जनवादी पत्रकार संघ |
- *जल्दबाजी में लाए बिलों से सरकार ने क्या खोया?@ राकेश दुबे जी वरिष्ठ पत्रकार भोपाल
- *किसान कानून: क्या पीछे हटेगी सरकार ?राकेश अचल जी वरिष्ठ पत्रकार ग्वालियर*
- *स्मृति शेष *'चलता फिरता खबरनामा थे दादा दिनेश चंद्र वर्मा'@ राकेश अचल जी वरिष्ठ पत्रकार ग्वालियर
- *अवैध अफीम डोडा चूरा अफीम में मात्रा बढ़ाने का टांका जप्त ,महिला सहित दो आरोपी गिरफ्तार*@ अशोक बैरागी ब्यूरो चीफ
*जल्दबाजी में लाए बिलों से सरकार ने क्या खोया?@ राकेश दुबे जी वरिष्ठ पत्रकार भोपाल Posted: 26 Sep 2020 03:58 AM PDT २६ ०९ २०२० *जल्दबाजी में लाये बिलों से सरकार ने क्या खोया ?* संसद में जल्दबाजी में पारित ३ कृषि विधेयकों के खिलाफ किसानों का भारत बंद, कुछ राज्यों में जोरदार तो कुछ में ढीला रहा |सबसे ज्यादा असर पंजाब और हरियाणा में देखने को मिला ।पंजाब में अमृतसर, फरीदकोट समेत कई शहरों में किसान रेलवे ट्रैक पर बैठे दिखे | रेलवे ने पंजाब जाने वाली १३ जोड़ी ट्रेनों को पंजाब पहुंचने से पहले ही रद्द कर दिया| इसके अलावा १४ ट्रेनों को निरस्त कर दिया है | वैसे जिस तरह बहुमत के बल पर जल्दबाजी से तीन कृषि अध्यादेशों को नये कानूनों में बदला गया है,उसका विरोध भी प्रजातंत्र में आस्था रखने वाले लोग कर रहे हैं| इस सम्पूर्ण घटनाक्रम से हमारी संसदीय लोकतांत्रिक पद्धति के भविष्य को लेकर कई सवाल पैदा होते हैं।जैसे विपक्ष की आवाज़ को अनसुना कर दिया जाना । वास्तव में यह मुद्दों पर सार्थक बहस न होने देने वाली ताकत का निर्लज्ज नमूना ही तो है। स्थापित संसदीय प्रक्रिया को दरकिनार करने वाले प्रसंग को जनता आसानी से कहाँ भूलने वाली है । अब तक स्थापित परंपरा यही है कि सरकार सदन में कानून का मसौदा रखते वक्त इसकी उपयोगिता गिनाती है और चर्चा होती है, किंतु पिछले कुछ वक्त से बहस करवाने की जरूरी प्रक्रिया की अनदेखी करते हुए विधायी प्रक्रिया का ह्रास करना नित्यक्रम हो गया है। यह दृश्य राज्य विधान सभा में तो आम हो गया है | सदन के सत्रावसान का उपयोग "वीटो पावर "की तरह होने लगा है | इन हरकतों से लोकतांत्रिक और नैतिक वैधता बेमानी होती जा रही है। साफ है, लोकतंत्र में कोई ऐसा कानून, जिसे सरकार जोर-जबरदस्ती से लाद कर यह कहे कि जनता खुशी से कबूल रही है और पालना करेगी, तो यह दावा करना सही नहीं,बल्कि चिंगारी को हवा देना है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि स्वतंत्र भारत के जीवट कृषक समुदाय की प्रतिष्ठा कायम करने के स्थान पर सरकार उसे वोट बैंक समझती है | सब यह जानते हैं कि किसी कानून की प्रभावशीलता उसके न्यायोचित होने और सार्थकता महसूस करने पर आधारित होती है। पहले से ही कोविड-१९ महामारी से बनी अति विकट स्थितियों के बावजूद नये विवादित कृषि कानूनों को लेकर आज सड़कों पर जनाक्रोश देखने को मिल रहा है |पंजाब के मुख्यमंत्री इस प्रतिक्रिया ने कि "जिस तरह संसद में कानूनों को धक्के से पारित करवाया गया है, उसे न्यायलय में चुनौती दी जाएगी "। यह भारतीय संघीय व्यवस्था के भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। नये कृषि कानूनों और पारित करने के तरीके का विरोध देशभर में हो रहा है और भिन्न राजनीतिक विचारधारा वाले दल इन्हें बनाने एवं लागू करने के खिलाफ हैं| कांग्रेस, डीएमके, तृणमूल कांग्रेस, एआईएडीएमके, बीजेडी, आरजेडी, टीआरसी, शिरोमणि अकाली दल और वाम दलों ने अपना पक्ष रखते हुए मांग की है कि तीनों कानूनों को राज्यसभा के चुनींदा सदस्यों वाली समिति के पास विस्तृत पुनः समीक्षा के लिए भेजा जाए। होना तो यह चाहिए था, विपक्ष शासित राज्य सरकारों और संबंधित पक्षों से पहले समर्थन जुटाया जाता | नये कानूनों का निर्मम होना और फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था हटने की आशंका से किसानों में इसके प्रति धारणा घातक होने वाली बन गई है। कुल मिलाकर किसानों को डर है कि मूल्य निर्धारण, बाजार के मुक्त खेल के रहमो-करम पर छोड़ दिया गया है। तर्क के लिए यह मान भी लें किसानों में इन कानूनों के लेकर बनी धारणा मात्र गलतफहमी है तो यह सरकार का दायित्व था कि वह उनकी स्वीकार्यता बनाने को सही और संपूर्ण जानकारी मुहैया करवाती, लेकिन यह नहीं किया गया। इसके विपरीत केवल खुद को सही समझने वाली सरकार अपने निर्णयों को सही सिद्ध करने पर अड़ी है।सरकार का प्रदर्शन संसद के अंदर और बाहर ऐसा ही दिखा | ऐसे में ही अपने ही देश के नागरिकों के हितों से खिलवाड़ करने वाली सरकार शासन करने का नैतिक हक खो बैठती है। जरूरत महत्वपूर्ण मुद्दों पर बृहद राष्ट्रीय सहमति बनाने के लिए उभयनिष्ठ बिंदुओं की पहचान है , जिसमें कृषि-आर्थिकी को बदलने से संबंधित मामले भी शामिल हो । सरकार को लगातार उसकी घटती जा रही सहानुभूति और संवेदना को नहीं भूलना चाहिए है, यही क्रिया मानवता को परिभाषित करती है। |
*किसान कानून: क्या पीछे हटेगी सरकार ?राकेश अचल जी वरिष्ठ पत्रकार ग्वालियर* Posted: 26 Sep 2020 04:01 AM PDT *************************************** नए किसान क़ानून के विरोध में राष्ट्रव्यापी किसान आंदोलन के बाद महाराष्ट्र सरकार ने नए किसान क़ानून को लागू करने से इंकार कर दिया है. क्या देश की दूसरी गैर भाजपा सरकारें इसी तरह नए कानून के खिलाफ खड़ी होकर केंद्र को नया क़ानून वापस लेने के लिए मजबूर कर सकतीं हैं .ये सवाल एक बार फिर से केंद्र और राज्यों के बीच टकराव के संकेत दे रहा है .क्या इस टकराव क को टालने के लिए केंद्र अपने कदम पीछे ले सकता है ? पिछले कुछ सालों में केंद्रीय कानूनों को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच टकराव की घटनाएं लगातार बढ़ी हैं.मुझे याद है कि केंद्र में जब कांग्रेस की सरकार थी तब भी जीएसटी जैसे कानूनों को लेकर टकराव कोई स्थितियां बनीं थीं.जीएसटी के मुद्दे पर तो मध्यप्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार के वित्त मंत्री राघव जी ने कहा था कि जीएसटी कानून बना तो वे जान दे देंगे .लेकिन जब भाजपा सत्ता में आयी तो जीएसटी कानून बना और किसी ने जान नहीं दी .आज भी स्थितियां कमोवेश टकराव की ही हैं. नए किसान कानून संसद के दोनों सदनों से येन -केन पारित करा लिए गए हैं .आने वाले दिनों में राष्ट्रपति की मुहर लगते ही ये क़ानून अमल में भी आ जायेंगे,लेकिन क्या पूरा देश इन कानूनों को माननेके लिए बाध्य होगा ? भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के इस नए क़ानून के खिलाफ आंदोलन शुरू होने से पहले ही केंद्रीय मंत्रिमंडल से खाद्य एवं प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत सिंह कौर अपना इस्तीफा दे चुकी हैं .हालाँकि ये एक राजनीतिक कदम है लेकिन क़ानून के खिलाफ किसान अकेले पंजाब में ही नहीं बल्कि हिंदी पट्टी के सात राज्यों के अलावा सुदूर केरल,बंगाल और कर्नाटक में भी किसान सड़कों पर उतरे हैं .किसान आंदोलन को मोथरा करने के लिए हालांकि केंद्र सरकार ने अपने जेबी संगठनों को भी विरोध में खड़ा किया था लेकिन विरोध की आग दावानल की तरह खेतों-खलिहानों में फ़ैल गयी . किसानों के इस आंदोलन से पहले भी देश सीएए और एनआरसी जैसे विवादास्पद कानूनों की वजह से आंदोलित हो चुका है .ये आंदोलन कितने उग्र थे ,ये देश-दुनिया देखा है.सवाल ये है की क्या नया किसान क़ानून भी इसी तरह उग्र हो सकता है ? क्योंकि असंतोष तो सब दूर है.इस असंतोष को दूर करने के लिए एनडीए अगले कुछ दिनों में किसानों को समझने के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान चलने वाली है .इस अभियान और आंदोलन के प्रतिफल क्या होंगे अभी कहा नहीं जा सकता .लेकिन लगता है कि महाराष्ट्र की ही तरह देश के गैर भाजपा शासित राज्य नए किसान क़ानून की अवज्ञा कर सकते हैं . संयोग से नए किसान क़ानून को लेकर आंदोलन उस समय शुरू हुआ है जबकि बिहार में विधानसभा के चुनाव घोषित किये जा चुके हैं .प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने किसानों को लुभाने के लिए हाल ही में कुछ जिंसों के न्यूनतम समर्थन खरीदी मूल्यों में इजाफे का ऐलान भी किया है .लेकिन इसका असर कहैं नजर नहीं आया .आने वाले दिनों में इस घोषणा का कुछ असर बिहार विधानसभा चुनावों पर पड़े तो कहा नहीं जा सकता .मुमकिन है की बिहार विधानसभा के चुनावों के चलते ये किसान आंदोलन सुस्त पद जाये.ये भी मुमकिन है की ये आंदोलन और उग्र हो जाये .जिस बिहार में विधानसभा के चुनाव होना है उसी बिहार में वामपंथी दलों के साथ राजद ने भी नए क़ानून का जमकर विरोध किया है . किसान आंदोलन का इपिक सेंटर पंजाब है. पंजाब से केंद्र में अकालीदल का प्रतिनिधित्व करने वाली हरसिमरत कौर के इस्तीफे के बाद पंजाब की कांग्रस सरकार भी नए कानूनों के खिलाफ खड़ी हो गयी है .देश के कोई 350 छोटे-बड़े किसान संगठन नए किसान क़ानून के खिलाफ हैं .देश के जिन राज्यों में खेती का रकबा सबसे ज्यादा है या जो राज्य हरितक्रांति के अगुआ समझे जाते हैं वहां का किसान सबसे ज्यादा आंदोलित है .अगर केंद्र सरकार किसानों को न समझा पाई तो बिहार विधानसभा के चुनावों के साथ ही मध्यप्रदेश विधान सभा के 28 उप चुनावों पर भी इसका असर पड़ सकता है . सिर्फ सड़कें ही नहीं रेल की पटरियां तक किसानों के आक्रोश की गवाही दे रही हैं। पंजाब के अलग-अलग 31 किसान संगठनों ने बंद का आह्वान किया था । इसमें सबसे प्रमुख भारतीय किसान यूनियन है जो इस आंदोलन का यहां नेतृत्व कर रही है।स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव ने कहा कि केंद्रीय कृषि मंत्री कहते हैं कि हमारे दरवाजे किसानों के लिए हमेशा खुले हैं लेकिन, उन्होंने तो विधेयक लाकर पहले ही ताला लगा दिया। उन्होंने बिल को पास करने से पहले किसी किसान बात नहीं की, यहां तक कि अपने सहयोगी अकाली दल और आरएसएस से जुड़े किसान संगठनों से भी बात नहीं की। क्योंकि इन्हें पता था कि इनका कोई साथ नहीं देगा, ये काम चोर दरवाजे से ही किया जा सकता है। देश में पहले भी किसान आंदोलन हुए हैं ,उन्हें देखकर लगता है की देश का किसान जानता है कि सरकार का अहंकार कैसे तोड़ा जाता है। अब तो कानून बन गया, संसद का काम खत्म हो गया। अब सड़क का काम शुरू हो गया है, सड़क पर विरोध होगा और सरकार को घुटने पर लाएंगे। दरअसल किसानों को सबसे बड़ा डर न्यूनतम समर्थन मूल्यखत्म होने का है. इस बिल के जरिए सरकार ने कृषि उपज मंडी समिति यानी मंडी से बाहर भी कृषि कारोबार का रास्ता खोल दिया है. मंडी से बाहर भी ट्रेड एरिया घोषित हो गया है. मंडी के अंदर लाइसेंसी ट्रेडर किसान से उसकी उपज एमएसपी पर लेते हैं. लेकिन बाहर कारोबार करने वालों के लिए एमएसपी को बेंचमार्क नहीं बनाया गया है. इसलिए मंडी से बाहर एमएसपी मिलने की कोई गारंटी नहीं है. ख़ास बात ये है कि सरकार ने बिल में मंडियों को खत्म करने की बात कहीं पर भी नहीं लिखी है. लेकिन उसका असर मंडियों को तबाह कर सकता है. इसका अंदाजा लगाकर किसान डरा हुआ है. इसीलिए आढ़तियों को भी डर सता रहा है. इस मसले पर ही किसान और आढ़ती एक साथ हैं. उनका मानना है कि मंडियां बचेंगी तभी तो किसान उसमें एमएसपी पर अपनी उपज बेच पाएगा. कुल जमा नए किसान क़ानून फिलहाल तो सरकार के गले की हड्डी बन ही गए हैं. ये हड्डी गले से बाहर निकलेगी या सरकार इसे उदरस्थ कर लेगी,अभी कहना कठिन है,क्योंकि सरकार तिलिस्मों की सरकार है .केंद्र ने नए क़ानून बनाकर एक जोखिम लिया है .ये जोखिम न लेती तो सरकार को परदे के पीछे से चला रहे उद्योगपति अपना कंधा डालकर सरकार को वक्त से पहले मुसीबत में डाल सकते थे ..अब देखते जाइये 'तेल और तेल की धार'.आप यूं भी कह सकते हैं कि हमें ऊँट की करवट पर नजर रखना होगी कि ऊँट किस करवट बैठता है ? 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*स्मृति शेष *'चलता फिरता खबरनामा थे दादा दिनेश चंद्र वर्मा'@ राकेश अचल जी वरिष्ठ पत्रकार ग्वालियर Posted: 26 Sep 2020 03:56 AM PDT ******** प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकारों में शुमार किये जाने वाले दिनेश चंद्र वर्मा नहीं रहे .लगा जैसे स्मृतियों के खंडहर से एक और ईंट धीरे से खिसक गयी .76 साल के दिनेशचंद्र वर्मा अद्भुत लिख्खाड़ पत्रकार थे 29जुलाई 1944 को जन्मे वर्मा जी की आरंभिक कर्मभूमि विदिशा थी।.साल भर पहले तक वे अपनी कलम का साथ निभाते रहे .साल भर से वे शारीरिक रूप से कमजोर हो गए थे ,लेकिन उन्होंने अपनी जीवटता को आखिर तक बनाये रखा . वर्मा जी अपनी कलम के साथ ही अपनी फकीरी वेश-भूषा के कारण भी जाने जाते थे .एक जमाना था जब वे पूरे भोपाल में सबसे ज्यादा सक्रिय नजर आते थे. आठवें-आठवें दशक में हिंदी पत्रकारिता में फटाफट लेखन करने वालों में दिनेश चंद्र वर्मा अग्रणीय माने जाते थे .उन दिनों मैंने भी लिखना शुरू कर दिया था .प्रदेश के तमाम छोटे-बड़े अख़बारों में छपने की जैसे होड़ लगी रहती थी .वर्मा जी ने कुछ समाचार पत्रों में नौकरी भी की लेकिन नौकरी लम्बी चली नहीं.शायद नौकरी उनके लिए थी ही नहीं .उन्हें स्वतंत्र लेखन ने अपनी और आकर्षित किया और वे अंत तक उसी में जुटे रहे .उन्होंने कोई पच्चीस साल तक 'विनायक फीचर्स 'के जरिये हिंदी पत्रकारिता की अविराम सेवा की . जाहिर है कि वर्मा जी एक चलता फिरता सूचना भंडार थे .मध्यप्रदेश बनने के बाद के एक-दो मुख्यमंत्रियों और नौकरशाहों को छोड़कर अधिकांश के बारे में वर्मा जी के पास किस्से ही किस्से थे .तब 'विस्पर्स -कॉरिडोर'का चलन नहीं था लेकिन वर्मा जी ने इस चलन को लोकप्रिय बना दिया था. वे जहाँ होते एक न एक सुर्री छोड़ जाते थे .उनकी दुश्मनी शायद ही किसी से हो लेकिन दोस्ती सबसे थी .वे दुश्मनी भी स्थाई नहीं पाल पाते थे ..जो आज दुश्मन बना हो वो कल उनका दोस्त भी हो सकता था .वे आखरी वक्त तक कम से कम हमें अपनी मित्र सूची में शामिल किये रहे . वर्मा जी से मित्रता का पहला दौर 1992 के आसपास कुछ शिथिल पड़ गया था लेकिन 2004 में भोपल के युवा पत्रकार जो यादव ने अपनी मासिक पत्रिका 'भोपाल महानगर' के जरिये इस दोस्ती को फिर हरा-भरा कर दिया .बीते सोलह साल से प्राय: हर महीने वर्मा जी से हमारा सत्संग होता था ,वे हम प्याला,हम निवाला, हम सफर ,हमराज थे .उनकी फीचर सेवा के लिए भी मै खूब लिखता रहता था और उनकी प्रेरणा से बाद में मैंने भी एक फीचर सेवा शुरू की जो विनायक फीचर्स की तरह नियमित नहीं रह सकी .जब भी लिखते समय गाड़ी कहीं अटकती वर्मा जी अपनी स्मृति के सहारे उसे धक्का दे देते . जीवन की हीरक जयंती मनाने में कामयाब रहे वर्मा जी 'इंस्टेंट' लेखन में सिद्ध हस्त थे .एक बैठक में आप उनसे बीस-तीस पेज आसानी से लिखवा सकते थे .वे विवादों से दूर रहते थे लेकिन पत्रकारिता जगत की साजिशों में उनका नाम अक्सर घसीटा जाता था.मुमकिन है वे उनमें शामिल भी रहे हों लेकिन मेरे पास ऐसा कोई प्रमाण नहीं है .उन्होंने श्रमजीवी पत्रकार संघ की स्थापना और उसके विस्तार में भी सक्रिय योगदान दिया लेकिन बाद में नेतागीरी से उनका मोहभंग हो गया था .राजनेताओं से उनके समबन्ध बड़े मधुर रहे .राघव जी भाई हों या लक्ष्मीकांत शर्मा ,दिग्विजय सिंह हों या शिवराज सिंह सबके बीच दिनेश चंद्र वर्मा की पहुंच थी लेकिन इस पहुँच से वे बहुत ज्यादा लाभान्वित कभी नहीं हुए इसलिए जीवन भर फकीरों की तरह रहे. दादा दिनेश चंद्र वर्मा ने अपने बाल कटना एक लम्बे अरसे से बंद कर रखे थे.उन्होंने अपने वालों को कभी रंग-रोगन भी नहीं दिया .इसलिए वे उम्र से पहले दादा हो गए .साधुओं जैसा उनका चोला सबसे अलग दिखाई देता था .वे अच्छे यायावर थे .लेकिन एक लम्बे समय से भोपाल के बाहर जाने में संकोच करने लगे थे .उन्होंने अपनी सेहत के साथ कभी खिलवाड़ नहीं किया और महाप्रयाण से कुछ महीनों पहले तक जीवन को जीवन की तरह जिया .खान-पान के शौक़ीन दादा वक्त के पाबन्द थे .कुछ वर्षों से वे अपनी कार में सवार होकर जहाँ बुलाइये वहां हाजिर हो जाते थे .वे अपने जीवन से नाराज बिलकुल नहीं थे. वर्मा जी की एक पुत्री की शादी तनिक देर से हुयी थी लेकिन उनका उत्साह बिलकुल कम नहीं था. उनके इकलौते पुत्र ने उनकी पत्रकारिता का उत्तराधिकार उनके सामने ही सम्हाल लिया था. पवन की पहचान कायम होने से वे अक्सर मुतमईन दिखाई देते थे .ऐसा कम ही होता है कि पत्रकार का बेटा पत्रकार बने लेकिन दादा का इंजीनियर बेटा अपने आप पत्रकार बन गया .कई मामलों में दादा एकदम रूखे भी थे लेकिन जो उन्हें जानते थे उनके लिए दादा का रूखापन भी प्रिय लगता था ..मैंने उनके साथ अनेक यात्राएं कीं,अनेक घटनाओं,दुर्घटनाओं का साक्षी रहा .वे मुझसे उम्र में कोई 15 साल बड़े थे,लेकिन उन्होंने कभी मुझे राकेश नहीं कहा.वे हमेशा मुझे अचल जी ही कहते थे.सम्मान करना और सम्मान कराना उन्हें खूब आता था .भोपाल में हमारी मित्र मंडली में अब कोई दूसरा दादा फिलहाल दूर-दूर तक दिखाई नहीं देगा .दादा दिनेश चंद्र वर्मा शेष जीवन में हमेशा एक मधुर स्मृति बनकर साथ रहेंगे .विनम्र श्रृद्धांजलि . |
Posted: 25 Sep 2020 08:31 PM PDT |
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