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Tuesday, August 18, 2020

जनवादी पत्रकार संघ

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*देश का भविष्य: खेती और परम्परागत व्यवसाय ही*@राकेश दुवे जी

Posted: 17 Aug 2020 08:30 PM PDT






*० प्रतिदिन* -राकेश दुबे
१८ ०८ ०२०२०
* देश का भविष्य : खेती और परपरागत व्यवसाय ही*
सरकारें भले ही कुछ भी दावे करें, हकीकत यह है कि पिछले पांच महीनों में कोविड महामारी के भय ने आशंकित लोगों को महामारी और अनिश्चय की ऐसी पीड़ा दी है कि जिससे आज देश की बड़ी आबादी अनिश्चय के भंवर में जीने को मजबूर है। ठिकाने की तलाश में इस देश की बड़ी आबादी जिसे कार्यशील युवा पूंजी कहा जाता है, अपने जीवन को नया अर्थ देने के लिए न जाने कहां-कहां की खाक छान आयी। वैधानिक रास्ता नहीं मिला तो अवैध कबूतरबाजों के पंखों पर बैठकर सात समन्दर पार की खाक भी छानी, लेकिन सब व्यर्थ ,उसे जीने के अहसास कहीं नहीं मिला। अपनी जड़ों से उखड़कर कहीं भी जुड़ न पाने का यह दर्द केवल इस देश के बीस प्रतिशत लोगों को ही नहीं है, जिनकी संख्या करीब तीस करोड़ बन जाती है। उन्हें ज्यादा है जो रोज आधे पेट भोजन पर गुजर-बसर कर रहे है।
इस कोविड -१९ ने एक सच, भारत की जनता के सामने रख दिया है कि "भारत की अपनी मूल प्रवृत्ति खेती किसानी है | इस ओर लौटने अतिरिक्त हमारे पास भविष्य में कोई विकल्प नही होगा। प्रकृति केन्द्रित विकास और परम्परागत व्यवसाय ही भविष्य की नींव होंगे |"
एक समय था, जब भारत की तीन-चौथाई आबादी धरती से जुडी थी और खेती किसानी ही करती थी। देश में अधिसंख्य लोग ग्रामीण संस्कृति को अपना कर अपने परपरागत व्यवसाय पर जीवित थे। भौतिकवाद की चकाचौंध ने लोगों का विश्वास अपनी धरती से हटा दिया। कृषि जीने का ढंग नहीं, मात्र एक अलाभप्रद धंधा हो गयी। अन्नदाता किसान का विश्वास खो देने का यह संकट इतना गहरा हो गया कि अब केवल देश की आधी जनता ही कृषि और सहकारी धंधों में अर्थ खोजती रह गयी है। वह अर्थ भी इतना व्यर्थ हो गया कि कृषक संस्कृति ने देश की सकल घरेलू आय में पचास प्रतिशत की जगह मात्र उन्नीस प्रतिशत योगदान देना प्रारंभ कर दिया। कृषि में निवल निवेश शून्य हो गया। इसके लिए हरित से लेकर नीली तक रंगबिरंगी क्रांतियों के नारों के बावजूद कृषि विकास दर मात्र दो प्रतिशत तक सिमट गयी। आज कृषि संस्कृति की ओर लौटने की बात कहने वाले भी इस वर्ष के लिए उसकी विकास दर की कल्पना चार प्रतिशत से ऊपर नहीं कर पाये। जबकि औद्योगिक क्रांति और विदेशी निवेश के आधार स्तंभों पर खड़ी भारतीय अर्थव्यवस्था दस प्रतिशत आर्थिक विकास दर का सपना देखकर उसके स्वत: स्फूर्त हो जाने की कल्पना कर रही है।
देश के युवा को नव शिक्षण और प्रशिक्षण के नाम पर शहरों और कस्बों में उभर आयी अकादमियां पहले गांवों से शहरों की ओर, और फिर शहरों से निराश हो विदेशों की ओर पलायन का विकल्प दे रही हैं। आंकड़ों के अनुसार लगभग डेढ़ करोड़ युवा हर वर्ष एक वैकल्पिक सपनीले जीवन की तलाश में पहले शहरों और फिर वैध-अवैध पलायन के सहारे विदेशों की ओर पलायन कर रहे हैं। देश में गांव के गांव खाली हो गये,और हो रहे हैं |
विश्वभर में कोरोना महामारी के कारण भारतीयों के लिए डॉलर और पाउंड क्षेत्र ने तो संक्रमण से भयभीत होकर सबसे पहले अपने दरवाजे बंद किये, फिर तेल उत्पादक देशों ने भी अपना संकट भयावह होता देख उन्हें अजनबी बना दिया। ये लोग सामूहिक रूप से वंदेमातरम् कहते हुए बमुश्किल अपने देश लौटे हैं ।इधर जिन उद्योग धंधों ने गांवों से आये करीब तेरह करोड़ लोगों को अपने साथ जोड़ रखा था। उन्हें अब तालाबन्दी और बढ़ती मन्दी उन्हें वापसी का रास्ता दिखाने लगी।ये पिछले बरसों में बेहतर जिंदगी की तलाश में वे अपने गांवों से पलायन करके यहां आये। अब रोजी-रोटी के लिए तरस जाने की हालत ने उन्हें फिर अपने गांव की ओर पुन: पलायन की राह दिखा दी है । समाज शास्त्रियों ने पूरे देश में ४८ जिलों का सर्वेक्षण किया तो पाया कि अनुदान योजनाओं की घोषणाओं के आडम्बर के बावजूद ग्रामीण संस्कृति के पुनर्निमाण के चिन्ह नहीं हैं। घर लौटे प्रवासियों के लिए घोषणाओं के बावजूद नये कार्य के आसार नहीं हैं, और वर्तमान जीर्णशीर्ण अर्थव्यवस्था उनके अयाचित बोझ से चरमराने लगी है।

अन्याय सहकर भी मौन रहे पंडित जसराज@राकेश अचल

Posted: 17 Aug 2020 09:48 AM PDT


अन्याय सहकर भी मौन रहे पंडित जसराज
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मेवाती घराने के मूर्धन्य गायक पंडित जसराज अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन जिन्होंने उन्हें गाते हुए सुना है उनके कानों में लम्बे समय तक पंडित जसराज की खनकदार आवाज गूंजती रहेगी .90 साल के पंडित जसराज भारतीय शास्त्रीय संगीत की उन गिनी चुनी हस्तियों में से एक थे जो अपने आप में शास्त्रीयता का साक्षात्कार कराती थी .आज उनका न होना एक ऐसा शून्य पैदा कर गया है जिसमें कोई गूँज -अनुगूंज नहीं बची है .
हिसार में 28 जनवरी 1930 को जन्में पंडित जसराज को गाते-बजाते हुए 80 साल हो गए थे .पंडित जसराज मेवाती घराने से ताल्लुक रखते थे , जो संगीत का एक स्कूल है और 'ख़याल' के पारंपरिक प्रदर्शनों के लिए जाना जाता है। जसराज ने ख़याल गायन में कुछ लचीलेपन के साथ ठुमरी, हल्की शैलियों के तत्वों को जोड़ा .आलोचनाएं सहीं लेकिन अपने काम से पीछे नहीं हटे.
ग्वालियर से उनका बड़ा पुराना रिश्ता रहा ,संगीत सम्राट तानसेन की समाधि पर होने वाले सालाना तानसेन समारोह के अलावा अन्य निजी कार्यक्रमों में भी वे ग्वालियर आते-जाते रहे ,लेकिन ग्वालियर और मध्यप्रदेश सरकार को लेकर उनके मन में एक चुभन ताउम्र बनी रही .
पंडित जसराज को भारतरत्न छोड़कर लगभग सभी शीर्ष सम्मान मिले लेकिन जिस सम्मान की हसरत उनके मन में थी वो उन्हें नहीं मिल पाया.पंडित जी तानसेन के नाम पर सालाना दिए जाने वाले सम्मान के अभिलाषी थे,लेकिन मध्यप्रदेश में सक्रिय शास्त्रीय संगीत की चौकड़ी ने कभी उनका नाम आगे ही नहीं किया .पंडित जी की पीढ़ी के अनेक लोग इस सम्मान के लिए चुने गए,बाद में तो अनेक कनिष्ठ कलाकारों को तानसेन सम्मान दिया गया लेकिन पंडित जसराज को हर बार छोड़ दिया गया .उन्होंने खुलकर इसकी शिकायत कभी नहीं की लेकिन मुझसे निजी बात में वे अपनी इस तीस को कभी नहीं छिपा सके .
आज से कोई चार दशक पहले मात्र पांच हजार रूपये की राशि का तानसेन सम्मान आज दो लाख रूपये का है. पांच हजार की ये राशि पहले पचास हजार रूपये हुई फिर एक लाख और बाद में दो लाख. तानसेन सम्मान में राशि से ज्यादा नाम का महत्व था. 1980 में जब पहला तानसेन सम्मान पंडित कृष्ण राव शंकर पंडित को प्रदान किया गया था तो वे अपने पद्मविभूषण के सम्मान मिलने से भी अधिक खुश थे .मैंने ग्वालियर में तानसेन सम्मान पाकर पुलकित होते हुए हीराबाई बड़ोदकर,उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ,पंडित रामचतुर मलिक,पंडित नारायण राव व्यास,पंडित दिलीप चंद्र बेदी,उस्ताद निसार हुसैन खा ,गंगू बाई हंगल,पंडित भीमसेन जोशी से लेकर पिछले साल 2019 में पंडित विद्याधर व्यास को तानसेन सम्मान मिलते देखा लेकिन पंडित जसराज का नाम इस फेहरिस्त में कभी शामिल नहीं किया गया .
संगीत में इस राजनीति से पंडित जसराज का मान कम नहीं हुआ लेकिन तानसेन सम्मान की जूरी हमेशा के लिए सवालों के घेरे में बनी रहेगी .जसराज को तानसेन सम्मान मिलता तो सम्मान का मान कम नहीं होता किन्तु न जाने कौन से अदृश्य हाथ थे जो पंडित जसराज को इस सम्मान से हमेशा पीछे धकेलते रहे ..वे मुझे जब भी मिले मैंने उनसे इस राजनीति पर पड़ा पर्दा उठाने का आग्रह किया लेकिन वे मर्यादा के धनी निकले,उन्होंने उसाँस तो भरी लेकिन कभी किसी को इसके लिए जिम्मेदार नहीं बताया ,उंगली नहीं उठाई .
पंडित जी को सुनना अपने आपमें एक स्वार्गिक अनुभव था ,वे जन आधी रात के बाद अपने प्रिय राग भैरव में रचना सुनाते तो लगता जैसे पूरा परिवेश पवित्र हो गया. वे ग्वालियर जब भी आये अपनी पत्नी श्रीमती मधुरा के साथ आये,वे उनका इतना ख्याल रखती थीं की पूछिए मत .दोनों की जोड़ी जैसे स्वर्ग में ही बनी थी .मुझे पंडीत जसराज की गायकी ही नहीं अपितु उनका पूरा व्यक्तित्व आकर्षित करता था .ख्याल गायकी के लिए एक कलाकार में जो भी अवयव चाहिए होते हैं वे सब भगवान ने पंडित जसराज को मुक्त हस्त से प्रदान किये थे. खनकदार आवाज,विशाल भाल और उठी हुई नासिका ,गौर वर्ण उन्हें समपूर्ण बनाता था .वे मंत्रमुग्ध करने वाले गायक नहीं थे,अपितु वे खुद मंत्रमुग्ध होकर गाते थे.संगीत उनके लिए प्रभु की आराधना ही थी .
मुझे याद आता है की वर्ष 2012 में पंडित जसराज को पंडित कृष्णराव शंकर पंडित की स्मृति में जो सम्मान दिया गया था उसे भी उन्होंने उसी तरह ग्रहण किया था जैसे पद्मविभूषण सम्मान को किया था .उनमें विनम्रता कूट-कूट कर भरी थी .आपको बता दूँ कि उनके पिताजी पंडित मोतीराम जी स्वयं मेवाती घराने के एक विशिष्ट संगीतज्ञ थे। जैसा कि आपने पहले पढ़ा कि पं. जसराज को संगीत की प्राथमिक शिक्षा अपने पिता से ही मिली परन्तु जब वे मात्र 3 वर्ष के थे, प्रकृति ने उनके सर से पिता का साया छीन लिया। पंडित मोतीराम जी का देहांत उसी दिन हुआ जिस दिन उन्हें हैदराबाद और बेरार के आखिरी निज़ाम उस्मान अली खाँ बहादुर के दरबार में राज संगीतज्ञ घोषित किया जाना था। उनके बाद परिवार के लालन-पालन का भार संभाला उनके बडे़ सुपुत्र अर्थात् पं० जसराज के अग्रज, संगीत महामहोपाध्याय पं० मणिराम जी ने। इन्हीं की छत्रछाया में पं० जसराज ने संगीत शिक्षा को आगे बढ़ाया तथा तबला वादन सीखा। पंडित जी के परिवार में उनकी पत्नी मधु जसराज, पुत्र सारंग देव और पुत्री दुर्गा हैं
आवाज़ ही पहचान है
पं० जसराज के आवाज़ का फैलाव साढ़े तीन सप्तकों तक है। उनके गायन में पाया जाने वाला शुद्ध उच्चारण और स्पष्टता मेवाती घराने की 'ख़याल' शैली की विशिष्टता को झलकाता है। उन्होंने बाबा श्याम मनोहर गोस्वामी महाराज के सान्निध्य में 'हवेली संगीत' पर व्यापक अनुसंधान कर कई नवीन बंदिशों की रचना भी की है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान है। उनके द्वारा अवधारित एक अद्वितीय एवं अनोखी जुगलबन्दी, जो 'मूर्छना' की प्राचीन शैली पर आधारित है। इसमें एक महिला और एक पुरुष गायक अपने-अपने सुर में भिन्न रागों को एक साथ गाते हैं। पंडित जसराज के सम्मान में इस जुगलबन्दी का नाम 'जसरंगी' रखा गया है।,,
पंडित जसराज के पहले मई पंडित भीमसेन जोशी का मुरीद था.जसराज जी के पास भी जोशी जैसी ही पुरषार्थ में डूबी आवाज थी .पंडित जी के पीछे उनका बृहद रचना संसार है,उनके देश -विदेश में असंख्य शिष्य हैं ,वे स्वयं एक संस्था थे . वे ऐसे दुसरे बड़े भारतीय संगीतज्ञ हैं जो अमेरिका में दिवंगत हुए हैं. उनसे पहले पंडित रविशंकर का निधन भी अमेरिका में हुआ था .पंडित जसराज का जस शदियों तक भारतीय शास्त्रीय संगीत को प्रेरित करता रहेगा.मेरी विनम्र श्रृद्धांजलि .
साभार@ राकेश अचल वरिष्ठ पत्रकार

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