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Wednesday, August 19, 2020

जनवादी पत्रकार संघ

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*बहुजन हक्क परिषदेचे बारामती तालुका कार्यकारणी जाहीर*

Posted: 19 Aug 2020 07:52 AM PDT




*बहुजन हक्क परिषद बारामती तालुका अध्यक्ष अनिल कदम यांच्या माध्यमातून पदाधिकार्‍यांच्या निवडी*

श्री भाऊसाहेब गायकवाड - अध्यक्ष दौंड तालुका, नवनाथ थोरात- उपाध्यक्ष बारामती तालुका, सचिन जाधव- सचिव बारामती तालुका, सोमनाथ खरात- सहसचिव बारामती तालुका,प्रियेश कुंभार- कायदेशीर सल्लागार बारामती तालुका, सचिन लडकत- संघटक बारामती तालुका, अमोल वाल्मिकी- संचालक बारामती तालुका, सौरभ ननवरे- सहकार्यध्यक्ष बारामती तालुका उपस्थित- श्रिनिवास जगताप, शेखर पवार,अभिशेक जगताप, संजय राखुंडे ,संतोष होले,अभय पवार


यावेळी उपस्थित
संस्थापक अध्यक्ष सुनील तात्या धिवार महाराष्ट्र युवा अध्यक्ष नानासाहेब मदने, कैलास भाऊ धिवार, पुणे जिल्हा अध्यक्ष संतोष दादा डुबल, पुणे जिल्हा संघटक सचिन गायकवाड, बारामती तालुका अध्यक्ष अनिल कदम, पुरंदर तालुका अध्यक्ष बोडरे। 📝📝📝📝📝📝📝📝📝📝📝📝📝📝📝               *भालचंद्र महाडिक* अध्यक्ष पश्चिम महाराष्ट्र जनवादी पत्रकार संघ 9146618585

कोरोना काल : जरा गांधीजी की भी सुनिए

Posted: 19 Aug 2020 12:10 AM PDT


*०प्रतिदिन* -राकेश दुबे
१९ ०८ २०२०
*कोरोना काल : जरा गाँधी जी की भी सुनिए*
देश और विश्व में बढ़ते कोरोना के मामलों के सन्दर्भ में आज गाँधी फिर याद आये | १९०९ में प्रकाशित " हिन्द स्वराज" मुझे समीचीन लगने लगी |एक सदी से भी पहले महात्मा गांधी ने आह्वान किया था कि "हमें आधुनिकता से मोहित नहीं होना चाहिए|" ये कोरोना दुष्काल उत्तर-आधुनिक विश्व के लिए एक चेतावनी है | महात्मा गाँधी ने आधुनिक युग को 'नौ दिन' का आश्चर्य कहा था तथा आधुनिकता के सभ्यता होने के दावे को बीमारी की संज्ञा देते हुए हमें इसका शिकार नहीं होने के लिए चेताया था| यह आपका विवेक है कि आप इसे एक भविष्यवाणी माने या नहीं, पर वायरस के संक्रमण और मौतों की बढ़ती संख्या को देखते हुए गांधी जी के विचार के मर्म को जरुर समझें |
मुक्त व्यापार, सस्ती उड़ान और सोशल मीडिया विश्व को जरुर पहले से कहीं अधिक निकट लाया है, लेकिन हम अधिक कमजोर हुए हैं| जैसे-जैसे मानव समाज परिष्कृत होता गया है, वैश्विक संबंधों से जुडाव मशीनों और कंप्यूटरों पर निर्भरता बढ़ी और असुरक्षित होते गये हैं| इसके एक संक्रामक विषाणु आता है और पूरी व्यवस्था को तार-तार कर देता है| ऐसे में आधुनिकता को खोखला नौ दिन का अचंभा कहना गाँधी जी की मसीहाई भविष्यवाणी ही है |
आज यह मारक विषाणु करोड़ों वंचितों के जीवन पर खतरा बना हुआ है, तो इससे उत्तर आधुनिकता की शेखी के साथ इसके आपराधिक अन्याय पर से भी परदा उठ रहा है| भारत में कोविड-१९ का एक और अहम असर हुआ है- शहरी क्षेत्रों से थोपे गये लॉकडाउन की वजह से बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों के पलायन ने भूली-बिसरी आबादी की ओर ध्यान तो खींचा है, आजाद भारत के सात दशकों में वंचितों के साथ हुए मानवाधिकार हनन सामने आया है|
अपनी हत्या से कुछ समय पहले गाँधी जी ने कहा था- 'मैं तुम्हे एक जंतर (मंत्र) देता हूं| जब भी तुम्हे संदेह हो या तुम्हारा अहम तुम पर हावी होने लगे तो यह कसौटी अपनाओ, जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा,? क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा? क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर काबू रख सकेगा? यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज मिल सकेगा, जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त... तब तुम देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहम समाप्त होता जा रहा है| इस आपातकाल में सरकारें अपने गाल बजाने और पीठ थपथपाने में लगी है ये पंक्तियाँ उनके काम की है | कुर्सी पर काबिज लोगों को सडक पर भटकते दरिद्र नारायण और संघर्षरत, मध्यम वर्ग की ओर ध्यान देना चाहिए जिसके हाथ में रोजगार नहीं है |
हम गलतफहमी में हैं और अक्सर यह दावा करते हैं कि हमने बीमारियों पर जीत हासिल कर ली है, जीने की उम्र में बढ़ोतरी कर ली है, सीमाओं से परे जा चुके हैं और अपनी धरती को बदल चुके हैं|अपनी शेखी में हम यह भूल गये थे कि मनुष्य होना कमजोर होना है| हमने प्रकृति पर जीत हासिल नहीं की है, हम इसलिए जीवित हैं क्योंकि प्रकृति ने हमें इसकी अनुमति दी है|
 
इस गंभीर समय में गांधी जी  के पांच अक्टूबर,१९४५  को जवाहरलाल नेहरू को लिखा पत्र याद आता है "'यूं तो पतंगा जब अपने नाश की ओर जाता है, तब सबसे ज्यादा चक्कर खाता है और चक्कर खाते-खाते जल जाता है| हो सकता है कि हिंदुस्तान इस पतंगे के समान चक्कर से न बच सके| मेरा फर्ज है कि आखिर दम तक उसमें से उसे और उसके मार्फत जगत को बचाने की कोशिश करूं.' गांधी की चेतावनियां हमें और चिंतित करने के बजाये हमें नयी सोच अपनाने के लिए प्रेरित करनेवाली है , बशर्ते हम माने |
आज जरूरत नैतिकता के साथ समेकित आर्थिकी, राजनीति और तकनीक का उनका मार्ग, जिसमें दरिद्रनारायण का कल्याण मुख्य हो, इस चिंताजनक दौर में हमारे लिए दिशा-निर्देशक हो सकता है|
बीसवीं सदी के शुरू में, जब साम्राज्यवादी आधुनिकता अपने चरम पर थी, गांधी की चेतावनियां अनसुनी कर दी गयीं| नतीजा सबके सामने है| २१ वीं सदी के तीसरे दशक की शुरुआत में जरुर सुनिए , अब जब आधुनिकता खुद ही संकटग्रस्त हो चुकी है?
 

पहाड़गढ़ जागीर और सिकरवार राजपूत

Posted: 18 Aug 2020 09:49 AM PDT



पहाड़गढ़ मुरैना जिले की जौरा तहसील का उपतहसील तथा विकासखंड मुख्यालय है। मुरैना से इसकी दूरी 55 किमी तथा ग्वालियर से 100 किमी है। सिकरवार राजपूतों का यहाँ एक किला है जिसमे आज भी उनका परिवार निवास करता है। संभवतःपहाड़ पर बसा होने से यह पहाड़गढ़ कहलाया।
धीर और गंभीर व्यक्तित्व के धनी आदरणीय राजा पदम सिंह जी ताउम्र पहाड़गढ़ किले में ही रहे। उनकी अपनी गरिमा थी , जिसे उन्होंने हमेशा बना कर रखा ।उनके जाने के बाद पहाड़गढ़ सूना हो गया ।
पहाड़गढ़ जागीर ग्वालियर स्टेट की प्रथम श्रेणी की जागीर रही है। इसके अंतिम शासक राजा पंचम सिंह थे । सन 1952 में भारत संघ में सम्मिलन के पश्चात इसका स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया।
सिकरवार सूर्यवंशी राजपूत है। आगरा के पास अयेला सिकरवारों का प्राचीन गांव है जहाँ कामाख्या देवी का मंदिर बना हुआ है।
सिकरवार नाम राजस्थान के सिकार नामक स्थान से पड़ा है जहाँ इन्होंने अपना राज्य स्थापित किया था। सन 823 ई में इस वंश ने विजयपुर सीकरी में अपना राज्य स्थापित किया।यह स्थान मुगलो द्वारा विजय करने के बाद फतेहपुर सीकरी कहलाया।
राव जसराज सिंह सिकरवार के तीन पुत्र कामदेव उर्फ दलकू बाबा , धाम देव व वीरमसिंह थे। इनमें धामदेव राणा सांगा के परम मित्रों में से थे।
खानवा के युद्ध मे ये बाबर के विरुद्ध राणा साँगा की ओर से लड़े। राणा सांगा की पराजय  हुई। सिकरवार इस युद्ध की पराजय में सब कुछ गवां बैठे।
              धामदेव को कोई रास्ता नही दिखाई दे रहा था तब उन्होंने कामाख्या देवी से प्रार्थना की। माँ ने उन्हें सपने में दर्शन दिए  । 
            उन्हें काशी की ओर गंगा किनारे जमदाग्नि एवं विश्वामित्र की तपोभूमि में निवास करने के लिए कहा। धामदेव ने अपने परिवार पुरोहित और सेवको के साथ प्रस्थान किया । 
                रास्ते मे चेरु राजा शशांक को परास्त कर सकराडीह में गंगा किनारे अपने राज्य की स्थापना की ।यह स्थान गहमर कहलाया।वर्तमान में उप्र में गाजीपुर के समीप है।जहाँ सिकरवारों के 36 गांव है।
 मुरैना के सिकरवार -
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             धामदेव के भाई कामदेव सिंह उर्फ दलकू बाबा  ने मुरैना में चम्बल नदी के किनारे सिकरवारी की स्थापना की।  सन 1347 ई यहाँ के निवासी रावतों को परास्त कर सरसेनी (जौरा) गढ़ी पर कब्जा किया। सरसेनी में चम्बल किनारे आज भी सती का मंदिर बना हुआ है। यह एक तरह से सिकरवारी की कुलदेवी है।
            आगे बढ़ते हुए इसके बाद सिकरवारों ने क्रमशः सन 1407 में भैंसरौली ,सन 1445 में पहाड़गढ़ , सन 1548 में  सिहोरी पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। इस प्रकार मुंगावली के आसपास के क्षेत्र पर सिकवारों का अधिपत्य हो गया।
          इस प्रकार जौरा तहसील के ग्राम सिहोरी से लेकर बर्रेण्ड तक का भौगोलिक क्षेत्र सिकवारों के अधीन हो गया। दलकू बाबा की दो रानियों के सात पुत्र थे । ये सभी गांव इन पुत्रो को जागीर में दे दिए गए।
पहाड़गढ़ जागीर की उत्पत्ति --
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            पहाड़गढ़ की स्थापना सीकरी सिकरवार राजपूतों ने खानवा के युद्ध मे हारने के बाद की गई। खानवा की पराजय में सिकरवार अपना सीकरी का राज्य खो बैठे। तब उन्होंने पहाड़गढ़ में अपने राज्य की स्थापना की जो देश की स्वाधीनता तक कायम रहा।
       दलकू बाबा के सात पुत्रो में से बड़े राव रतन पाल दलकू के बाद सरसेनी और बाद में पहाड़गढ़ के राव बने।  इसके बाद क्रमशः राव दानसिंह , राव भरत चंद सिंह , राव नारायण दास , राव पत्रोकरण सिंह,राव वीरसिंह,और दलेल सिंह पहाड़गढ़ के राव हुए।
             दलेल सिंह पहाड़गढ़ के पहिले राव थे जिन्होंने महाराजा की उपाधि धारण की तथा  17 हजार की सेना का का नेतृत्व करते हुए औरंगजेब के विरुद्ध छत्रसाल बुन्देला का साथ दिया।
           पहाड़गढ़  महाराजा विक्रमादित्य के काल मे दौलतराव सिंधिया  की सेनाओं ने सन 1767 ई में आक्रमण कर मानगढ़ और हुसैनपुर के क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। सन 1792 में पहाड़गढ़ को सिंधिया से संधि करने को बाध्य होना पड़ा।
           महाराजा अपरबल सिंह (1803 - 41) ने ग्वालियर के शासक दौलत राव सिंधिया के विरुद्ध विद्रोह कर दिया । पर अंततः परास्त होकर संधि करनी पड़ी। परिणामतः सिकरवारी के एक बड़े इलाक़े से उन्हें हाथ धोना पड़ा।
           पहाड़गढ़ के राजा गणपतसिंह (1841 -70)  ने सभी सिकरवारों को झांसी की रानी का साथ देने के लिए लोहागढ़ में एकत्र किया  था। पर रानी की पराजय हुई। बाद में इन्होंने देवगढ़ के राव के साथ अंग्रेजो के विरुद्ध तात्या टोपे को संरक्षण प्रदान किया।
           सन 1870 से 1910 तक राजा अजमेर सिंह और उसके बाद 1910 में राजा पंचम सिंह पहाड़गढ़ के राजा हुए। राजा पंचम सिंह  ने सरदार स्कूल ग्वालियर एवं मेयो कालेज अजमेर से शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने प्रशासन , विधि , एवं स्टेट अफेयर्स में स्नातक उपाधि प्राप्त की। 
     उनके  कार्यकाल में ही पहाड़गढ़ ग्वालियर स्टेट की प्रथम श्रेणी की जागीर बनी। पहाड़गढ़ में सभी नागरिक सुविधाएं थी। उस समय ग्वालियर से धौलपुर के बीच केबल पहाड़गढ़ में ही लाइट थी।
             उस समय पहाड़गढ़ में हायर सेकेंडरी स्कूल था। इस कारण उस क्षेत्र के लोग पढ़े और उन्हें  शासकीय सेवाओ में जाने का अवसर मिला।
               राजा  पंचम सिंह ग्वालियर म्युनिसपेल्टी के पहले चैयरमेन बने और 9 वर्ष तक इस पद पर रहे।  बे ग्वालियर मेला , थियोसोफिकल सोसाइटी ,, वाइल्ड लाइफ बोर्ड , ओलंपिक असोसिएसन आदि से भी जुड़े रहे।
            बे अपने जमाने के जानेमाने शिकारी थे कहा जाता है कि ग्वालियर दरबार मे उन्होंने तलवार के एक ही बार से टाइगर का शिकार कर दिया था। बे जौरा विधानसभा सीट से MLA भी रहे।
            देश की स्वाधीनता  के बाद पहाड़गढ़ का विलय भी भारत संघ में जाने से इस जागीर का अस्तित्व समाप्त हो गया। कालान्तर में शुगर फेक्ट्री , नैरोगेज का रेलवे स्टेशन बन जाने से कैलारस उन्नति करता गया।
                कैलारस  तहसील बन गई और पहाड़गढ़ से लोग पलायन करते गए। बड़ी बड़ी हवेलियां खाली होती गई । उनमें ताले पड़ते गए।
                 पहाड़गढ़ वीरान सा होता गया। पर आज भी   पहाड़गढ़ का  ढ़रक बज़ार और बुलंद किला अपने अतीत की कहानी कह रहा है।

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