पड़ा – 

कोई परवाह नहीं, जान रहे या न रहे, 

चार दिन दुनिया में महमान रहे न रहे, 

मुसलमां हो भी गया, मरना तो फिर भी होगा, 

काजी तू ओ तेरे बच्चे सदा धरती पे आबाद रहे | 

अपने निश्‍चय पर उसे अडि़ग देखकर काजी ने कहा कि ये सब बातें तू तभी तक कर रहा है, जब तक तूने जल्लाद और उसके हाथ में पकड़ी तलवार नहीं देखी, सारी शेखी निकल जायेगी, उसे देखते ही | डाल दो तब तक के लिए इस नाफरमान को हवालात में | स्वाभाविक ही बच्चों के साधारण झगड़े को दिया गया यह रूप हिन्दू समाज को झकझोर गया और इस असंतोष की गूँज सियालकोट के हाकिम अमीर बेग तक भी पहुंची और उसके मार्फ़त लाहौर के नाजिम तक | सारे हिन्दू समाज की दरख्वास्त पर नाजिम ने हकीकत को नामचीन लोगों की जमानत पर जेल से रिहा कर दिया | फिर वही हुआ, जिसे हम आज भी थोड़े छोटे रूप में गाहे बगाहे देखते रहते हैं | शुक्रवार की नमाज के बाद तकरीरें हुई और लाहौर गरमा गया | और नतीजा वही निकला ढाक के तीन पात | या तो हकीकत इस्लाम कबूल करे या फिर मौत को गले लगाए | और फिर सन १७३४ की वह बसंत पंचमी भी आई | बधस्थल पर इतनी कम उम्र के बच्चे पर तलवार उठाते एक बारगी जल्लाद की भी आखें डबडबा गईं | लेकिन सरकारी मुलाजिम था, हुकुम की तालीम तो करनी ही थी | हकीकत राय धर्म पर बलिदान हो गया | बसंत जब भी आता है, खिलती हुई कलियाँ मानो पूछती हैं, उस नन्हीं कली को मसला गया, आखिर उसका कसूर क्या था ? अगर वह कसूरवार था,तो दुर्गा मां को गालियाँ देने वाले बच्चे कसूरवार क्यों नहीं थे ? 

जिस समय हकीकत राय का बलिदान हुआ, उनकी नौ वर्षीय पत्नी लक्ष्मी भी बटाला में चिता सजाकर सती हो गई, उनकी स्मृति में वहां एक मंदिर निर्मित है | 1947 में भारत के विभाजन से पहले, हर हिन्दू बसंत पंचमी पर लाहौर स्थित उनकी समाधि पर एकत्रित होते थे। विभाजन के बाद उनकी एक प्रतीकात्मक समाधि होशियारपुर जिले के "ब्योली के बाबा भंडारी" में निर्मित की गई है, जहाँ बसंत पंचमी को उन्हें श्रद्धा सुमन समर्पित किये जाते हैं । 

जो समझ सकते हैं वो समझ लें, और प्रभावी जनसँख्या नियंत्रण क़ानून बनाने की पुरजोर आवाज उठायें |

१८५७ का स्वातंत्र्य समर (भाग - 2) - रक्तपात और भारतीय शौर्य

Posted: 23 Jul 2020 10:03 PM PDT



जनरल नील के अत्याचार और पेशवा नाना साहब का मराठी दांव 

अंग्रेज सत्ता के खिलाफ मेरठ में आये भूकंप के धक्कों से अलीगढ़, बुलंदशहर, नसीराबाद भी अतिशय प्रभावित हुए | एक स्वतंत्रता प्रेमी ग्रामीण ब्राह्मण बुलंदशहर की ९ वीं बटालियन के लश्कर में अलख जगाने पहुंचा, किन्तु जानकारी मिलते ही अंग्रेजों ने उसे पकड़कर सबके सामने फांसी पर चढ़ा दिया | उसे फांसी पर लटकता देखकर एक सैनिक उछलकर तख्ते पर चढ़ा और रुंधे कंठ से तलवार निकालकर बोला – अरे यार, यह शहीद रक्त में नहा रहा है | बारूद के ढेर पर मानो कोई चिंगारी पड़ गई हो, उस शूर सैनिक के मुंह से ये शब्द निकलते ही, हजारों सिपाहियों की तलवारें भी म्यान से बाहर निकल आईं और नाद गूँज उठा – फिरंगियों का नाश हो | अलीगढ़ में समाचार पहुंचा तो वहां अंग्रेजों के प्रति केवल इतनी उदारता बरती गई कि उन्हें कह दिया गया कि प्राण बचाने हैं तो अलीगढ़ से भाग जाओ | 

अलीगढ़ स्वतंत्र होने का समाचार २२ मई को मैनपुरी पहुंचा, उसी समय मेरठ के एक विद्रोही सैनिक राजनाथ सिंह के अपने गाँव जीवंती पहुँचने की खबर भी अंग्रेजों को लगी | अंग्रेज अधिकारियों ने उसे पकड़ने के लिए सिपाही भेजे | सिपाहियों ने उसे पकड़ा भी, लेकिन बजाय अंग्रेजों को सोंपने के सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया और जाकर सूचना दे दी कि इस नाम का कोई व्यक्ति गाँव में नहीं मिला | यूं तो मैनपुरी के सिपाही निर्धारित तिथि के पूर्व विद्रोह नहीं करना चाहते थे, लेकिन जनता और विशेषकर खटीक और कसाई समाज तो मानो उतावला हुआ जा रहा था | अंततः २३ मई को यहाँ भी शस्त्रागार और खजाना लूट लिया गया और सैनिक दिल्ली की ओर रवाना हो गए और अंग्रेजों के सफाए में स्थानीय नागरिक जुट गए | २३ मई को ही इटावा में हर हर महादेव का निनाद गूंजा तो कलेक्टर एलन ओ ह्यूम महिला वेश धारण कर भाग निकले | आगे जाकर यह ह्यूम बाई ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की जन्मदाता बनी | नसीराबाद में भी २८ मई को अपने अंग्रेज अधिकारियों का खात्मा कर और खजाने के साथ साथ वहां का तोपखाना भी कब्जे में कर विद्रोही सैनिक दिल्ली की ओर कूच कर गए | 

रूहेलखंड के बरेली में युद्ध का प्रारंभ पूर्व निर्धारित ३१ मई को ही हुआ, अतः सुनियोजित हुआ | पहले से तय था कि कौन किस अंग्रेज अधिकारी को मारेगा | ब्रिगेडियर सिवाल्ड, कैप्टिन कर्बी, लेफ्टिनेंट फ्रेजर, सार्जेंट वाल्डन, कर्नल ट्रूप, कैप्टिन रावर्टसन, आदि जो भी अधिकारी विद्रोहियों के हाथ लगे, सब काट दिए गए | मात्र छः घंटों के अन्दर बरेली में अंग्रेज शासन का अंत हो गया | महज ३२ अधिकारी ही कत्ले आम से बचकर नैनीताल पहुँच पाए | तोपखाने के मुख्य सूबेदार बख्त खान ने खान बहादुर खान के नाम से स्वयं को दिल्ली के बादशाह का सूबेदार घोषित कर दिया और सत्ता सूत्र संभाल लिए | साथ ही सम्पूर्ण रूहेलखंड स्वतंत्र होने का समाचार दिल्ली भेजा | यह झूठ भी नहीं था, शाहजहाँ पुर, मुरादाबाद, बदायूं, सब जगह एक साथ ३१ मई को ही अंग्रेज सत्ता के खिलाफ अभियान शुरू हुआ और शाम होते होते हर जगह अंग्रेजों का सफाया भी हो गया | जो बचे वे केवल स्थानीय दयालू लोगों की पनाह में ही बचे | हर जगह युनियन जेक की जगह हरा परचम लहराने लगा | हिन्दू मुस्लिम सौहार्द्र का यह अनोखा आख्यान था, जिसमें दोनों समुदायों ने एकजुट होकर संघर्ष किया था | 

आजमगढ़ में ३ जून को विद्रोह का स्वर गूंजा, लेकिन यहाँ लेफ्टिनेंट हचिन्सन, क्वार्टर सार्जेंट लुई साहब जैसे केवल कुछ चुनिन्दा अंग्रेज अधिकारी मारे गए, शेष सबको, महिलाओं और बच्चों के साथ बनारस की ओर रवाना कर दिया गया | विजय रंग में रंगे सैनिक अपना हरा निशान लहराते हुए फैजाबाद की तरफ बढ़ गए | आजमगढ़ का समाचार ४ जून को बनारस पहुंचा, तो अंग्रेज अधिकारियों ने नेटिव सिपाहियों को निशस्त्र करने की योजना बनाई और जनरल परेड का आर्डर दिया | किन्तु सजग सिपाहियों ने परेड में पहुँचने के स्थान पर शस्त्रागार पर हमला बोल दिया | वहां जो राजनिष्ठ सिक्ख सैनिक मौजूद थे, उन्होंने विद्रोही सैनिकों का प्रबल प्रतिकार किया | किन्तु तभी वहां पहुंची अंग्रेज यूनिट ने तोपों से सिक्खों सहित सब पर गोलीबारी शुरू कर दी | मजबूरी में ही सही, लेकिन १८५७ में यह पहला अवसर आया जब हिन्दू मुस्लिम सिक्ख सबने मिलकर अंग्रेजों का मुकाबला किया | लेकिन शहर में तो सिक्ख अभी भी अंग्रेजों के मददगार ही बने रहे | सिक्ख सरदार सूरत सिंह के ही कारण विद्रोही बनारस का खजाना नहीं लूट पाए और अंग्रेजी तोपों से बचने के लिए विद्रोही सैनिक बनारस छोड़कर जौनपुर पहुँच गए | स्थानीय सिपाहियों ने उनका स्वागत किया और सारा जौनपुर शहर विद्रोह की ज्वाला में जलने लगा | ज्वाईंट मजिस्ट्रेट क्यूपेज और लेफ्टिनेंट मारा को मारकर खजाने पर कब्जा कर लिया गया | विद्रोहियों ने यूरोपियनों के हथियार छीनकर जौनपुर से भागने की अनुमति दी, किन्तु जब वे नौकाओं द्वारा बनारस की ओर रवाना हुए, तो मार्ग में मल्लाहों ने ही उन्हें लूटकर किनारे पर छोड़ दिया | 

एक ख़ास बात यह है कि इस क्षेत्र में कत्ले आम नहीं हुआ, केवल कुछ चुनिन्दा अंग्रेज अधिकारी ही मारे गए, शेष को सुरक्षित जाने दिया गया | किसी अंग्रेज महिला या बच्चे को क्षति नहीं पहुंचाई गई | लेकिन बनारस आये जनरल नील ने जो किया, उसे जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं | तथाकथित सुसभ्य अंग्रेजों के इस बहादुर सेनापति ने बनारस के लोगों के साथ जो व्यवहार किया, वह प्रकाशित सामग्री है, अतः उसे कोई नहीं नकार सकता | आसपास के छोटे छोटे गाँवों में अंग्रेज और सिक्ख सिपाहियों की टोलियाँ जातीं और जो सामने पड़ता, उसे काट दिया जाता या फांसी पर चढ़ा दिया जाता | फांसी पर चढाने के लिए इतने खम्भे वहां कहाँ आते, तो पेड़ों की अलग अलग डालियों पर ही इन्हें झुला दिया जाता | इस बेदर्दी में भी मनोरंजन ढूँढने के इन सभ्य जानवरों के कृत्यों से मानवता लज्जित ही हुई होगी | पेड़ पर सीधे लटकाकर फांसी देने के स्थान पर किसी के हाथ पैर बांधकर पहले अंग्रेजी के आठ या नौ अक्षर का रूप दिया जाता और फिर उसे लटकाया जाता | अलग अलग आकृति बनाकर टाँगे गए इन शवों को देखकर उन्हें पैशाचिक कलात्मकता का बोध होता | अब आखिर फांसी पर भी कितनों को लटकाया जाए, मारने को तो असंख्य हिन्दुस्तानी हैं, तो उसका भी उपाय ढूंढा गया, जिसका वर्णन एक अंग्रेज ने ही कुछ इस प्रकार किया है – 

व्ही सेंट फायर टू ए लार्ज विलेज, विच वाज फुल ऑफ़ देम, व्ही सराउंडेड देम, एंड एज दे केम रशिंग आउट ऑफ़ द फ्लेम्स, शूट देम | 

गाँव के गांव इस प्रकार घेरकर जलाए गए, जो बचने को बाहर निकलता उसे गोली मार दी जाती | असंख्य स्त्री बच्चे बूढ़े भी इस खूनी खेल का शिकार बने | यह किसी एक गाँव की कहानी नहीं है, एक नायक ने दूसरे नायक को लिखा – यू विल हाऊएवर बी ग्रेटीफाईड टू लर्न, देट ट्वंटी विलेजेज आर रेज्ड टू ग्राउंड | आपको यह जानकर तसल्ली होगी कि आज हमने बीस गाँव राख कर दिए | 

और अंग्रेज इतिहासकारों ने इस भीषण कृत्य को नजर अंदाज ही कर दिया, इसका कोई उल्लेख करना भी जरूरी नहीं समझा | ५ जून को इलाहाबाद में सिपाहियों के साथ पूरा शहर ही विद्रोह कर उठा | लेकिन किले पर तैनात सिक्ख जवानों ने द्वार बंद कर किला बचा लिया | किले में जो अंग्रेज थे, वे तो सुरक्षित रहे, किन्तु जो बाहर थे, उनमें से कोई जिन्दा नहीं बचा | इलाहाबाद की कोतबाली पर भी हरा झंडा लहरा दिया गया | सावरकर जी पर साम्प्रदायिक होने का ठप्पा लगाने वाले जरा उनके शब्दों पर ध्यान दें | वे लिखते हैं – 

सन १८५७ जैसी प्रचंड राज्य क्रान्ति हिन्दुस्थान के इतिहास में अभूतपूर्व बात थी, जब हिन्दू और मुसलमान ने अपने भाई भाई होने का रिश्ता पहचानकर एक साथ मिलकर लड़ाई लड़ी | यह द्रश्य बहुत ही अपूर्व और आश्चर्यकारी था | 

स्वतंत्र इलाहाबाद में मौलवी लियाकत अली को सूबेदार नियुक्त किया गया, जिसने खुसरो बाग़ में अपना मुख्यालय बनाया | लेकिन ग्यारह जून को जनरल नील अपनी सहयोगी सिक्ख रेजीमेंट के साथ इलाहाबाद आ धमका, किला चूंकि पहले से ही सिक्ख अपने कब्जे में लिए हुए थे, अतः उसने आते ही किले को अपना केंद्र बनाया | बनारस की तर्ज पर ही इलाहाबाद में भी खूनी खेल शुरू हुए | एक ब्रिटिश अधिकारी ने लिखा – 

हम लोग जहाजों पर सवार होकर नदी में आगे बढे | दायें बाएं तटों पर जो भी दिखाई देता, वह हमारी गोलियों का निशाना बनता, जहाँ कोई गाँव दिखता, हम लोग नीचे उतरते और उसे आग के हवाले करते, जब ज्वालायें आसमान चूमतीं, हमारा मन आनंद से भर जाता, हम भरपूर प्रतिशोध ले रहे थे | 

पूरे हिन्दुस्तान में जितने अंग्रेज थे, उससे कहीं ज्यादा निरपराध लोगों को अकेले नील ने अकेले इलाहाबाद में मौत के घाट उतारा | जरा विचार कीजिए कि न जाने कितने नील उस समय पूरे हिन्दुस्तान में कहर ढा रहे होंगे | अगर यह कहा जाए कि एक एक अंग्रेज के बदले एक एक गाँव के लोगों को ज़िंदा जलाया गया तो गलत न होगा | स्वयं नील ने बाद में लिखा – 

मैं जानता हूँ कि मैंने कुछ अधिक क्रूरता प्रदर्शित की है | किंतु मैंने जो कुछ किया, अपने देश के लिए, उसके कल्याण के लिए, अपनी साम्राज्य सत्ता का दबदबा कायम करने और उसे स्थिरता प्रदान करने के लिए किया, परमेश्वर मुझे क्षमा करें | 

अंग्रेज इतिहासकार नील के इस कबूलनामे की भूरि भूरि प्रशंसा करते हैं, लेकिन बाद में जब नाना साहब पेशवा के सिपाहियों द्वारा बदला लिया गया तो उसे अनुचित और नारकीय बताते हैं | है न विचित्र ? नील ने बनारस और इलाहाबाद में क्रूरता के जो बीज बोये, उसकी फसल कानपुर में लहलहा उठी, आईये अब उधर का रुख करें | 

मेरठ में हुए विप्लव का समाचार १८ मई को कानपुर पहुंचा | उस समय बहां लगभग तीन हजार नेटिव सेना तथा लगभग साठ अंग्रेज अधिकारी और सौ सवा सौ अंग्रेज सिपाही भर थे | सेना के कमांडर सर हो व्हीलर ने सावधानी बतौर किले में रसद आदि की व्यवस्था करवाई और तोपखाने को तैनात करवा दिया | और मजा देखिये कि उसने कानपुर की रक्षा के लिए ब्रह्मावर्त से बुलवाया पेशवा नाना साहब को | यह थी उस क्रांतियुद्ध की गोपनीयता की पराकाष्ठा | अंग्रेजों को रत्ती भर भी ज्ञात नहीं था कि समूचे देश में धधकी इस ज्वाला का मुख्य नेता कौन है, यह आग किसने भड़काई है | नाना ने २२ मई को दो तोपों, तीन सौ सिपाही और घुड़सवारों के साथ कानपुर में प्रवेश किया और अंग्रेजों की बस्ती में ही अपना शिविर लगा लिया | कलेक्टर हिल बर्डन ने उन्हें धन्यवाद दिया और नाना ने भी सदाशयता दिखाते हुए कहा कि अंग्रेज महिलायें और बच्चे अगर चाहें तो ब्रह्मावर्त के राजमहल में जाकर रह सकते हैं | और इस मराठी दांव की इन्तहा तो तब हुई जब अंग्रेजों ने अपना खजाना और बारूदी भण्डार भी उनकी सुरक्षा में सोंप दिया | इतिहासकार "के" कहता है कि नाना साहब ने सचमुच शिवाजी के चरित्र का गहन अध्ययन किया था | 

कानपुर में विद्रोहियों का नेतृत्व सूबेदार टीका सिंह और सिपाही शमसुद्दीन खान कर रहे थे | १ जून को गंगा की धार में तैरती नौका पर नाना साहब, उनके बजीर अजीमुल्ला खान और टीका सिंह के बीच दो तीन घंटे तक गहन मंत्रणा हुई, भावी रणनीति बनी | कानपुर की वैश्या अजीजन सिपाहियों के बीच खासी लोकप्रिय थी, उसने भी इस महा संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निबाही | किन्तु यह सब चर्चा अब अगले अंक में | 

हर जगह गूंजा मारो फिरंगी को 

आसपास से मिल रहे समाचारों के कारण कानपुर के अंग्रेज बहुत घबराये हुए थे | किन्तु जब २४ मई को ईद सकुशल निकल गई और नबाब गंज के खजाने की सुरक्षा में नाना के सैनिक तैनात हो गए, तब सर व्हीलर ने राहत की सांस ली | मई के आखीर में एक युवा अंग्रेज सिपाही ने एक देशी सिपाही पर गोली चला दी | हमेशा की तरह अंग्रेज सोल्जर को निरपराध मानकर छोड़ दिया गया, कहा गया कि शराब के नशे में गलती से गोली चल गई | इसके बाद तो सिपाही जब भी आपस में मिलते अभिवादन के साथ साथ कहते – अपनी बन्दूक गलती से कब चलेगी ? 

अंग्रेज इतने निश्चिन्त हो चुके थे कि ३ जून को सर हो व्हीलर ने लार्ड केनिंग को लिखा – डर की कोई बात नहीं है, कानपुर सुरक्षित है, जल्द ही मैं यहाँ से लखनऊ को भी मदद भेजे देता हूँ | और उसके बाद इलाहबाद से कानपुर को रवाना हुई अंग्रेज फ़ौज लखनऊ चली गई | यह थी नाना साहब की गोपनीयता | जिस षडयंत्र में कानपुर के तीन हजार सिपाही, आम आदमी से लेकर वैश्या अजीजन तक सम्मिलित थीं, उसकी जानकारी अंग्रेजों को रत्ती भर भी नहीं थी | 

४ जून की रात को अँधेरे में कुछ गोलियां चलीं और साथ ही टीका सिंह ने अपने घोड़े को एड लगाई | घोडा हिनहिनाया और फिर तो चारों ओर से घोड़ों की टापों की आवाज गूंजने लगी | पैदल और घुड़सवार सबसे पहले बारूदखाने की तरफ बढे, जहाँ केवल नाना के सैनिक थे, जिन्होंने इन लोगों को हंसते हंसते गले लगा लिया | ५ जून की सुबह सर व्हीलर को केवल एक संतोष था कि विद्रोह हो गया, कोई बात नहीं, कमसेकम कोई अंग्रेज तो नहीं मरा | उसे आशा थी कि अन्य स्थानों के समान अब यहाँ भी विद्रोही दिल्ली की तरफ रवाना हो जायेंगे और तब तक तोपखाने की आड़ में अंग्रेज सुरक्षित रहेंगे | लेकिन उसे नहीं पता था कि यहाँ नाना साहब, अजीमुल्ला और तात्या जैसे रणनीतिकार हैं, जो दिल्ली नहीं जाने वाले | अगर कानपुर के ही समान अन्य स्थानों पर भी योग्य नेता होते तो दिल्ली कूच के स्थान पर अपने अपने स्थान को मजबूत करते और अंग्रेज फ़ौज भी दिल्ली में एकत्रित होने के स्थान पर तितर बितर रहने को विवश होती | 

कानपुर ने नाना साहब को अपना राजा चुना | टीकासिंह जनरल, जमादार दलगंजन सिंह ५३ वीं बटालियन के कर्नल और सूबेदार गंगादीन ५६ वीं रेजीमेंट के कर्नल नियुक्त हुए, होलासिंह को मुख्य मजिस्ट्रेट बनाया गया | एक हजार अंग्रेज, तोपखाने के साथ किले में सुरक्षित महसूस कर रहे थे, लेकिन तोपें तो अब विद्रोहियों के पास भी थीं | दोनों तरफ से तोपें चलने लगीं | ७ जून को विद्रोहियों की तोपों की मार से चहारदीवारी के अन्दर के भवन धडाधड गिरने लगे, तो अंग्रेज महिलायें और बच्चे चीखते पुकारते इधर उधर भागने लगे | किले में पानी की भी किल्लत हो गई | किले के अन्दर फंसे अंग्रेजों की दुर्दशा और बाहर से आक्रमण कर रहे स्वतंत्रता योद्धाओं के शौर्य का विषद वर्णन सावरकर जी ने किया है | दबाओं के अभाव, तोप के गोलों से लगातार मरते अंग्रेज अधिकारी, सैनिक, स्त्री बच्चे, बाहरी मदद के कोई आसार नहीं, इन सब परिस्थितियों के चलते, अंत में २५ जून को अंग्रेजों ने संधि के लिए सफ़ेद झंडा लगा दिया | उसके साथ ही युद्ध रोक दिया गया | अंग्रेज गोला बारूद व शस्त्र सोंपकर निहत्थे इलाहाबाद सुरक्षित पहुंचाए जायेंगे यह संधि हुई | सती चौरा घात पर चालीस नौकाएं अनाज आदि से भरकर गंगा में तैयार खडी थीं, जिनसे २७ जून को अंग्रेजों को रवाना होना था | यह समाचार आसपास भी फ़ैल गया और बड़ी संख्या में वे लोग भी कानपुर आ पहुंचे जो अंग्रेजों के अत्याचार से प्रताड़ित हुए थे | नील ने जिनके स्त्री बच्चों को जिन्दा जलाया था, जिनके परिजन आठ या नौ अंक बनाकर पेड़ों पर फांसी चढ़ाए गए थे | ऐसे लोग कहाँ किसका संधिपत्र मानने वाले थे ? 

जैसे ही पालकियों में सवार सर व्हीलर, अंग्रेज महिलायें और पैदल चलते अन्य अंग्रेज घाट पर पहुंचे, एक बिगुल बजा, उसके साथ ही बंदूकें, तलवारें, कटारें चलना शुरू हो गईं | सब एक ही स्वर बोल रहे थे – मारो फिरंगी को | नाना साहब ने सन्देश भेजा भी कि स्त्री बच्चों को न मारा जाए, किन्तु उस खूनी माहौल में कौन सुनने वाला था | किन्तु फिर भी सैनिकों ने उस आदेश का मान रखते हुए तीन पुरुष और लगभग सवा सौ अंग्रेज महिलाओं और बच्चों को सुरक्षित निकालने में सफलता पाई, जिन्हें सबदा कोठी में कैद किया गया | 

आइये अब झांसी के हालातों पर नजर डालें | जिन परिस्थितियों का सामना नाना साहब ने किया, वही उनकी बहिन छबीली के सामने भी आई | सन १८५३ में उनके पति गंगाधर राव अकस्मात स्वर्ग सिधार गए और उनके दत्तक प्रिय पुत्र दामोदर राव को मान्यता न देते हुए अंग्रेजों ने झांसी के अधिग्रहण का फरमान जारी कर दिया | परन्तु झांसी क्या ऐसे फरमानों से कब्जे में आ सकती थी भला | झांसी के जमीन आसमान में वह इतिहास प्रसिद्ध स्वर गूँज उठा, मानो बिजली कडकडाई हो – अपनी झांसी मैं नहीं दूँगी, जिसमें हिम्मत हो वह लेकर दिखाए | जिस दिन कानपुर में विद्रोह हुआ, उसी दिन अर्थात ४ जून को झांसी भी गरज उठी | कैप्टिन डनलप और एनसाईन टेलर तो पहले ही हमले में मारे गए | किले में घुसकर तोपों की दम पर अंग्रेजों ने स्वयं को बचाने की भरसक कोशिश की, किन्तु किले में मौजूद अन्य नेटिव लोगों के कारण लम्बे समय तक नहीं जूझ पाए और आखिर में कमिश्नर गार्डन और लेफ्टिनेंट पावस के मारे जाने के बाद, रिसालदार काले खान और झांसी के तहसीलदार अहमद हुसैन की बहादुरी के सामने पस्त होकर, ८ जून को शेष लोगों ने आत्म समर्पण कर दिया, किन्तु बचे इसके बाद भी नहीं, सब काट दिए गए | झांसी के स्वातंत्र्य सिंहासन पर रानी लक्ष्मीबाई विराजमान हो गईं | 

अवध में भी सर हैनरी लोरेन्स अकेला लखनऊ रेजीडेंसी में किला लड़ा रहा था, शेष लखनऊ शहर पर नबाब बाजिद अली शाह के नाम पर उनकी बेगम हुकूमत कर रही थीं | फैजाबाद के मौलवी अहमद शाह ने इस क्रान्तियुद्ध में अपना नाम सदा सर्वदा के लिए अमर कर लिया | जब से अंग्रेजों ने अवध का राज्य अधिग्रहित किया, उसने अपना सर्वस्व स्वदेश पर न्यौछावर कर दिया और पूरे हिन्दुस्तान में अलख जगाता घूमता रहा | अवध प्रदेश के जनपदों में उसके प्रति अगाध श्रद्धा उत्पन्न हो गई थी | यह जानकर अंग्रेजों ने उसे पकड़ने का उपक्रम किया, लखनऊ की पुलिस जब उसे नहीं पकड़ पाई, तब सेना भेजकर पकड़ा गया और फांसी देने के लिए कारावास में रखा गया | उन्हें कारावास में फांसी के लिए रखने का निर्णय ऐसा था मानो ब्रिटिश सत्ता ने स्वयं के लिए फांसी की सजा मुक़र्रर की हो | क्रांति की बारूद से ठसाठस भरी क्रांति की सुरंग फूट पड़ी और सूबेदार दिलीप सिंह के नेतृत्व में काराग्रह का फाटक कडकड़ाकर टूट गया और साथ ही न केवल फैजाबाद, बल्कि महोबा, सुल्तानपुर सहित समूचा अवध अंग्रेज रहित हो गया | कुछ की जान बची तो गोपालपुर के राजा और दो अन्य राजा मानसिंह और हनुमंत सिंह की बदौलत, जिन्होंने शरणागत का मान रखते हुए उन्हें बचाया, हालांकि स्वयं युद्ध में भाग लेते रहे | 

५ जुलाई को नसीराबाद और नीमच की रेजीमेंटों ने आगरा पर हमला किया | करौली और भरतपुर रियासतों ने अंग्रेजों की मदद को अपनी सेना भेजी | लेकिन यह क्या, सैनिक पहुंचे जरूर लेकिन अंग्रेजों से साफ़ कह दिया – हमने अपने राजा का मान रखते हुए, विद्रोह नहीं किया, यह बहुत है, हम अपने देश बंधुओं पर हथियार नहीं उठाने बाले | अंग्रेजी सेना ने ब्रिगेडियर पालवल के नेतृत्व में बिद्रोहियों का मुकाबला किया भी, लेकिन विद्रोहियों की मार के आगे टिक नहीं पाए, वापस आगरा को भागे, लेकिन बहां भी कहाँ सुरक्षा थी | ६ जुलाई की सुबह समूचा आगरा विद्रोह कर उठा | पुलिस और नागरिकों ने मिलकर बही किया, जो पूरे देश में हो रहा था | चिंताग्रस्त सर कोलविन आगरा के किले में दुबक कर बैठ गया और अंग्रेजों को दुखी कर ९ सितम्बर १८५७ को मर गया | यही कहानी इंदौर की भी है | बहां एक मुस्लिम सेना नायक सादत खान के नेतृत्व में ९ जुलाई को विद्रोह हुआ | लेकिन अंतर बस इतना ही कि यहाँ मार काट नहीं हुई | अंग्रेज अपना बोरिया बिस्तर बाँध कर सुरक्षित भाग गए | 

उधर १२ जून को अंग्रेज सेना ने कमांडर बर्नार्ड के नेतृत्व में दिल्ली को घेर लिया | उनका आत्म विश्वास बढ़ा हुआ था, क्योंकि पंजाब की रियासतों की सेना भी उनके साथ थी | लेकिन क्रांतिकारियों ने गोरिल्ला युद्ध पद्धति का सहारा लिया | वे गुपचुप शहर से निकलते और दायें बाए या पीछे से हमला करते और नुक्सान पहुंचाकर चम्पत हो जाते | जुलाई मध्य तक अंग्रेज कुछ नहीं कर पाए, उनके अनेक प्रमुख योद्धा मारे गए | ५ जुलाई को उनका सेनापति बर्नार्ड भी हैजे से मर गया और १४ जुलाई को उनका शूरवीर चेंबरलेन भी एक सिपाही की गोली खाकर चिर निद्रा में सो गया | 

अंग्रेजों के लिए इधर दिल्ली तो उधर कानपुर नाना साहब के कब्जे से वापस लेना प्रतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ था | १२ जुलाई को जब कानपूर यह समाचार पहुंचा कि रीड के नेत्रत्व में एक अंग्रेज टुकड़ी हमला करने बढ़ रही है, तो उसका आगे बढ़कर मुकाबला करने विद्रोही सेना भी ज्वाला प्रसाद, टीका सिंह और इलाहाबाद के मौलवी के नेतृत्व में फतेहपुर के पास पहुँच गई | लेकिन तभी हेवलोक की अंग्रेज सेना भी रीड के साथ आ मिली और उनकी ताकत बहुत बढ़ गई | क्रान्ति सेना को कदम पीछे खींचने पड़े | उनका तोपखाना भी अंग्रेजों के हाथ आ गया | विजई अंग्रेज सेना ने उनका पीछा करने के स्थान पर फतहपुर जलाना ज्यादा जरूरी समझा | जलते हुए फतहपुर की ज्वालाओं ने गरमी कानपुर को भी दी | जिन्दा जलाए गए लोगों का समाचार नाना साहब के दरबार में आते ही, बहां क्रोध और आवेश की लहरें उठने लगीं | तभी कुछ दगाबाज जासूस भी पकड़कर सामने लाये गए, जिनके हाथों नाना साहब की कैद में रह रही अंग्रेज महिलाओं ने इलाहाबाद के अंग्रेज अधिकारियों को गोपनीय पत्र पहुंचाए थे | बीबीगढ़ में जो महिलायें कैद थीं, उनमें से अधिकाँश अनेक वर्षों से कानपुर में ही रह रही थीं, अतः दरबार का यह मत बना कि अगर पराजय हुई तो ये औरतें हमारे सभी सहयोगियों के नाम भी बता देंगी, और वे निरीह लोग भी द्वेष की बलि चढ़ेंगे | अतः इन्हें जीवित न छोड़ा जाए | और उसके बाद वह कुख्यात बीबीगढ़ काण्ड हुआ | उन डेढ़ सौ औरतों को मारने को कोई सिपाही तैयार नहीं हुआ, तो कानपुर के खटीक मोहल्ले से आदमी बुलाये गए और मृत शरीरों को पास के कुँए में डाल दिया गया | अभी तक जिस कुए का पानी लोग पीते थे, आज वह कुआ मानव रक्त पी रहा था | 

तात्या टोपे का शौर्य और मौलवी अहमद शाह का बलिदान ! 

१२ जून से २५ सितम्बर तक दिल्ली का संग्राम चला, उसके अंतिम चरण में विद्रोही सेना नायक बख्तर खान ने बादशाह को कहा कि हमें शत्रु की शरण में जाने के स्थान पर लड़ाई करते हुए बाहर निकल जाना चाहिए | आप भी हमारे साथ चलें और अपने झंडे के नीचे हमारा नेतृत्व करते रहें | लेकिन बृद्ध और भयभीत बादशाह ने उनकी बात नहीं मानी और अंतिम दिन तो वह इलाही बख्श मिर्जा के उपदेश अनुसार हुमायूं की कब्र में छुपकर बैठ गया | बख्तर खान विद्रोह का झन्डा उठाये दिल्ली से कूच कर गया | गद्दार इलाही बख्श ने तुरंत अंग्रेजों को सूचना दी और बादशाह गिरफ्तार कर लिया गया और तीनों शहजादों को निर्ममता पूर्वक हडसन ने गोली मारकर लाश गिद्ध, चील, कौओं को खाने के लिए कोतवाली के सामने फेंक दिया | जब लाशें सड गईं तब उन्हें नदी में फेंक दिया | दिल्ली में भी वही हुआ, जो जीतने के बाद हर जगह अंग्रेजों ने किया था | लार्ड एनफिन्स्टन ने जॉन लोरेन्स को लिखा – दिल्ली का घेरा समाप्त हो जाने के बाद हमारी सेना ने दिल्ली का जो हाल किया है, वह ह्रदय द्रावक है | शत्रु और मित्र का भेद न करते हुए, सरेआम बदला लिया जा रहा है | लूट में तो हमने नादिरशाह को भी मात कर दिया है | जनरल आऊट्रम कहता है – जला दो दिल्ली को | 

हैवलोक ने कानपुर में पेशवा नाना साहब को पराजित किया और जमकर विध्वंश मचाने के बाद वह जैसे ही लखनऊ को रवाना हुआ, नाना ने फिर कानपुर पर अपना जरी पटका लहरा दिया | जैसे ही वह लौटा, नाना ने कानपुर छोड़कर ब्रह्मावर्त हथिया लिया, अंग्रेज सेना उधर आई तो नाना पहले कालपी और फिर लखनऊ के नजदीक फतेहपुर में जाकर जम गए | अंग्रेज अधिकारियों ने इस चूहा बिल्ली के खेल को हेवलोक की असफलता मानकर नेतृत्व जेम्स आऊट्रम को सोंप दिया | लेकिन दोनों अधिकारियों के मन में इसके बाद भी कोई खटास नहीं आई और वे मिलकर विद्रोहियों से जूझते रहे | तभी सर कॉलिन के नेतृत्व में दिल्ली से आई अंग्रेज सेना भी इनके साथ आ मिली| कानपुर जनरल विंडहम के जिम्मे छोड़कर यह सैन्य दल लखनऊ की और बढ़ गया | 

इस बीच पृथक से अंग्रेजों की नाक में दम करते तात्या भी फतेहपुर पहुँच गए | फतहपुर में नाना और तात्या की योजना बनी कि अब तक ग्वालियर अछूता है, अतः तात्या वहां मोर्चा संभाले | तात्या गोपनीय रूप से अकेले ग्वालियर पहुंचे, उन्हें सेना की कहाँ आवश्यकता, वे तो जहाँ जाते, वहां सेना खडी कर लेते | १८५७ की भूमिका को लेकर ग्वालियर कुख्यात है, लेकिन ग्वालियर, इंदौर, राजपूताना, भरतपुर आदि रियासतें भले ही यह सोचती रहीं कि हम तो बचे हैं, दूसरों के फटे में टांग क्यों अड़ाएं, लेकिन सचाई यह है कि लोकमन में क्रांति की समर चेतना बहां भी जागृत हुई थी | भले ही सिंधिया की जीभ न हिली हो, वह अंग्रेजों से युद्ध न चाहते हों, किन्तु एक हाथ में जलती मशाल और दूसरे में तलवार थामे पैदल सिपाही सन्नद्ध हुए, तो तोपखाने ने भी विद्रोह कर दिया | शहर तो शहर सिंधिया के किले और महल में भी कोई गोरा नहीं बचा | महिलाओं को नहीं मारा गया, उन्हें आगरा भेज दिया गया | सिंधिया को एक बेजान गुडिया बनाकर तबियत से अंग्रेजों को काटा गया | कैसे हुआ यह सब ? आखिर तात्या टोपे आया था बहां ब्यूह रचना की खातिर | इस विद्रोही सेना को लेकर तात्या ९ नवम्बर को कालपी पहुंचे | कालपी कानपुर से महज ४६ मील दूर है, लेकिन तात्या ने सीधे कानपुर पर चढ़ाई नहीं की, उन्होंने पहले जालौन में अपना खजाना रखकर उसकी सुरक्षा के लिए तीन हजार सैनिक व बीस तोपें छोड़कर, शिवराजपुर कब्जे में किया और १९ तारीख आते आते अंग्रेजी रसद के रास्ते रोक दिए | 

विंडहम एक चतुर अधिकारी था, उसने तात्या के आक्रमण का इंतज़ार करने के स्थान पर आगे बढ़कर मुकाबला करने की ठानी | २६ नवम्बर को प्रातःकाल युद्ध शुरू हुआ और विद्रोहियों की तीन तोपें अंग्रेजों के कब्जे में आ गईं | वे इसे अपनी विजय समझ रहे थे, तब तक तीन तरफ से तात्या ने ऐसा घेरा कि उनके सामने केवल पीछे हटने का मार्ग ही शेष रहा | पीछे भी योजना पूर्वक नहीं हटे, दुम दबाकर भागे | हजारों तम्बू, छोलदारियां, रसद विद्रोहियों के हाथ आई | इस पराजय की गूँज लखनऊ तक गई, जो २३ नवम्बर को अंग्रेजों के अधिकार में आ चुका था और २४ नवम्बर को कर्तव्यनिष्ठ सेना नायक हेवलोक दुनिया से विदा ले चुके थे | अभी लखनऊ के जीत का जश्न मना भी नहीं था कि तब तक यह समाचार आ गया कि कानपुर में तात्या टोपे की तोपें गरज रही हैं | अंग्रेजों की सेना वहां पहुचती, तब तक दो दिन के सीधे युद्ध में कैप्टिन माक्री, मेजर स्टर्लिन, लेफ्टिनेंट केन, लेफ्टिनेंट रिबन मारे जा चुके थे | लखनऊ से आई सेना गंगा पार न कर पाए, इसलिए पुल तोडा जा चुका था, तोपखाना भी सन्नद्ध था | 

लेकिन अंग्रेजों सेना ने भी अपनी तोपों की मार की छाया में ३० नवम्बर को गंगा पार कर ही ली | सेनापति तात्या टोपे, नाना साहब और ग्वालियर की सेना सहित विद्रोहियों के पास कुल नौ दस हजार सैनिक थे | जबकि चार्ल्स वाल के अनुसार कमांडर इन चीफ कोलिन के साथ पिचहत्तर हजार सिक्ख व अंग्रेज सैनिक व पैंतीस तोपें थीं | अंग्रेजों की इच्छा तात्या को ससैन्य समर्पण के लिए विवश करने की थी, इसलिए उन्होंने चारों तरफ से घेरा बनाया | लेकिन मेंसफील्ड को धमकाते जाल तोड़कर यह हिन्दुस्तानी शेर निकल ही गया | उसके बाद कॉलिन ने ब्रह्मावर्त पहुंचकर वहां का राजमहल जलाया, जहाँ भारतभूमि के दैदीप्यमान रत्न नाना, तात्या, बाला साहेब और झांसी की छबीली रानी लक्ष्मीबाई शिशु से युवा हुए थे | 

लखनऊ कानपुर हार गए हों, लेकिन विद्रोही हिम्मत नहीं हारे | १८५७ बीत गया १८५८ शुरू हो गया | बेगम हजरत महल, मौलवी अहमद शाह, तात्या की छापामार युद्ध शैली ने अंग्रेजों की नींद हराम कर रखी थी | विद्रोह को कुचलने १५ अप्रैल को वालपोल एक बड़ी सेना के साथ लखनऊ से ५१ मील दूर स्थित रुइया के किले तक पहुंचा | छोटा सा किला, छोटा सा जमींदार नरपत सिंह, किले में महज सौ डेढ़ सौ लोग, लेकिन बिना जूझे किला नहीं देने की जिद्द | युद्ध हुआ और होप जैसा अजेय अंग्रेज योद्धा मारा गया | किले के कमजोर भाग से घुसने की कोशिश करते ग्रूव को विद्रोहियों ने गोली बारी में मरने के लिए बाँध कर पटक दिया | अपनी जूझने की शर्त पूरी कर, अंग्रेजों का मान मर्दन कर वह नर नाहर नरपत सिंह, अपने सहयोगियों के साथ किले से कब निकल गया, अंग्रेजों को पता ही नहीं चला | वे तो अपने सैकड़ों मृत साथियों का गम ही मनाते रहे | 

बरेली पर अभी तक खान बहादुर खान का ही शासन चल रहा था, साथ ही सर कोलिन को पता चला कि नाना और मौलवी अहमद शाह सहित सारे विद्रोही नेता शाहजहाँपुर में इकट्ठे हैं | इन सब विद्रोहियों को एक साथ ख़तम करने के लिए उसने व्यूह रचना की | ३० अप्रैल को उसने शाहजहाँ पुर पर धावा बोला, लेकिन नाना और मौलवी उसके जाल में नहीं फंसे, साफ़ निकल गए | लेकिन जाने के पहले उन्होंने सारे सरकारी भवनों को जमींदोज कर दिया, ताकि कोई उनमें न रह सके | मजबूरन टेंट तम्बुओं में चार तोपें और अंग्रेजी सेना वहां छोड़कर उदास कोलिन बरेली की तरफ बढ़ा | बहां खान बहादुर खान और उनके गाजियों ने फिरंगी को तगड़ा झापड़ रसीद करना तय किया | छः मई को, दाढ़ी के बढे हुए बाल, सर पर हरे साफे, कसा हुआ कमरबंद, उंगली में चांदी की चपटी अंगूठी, उसमें खुदी कुरआन की आयतें, ऐसी भव्याकृति के वीर, एक हाथ में ढाल और दूसरे हाथ में तलवार थामे, दीन दीन की गर्जना के साथ शत्रु पर टूट पड़े | उन्होंने तेजी से फिरंगियों को काटना शुरू किया तो अंग्रेज दहशत में पीछे हटे, लेकिन इन गाजियों की टोली में से एक भी पीछे नहीं लौटा | मारते, छांटते, काटते, उनमें से हरेक लड़ते लड़ते ही खुद भी कटा | एक अवश्य काटे जाने के पूर्व ही रणभूमि में गिरा | क्यों ? जैसे ही युद्ध थमने के बाद निरीक्षण के लिए कमांडर इन चीफ पास आया, मरने का नाटक करता वह योद्धा उठ खड़ा हुआ, लेकिन इसके पहले कि वह कोलिन को खतम कर पाता, साथ चल रहे एक सिक्ख सिपाही ने तत्काल उसका सर काट दिया | ७ मई को खान बहादुर अपने साथियों के साथ मारकाट करते घेरा तोडकर बरेली से साफ़ निकल गए | कॉलिन की योजना एक बार यहाँ भी फ़ैल हुई | 

बरेली में अंग्रेज सेना प्रवेश कर रही थी तभी समाचार आया कि मौलवी ने शाहजहांपुर पर धावा बोल दिया है | मौलवी ने शहर छोड़ते समय भवन इसीलिए गिराए थे, ताकि सेना को कहीं आड़ न मिले | शाहजहाँ पुर की अंग्रेज टुकड़ी को मटियामेट कर वे बरेली का बदला लेना चाहते थे | अगर उन्होंने हमला रात को किया होता तो सफलता असंदिग्ध थी, किन्तु वे चार मील पूर्व सुबह के इंतज़ार में रुक गए, तब तक जासूसों ने सूचना अंग्रेजों को दे दी और वे सावधान होकर जेल की चाहरदीवारी के अंदर हो गए | मौलवी ने शहर पर कब्जा कर तोपों से जेल पर गोले दागना शुरू किये | कोलिन बेहद खुश था, उसे लगा कि आखिरकार मछली जाल में फंस ही गई | वह आननफानन में शाहजहाँपुर पुर पहुंचा और शहर को चारों और से घेर लिया | ११ मई से उस अकेले मौलवी और विशाल अंग्रेज सेना की भयंकर लड़ाई शुरू हो गई | यह समाचार सुनते ही उस लोकप्रिय मौलवी के समर्थन में दसों दिशाओं से झुण्ड के झुण्ड सेनानी वहां पहुँचने लगे | अवध की बेगम, मोहम्मदी का राजा मय्यन साहब, दिल्ली का मिर्जा फिरोजशाह, पेशवा नाना साहब आदि की सेनायें १४ मई तक मैदान में आ डटी | शिकारी खुद फंदे में फंस गया | अब वे आगे मौलवी को पकड़ने की कोशिश करते या पीछे से हो रहे प्रहारों को रोकते | नतीजा यह हुआ कि मौलवी एक बार फिर अपनी सेना के साथ जाल से निकल गए | अंग्रेजों ने अवध जीता तो मौलवी रूहेलखंड में हुकूमत चलाई, अंग्रेजों ने रूहेलखंड जीता तो मौलवी फिर अवध पहुँच गए | 

एक बार फिर विश्वासघाती के कारण हिन्दुस्तानी तलवार की धार भोंथरी हुई | अवध में घुसने के बाद मौलवी को ध्यान में आया कि अवध और रूहेलखंड के बीच एक रियासत है पोवेन | उसका राजा अगर अपने पक्ष में हो जाए, तो अंग्रेजों के विरुद्ध चल रहे संघर्ष को और बल मिलेगा | राजा को सन्देश भेजा गया तो उसने मौलवी को मिलने बुलाया | जब मौलवी शहर की दीवार के पास पहुंचे तो देखा दरबाजे बंद हैं और वह मोटा सुंडमुसुंड राजा जगन्नाथ सिंह अपने भाई के साथ दीवार पर सशस्त्र लोगों के बीच खड़ा है | उन्होंने दीवार के नीचे खड़े होकर ही उस राजा को समझाया | मनाने की भरसक कोशिश के बाद भी जब देखा कि वह नहीं मान रहा तब महावत को आदेश दिया कि दरबाजा तोड़ दिया जाए | लेकिन उसी समय राजा के भाई की बन्दूक से चली गोली ने उस मौलवी अहमद शाह को शहीद कर दिया, जिसने कसम खाई थी कि भले ही सर्वस्व राख हो जाए, अपनी तलवार नीचे नहीं रखूंगा | एक हिन्दुस्तानी कुलांगार ने ही यह पाप किया, इतने पर भी मन नहीं भरा तो वे दोनों भाई जल्दी से नीचे आये और मौलवी का सर काटकर एक रुमाल में बांधकर दौड़ते हुए तेरह मील दूर शाहजहाँपुर पहुंचे और कॉलिन की खिदमत में यह अमूल्य नजराना पेश किया | और उसके बाद उत्तर भारत में अंग्रेजों के इस महान शत्रु का सर कोतवाली पर टांग दिया गया और उस पातकी राजा को पचास हजार रुपये का ईनाम दिया गया | 

अंग्रेज इतिहासकार मेल्सन ने लिखा – मौलवी एक असाधारण व्यक्ति था | विद्रोह काल में उसके सैनिक नेतृत्व की योग्यता का परिचय कई प्रसंगों में मिलता है | सर कॉलिन केम्पवेल को दो बार युद्ध क्षेत्र में पराजित करने का करिश्मा करने वाला कोई दूसरा नहीं है | 

मौलवी अहमद शाह को सादर श्रद्धांजलि

१८५७ का स्वातंत्र्य समर (भाग - १) – पृष्ठभूमि और युद्ध का प्रारम्भ

Posted: 23 Jul 2020 09:56 PM PDT



लुटेरे डलहौजी की हड़प नीति

सन १९०७ अर्थात सन १८५७ की पचासवीं वर्षगाँठ ब्रिटेन में बहुत धूमधाम से मनाई गई | इसे विजय दिवस बताते हुए, समाचार पत्रों ने विशेषांक निकाले, ब्रिटिश शौर्य का जमकर बखान और इस स्वतंत्रता संग्राम को कुछ राजाओं का ग़दर बताते हुए रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा जैसे श्रेष्ठ भारतीयों को हत्यारा और उत्पाती बताया गया | स्वाभाविक ही इस परिदृश्य को देखकर भारतीय देशभक्तों की आत्मा कलप गई | प्रख्यात विद्वान देशभक्त श्यामजी कृष्ण वर्मा के इंडिया हाउस में रहकर इंग्लेंड में वकालत पढ़ रहे नौजवान विनायक दामोदर सावरकर ने १८५७ की वास्तविकता सामने लाने की योजना बनाई | उन्होंने इंडिया हॉउस के मेनेजर मुखर्जी की अंग्रेज पत्नी की मदद से वहां की लाइब्रेरी में प्रवेश पा लिया और फिर अंग्रेजों की नाक के नीचे अंग्रेजों के ही गोपनीय दस्तावेजों का सूक्ष्म अध्ययन कर उन्होंने एक पुस्तक लिखी – १८५७ का स्वातंत्र समर | और कमाल देखिये कि १८५७ का वास्तविक इतिहास वर्णित करने वाली इस पुस्तक ने स्वयं इतिहास रच दिया | यह विश्व की इकलौती ऐसी पुस्तक बन गई, जिस पर प्रकाशन के पूर्व ही प्रतिबन्ध लगा दिया गया | यह केवल इसके नाम की दहशत थी, अंग्रेज जिसे ग़दर या विद्रोह बताते आ रहे थे, उसे स्वतंत्रता संग्राम बताना, आखिर उन लोगों को कैसे सहन होता ? भले ही हमारे प्रथम प्रधान मंत्री चच्चा नेहरू भी इसे ही क्यों नेताजी सुभाष के संग्राम को भी ग़दर ही बोलते आये हों, आईये हम तो अपने इस प्रामाणिक स्वतंत्रता संग्राम का पुण्य स्मरण करें, इसे जानें - 

१८४८ में डलहौजी भारत आया, स्वभाव से जिद्दी, दुस्साहसी राजनीतिज्ञ, जिसका एकमात्र उद्देश्य था, भारत की धन सम्पदा को लूटना | उसका पहला निशाना बना पंजाब | १८३९ में महाराज रणजीत सिंह के परलोक गमन के बाद से ही पंजाब अंग्रेजों की आँख की किरकिरी बना हुआ था | उत्तराधिकारियों के लगातार सत्ता संघर्ष के बाद भी पंजाब पर काबिज होना उनके लिए इतना आसान न था | महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के मात्र एक वर्ष बाद ही उनके उत्तराधिकारी पुत्र खड़गसिंह की मृत्यु हो गयी। उसके बाद अगले शासक नौनिहाल सिंह बने, किन्तु वह भी शीघ्र ही काल के मुख में समा गये। अब शेरसिंह गद्दी पर बैठे, लेकिन सन 1843 में शेरसिंह की भी हत्या कर दी गयी। अंततः राजमाता झिन्दन के संरक्षण में महाराजा रणजीत सिंह के अल्पवयस्क पुत्र दिलीप सिंह का राज्यारोहण किया गया। तत्कालीन अंग्रेजी सेनानायक मेजर ब्रॉडफुट की नीतियों के चलते सिख सेनापति लालसिंह तथा तेजासिंह के नेतृत्व में अंग्रजो के विरुद्ध सिक्खों का प्रथम संघर्ष प्रारम्भ हुआ । इस युद्ध में चार लड़ाइयाँ फिरोजशाह, मुदकी, बद्रोवाल और अलीबाल में लड़ी गयी जिनमे कोई भी निर्णय नहीं हो सका। पांचवीं एवं अंतिम लड़ाई 20 फरवरी, 1846 को सबराओ में हुई, जिसमें अंग्रेजी सेना ने लाहौर पर अधिकार कर लिया और 9 मार्च, 1846 ई. को अंग्रेजो एवं सिखों के मध्य लाहौर की संधि हुई।

इस संधि के परिणामस्वरुप सतलुज नदी की दक्षिण दिशा के सभी प्रदेशो पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया । अंग्रेजो ने सिखों से हर्जाने के रूप में डेढ़ करोड़ रुपया लिया, जिनमें से 50 लाख रुपये सिखों ने अपने कोष से दिए तथा शेष रकम के बदले कश्मीर एवं पंजाब के कुछ प्रांत अंग्रेजो को सौंप दिए। अंग्रेजो ने 50 लाख रुपये लेकर गुलाब सिंह को कश्मीर बेच दिया। कश्मीर का गुलाब सिंह को बेचा जाना सिखों को पसंद नहीं आया। फलतः लाल सिंह के नेतृत्व में सिखों ने पुनः विद्रोह कर दिया। अंग्रेजो ने सिखों को पराजित कर दिया तथा 16 दिसंबर, 1846 ई. को दिलीप सिंह से 'भैरोवाल की संधि' हुई, जिसके परिणाम स्वरुप दिलीप सिंह के वयस्क होने तक ब्रिटिश सेना का लाहौर में प्रवास सुनिश्चित कर दिया गया। लाहौर का प्रशासन आठ सिख सरदारों की एक परिषद को सौंपकर महारानी झिन्दन को 48 हजार रुपये की पेंशन पर शेखपुरा भेज दिया गया।

लेकिन जुझारू सिक्ख कौम क्या इतनी आसानी से पराजय स्वीकार कर सकती थी ? डलहौजी की साम्राज्यवादी नीतियों ने आग में घी का काम किया । जैसे ही अंग्रेजो ने मुल्तान के गवर्नर को अपदस्य किया, जनता ने विद्रोह कर दिया। और द्रितीय आंग्ल-सिख युद्ध प्रारम्भ हो गया। 22 नवम्बर, 1848 ई. को लड़ा गया रामनगर का युद्ध, 3 जनवरी, 1849 ई. को लड़ा गया चिलियाँवाला का युद्ध अनिर्णीत ही समाप्त हुआ। किन्तु 13 फरवरी, 1849 ई. को लडे गये गुजरात के युद्ध में अंग्रेजो ने सिख सेना को पराजित कर दिया। इतिहास में इसे 'तोपों के युद्ध' के नाम से भी जाना जाता है।

उसके बाद 30 मार्च, 1849 ई. को लॉर्ड डलहौजी ने पंजाब को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। महाराजा दिलीप सिंह को 5 लाख रुपये की वार्षिक पेंशन देकर रानी झिन्दन के साथ इंग्लैंड भेज दिया गया तथा दिलीप सिंह से वह कोहिनूर हीरा छीनकर शाही ब्रिटिश राजमुकुट में लगाने हेतु भेज दिया, जो कभी महाराज रणजीत सिंह के मुकुट की शोभा बढाता था । यह तो डलहौजी द्वारा की गई लूट की शुरूआत थी |

पंजाब के बाद उसका अगला निशाना बना महाराष्ट्र का सतारा | सन १८३९ में छत्रपति प्रताप सिंह को षडयंत्र पूर्वक हटाकर अप्पा जी को सतारा का महाराज अंग्रेजों ने ही घोषित किया था, किन्तु जैसे ही अप्रैल १८४८ में अप्पाजी का स्वर्गवास हुआ, उनके दत्तक पुत्र को मान्यता न देते हुए सतारा को डलहौजी ने अधिग्रहित कर लिया | वह सतारा जिसकी गद्दी पर सन १६७४ में गागाभट्ट द्वारा अभिषिक्त होकर स्वयं शिवाजी महाराज विराजमान हुए थे, जिसके सामने संताजी, घनाजी, निराजी बाजी जैसे शूरमा भी झुकते थे, उस पर डलहौजी जैसा एक अंग्रेज नुमाईन्दा कारिन्दा कब्ज़ा जमा बैठा | रंगों बापू जी इस अन्याय की शिकायत लेकर जिस समय लन्दन में लीडन हॉल स्ट्रीट की सीढियां चढ़ उतर रहे थे, उस समय डलहौजी नागपुर को भी अपने अधिकार में लेने का षडयंत्र रच रहा था | 

विदर्भ का राज्य अंग्रेजों के अधीन नहीं था, उससे अंग्रेजों के मैत्रीपूर्ण और बराबरी के सम्बन्ध थे | लेकिन यह दोस्ती ही उनके सर्वनाश का कारण बनी | नागपुर की गद्दी पर विराजमान राघोजी भोंसले मात्र सेंतालीस वर्ष की आयु में स्वर्ग सिधार गए, लेकिन बजाय राघोजी की पत्नी या उनके द्वारा दत्तक लिए गए पुत्र को नागपुर का शासक स्वीकार करने के, डलहौजी ने ७६,४३२ वर्ग मील का यह विस्तीर्ण प्रदेश हड़प लिया | राजपरिवार की कीमती वस्तुएं, हाथी, घोड़े ही नहीं तो बिलखती रानियों के वस्त्राभूषण भी बाजार में कौड़ियों के मोल नीलाम किये गए | महारानी अन्नपूर्णाबाई जीवन की अंतिम साँसें ले रही थीं, और उनका शयनकक्ष खोदा जा रहा था | अन्नपूर्णाबाई अपमान की आग में झुलसते हुए शरीर त्याग गईं, लेकिन एक अन्य कुल कलंकिनी रानी बांकाबाई अंग्रेजों की पिट्ठू बनकर उनकी चाटुकार बनने में गौरव की अनुभूति कर रही थी | बाद में १८५७ में भी उनकी यही देशद्रोही नीति जारी रही | 

अंग्रेजों की चाटुकारिता में अपने कुल के गौरव को भुलाने बाली बांका बाई अकेली नहीं थीं, हैरत होती है यह जानकर कि पेशवाओं की महान परम्पराओं में से भी एक ऐसे महाशय उत्पन्न हुए, जिन्होंने १८१८ में अपना महान साम्राज्य आठ लाख रुपये वार्षिक की पेंशन में अंग्रेजों के हाथों गिरवी रख दिया | इतना ही नहीं तो उस पेंशन में से बचाए हुए रुपयों में से भी जब अंग्रेजों को जरूरत पडी, मुक्त हस्त से उनकी आर्थिक मदद की | नाम जानकर तो और भी शर्म महसूस होती है | इनका नाम था बाजीराव | कहाँ वह महान बाजीराव जिन्होंने मराठा साम्राज्य को सुदूर उत्तर तक पहुँचाया, जिसके घोड़े की टापों के निशान दिल्ली तक पहुंचे, उसी के वंश में उसी की नाम राशि वाले एक अन्य बाजीराव ने उसी राज्य को अंग्रेजों के हाथों में सोंप दिया | अफगानिस्तान की लड़ाई में, जब अंग्रेजों को जरूरत पडी इस बाजीराव ने उन्हें पांच लाख रुपयों की मदद पहुंचाई | इतना ही नहीं तो बाद में जब पंजाब में सिक्खों से अंग्रेजों की लड़ाई शुरू हुई, तब शिवाजी महाराज के पेशवा के वंश में उत्पन्न इसी बाजी ने अपनी गाँठ का पैसा लगाकर एक हजार पैदल और एक हजार घुड़सवार सैनिक अंग्रेजों की सहायता हेतु भेजे | इस बाजीराव के पास अपना शनिवार बाड़ा बचाने के लिए सेना नहीं थी, किन्तु पंजाब अंग्रेजों के हाथों में पहुंचाने के लिए सेना थी | दुर्भाग्य देश का |

लेकिन अंग्रेज ठहरे तोता चश्म, वे कहाँ किसी का अहसान मानने वाले थे | सन १८५१ में जैसे ही बाजीराव परलोक सिधारे, अंग्रेजों ने अपने इस सहयोगी को दी जाने वाली पेंशन भी बंद कर दी | बहाना बही पुराना था, बाजीराव के दत्तक पुत्र पेशवा नाना साहब को पेंशन पाने का कोई अधिकार नहीं है | नाना साहब ने लिखा भी कि हमारे विख्यात राजवंश से आपका यह कृपण व्यवहार पूरी तरह से अन्यायपूर्ण है | हमारा विस्तृत राज्य और राज्य शासन आपको श्रीमंत बाजीराव के साथ हुए उस समझौते के अनुसार प्राप्त हुआ था, कि आप उसके मूल्य के बदले आठ लाख रुपये प्रतिवर्ष देंगे | अगर यह पेंशन स्थाई नहीं है, तो राज्य पर आपका अधिकार कैसे और क्यूं रहना चाहिए | 

दत्तक की आड़ में खेले गए लूट के खेल में झांसी भी कैसे निशाना बनी, यह सर्वज्ञात है | लेकिन डलहौजी की लूट नीति की इन्तहा तो हुई अवध के मामले में | ना तो वहां बारिस की कोई समस्या थी, ना ही नबाब बाजिद अली शाह ने अंग्रेजों से कोई आक्रामक या शत्रुता पूर्ण व्यवहार किया था | उलटे हर कठिन समय पर नबाब ने अंग्रेजों की मदद ही की थी | जब जरूरत हुई तब अंग्रेजों को उसने पैसा भी दिया और खाने के लिए अनाज भी मुहैया करवाया | फिर भी अंग्रेजों ने उसे नहीं बख्शा | डलहौजी ने अवध पर कब्जा करने के लिए जो आरोप मढ़े, उन्हें जानकर हँसी भी आती है और क्रोध भी | हद्द दर्जे की थी इन फिरंगी लुटेरों की बेशर्मी | सचाई यह है कि अवध राज्य की जमीन बेहद उपजाऊ और उसके कारण लोग बहुत धनी थे, और यही उनका सबसे बड़ा अपराध था | लेकिन डलहौजी के प्रशासन और नीति का वर्णन करते हुए आर्नोल्ड ने लिखा कि – नबाब अपने राज्य में सुधार नहीं कर रहा था, ओहो हो ईसा मसीह भी इस उदारता को देखकर नतमस्तक हो गए होंगे | अवध वासियों के तन पर स्वतंत्रता का जो अमूल्य वस्त्र था उसे भी इस बहाने छीन लिया, लेकिन अंग्रेजी हुकूमत के अंतर्गत भूख से बिलखते भारतवासियों का दर्द उन दिनों कौन सुन रहा था ? नबाब का दूसरा अपराध लिखा गया कि वह अपनी दासियों को जरी की साड़ियाँ भेंट करता था, उसने आतिशबाजी का जलसा किया, एक दिन उसने सुबह दबाई पी और शाही बेगम व ताज बेगम से भोजन का आग्रह किया | हैं न भयंकरतम अपराध ? लेकिन नबाब के सबसे बड़े अपराध का वर्णन तो अभी बाक़ी है - उसने अपने सामने कुछ घोड़ियों पर घोड़े छुडवाये | शायद अंग्रेज सरकार को उन घोड़ियों की पवित्रता भंग होने पर नहुत दया आई और उसे देखने वाले नबाब को राज्यच्युत कर दिया |

अंग्रेजों ने नबाब बाजिद अली शाह को तो कलकत्ता के किले में बन्द कर दिया, किन्तु सवाल यह है कि, अंग्रेजों के अनुसार, उसकी जो प्रजा नबाब से नाखुश थी, उसने शमशीर क्यों तानी ? जबाब एक ही है और वह यह कि लुटेरे डलहौजी की हड़प नीति ने समूचे हिन्दुस्तान को सुलगा दिया था | यह केवल चंद राज्यच्युत राजाओं का संघर्ष नहीं था, आम भारत वासी द्वारा लड़ा गया स्वाधीनता संग्राम था | आज का यह एपीसोड तो प्रस्तावना भर है, अगले अंकों में आप सुनेंगे नानासाहब पेशवा, महारानी लक्ष्मीबाई, तात्याटोपे, अजीमुल्ला खान व अन्य अनेक क्रांतिवीरों की लोमहर्षक गाथाएँ | साथ ही तत्कालीन स्थिति परिस्थितियों का वर्णन !

नाना साहब पेशवा की व्यूह रचना से मंगल पांडे के बलिदान तक

देश का कैसा दुर्भाग्य है कि जिन महापुरुष ने हमारी ईश्वर प्रदत्त स्वतंत्रता का अपहरण करने वालों के विरुद्ध युद्ध छेड़ा, जिनकी हुंकार से अंग्रेज थर्राने लगे, उँ श्रीमंत नाना साहब पेशवा का, न किसी को वास्तविक जन्म दिवस ज्ञात है और नाही उनके स्वर्गवास के दिनांक की कोई अधिकृत जानकारी हमारे पास है | ज्ञात है तो बस इतना ही कि महाराष्ट्र की पुण्यभूमि में माथेरान गिरि शिखर की तलहटी में बसे, वेणुग्राम नामक एक छोटे से गाँव में सन १८२४ को एक दरिद्र ब्राह्मण परिवार में उनका जन्म हुआ था | पिता माधवराव नारायण और माता गंगाबाई निर्धन अवश्य थे, किन्तु सदाचारी और ईश्वर परायण | 

जिन दिनों पुणे के अंतिम पेशवा राव बाजी ने अपनी पेशवाई महज आठ लाख रूपये वार्षिक में अंग्रेजों को सोंपकर, भागीरथी के किनारे बिठूर में अपना आवास बनाया, नाम रखा ब्रह्मावर्त | उनके साथ ही महाराष्ट्र के बहुत से परिवार भी उनके आश्रय में रहने पहुंचे | माधवराव नारायण भी उनमें से एक थे | ईश्वरीय विधान भी विचित्र है, जिन बाजीराव ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार की, उन्होंने ही उन नाना साहब को गोद ले लिया, जो आगे चलकर अंग्रेजों की ईंट से ईंट बजाने वाले महान सेनानी बने | बाजीराव निसंतान थे, अतः ७ जून १८२७ को उन्होंने अपने सगोत्रीय माधवराव के ढाई वर्षीय इस तेजस्वी पुत्र को गोद लिया | और इस तरह एक निर्धन परिवार का यह बालक महाराष्ट्र राज्य के अधिपति की गद्दी का बारिस हो गया | प्रथम पेशवा बालाजी विश्वनाथ, महान योद्धा पेशवा बाजीराव के कुल में उनके पिता राव बाजी ने जिस पेशवा की गद्दी का सम्मान धुल धूसरित किया, उसे बहाल करने का उत्तरदायित्व अब इन नाना साहब के कन्धों पर था | 

जिन दिनों नाना साहब का विद्याभ्यास और शस्त्राभ्यास शुरू हुआ, उनके साथ ही अटक अटक कर एक छोटी सी छबीली मनुबाई भी पढ़ना सीख रही थी | श्री क्षेत्र काशी में १९ नवंबर १८३५ को मोरोपंत ताम्बे और उनकी सुशीला पत्नी भागीरथी के घर जन्मी मनुबाई भी अपने माता पिता के साथ ब्रह्मावर्त आकर बाजीराव के आश्रय में पल बढ़ रही थी | लक्ष्मीबाई और नाना साहब के लिए देव ने जो भूमिका निर्धारित कर रखी थी, उसका यह प्रारंभ था | राजपुत्र नाना साहब और मनोहारिणी छबीली की आयु में भले ही ग्यारह वर्ष का अंतर था, किन्तु इस दिव्य जोडी को साथ साथ पढ़ते खेलते बाल सुलभ क्रीडाएं करते देखकर किसे अंदाज रहा होगा कि यह जोडी भविष्य में देश और समाज के लिए क्या कुछ करने वाली है | घोड़े पर बैठे नाना, और नीचे मनुहार करती छबीली – दादा मुझे भी बैठाओ ना घोड़े पर, नाना साथ बैठने को कहते तो हठ करती, नहीं मुझे तो अलग दूसरे घोड़े पर अकेले ही बैठना है | और फिर अठारह वर्षीय नाना और महज सात वर्षीय छबीली अलग अलग घोड़ों पर पहले धीमे धीमे चलने शुरू हुए, और फिर कब छबीली घुड़सवारी में सिद्धहस्त बन गई, ज्ञात ही नहीं हुआ | भावी धर्मयुद्ध का यह पूर्वाभ्यास था | 

सदियों में एकाध शाला ही ऐसी खुलती है, जिसमें नाना साहब, उनके भाई बाबा साहब एवं बाला साहब, भतीजे राव साहब, तात्या टोपे और छबीली जैसे बालक एक साथ राष्ट्रधर्म की शिक्षा लेते हों, साथ साथ खेलते, हंसते, मुस्कुराते हों | और किसी एक सदी में एकाध ही परीक्षा ऐसी होती है, जिसमें ये सभी महानुभाव बालक संग्राम पत्रिका पर अपने वीर चरित्र की अद्भुत यशगाथा लिखते हैं | ऐसी असाधारण शाला और ऐसी असाधारण परीक्षा का सम्मान ब्रह्मावर्त के राजमहल को प्राप्त हुआ | 

आईये इस पावन हिन्दूभूमि की अक्षय कोख को नमन करें, जिससे १८१४ में शिव छत्रपति के अखाड़े का अंतिम जवांमर्द मराठा तात्याटोपे पैदा हुआ | पिता पांडुरंग भट के आठ पुत्र थे, उनमें से दूसरे पुत्र रघुनाथ ही आगे चलकर हिन्दुस्तान के इतिहास में चमकते सितारे तात्या टोपे के नाम से प्रसिद्द हुए | पांडुरंग राव टोपे देशस्थ ब्राह्मण थे तथा अंतिम बाजीराव के पास ब्रह्मावर्त में दानाध्यक्ष के पद पर थे | साथ साथ पढ़ते खेलते नाना साहब और तात्या टोपे में प्रीत गाढी होती गई | दोनों ने साथ साथ रामायण महाभारत के पारायण किये, मराठों की जवांमर्दी का इतिहास पढ़ा और उस वीर रस का पान कर दोनों के बाल बाहु साथ साथ ही फडके | 

तभी झांसी के महाराज गंगाधर राव के साथ छबीली मनु का विवाह हुआ और वे बन गईं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई | १८५१ में पेशवा राव बाजी ने अंतिम सांस ली और नाना साहब के संघर्ष की शुरूआत हुई | यद्यपि बाजीराव ने मृत्युपूर्व ही मृत्युपत्र लिखकर नाना साहब को अपना बारिस घोषित करते हुए, पेशवाई के सारे अधिकार सोंप दिए थे, किन्तु अंग्रेजों ने उनकी पेंशन जारी रखने से स्पष्ट इनकार कर दिया | नाना साहब के बकील के रूप में अजीमुल्ला खान इस अन्याय की शिकायत करने विलायत गए | अब आगे बढ़ने से पहले, थोडा इन अजीमुल्ला खान के विषय में दो शब्द |

१८५७ के क्रांति युद्ध में अजीमुल्ला खान का स्मरणीय योगदान रहा है | एक निर्धन परिवार में जन्म लेकर अपने बुद्धिबल से उन्नति करते हुए वे ख्यातनाम बकील हो गए | पहले एक अंग्रेज के यहाँ अतिशय साधारण नौकरी करते हुए उन्होंने अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा सीखी | उसी दौरान शिक्षा का महत्व समझ में आया तो एक विद्यालय में साथ साथ ही अध्ययन भी किया | पढाई पूरी करके अपनी प्रतिभा की दम पर उसी स्कूल में शिक्षक बन गए | उनकी बुद्धिमत्ता की कीर्ति जन नाना साहब के कानों तक पहुंची तो पारखी नाना साहब ने उन्हें अपने दरबार में स्थान दिया | ये ही अजीमुल्ला खान १८५४ में नाना साहब की और से बकील बनकर इंग्लेंड गए | चूंकि अंग्रेजों के रहन सहन रीति रिवाजों की इन्हें अच्छी जानकारी थी, अतः शीघ्र ही इंग्लेंड में उनके प्रियपात्र बन गए | आकर्षक व्यक्तित्व के कारण अंग्रेज ललनायें तो विशेष रूप से इन पर लट्टू हो गईं | यहाँ तक कि भारत लौट आने के बाद भी उनके प्रेमपत्र आते रहे | बाद में हैवलोक की सेना ने जब ब्रह्मावर्त जीता तब वह खुद भी इन पत्रों को देखकर हैरत में पड़ गया | 

इंग्लेंड के अंग्रेज पुरुष व महिलायें भले ही अजीमुल्ला से प्रभावित हो गए हों, किन्तु ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कर्ताधर्ता इनके प्रति तनिक भी उदार न हुए | उनका अंतिम उत्तर रहा – बाजीराव के दत्तक नाना साहब का पेंशन पर तिनके बराबर भी अधिकार नहीं है | अजीमुल्ला असफल होकर फ्रांस होते हुए भारत वापस आये | 

जो स्थिति नाना साहब के सामने थी, वही उनकी बहिन छबीली के सामने भी आ गई | सन १८५३ में उनके पति गंगाधर राव अकस्मात स्वर्ग सिधार गए और उनके दत्तक प्रिय पुत्र दामोदर राव को मान्यता न देते हुए अंग्रेजों ने झांसी के अधिग्रहण का फरमान जारी कर दिया | परन्तु झांसी क्या ऐसे फरमानों से कब्जे में आ सकती थी भला | झांसी के जमीन आसमान में वह इतिहास प्रसिद्ध स्वर गूँज उठा, मानो बिजली कडकडाई हो – अपनी झांसी मैं नहीं दूँगी, जिसमें हिम्मत हो वह लेकर दिखाए |

अंग्रेजों का उद्देश्य महज भारत पर राजनैतिक प्रभुत्व जमाना भर नहीं था, वे तो भारत को पूरी तरह अपने रंग में रंगना चाहते थे | पंजाब, महाराष्ट्र, दिल्ली, अवध और अन्य रियासतों पर कब्जा करने भर से उन्हें संतोष नहीं था, उनकी इच्छा तो अफ्रीका की तरह भारत को भी एक ईसाई राष्ट्र बना देने की थी | यहाँ प्राचीन हिन्दू धर्म तथा ईसाईयत की पीठ पर नृत्य करते इस्लाम की जड़ें कितनी गहरी हैं, इसका उन्हें रत्ती भर भी आभास नहीं था | १८५७ तक उनके यह प्रयत्न, सफलता की पूरी आशा के साथ पूरे जोर शोर से चलते रहे | १२ अक्टूबर को १८३६ को मैकाले ने अपनी मां को लिखे पत्र में यही आशा जताई – अपनी यह शिक्षा प्रणाली ऐसी ही बनी रही, तो अगले तीस वर्ष में पूरा बंगाल ईसाई हो जाएगा | यही थी मैकाले की उस शिक्षा व्यवस्था की मूल धारणा, दुर्भाग्य से जो आज आजाद भारत में भी बदस्तूर जारी है | मिशनरियों के तहत चल रहे स्कूलों को मिलती अथाह आर्थिक मदद के अतिरिक्त जो भारतीय अंग्रेज सेना में भर्ती होते थे, उन्हें भी ईसाई बनाने का पुरजोर प्रयत्न होता था | बंगाल रेजीमेंट के एक कमांडर ने बड़े घमंड से लिखा भी – मैं गत बीस वर्षों से यह शुभ कार्य निरंतर कर रहा हूँ | इन काफिर लोगों की आत्मा को शैतान से बचाना भी एक फ़ौजी कर्तव्य ही है | 

ये धर्मांध सैन्य अधिकारी और सेना में विचरण करते पादरी धर्मान्तरण करने वाले सिपाहियों को पदोन्नति का खुला वचन देते थे | सिपाही अपना धर्म छोड़े तो हवलदार और हवलदार धर्म छोड़े तो सूबेदार, मेजर बन जाता था | इन कार्यों को देखकर हिन्दुस्तानी लश्कर अन्दर ही अन्दर धधक रहा था | ऐसे में इस धधकती आग में घी डालने का काम किया गाय और सूअर की चर्बी लगे उन कारतूसों ने, जिनके खोल को उपयोग करते समय मुंह से खोलना पड़ता था | अंग्रेजों के इस विश्वासघात की कल्पना भारतीय सिपाहियों को जरा भी नहीं थी, और धड़ल्ले से १९५३ से ही इस प्रकार उन्हें धर्म भ्रष्ट करने का कार्य सतत जारी था | दमदम और मेरठ में इन कारतूसों को बनाने के कारखाने थे | एक दिन एक मेहतर ने एक ब्राह्मण सिपाही से एक लोटा पानी माँगा तो पंडित ने इनकार करते हुए कहा, मेरा लोटा भ्रष्ट हो जाएगा | मेहतर ने व्यंग से कहा कि जब गाय और सूअर की चर्बी लगे कारतूस को दांत से तोड़ोगे तब क्या तुम्हारा मुंह भ्रष्ट नहीं होगा | इसके बाद जंगल में आग की तरह यह चर्चा सब ओर फ़ैल गई | क्या हिन्दू क्या मुसलमान सभी आक्रोशित हो उठे | अंग्रेज अधिकारियों ने बरगलाया भी कि आगे से कारतूसों में कोई भी चिपचिपी चीज आप लोग खुद लगा लिया करना, लेकिन अविश्वास की खाई खुद चुकी थी |

अब मोर्चा संभालने की बारी थी भारत की आध्यात्मिक विभूतियों की | अंग्रेजी सत्ता के अंतर्गत स्वराज्य और स्वधर्म की कैसी छीछालेदर होती जा रही है, अपने प्राणप्रिय हिन्दुस्तान की कैसी बर्बादी हो रही है, यह सब स्पष्ट और मार्मिक रीति से जनता के मन में भरने हेतु, क्या साधू सन्यासी तो क्या मौलवी, अलख जगाते पूरे देश में घूमने लगे | सिपाहियों के शिविरों, गाँव देहातों में, मंदिरों मस्जिदों में, इनके व्याख्यान होने लगे | कुछ लोग पकडे भी गए | देशभक्त मौलवी अहमद शाह को लखनऊ में फांसी पर चढ़ा दिया गया | स्वतंत्रता के बिना धर्मरक्षण असंभव है, यह मर्म समझकर जिस प्रकार धर्मगुरू आगे आये, वह हिन्दुस्तान के इतिहास में सदा सर्वदा के लिए अभिमान की बात है | उधर नाना साहब पेशवा के पत्र भी सभी राजे रजबाड़ों को लगातार जा रहे थे | १८५६ में अवध का राज्य जैसे ही अकारण अधिग्रहण हुआ, गुलामी की दुर्गन्ध पूरा देश महसूस करने लगा | दिल्ली के राजमहलों में भी स्वतंत्रता की मंत्रणाएं शुरू हो गईं | इसी समय अंग्रेजों की ईरान से लड़ाई शुरू हुई | १८५६ में ईरान के शाह ने दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह जफ़र को एक पत्र लिखा, जिसमें सहायता का वचन था | बहादुर शाह ने भी माकूल जबाब भेजा, यहाँ तक कि सुन्नी पंथ छोड़कर, ईरान के शाह का शिया मत स्वीकारने की भी घोषणा की | दिल्ली की मस्जिदों में सार्वजनिक घोषणायें होने लगीं कि फिरंगियों के कब्जे से हिन्दुस्तान को मुक्त कराने ईरान की सेना जल्द ही आने वाली है, इसलिए क्या बूढ़े, क्या जवान, हर कौम के लोग रणांगन में कूद पड़ें | 

नाना साहब पेशवा, उनके बकील अजीमुल्ला, अवध के बजीर अली नक्की खान, कोल्हापुर के रंगों बापू जी के प्रयत्नों से, १८५७ आते आते सिपाही गंगाजल लेकर या कुरआन हाथ में लेकर कसम खाने लगे और ठेठ मद्रास तक क्रन्तियुद्ध की ज्वालायें भड़कने लगीं | बैरकों में रक्त कमल घूम रहा था तो गाँव शहरों में रोटी | एक दूत लाल कमल किसी भारतीय टुकड़ी के मुखिया को देता और वह अपने अधीनस्थ सिपाहियों को, सबके हाथों में होते हुए कमल वापस आता और दूत अगली छावनी के लिए बढ़ जाता | एक शब्द भी नहीं बोला जाता किन्तु उस कमल के स्पर्श मात्र से सिपाहियों के मन में भावनाओं का ज्वार उठ आता | इसी प्रकार गांवों में रोटियाँ घूम रही थीं | गाँव के मुखिया के पास गेंहू, ज्वार, बाजरा से बनीं वह रोटीयां पहुंचती, वह एक टुकड़ा खाता और शेष पूरे गांव को प्रसाद की तरह वितरित करता, फिर उस गाँव में रोटियाँ बनकर दूसरे गाँव पहुंचतीं | गहरी घाटियाँ, विराट नदियाँ, भयानक वन, सबको पार करते हुए, यह राष्ट्र सन्देश, तीर की गति से, फैलता चला गया | 

गुप्त समिति के नेताओं ने संघर्ष प्रारंभ करने की तारीख तय की ३१ मई, लेकिन बैरकपुर की १९ वीं पलटन ने जैसे ही संदिग्ध कारतूस लेने के लिए इन्कार किया, अंग्रेज अधिकारियों ने मार्च के प्रारम्भ में फिरंगी पलटन बुला ली, और १९ वीं पलटन को निशस्र्त्र करने का आदेश जारी हो गया | चतुर क्रांति नेता कह रहे थे,धैर्य रखो, निर्धारित दिनांक को ही एक साथ रणभेरी बजेगी, लेकिन अपनी आँखों के सामने ही अपने साथियों को दण्डित होते कैसे देखा जाए ? मंगल पांडे की तलवार को धीरज कौन बंधाये ? स्वदेश बंधुओं का अपनी आँखों के सामने अपमान हो, मंगल पांडे इस पीड़ा को सहन नहीं कर पा रहा था | उसने लपक कर अपनी बन्दूक उठाई और गरजा – जो मर्द हो वो साथ आये | भाईयो आओ टूट पड़ो, तुम्हें तुम्हारे धर्म की सौगंध है | 

यह देखते ही सार्जेंट ह्यूसन ने सिपाहियों को आदेश दिया – पकड़ो इसे | लेकिन एक भी सिपाही आगे नहीं बढ़ा | मंगल पांडे की बन्दूक से सांय सांय करते गोली निकली और ह्यूसन का शव भूमि पर गिर पड़ा | लेफ्टिनेंट बा आगे बढ़ा तो पांडे की बन्दूक से चली दूसरी गोली ने उसके घोड़े का पेट फाड़ दिया | नीचे गिरते गिरते लेफ्टिनेंट ने पिस्तौल निकला ली, बदूक दोबारा भरने के स्थान पर मंगल पांडे ने तलवार का उपयोग किया और बा जमीन सूंघने लगा | मंगल पांडे की तरफ एक दूसरा अंग्रेज सैनिक बढ़ा, तो एक अन्य हिन्दुस्तानी सैनिक ने बन्दूक के दस्ते से उसका सर फोड़ दिया | सिपाहियों की बुलंद आवाज गूंजी – खबरदार कोई पांडे जी को हाथ लगाने की जुर्रत न करे | 

यह समाचार पाकर जनरल होर्से अंग्रेज सैनिकों के साथ वहां पहुँच गया | पकडे जाने की अपेक्षा मृत्यु श्रेयस्कर है, यह मानकर मंगल पांडे ने बन्दूक का रुख अपने सीने की ओर किया और धांय की आवाज से वह वीर देशभक्त जमीन पर गिर पड़ा | घायल पांडे को अस्पताल पहुँचाया गया और इस प्रकार निर्धारित तारीख के दो माह पूर्व ही २९ मार्च १८५७ को स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद हो गया | घायल मंगल पांडे का कोर्ट मार्शल हुआ, अन्य षडयंत्रकारियों के नाम पूछने के भरसक प्रयत्न हुए, किन्तु अडिग मंगल पांडे की जुबान खुलना संभव ही कहाँ था | अंततः आठ अप्रैल फांसी का दिन तय हुआ, किन्तु बैरकपुर शहर का कोई जल्लाद फांसी देने को तैयार नहीं हुआ तो कलकत्ता से चार जल्लाद बुलाये गए | फांसी के तख्ते पर उनसे अंतिम बार पूछा गया, अन्य षडयंत्रकारियों के नाम बताओ, जैसे ही उन्होंने कहा - मैं किसी के नाम नहीं बताऊंगा, पैर के नीचे से तख्ता खींच लिया गया और मंगल पांडे का नाम इतिहास में सदा सर्वदा के लिए अमर हो गया |

दिल्ली अभियान और हिन्दू मुस्लिम सिक्ख समीकरण !

देशवीर मंगल पांडे के बलिदान उपरांत, १९ वीं बटालियन के सूबेदार को भी फांसी दे दी गई | तलाशी के दौरान उनके पास से जो कागज़ पत्र मिले उनसे यह माना गया कि १९ वीं बटालियन और ३४ वीं बटालियन ने मिलकर विद्रोह का षडयंत्र रचा था | इसलिए इन दोनों बटालियनों से शस्त्र रखबाकर सभी को नौकरी से निकाल दिया गया | अंग्रेजों के हिसाब से यह एक दंड था, किन्तु सिपाहियों ने उसे अपना सम्मान माना | हजारों की संख्या में सेना की टोपियाँ हवा में उड़ती दिखाई दीं | अब वे दिन लद चुके थे, जब कोई विदेशी आकर हिन्दुस्तानियों को अपनी टोपी पहनाये | सबने फेंक दी दासता की टोपियाँ | मंगल पांडे के बलिदान से केवल बंगाल में ही नहीं, पूरे देश में चेतना की लहर का प्रभाव दिखाई देने लगा | अम्बाला में रात के अँधेरे में विदेशियों और उनके सहयोगी देश्द्रोहोयों के घर जलने लगे | उससे भी बड़ी बात यह कि आग लगाने वाला कोई पकड़ में ही नहीं आता, हजारों रुपये का इनाम घोषित करने के बाद भी नहीं | यद्यपि ३१ मई को एक साथ पूरे देश में क्रान्ति की ज्वाला भड़के, यह बात सबको स्वीकार थी, किन्तु तेजस्वी सिपाहियों को अपनी भावनाएं काबू में रखना मुश्किल हो रहा था | 

मेरठ में छः मई को घुड़सवार पलटन को विवादास्पद कारतूस देने का प्रयास हुआ, किन्तु नब्बे सैनिकों में से पांच ने भी उन्हें नहीं छुआ | उन सभी का कोर्ट मार्शल कर दस दस वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सूना दी गई | इतना ही नहीं तो ९ मई को तोपखाने की मार के पहरे में इन पिच्यासी सिपाहियों को ऊंचाई पर खड़ा कर शेष देशी सिपाहियों की आँखों के सामने उन लोगों के कपडे उतरवाए गए और उनके हाथों पैरों में भारी भारी हथकड़ी बेड़ियाँ ठोक दी गईं | तोपों के सामने बेबस शेष सिपाही अपनी बैरकों में लौटे | गुस्से से तो उबल ही रहे थे, ऊपर से शहर के बाजार में जेल भेजे गए सिपाहियों के परिवार की महिलायें उन पर फब्तियां कसने लगीं | वे तो जेल भेजे गए और तुम मक्खियाँ मारते फिर रहे हो, थू है तुम्हारी जिन्दगी पर | मर्द हो तो कारागृह के वीरों को छुडाकर लाओ | 

सिपाहियों को रात गुजारना मुश्किल हो गया | गुप्त समिति के नेता समझा रहे थे, ३१ मई का इन्तजार करो, लेकिन सब्र का बाँध टूट चुका था, दिल्ली खबर भेज दी गई, आप लोग तैयार रहो, हम ग्यारह या बारह को आ रहे हैं | सुबह कोई भारतीय नौकर अंग्रेजों के यहाँ नहीं पहुंचा, तब तक अंग्रेजों को कानों कान खबर नहीं थी कि पूरे देश में क्या होने जा रहा है | इतने गोपनीय ढंग से सारी व्यूह रचना बनाई गई थी | जबकि मेरठ के नागरिक, आसपास के ग्रामों से ठट्ठ के ठट्ठ ग्रामीण, जो जिसके हाथ लगा, वह हथियार लेकर शाम होते होते आ पहुंचे | फिर जैसे ही चर्च में शाम पांच बजे का घंटा बजा हर हर महादेव और अल्लाहो अकबर के युद्ध घोष के साथ स्वर गूंजने लगे – मारो फिरंगी को | सबसे पहले कारावास में पड़े धर्मवीरों की बेड़ियाँ काटी गईं, उसके बाद कटने की बारी आई रविवार की प्रार्थना के लिए चर्च में इकठ्ठा हुए अंग्रेजों की | कर्नल फिलीस घोड़े पर बैठे हमेशा की तरह डपटता सामने आया, तो एक सैनिक की गोली ने उसे व उसके घोड़े को मौत के आगोश में पहुंचा दिया | उसके बाद तो जो अंग्रेज मिला, वह गारद किया गया | पूरा शहर हाथ में तलवारें, भाले, लाठियां, छुरियाँ लिए सडकों पर था | और अंग्रेज इतिहासकार कहते हैं १८५७ में कुछ राजे रजबाड़ों ने विद्रोह किया था | जिस किसी भवन पर अंग्रेजी हुकूमत के निशाँ थे, वे सब आग के हवाले कर दिए गए | बंगले कार्यालय जल रहे थे, आसमान धुएं से स्याह और लपटों से प्रकाशित हो रहा था साथ ही वातावरण में समवेत नाद गूँज रहा था – मारो फिरंगी को |

दो हजार सिपाही तो पूर्व योजनानुसार दिल्ली की जाने वाले तार तोड़कर, अंग्रेजों के रक्त से रंगी अपनी तलवारें उठाये, दिल्ली की ओर कूच कर गए, लेकिन मेरठ से अंग्रेजों का नामोनिशान ख़तम करने का जिम्मा संभाला मेरठ वासियों ने | अंग्रेज इतिहासकारों ने बड़ी शर्म से लिखा है कि मेरठ में नेटिव सिपाही संख्या में कम थे, गोरे सिपाहियों की राईफलमेंस बटालियन भी थीं, उत्तम तोपखाना भी उनके पास था, इसके बावजूद इस आकस्मिक हमले ने उनमें भारी अव्यवस्था पैदा कर दी | 

खैर मेरठ के क्रांतिवीर यमुना का पुल पारकर दिल्ली की प्राचीर से भिड गए | ५४ वीं पलटन को लेकर कर्नल रिप्ले उनका सामना करने निकला | लेकिन यह क्या ? जैसे ही मेरठ के सैनिकों ने नारा बुलंद किया – फिरंगी राज्य का नाश हो, बादशाह की जय हो, दिल्ली की सेना ने भी जबाबी गर्जना की – मारो फिरंगी को | कर्नल रिप्ले कुछ समझ पाता उसके पहले ही गोलियों से बिंधा उसका शरीर भूमि पर गिर पड़ा, और देखते ही देखते उसके साथ आये अंग्रेज सैनिकों का भी काम तमाम हो गया | दिल्ली के कश्मीरी दरबाजे और कलकत्ते दरबाजे से बेरोकटोक स्वतंत्रता का यह हरावल दस्ता दीन दीन के नारों के साथ दिल्ली में प्रवेश कर गया | 

उसके बाद तो दरियागंज के यूरोपीय बंगले जलाकर शस्त्रधारी सिपाही और सहस्त्रों शहरवासियों का हुजूम घर घर में गोरे रक्त को सूंघने लगा | जहाँ भी गोरा सिर मिला, भाले की नोंक पर टांगा गया | यह हुजूम जब दिल्ली के राजमहल में बादशाह का जयघोष करते घुस रहा था सीढियों पर कमिश्नर फ्रेजर सीढियों पर खड़ा दिखाई दिया, मुग़ल बेग नामक सिपाही ने उसे एक थप्पड़ रसीद किया, उसके बाद तो कब उसका क्षत विक्षत शरीर भीड़ के पैरों तले कुचला गया, पता ही नहीं चला | दिल्ली के राजमहल में कैप्टिन डगलस, कलेक्टर, जेनिंग और उनकी युवा कन्या, सहित फिरंगी सत्ता का नामलेवा भी कोई शेष नहीं रहा | तब तक मेरठ का तोपखाना भी वहां आ पहुंचा और उसने राजमहल के सामने इक्कीस तोपों की सलामी दी | उस घनगर्जना को सुनकर वृद्ध बादशाह का राजतेज भी मानो जाग उठा | बाबर से अकबर तक की पुरानी स्मृतियाँ उसके सामने सजीव हो उठीं, लेकिन संकोच अभी शेष था | सिपाहियों के नेता से उसने कहा – मेरे पास खजाना भी नहीं है, तुम्हें वेतन भी कहाँ से मिलेगा ? 

सिपाहियों ने जबाब दिया, हम अंग्रेजों का खजाना लूटेंगे और आपका खजाना भरेंगे | उधर दिल्ली में अंग्रेज जान बचाते भाग रहे थे | हर दिल्लीवासी उनका दुश्मन बन चुका था, चर्चों के घंटे और क्रास जमींदोज हो रहे थे | लेकिन अंग्रेज कर्तव्य परायणता का एक अद्भुत नमूना भी उस दिन नजर आया | राजमहल के एक और अंग्रेजों का बारूदखाना था, जिसमें कमसेकम एक लाख कारतूस, आठ दस हजार बंदूकें, तोपें और सीजट्रेन भरी हुई थीं | क्रांति के सिपाहियों ने वहां के अंग्रेज रक्षक के पास बादशाह की शरण में आने का पैगाम भेजा | लेफ्टिनेंट बिलोमी ने उस प्रस्ताव का जबाब देने की भी जहमत नहीं उठाई | गुस्साए हजारों सैनिक उस बारूदखाने की दीवार पर चढ़ने लगे | लेकिन यह क्या ? हजारों तोपें एक साथ छूटने जैसी जंगी आवाज के साथ, प्रचंड लौ आसमान चूमने लगी | सैकड़ों लोगों के चिथड़े उड़ गए | उन नौ अंग्रेज सिपाहियों ने अपने आपको मारकर हथियारों का यह जखीरा क्रांतिकारियों के हाथों में नहीं पड़ने दिया, जनहानि हुई सो अलग | लेकिन इससे एक लाभ भी हुआ | कुछ देशी सिपाही जो अभी तक तोपखाने की शक्ति से आशंकित होकर तटस्थ दर्शक भर थे, निर्भय होकर साथ आ गए | लोग इतने गुस्से में थे कि बादशाह ने लगभग पचास अंग्रेजों की जान बचाने के लिए उन्हें अपनी कैद में सुरक्षित कर दिया था, किन्तु १६ मई को वह विवश हो गया, उन्हें बचा नहीं पाया, लोगों ने एक सार्वजनिक मैदान में उनके टुकडे टुकडे कर दिए | कोई महिला या बच्चा गिडगिडाने लगता, तो लोग चिल्लाते – मेरठ की बेड़ियों का बदला, बारूदखाने का बदला | ११ मई से सोलह मई तक अंग्रेजों का कत्ले आम होता रहा | बचने को जो लोग दिल्ली से बाहर भी भागे, उनमें से भी अधिकाँश आसपास के गाँवों में मार दिए गए | इसे राजाओं का विद्रोह कौन कह सकता है, यह तो वह हिंसक छटपटाहट थी, जो गुलामी के दंश ने पैदा की थी | यह आमजन पर अंग्रेज जुल्मो सितम का प्रतिकार था, जो मौक़ा पाते ही उन्होंने लिया | बादशाह तो केवल नाम मात्र का शासक था, यह युद्ध तो आमजन ही लड़ रहा था | 

यह अलग बात है कि इस आकस्मिक विद्रोह से क्रांति के स्थान पर अंग्रेजों को अधिक लाभ हुआ | यदि ३१ मई को ही एक साथ पूरे देश में स्वतंत्रता की दुन्दुभी गूंजती तो अंग्रेज उसके सामने टिक नहीं पाते, क्योंकि उस समय बैरकपुर से आगरा के बीच केवल एक अंग्रेज रेजिमेंट थी, दानापुर में | मेरठ के क्रन्तिनाद ने अंग्रेजों को सतर्क कर दिया, जबकि क्रान्ति के योद्धा असमंजस में पड़ गए कि आन्दोलन शुरू कर दिया जाए, या ३१ मई तक रुका जाए | इस स्तब्धता का लाभ लेकर अंग्रेजों ने चीन की और जाने की मुहिम रोक दी, रंगून की गोरी रेजीमेंट कलकत्ता आ गई, ईरान से भी लड़ाई ख़तम कर सेना वापस बुला ली गई | इसके अतिरिक्त जिस अधिकारी ने सबसे बड़ा काम किया, उसका नाम था जॉन लारेंस | उसने सिक्खों को समझाया, उन्हें याद दिलाया कि मुस्लिम शासकों ने उनके गुरुओं के साथ क्या किया था, अंग्रेज राज हटाकर मुस्लिम बादशाह का राज्य लाना क्या उनके लिए उचित होगा ? फूट डालो और राज्य करो की यह नीति एक बार फिर कारगर हुई | इस स्वाधीनता संग्राम में हिन्दू मुसलमान एक साथ आकर जूझे, लेकिन सिक्ख अधिकांशतः न केवल अलग रहे, बल्कि अंग्रेजों का साथ देते दिखाई दिए | पंजाब अन्याय पूर्वक हड़पा, महाराज रंजीत सिंह की धरोहर कोहिनूर छीना, इसके बाद भी देश का दुर्भाग्य कि उसकी यह शक्तिशाली भुजा, १८५७ में शत्रु के साथ रही | पटियाला, नाभा और जीन्द रियासतों को जब बादशाह की तरफ से क्रांति में साथ आने का निमंत्रण भेजा गया, तो उन सन्देश वाहकों को ही मार दिया गया | इन तीनों रियासतों ने अंग्रेजों की हर तरह से मदद की | यह ध्यान देने योग्य है कि इन तीनों रियासतों को गुरूओं द्वारा दिए गए आशीर्वाद के रूप में जाना जाता है | परिणाम स्वरुप जब दिल्ली पर वापस कब्जा करने हेतु अंग्रेज सेना अम्बाला से दिल्ली की तरफ बढी तो सिख सैनिक उनके सबसे प्रमुख सहयोगी थे |

लेकिन इसी दौरान एक और घटना घटी, जिसका वर्णन सावरकर जी ने अपनी इसी पुस्तक में किया है, जहाँ तक मेरा सवाल है, मुझे लगता है कि उस घटना ने भी १८५७ की क्रान्ति ज्वाल को सबसे अधिक क्षति पहुंचाई | उधर अंग्रेज दिल्ली वापस पाने को प्रयत्न कर रहे थे, इधर देश के अन्य भागों में अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने का अभियान जारी था | पंजाब में माउंट गुमरी और जॉन लोरेन्स ने अत्यंत चतुरता का परिचय देते हुए, मियाँ मीर, लाहौर, गोबिंदगढ़ और पेशावर की देशी टुकड़ियों को योजना पूर्वक निःशस्त्र कर दिया लेकिन होती मरदान की ५५ वीं रेजीमेंट पर बहां के मुख्य सैनिक अधिकारी कर्नल स्पोटिस बुड को पूरा भरोसा था | लेकिन २४ मई को जब उसे ज्ञात हुआ कि पेशावर से अंग्रेज सेना इस टुकड़ी के विरुद्ध कार्यवाही करने आ रही है, तो उसने ग्लानिवश आत्महत्या कर ली | इस घटना से आहत सभी सिपाही भी खजाना लूटकर वहां से दिल्ली की और रवाना हो गए | लेकिन निकल्सन के नेतृत्व में अंग्रेज टुकड़ी ने उनका पीछा किया | दोनों ओर के सैकड़ों लोग मारे गए, किन्तु शेष लड़ते लड़ते सरहद के पार निकल गए | बहां की मुस्लिम जमातों ने उनका स्वागत बहुत ही भयानक ढंग से किया | उन सेनानियों में से जो हिन्दू थे, उन्हें छांट छांट कर अलग किया गया और बलपूर्वक मुस्लिम बनने के लिए विवश किया गया | वे अभागे सिपाही किसी तरह जान बचाकर भागे और यह सोचकर कि कश्मीर का हिन्दू राजा गुलाब सिंह उनकी मदद करेगा, वहां पहुंचे | लेकिन जानकर आँखें नम हो जाती हैं कि कश्मीर के उस राजपूत कुलोत्पन्न गुलाब सिंह ने अपना धर्म बचाने की खातिर शरण में आये हुए उन हजारों अनाथों का न केवल अपने राज्य में प्रवेश वर्जित कर दिया, बल्कि अगर कोई किसी तरह राज्य में प्रवेश कर जाए, तो उसे काट दिया जाए, ऐसी स्पष्ट आज्ञा प्रसारित कर दी | उसने अपना यह सुकृत्य अंग्रेजों के दरबार में बड़े गर्व से सूचित भी कर दिया | अब उन हिन्दू सैनिकों के सामने दो ही मार्ग थे | धर्मांतरण करें या मृत्यु का वरण करें | अंग्रेजों ने कदम कदम पर इन वीरों का निष्ठुरता से क़त्ल किया | जब वध स्तंभों पर एक साथ इतने लोग फांसी पर नहीं चढ़ाए जा सके तो तोपों के मुंह खोल दिए गए | एक हजार हिन्दू वीर पलक झपकते मार डाले गए | देश और धर्म हित में ५५ वीं रेजीमेंट का यह बलिदान आजाद भारत में भी नई पीढी को शायद ही कभी बताया जाए | आईये हम और आप तो उन्हें अश्रु श्रद्धांजलि प्रदान कर ही दें |

इसे कहते हैं बहादुरी, 15 वर्षीय किशोरी ने दो आतंकियों को गोलियों से भूना

Posted: 23 Jul 2020 05:28 PM PDT



बहादुरी और दिलेरी की यह बेमिशाल कहानी है अफगानिस्तान के घोर प्रांत की, जहाँ दूरदराज के एक गाँव में एक अफगान किशोरी ने अपने माता-पिता को गोली मारने वाले दो तालिबानी लड़ाकों की गोली मारकर हत्या कर दी | यह बहादुर लड़की अब भी गाँव में ही रहते हुए, किसी भी अन्य आतंकी का सामना करने के लिए तैयार है, जो उस पर कभी भी हमला करने की कोशिश कर सकते हैं। 

15 साल की क़मर गुल ने उसके घर पर धावा बोलने वाले आतंकवादियों को मारने के बाद दूरभाष पर पत्रकारों से कहा कि मैं उनसे फिर से लड़ने के लिए तैयार हूं, मुझे किसी का कोई डर नहीं है। 

गुल की सुरक्षा के लिए गार्डों की तैनाती की गई है और वह अपने एक रिश्तेदार के घर से टेलीफोन पर पत्रकारों से चर्चा कर रही थी । 

बंदूक के साथ गुल की तस्वीर इन दिनों सोशल मीडिया पर धूम मचा रही है। कई लोग उसके साहस की सराहना कर रहे हैं, तो कई उसे देश से बाहर आकर सुरक्षित रहने के सलाह दे रहे हैं। 



गुल ने उस रात की घटनाओं के बारे में बताते हुए कहा कि आधी रात के करीब जब तालिबान ने मेरे घर पर धावा बोला, मैं अपने 12 वर्षीय भाई के साथ अपने कमरे में सो रही थी। जब तक मेरी माँ उन्हें रोक पाती, उसके पहले ही उन्होंने दरवाजा तोड़ दिया। वे लोग मेरे पिता और माँ को बाहर ले गए और उन्हें कई बार गोली मारी। मैं घबरा गई, लेकिन कुछ ही पल बाद मुझे "गुस्सा आ गया" और मैंने घर पर रखी बंदूक को उठाया और दरवाजे पर जाकर उन्हें गोली मार दी।" 

कुछ देर बाद जब तालिबानी समूह का नेता दिखने वाला एक अन्य आतंकी हमला करने लौटा तो मेरे भाई ने मुझसे बंदूक ले ली और उसे गोली मार दी। घायल होकर वह भाग गया । 

तब तक, कई ग्रामीण और सरकार समर्थक मिलिशियन घर पर आ चुके थे। तालिबान अंततः एक लंबी गोलाबारी के बाद वापस हुए। 

न्यूयॉर्क टाइम्स ने गुल के रिश्तेदारों के हवाले से छापा कि हमलावरों में से एक गुल का अपना पति था, जो उसे जबरन वापस ले जाना चाहता था। 

जबकि अधिकारियों ने बताया कि तालिबान गुल के पिता को मारने के लिए आए थे, जो ग्राम प्रधान भी थे और सरकार समर्थक भी।

Post Bottom Ad

Pages