जनवादी पत्रकार संघ |
- एक महान शख्सियत डॉ टी.के.लहरी
- राजस्थान की राजनीति पर विशेष /*राजस्थान का रण है या तमाशा*
- संपादकीय/*हे कलमवीरो ! ये आपकी सज्जनता के नतीजे हैं*
Posted: 14 Jul 2020 09:51 PM PDT बनारस /उन्हें किसी भी दिन शहर के अन्नपूर्णा होटल में पच्चीस रुपए की थाली का खाना खाते हुए देखा जा सकता है। इसके साथ ही वह आज भी बीएचयू में अपनी चिकित्सा सेवा निःशुल्क जारी रखे हुए हैं। डॉ लहरी को आज भी एक हाथ में बैग, दूसरे में काली छतरी लिए हुए पैदल घर या बीएचयू हास्पिटल की ओर जाते हुए देखा जा सकता है। लोगों का निःशुल्क इलाज करने वाले बीएचयू के जाने-माने कार्डियोथोरेसिक सर्जन पद्म श्री डॉ. टी.के. लहरी (डॉ तपन कुमार लहरी) ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से उनके घर पर जाकर मिलने से इनकार कर दिया है। योगी को वाराणसी की जिन प्रमुख हस्तियों से मुलाकात करनी थी, उनमें एक नाम डॉ टीके लहरी का भी था। मुलाकात कराने के लिए अपने घर पहुंचने वाले अफसरों से डॉ लहरी ने कहा कि मुख्यमंत्री को मिलना है तो वह मेरे ओपीडी में मिलें। इसके बाद उनसे मुलाकात का सीएम का कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया। अब कहा जा रहा है कि मुख्यमंत्री चाहते तो डॉ लहरी से उनके ओपीडी में मिल सकते थे लेकिन वीवीआईपी की वजह से वहां मरीजों के लिए असुविधा पैदा हो सकती थी। जानकार ऐसा भी बताते हैं कि यदि कहीं मुख्यमंत्री सचमुच मिलने के लिए ओपीडी में पहुंच गए होते तो डॉ लहरी उनसे भी मरीजों के क्रम में ही मिलते और मुख्यमंत्री को लाइन में लगकर इंतजार करना पड़ता। बताया जाता है कि इससे पहले डॉ लहरी तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को भी इसी तरह न मिलने का दो टूक जवाब देकर निरुत्तरित कर चुके हैं। सचमुच 'धरती के भगवान' जैसे डॉ लहरी वह चिकित्सक हैं, जो वर्ष 1994 से ही अपनी पूरी तनख्वाह गरीबों को दान करते रहे हैं। अब रिटायरमेंट के बाद उन्हें जो पेंशन मिलती है, उसमें से उतने ही रुपए लेते हैं, जिससे वह दोनो वक्त की रोटी खा सकें। बाकी राशि बीएचयू कोष में इसलिए छोड़ देते हैं कि उससे वहां के गरीबों का भला होता रहे। उन्हें किसी भी दिन शहर के अन्नपूर्णा होटल में पच्चीस रुपए की थाली का खाना खाते हुए देखा जा सकता है। इसके साथ ही वह आज भी बीएचयू में अपनी चिकित्सा सेवा निःशुल्क जारी रखे हुए हैं। डॉ लहरी को आज भी एक हाथ में बैग, दूसरे में काली छतरी लिए हुए पैदल घर या बीएचयू हास्पिटल की ओर जाते हुए देखा जा सकता है। वह इतने स्वाभिमानी और अपने पेशे के प्रति इतने समर्पित रहते है कि कभी उन्होंने बीएचयू के बीमार कुलपति को भी उनके घर जाकर देखने से मना कर दिया था। ऐसे ही डॉक्टर को भगवान का दर्जा दिया जाता है। तमाम चिकित्सकों से मरीज़ों के लुटने के किस्से तो आए दिन सुनने को मिलते हैं लेकिन डॉ. लहरी देश के ऐसे डॉक्टर हैं, जो मरीजों का निःशुल्क इलाज करते हैं। अपनी इस सेवा के लिए डॉ. लहरी को भारत सरकार द्वारा वर्ष 2016 में चौथे सर्वश्रेष्ठ नागरिक पुरस्कार 'पद्म श्री' से सम्मानित किया जा चुका है। डॉ लहरी ने सन् 1974 में प्रोफेसर के रूप में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अपना करियर शुरू किया था और आज भी वह बनारस में किसी देवदूत से कम नहीं हैं। बनारस में उन्हें लोग साक्षात भगवान की तरह जानते-मानते हैं। जिस ख्वाब को संजोकर मदन मोहन मालवीय ने बीएचयू की स्थापना की, उसको डॉ लहरी आज भी जिन्दा रखे हुए हैं। वर्ष 2003 में बीएचयू से रिटायरमेंट के बाद से भी उनका नाता वहां से नहीं टूटा है। आज, जबकि ज्यादातर डॉक्टर चमक-दमक, ऐशोआराम की जिंदगी जी रहे हैं, लंबी-लंबी मंहगी कारों से चलते हैं, मामूली कमीशन के लिए दवा कंपनियों और पैथालॉजी सेंटरों से सांठ-गांठ करते रहते हैं, वही मेडिकल कॉलेज में तीन दशक तक पढ़ा-लिखाकर सैकड़ों डॉक्टर तैयार करने वाले डॉ लहरी के पास खुद का चारपहिया वाहन नहीं है। उनमें जैसी योग्यता है, उनकी जितनी शोहरत और इज्जत है, चाहते तो वह भी आलीशान हास्पिटल खोलकर करोड़ों की कमाई कर सकते थे लेकिन वह नौकरी से रिटायर होने के बाद भी स्वयं को मात्र चिकित्सक के रूप में गरीब-असहाय मरीजों का सामान्य सेवक बनाए रखना चाहते हैं। वह आज भी अपने आवास से अस्पताल तक पैदल ही आते जाते हैं। उनकी बदौलत आज लाखों ग़रीब मरीजों का दिल धड़क रहा है, जो पैसे के अभाव में महंगा इलाज कराने में लाचार थे। गंभीर हृदय रोगों का शिकार होकर जब तमाम ग़रीब मौत के मुंह में समा रहे थे, तब डॉ. लहरी ने फरिश्ता बनकर उन्हें बचाया। डॉ लहरी जितने अपने पेशे के साथ प्रतिबद्ध हैं, उतने ही अपने समय के पाबंद भी। आज उनकी उम्र लगभग 75 साल हो चुकी है लेकिन उन्हें देखकर बीएचयू के लोग अपनी घड़ी की सूइयां मिलाते हैं। वे हर रोज नियत समय पर बीएचयू आते हैं और जाते हैं। रिटायर्ड होने के बाद विश्वविद्यालय ने उन्हें इमेरिटस प्रोफेसर का दर्जा दिया था। वह वर्ष 2003 से 2011 तक वहाँ इमेरिटस प्रोफेसर रहे। इसके बाद भी उनकी कर्तव्य निष्ठा को देखते हुए उनकी सेवा इमेरिटस प्रोफेसर के तौर पर अब तक ली जा रही है। जिस दौर में लाशों को भी वेंटीलेटर पर रखकर बिल भुनाने से कई डॉक्टर नहीं चूकते, उस दौर में इस देवतुल्य चिकित्सक की कहानी किसी भी व्यक्ति को श्रद्धानत कर सकती है। रिटायर्ड होने के बाद भी मरीजों के लिए दिलोजान से लगे रहने वाले डॉ. टीके लहरी को ओपन हार्ट सर्जरी में महारत हासिल है। वाराणसी के लोग उन्हें महापुरुष कहते हैं। अमेरिका से डॉक्टरी की पढ़ाई करने के बाद 1974 में वह बीएचयू में 250 रुपए महीने पर लेक्चरर नियुक्त हुए थे। गरीब मरीजों की सेवा के लिए उन्होंने शादी तक नहीं की। सन् 1997 से ही उन्होंने वेतन लेना बंद कर दिया था। उस समय उनकी कुल सैलरी एक लाख रुपए से ऊपर थी। रिटायर होने के बाद जो पीएफ मिला, वह भी उन्होंने बीएचयू के लिए छोड़ दिया। डॉ. लहरी बताते हैं कि रिटायरमेंट के बाद उन्हें अमेरिका के कई बड़े हॉस्पिटल्स से ऑफर मिला, लेकिन वह अपने देश के मरीजों की ही जीवन भर सेवा करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हैं। वह प्रतिदिन सुबह छह बजे बीएचयू पहुंच जाते हैं और तीन घंटे ड्यूटी करने के बाद वापस घर लौट आते हैं। इसी तरह हर शाम अपनी ड्यूटी बजाते हैं। इसके बदले वह बीएचयू से आवास के अलावा और कोई सुविधा नहीं लेते हैं। ...साभार |
राजस्थान की राजनीति पर विशेष /*राजस्थान का रण है या तमाशा* Posted: 14 Jul 2020 09:43 PM PDT ***************************** कुर्सी के लिए कहाँ ,क्या नहीं हो सकता ?राजस्थान में आजकल जो हो रहा है वो किस्सा कुर्सी का ही है .अचानक पूर्व हो गए उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट की हड़बड़ी उनके लिए घातक साबित हुई ,वे 'घर के रहे न घाट के'.सचिन पायलट मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया कि तरह मौजूदा सरकार का तख्ता पलट कर बाग़ी बनना चाहते थे लेकिन उनकी किस्मत अच्छी नहीं थी सो कांग्रेस ने उन्हें बीते डेढ़ साल में जितना मान-सम्मान दिया था वो सब एक झटके में छीन लिया.अब सचिन सड़कों पर हैं . आपको बता दें कि सचिन और सिंधिया में यदि बहुत कुछ समानताएं हैं तो बहुत असमानताएं भी हैं. दोनों को राजनीति विरासत में में मिली है और बिना संघर्ष किये ये दोनों संसद में पहुंचे थे .सचिन के पिता का एक जातीय आधार था और सिंधिया के पिता का एक सामंती आधार .दोनों के पिता विनम्र और व्यावहारिक थे ,समय की चाल को समझते थे लेकिन सचिन और ज्योतिरादित्य सिंधिया में हड़बड़ी है ,एक ठसक है और इसी ठसक के बिना पर वे लगातार आगे बढ़ रहे थे .सचिन ने अपनी ठसक से राजस्थान में अपनी हैसियत से ज्यादा पा लिया था लेकिन सिंधिया को मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने पर उतना सब नहीं मिला .सिंधिया ने कांग्रेस में बगावत करने के साथ ही भाजपा की शरण ले ली लेकिन सचिन यहां चूक गए . राजनीति गणित का खेल बन चुकी है .राजस्थान में फिलहाल गणित अशोक गहलोत के साथ है ,सचिन के साथ नहीं .सचिन हग्लात सरकार को अस्थिर करने में तो कामयाब रहे लेकिन उसका तख्ता नहीं पलट पाए ,सिर्फ इसी वजह से भाजपा में उनके भाव कम हो गए .सिंधिया के लिए सहूलियत ये थी कि उनकी दादी भाजपा की संस्थापक थीं और बुआ अभी भी भाजपा में महत्वपूर्ण पदों पर हैं .पायलट के साथ ऐसा कोई संयोग नहीं है .एक उमाभारती भले उन्हें दुलारती दिखाई दे रहीं हों लेकिन वे भाजपा के लिए एकदम नए ही हैं . आने वाले दिनों में सचिन क्या पाएंगे ये जल्द साफ़ हो जाएगा लेकिन वे जो खो सकते थे ,खो चुके हैं .उनसे कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष का पद चला गया,वे उप मुख्यमंत्री नहीं रहे .भाजपा के पास उन्हें देने के लिए फिलहाल कुछ है भी नहीं. सचिन चाहे अपनी अलग पार्टी बना लें या भाजपा में शामिल हो जाएँ उनके हाथ कुछ आने वाला नहीं है जब तक कि गहलोत की सरकार अपदस्थ नहीं हो जाती .सिंधिया की तरह सचिन केंद्र की राजनीति में भी प्रासंगिक नहीं हैं ,उन्हें राजस्थान की राजनीति ही करना पड़ेगी और मन मारकर करना पड़ेगी ,झक मारकर करना पड़ेगी . मान लीजिये आने वाले दिनों में सचिन येन-केन गहलोत की सरकार का तख्ता पलट भी दें तो भी भाजपा उन्हें पुरस्कृत करने की स्थिति में नहीं है .भाजपा न उन्हें अपना प्रदेश अध्यक्ष बना सकती है और न मुख्यमंत्री.राज्य सभा के चुनाव हो चुके हैं इसलिए उन्हें सिंधिया की तरह वहां भी नहीं भेजा जा सकता .अब सचिन को लम्बे समय तक अपने वजूद के लिए संघर्ष करना पडेगा .सचिन के पांसे उलटे पड़ने से न भाजपा का मंसूब पूरा हुआ और न सचिन का.वे न अपने ससुर और साले की नजरबंदी समाप्त करा पाए और न खुद हीरो हीरालाल बन पाए .कभी-कभी ऐसा हो जाता है .ये गणित है और गणित के उत्तर हर समय सही नहीं होते . हाल के दिनों में कांग्रेस में बगावत का झंडा बुलंद करने वालों में से किसी के पास स्वर्गीय चंद्रशेखर जैसा जोश नहीं है ,कांग्रेस के पहले युवा तुर्क चंद्रशेखर ही माने जाते हैं .रीता बहुगुणा,सिंधिया,सचिन जैसे नेताओं के पास अपनी जमीन नहीं है.इनकी जमीन उधार की जमीन है .कांग्रस के परिवारवादी नेतृत्व को केवल वो ही नेता चुनौती दे सकता है जो लम्बे संघर्ष के लिए राजी हो,जिसकी विचारधारा स्पष्ट हो,जो अवसरवादी न हो .यदि कांग्रेसी हो तो कांग्रेसी रहे और यदि नहीं है तो चुपचाप जो खोल ओढ़ना चाहे ओढ़ ले,फिर बगावत का नाटक न करे.जनता को भ्रमित करने वाले नेता अक्षम्य अपराध करते हैं .जनता समझ ही नहीं पाती की उसके सामने जो नायक बनकर खड़ा है वो कौन सा नायक है ,खलनायक,अधिनायक या जननायक ?जन्मजात कांग्रेसी यदि पलक झपकते भाजपाई हो जाये तो हैरानी होती है . @ राकेश अचल . |
संपादकीय/*हे कलमवीरो ! ये आपकी सज्जनता के नतीजे हैं* Posted: 14 Jul 2020 07:21 PM PDT १५ ०७ २०२० *हे ! कलमवीरों ये आपकी सज्जनता के नतीजे हैं* मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में मंत्रालय वल्लभ भवन या विधानसभा जाते समय जब भी उस मलबे के ढेर, जो कभी पत्रकार भवन था के सामने से गुजरता हूँ, ग्लानिभाव से भर जाता हूँ | हमारी सज्जनता के नतीजों के कारण यह ग्लानि भाव कभी आपको भी आता होगा | इसी सज्जनता के कारण जिन्हें कभी कलम उठाना नहीं आया वे पत्रकार बन बैठे | पत्रकारिता के नाम पर सारे कलंकित काम किये और हम सज्जनता के नाम पर पर चुप रहे | लेकिन,अब और चुप रहना, ऐसे लोगों की जमात जो कलमवीरों से कई गुनी बड़ी, समृद्ध और राजनीति संप्रभुओं से अभयप्राप्त है का मूकसमर्थन होगा | इस समय सज्जनता नाक-कान में पहने जाने वाले उस आभूषण की तरह हो गई है, जो आपको नकटे-बूचे जैसे उपमान ही दिलाएगी | जिस दिन पत्रकार भवन शहीद किया गया था, तब वरिष्ठ पत्रकार पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर ने एकदम सत्य बात कही थी कि "अगर परहेज नहीं बरता होता, तो पत्रकार भवन के साथ यह गुनाह नहीं होता|" ऐसे ही चुप्पी हमने अपनी साख के साथ बरती | जिसके परिणाम स्वरूप कोई कम्पोजीटर, भगौड़ा हुंडीबाज़, कोई गुटका मालिक, कोई सटोरिया और इसके आगे भी .... आपकी जमात में आकर कालर खड़ी कर आपके आगे पत्रकार वार्ता मुख्यमंत्री से मुखातिब होने लगे |इसी परहेज के कारण पत्रकारिता के कई नामों की तपस्या नेपथ्य में आ गई| मध्यप्रदेश की पत्रकारिता को जिन द्धिचियों ने हवन में अपने खून पसीने की आहुति दी, उनमे से कई अब स्मृति शेष हैं,जो मौजूद हैं वे इस फिजां में घर में रहना ही बेहतर समझते हैं | पत्रकारिता में उनके अवदान की इस दुर्दशा पर क्षोभ व्यक्त करने के लिए भी शब्द नहीं है | उन्हें प्रणाम....!स्मृति शेष स्व. श्री धन्नालाल शाह, स्व. श्री नितिन मेहता, स्व.श्री त्रिभुवन यादव, स्व.श्री प्रेम बाबू श्रीवास्तव, स्व. श्री इश्तियाक आरिफ,स्व. श्री डी वी लेले स्व. श्री सूर्य नारायण शर्मा स्व.श्री वी टी जोशी,यशवंत अरगरे के सम्पर्क-स्वेद पत्रकार भवन के मलबे में दबे हैं | इस दशा से उबारने की कोई ठोस पहल होती नजर नहीं आ रही है | अगर पत्रकार भवन के उद्देश्यों पर सही ढंग से अमल होता तो ये दुर्दशा नही देखना होती | इतिहास जब कभी राणा प्रताप के संघर्ष को याद करता है तो भामाशाह बरबस याद आते हैं, और जब पत्रकार भवन के सामने से गुजरते हैं,तो दूसरे 'शाह' धन्नालाल याद आते हैं, जिनका योगदान इस भवन के लिए भामाशाह से भी अधिक रहा है | भामाशाह ने तो अपनी तिजोरी का मुंह राणा प्रताप के लिए खोला था | शाह साहब ने तो कई दिनों भोजन बाद में किया, पहले पत्रकार भवन के लिए ५ लोगों से चंदा लिया | इस पूरी टीम के सपने थे, पत्रकार भवन में एक बड़ा पुस्तकालय,पत्रकारिता के व्यवसायिक प्रशिक्षण हेतु एक स्कूल, बीमारी या अन्य कारणों से अभावग्रस्त पत्रकारों को सम्बल | अफ़सोस उनके बाद हम सब अति सज्जनतावश यह सब नहीं कर पाए | थोडा इतिहास | सन् १९६९ में वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन भोपाल और नेशनल यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट नाम की पत्रकारों की प्रतिष्ठित यूनियन थी। संख्या बल आई ऍफ़ डब्लू जे के साथ ज्यादा था | इसी कारण इसी संस्था को म.प्र. सरकार ने कलेक्टर सीहोर के माध्यम से राजधानी परियोजना के मालवीय नगर स्थित प्लाट नम्बर एक पर २७००७ वर्ग फिट भूमि इस शर्त पर आवंटित की थी, कि यूनियन पत्रकारों के सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक उत्थान व गतिविधियों के लिये इमारत का निर्माण कर उसका सुचारू संचालन करेगी। उस समय मुख्यमंत्री पं श्यामाचरण शुक्ल थे। फिर कई मुख्यमंत्री आये और चले गये,हमारी बिरादरी को खांचे में बाँट गये | उस काल में दिल्ली में सक्रिय आईएफडब्लूजे विभिन्न प्रान्तों में पत्रकार संगठनों को सम्बद्धता दे रहा था। इसके अध्यक्ष उस समय स्व.रामाराव थे। आईएफडब्लूजे ने वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन भोपाल को सम्बद्धता दी थी। इमारत बनने के बाद इसकी विशालता व भव्यता के चर्चे देश में होने लगे। तभी किसी की नजर लग गई और भोपाल की पत्रकारिता का मरकज परहेज का बायस हो गया | कालान्तर में श्रमजीवी पत्रकार टूटने लगा और अब मौजूदा कई टुकड़ों को जोड़ने के बाद भी वैसी शक्ल बनना अब नामुमकिन है | वैसे इस कहानी में और भी पेंचोंखम हैं, उन्हें छोड़िये| आगे क्या हो, यह महत्वपूर्ण है | सारी कहानी किस्से में जनसंपर्क विभाग की भूमिका महत्वपूर्ण थी, है और रहेगी |जमीन सरकारी थी, है और रहेगी, इससे किसी को गुरेज़ नहीं | अब जनसंपर्क विभाग इसे एक आधुनिक मीडिया सेंटर के रूप में विकसित करेगा | सरकार के उद्देश्य पर कोई संदेह नहीं, पर सरकार का आश्वासन प्रवाहमान बना रहे और संस्था की खोई साख लौटे और इसके साथ कोशिश हो सच्चे कलमवीरों की साख और धाख वापिसी की | |
You are subscribed to email updates from जनवादी पत्रकार संघ. To stop receiving these emails, you may unsubscribe now. | Email delivery powered by Google |
Google, 1600 Amphitheatre Parkway, Mountain View, CA 94043, United States |