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Saturday, August 22, 2020

जनवादी पत्रकार संघ

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वनाधिकार से वंचित बनवासी

Posted: 21 Aug 2020 09:15 PM PDT


० प्रतिदिन -राकेश दुबे

२२         ०८ २०२०

वनाधिकार से वंचित वनवासी

इसे क्या कहा जाये ? मध्यप्रदेश विधान सभा के हर सत्र में वनाधिकार कानून के तहत वनवासियों को मिले अधिकारों की बात कभी इस तरह कभी उस तरह उठती है आज तक इस मुहीम की पूर्णता का दावा कोई सरकार नहीं कर सकी है |विज्ञापन हमेशा वनवासियों को वनाधिकार देने का साल में दो बार जरुर होता है |वनाधिकार कानून के तहत वनवासियों को मिले सभी अधिकारों का सहजता से हासिल होना इस बात पर निर्भर करता है कि वनभूमि के पट्टे कितनी आसानी से जंगल के दावेदारों को नसीब होते हैं। दुर्भाग्य से राज्य में इस पर सक्रियता से अमल नहीं हो रहा है।यह एक सरकारी सर्वे का नतीजा है, जो पिछले २ बरस से सरकार की कृपा का इंतजार कर रहा है |

सालों-साल तक पट्टों के दावे पर फैसला नहीं हो पाना इसका एक चिंताजनक पहलू है।प्रदेश  में अभी तक लाखों दावे लम्बित है पर वर्ष में निष्पादन सैकड़ों का ही हो पता है, बहुत मुश्किल से । वन भूमि के वितरण की स्थिति तो और भी खराब है। प्रशासनिक जटिलता इस पर हावी होती दिख रही है। दफ्तरों के चक्कर काटने से निराश भोले-भाले आदिवासी अब आस छोड़ने लगे हैं। पहले के कई कानूनों की तरह इससे भी कुछ लोगों का मोह भंग होने लगा है।

वनाधिकार दावों का सही से निपटारा न होने की वजह से आज भी जंगल जरूरतमंदों के उपयोग की जगह विकास के नाम पर स्वार्थी प्रवृत्ति के लोगों के दोहन का शिकार बन रहे हैं। इससे वनवासियों की आजीविका कठिन होते जाने के साथ ही उनके परंपरागत सांस्कृतिक मूल्यों पर भी खतरा पैदा हो रहा है। वनभूमि पट्टे के दावों की अनुमंडलीय कार्यालयों में बड़ी खराब स्थिति है। आवेदन के बाद महीनों तक सुनवाई नहीं होती है। मामले सालों तक लंबित रहते हैं। जिला स्तर पर भी इनकी ठीक से समीक्षा नहीं होती है। वन अधिकारी पट्टों के सत्यापन के लिए ग्रामसभा की बैठकों की भी सरकारी अधिकारी उपेक्षा करते हैं। ग्रामसभाओं के पास भी इसके लिए पर्याप्त दस्तावेजीकरण नहीं होता है। ग्रामसभा ऐसे मामलों में सक्रियता भी नहीं दिखाती है। वनाधिकार समिति के सदस्य भी इस मामले को सामान्य सरकारी औपचारिकता मानकर ही चलते हैं। उनके पास पर्याप्त जानकारी का भी अभाव होता है। राज्य स्तर पर भी मॉनिटरिंग कमेटी की बैठक लंबे समय तक न होने के कारण मामला टलता रहता है। पेड़ों की पूजा करने वाले जनजातीय समाज का पेड़ों पर जायज हक तय करने में कोताही बरती जाती है। 
कोरोना काल में वक्त की जरूरत है कि जंगल को आदिवासियों के जीवन और जीविका से जोड़ने के लिए वनाधिकारी वन भूमि के पट्टे तय करने में उदारता बरतें। आखिर हजारों वर्षों से आदिवासियों ने ही तो जंगल को बचाया है, फिर उनसे डर कैसा? मुंडा, उरांव, संताल, पहाड़िया, चेरो, विरजिया और असुर जैसे समुदाय का तो अस्तित्व ही जंगल पर निर्भर है। वे जंगल को नुकसान पहुंचाने की बात सोच भी नहीं सकते। इनके सरहुल और कर्मा जैसे पर्व भी इन्हें जंगल से विलग नहीं होने दे सकते। इसलिए अब जरूरी हो गया है कि ग्रामसभा को सशक्त बनाकर अघिक से अघिक वन भूमि के दावों का निपटारा जल्द से जल्द किया जाए। वनाधिकार समिति के सदस्यों को प्रशिक्षण देकर उन्हें पर्याप्त दस्तावेजीकरण के लिए तैयार किया जाए। राज्य स्तरीय मॉनिटरिंग कमेटी को अधिक से अधिक दावों के निपटारे के लिए बाध्य किया जाए। सामुदायिक स्तर पर भी लोगों को जागरूक करना वनाधिकार कानून की सफलता का अनिवार्य तत्व हो सकता है। वनाधिकार कानून का सही तरीके से पालन होने से लोगों को उनके वास स्थान के पास जीने के साधन मिल जाएंगे। रोजगार के लिए पलायन करने की मजबूरी नहीं होगी। आदिवासियों को अपनी जीविका के विस्तार का आधार भी मिलेगा। बस इसके लिए नौकरशाही की सही दृष्टि और उचित दृष्टिकोण की जरूरत है।

*राजनीति विशेष /अब दक्षिण की बारी*

Posted: 21 Aug 2020 06:22 PM PDT




अगर राहुल एंड कम्पनी ने यह निर्णय किया है, कि गांधी परिवार से कोई अध्यक्ष नही होगा, तो यह नई सम्भावनाओ के द्वार खोलने वाला निर्णय है। मगर इस सोने में सुहागा लग जाए, अगर अगला अध्यक्ष दक्षिण से हो।

सबसे पहली बात तो यह, कि गांधी फैमली ने दक्षिण का कभी आभार व्यक्त नही किया। नरसिंहराव, जो दक्षिण के अकेले प्रधानमंत्री थे, परिवार की वजह से नही, परिवार के बावजूद पद पर हुए। अपने प्रधानमंत्री के साथ परिवार की दूरी और उपेक्षा, निश्चित ही दक्षिण के दिल मे एक घाव की तरह होगा। वाईएसआर के पुत्र के साथ दुर्व्यवहार ने तो, आंध्र से पार्टी का तंबू ही उखाड़ दिया।

आज वक्त है, कि दक्षिण को उसका ड्यू दिया जाए। दक्षिण ने जरूरत के वक्त इस दल को हमेशा शरण दी है। अमेठी हारे राहुल आज सांसद है, तो दक्षिण की वजह से। 2009 में मनमोहन की मजबूत वापसी हुई तो दक्षिण की वजह से, और 1977 रायबरेली से हारी, हताश इंदिरा को ताकत मिली तो दक्षिण की वजह से। याद कीजिये- एक शेरनी सौ लंगूर, चिकमंगलूर चिकमंगलूर..

वह चिकमंगलूर 1996 में जनता दल को गया और अब भाजपा का किला है। मगर दक्षिण में आखरी, और डोलता हुआ किला है। दक्षिण की तासीर अलग है। उत्तर के विपरीत, वह अक्लमंदों की धरती है। वह रोजी, रोटी, धंधे, रोजगार, सुविधा, और पॉपुलिज्म पर चलती है। तमाम प्रयासों के बावजूद उत्तर की नफरती राजनीति से दक्षिण दूर है। जिंदगी के मूल सवालों के करीब है। यह कांग्रेस का सन्देश पकड़ने के लिए बेटर प्रिपेयर्ड है। उत्तर के उलट, उधर कांग्रेस के भरोसेमंद क्षेत्रीय साथी भी हैं।

1977 की आंधी में जब पूरे उत्तर में कांग्रेस का तम्बू उखड़ गया था, दक्षिण में तब भी उसका आधार बना रहा। नक्शा देखिये। असल मे कांग्रेस 152 पर थी मगर उसके एलाइज के साथ वह 192 सीट पर रही। आज के दौर में उत्तर के राज्यो में कुछ मामूली सफलता इतनी संख्या के साथ जुड़ जाए, तो देश की दिशा तत्क्षण बदल जाएगी।

केंद्र में परिवार का दावेदार न होना, सकारात्मक है। उन क्षेत्रीय दलों के लिए जो कांग्रेस के राजकुमार के रहते, विरोधी फॉर्मशन में सर्वोच्च पद के दावेदार नही हो सकते। परिवार का किसी फॉर्मशन के केंद्र में न होना, उम्मीद से भरे छोटे छोटे जमावड़ो को एक साथ लाने में कारगर हो सकता है।

इसके लिए कांग्रेस को एक मध्यम आकार के लीडर की जरूरत होगी, जो झुक कर रीच आउट करे। रियलपोलिटिक हो, संगठन की समझ हो, तत्काल बड़ी महत्वाकांक्षा न हो। एक बड़ा फार्मेशन बनाकर उत्तर में अच्छी डील दिलाये और दक्षिण में अपने बूते चमत्कार कर, सेंटर ऑफ ग्रेविटी कांग्रेस के कब्जे में रखे।

डीके शिवकुमार मेरा पिक होंगे। इनके साथ थरूर और राहुल को बस एक कदम पीछे रहकर, क्रमशः इंटेलक्चुअल और मोरल बैकअप देना होगा। राहुल कांग्रेस का गोंद हैं। उन्हें यह जिम्मा उठाना होगा। यूजलेस ज्योतिरादित्य, और अपनी भद पिटवा चुके सचिन पायलट खुद इनके मार्ग से हट चुके हैं। इसलिए यह बदलाव आसान है, वक्त की दरकार है। यह तिकड़ी कांग्रेस की जरूरत है।

और सच कहें, तो कांग्रेस से ज्यादा देश की जरूरत है।             साभार Manish Singh

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