क्रांतिदूत - 🌐

Breaking

Home Top Ad

Post Top Ad

Friday, January 8, 2021

क्रांतिदूत

क्रांतिदूत


आरएसएस संस्थापक डॉ. केशव बलीराम पन्त हेडगेवार

Posted: 07 Jan 2021 06:16 AM PST


एक मातृपितृ विहीन देशभक्त की अन्गारवत तरुणाई 


यूं तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निर्विवाद रूप से आज विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन माना जाता है, लेकिन देश में उसके आलोचकों की भी कमी नहीं है | दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि समर्थक और निंदक दोनों ही इस संगठन को समझे बिना केवल सतही आधारों पर अपना अभिमत बनाये रहते हैं | तो आईये आज इतिहास के झरोखे से संघ के संस्थापक आद्य सरसंघ चालक डॉ. केशव बलीराम पन्त हेडगेवार के जीवन पर नजर डालते हुए तत्कालीन स्थितियों परिस्थितियों को भी जानें समझें | 

सरस्वती की उपासना भी तभी संभव होती है, जब मां लक्ष्मी भी प्रसन्न हों | यही कारण रहा कि बंजरा और हरिद्रा नदियों के सुरम्य संगम पर बसे रमणीय ग्राम कुंदकुर्ती की प्राकृतिक छटा को छोडकर नरहरि शास्त्री नागपुर आये और अपनी विद्या बुद्धि से भोंसले राजघराने से उचित आदर सत्कार प्राप्त किया | लेकिन समय बदला, नरहरी शास्त्री के पोते बलीराम ने जिन दिनों परिवार की जिम्मेदारी संभाली, भोंसले राज परिवार का भाव भी बदल चुका था | वेद विद्या, ईश्वराराधन के स्थान पर अंग्रेजी की तरफ रुझान बढ़ गया था | छः बच्चों की जिम्मेदारी का बोझ बलीराम को भारी पड़ने लगा, लक्ष्मी ने साथ छोड़ा तो सरस्वती असहाय और विवश हो गई | लेकिन ध्यान रहा तो केवल याज्ञवल्क्य का आख्यान | कैसे गुरू से विद्या प्राप्त की, विश्व भर का ज्ञान आत्मसात कर लिया, किन्तु एक दिन गुरू का अहंकार मन में चुभ गया तो विनम्र भाव से संकल्प लिया कि आपका दिया हुआ सब ज्ञान आपको लौटाता हूँ, आपसे प्रशिक्षित एक शब्द का भी उच्चारण अब नहीं करूंगा | आगे चलकर उन्होंने एक नया पांचवा वेद लिखा "याज्ञवल्क्य यजुर्वेद" | निर्धनता में भी वही स्वाभिमान बलीराम जी के ह्रदय में जीवंत रहा | सुगठित शरीर, प्रमाद विहीन जीवन शैली और आचरण शुद्धता के तेज से दमकता उनका श्यामल मुखमंडल, सहज ही उन्हें संपर्क में आने वालों का प्रिय और सम्मान पात्र बना देता था | बड़े बेटे महादेव ने काशी से शास्त्री की उपाधि प्राप्त कर ली और पांडित्य कार्यों से उन्होंने भी परिवार की आय में योगदान देना शुरू कर दिया | तीनों बड़ी बेटियों के विवाह सानंद संपन्न हो गए | शेष दोनों बेटे सीताराम और केशव अपनी मां सरयू और पिता की छत्रछाया में परवान चढ़ रहे थे | 

पिता बलीराम जी की नजर में मुसलमान और अंग्रेज दोनों ही घुसपैठिये थे, जिन्होंने हिन्दुस्थान में जबरन कब्जा जमाकर यहाँ के शांतिप्रिय हिन्दुओं पर जुल्मो सितम ढाये थे | यही संस्कार उनसे केशव ने वाल्यावस्था से ही पाए | जब पांचवी कक्षा में ही थे, तब महारानी विक्टोरिया के जन्मदिवस पर स्कूल में बच्चों को मिष्ठान्न वितरण हुआ | बालक केशव ने वह दोना घर के आँगन में फेंक दिया | आखिर विदेशी शासकों के जन्मदिवस पर कोई स्वाभिमानी भारतीय क्यूं खुशी मनाये ? नागपुर के किले पर फहराते युनियन जेक को देखकर क्षुब्ध बालकों की टोली ने घर के एक खाली कमरे से किले तक सुरंग खोदने की योजना बना डाली, जैसे शिवाजी महाराज ने मुस्लिम आक्रान्ताओं से किले छीनकर उन पर भगवा लहराया था, हम लोग भी नागपुर किले से युनियन जेक हटाकर भगवा फहराएंगे | यही उन बच्चों का भाव था | पिता को ज्ञात हुआ, प्रसन्न तो हुए, किन्तु समझाया भी, युनियन जेक हट भी गया, मान लो भगवा एक बार फहर भी गया तो यह स्थाई कैसे होगा ? जब तक समाज संगठित नहीं है, यह पराधीनता समाप्त होने वाली नहीं है, बाल केशव ने बात गाँठ बाँध ली | यही वह संस्कार था, जिसने उनके जीवन का मार्ग निर्धारित कर दिया | 

तभी आसमान फटा और प्लेग की महामारी ने नागपुर में कहर मचाना प्रारंभ कर दिया | हर घर से रुदन और क्रन्दन के स्वर गूंजने लगे | हालत यह हो गई कि मृत देह को उठाने के लिए चार कंधे देने वाले मिलने भी कठिन हो गए | बलीराम जी ने मानो वृत ही ले लिया, सूचना मिलते ही अंतिम संस्कार में मदद देने जा पहुंचते | वृत कठिन था, छूत के रोग प्लेग की चपेट में आने से कहाँ तक बचते | एक दिन घर में भी चार चूहे मरे दिखे, तो बड़े बेटे महादेव ने अपने जीजा बिन्चुरे को सूचना दी और वे ज्वर से तपते बलीराम जी और पूरे परिवार को आग्रह पूर्वक अपने घर ले गए | लेकिन उससे कोई अंतर नहीं पड़ा, होनी नहीं टली और बलीराम जी अनंत पथ पर रवाना हो गए, उनकी जीवन संगिनी भी उनके साथ ही संसार छोड़ गईं | आश्चर्य की बात यह कि उन्हें प्लेग नहीं था, वे कोई बुखार ग्रस्त भी नहीं थी, था तो केवल संकल्प पति की सहचरी होने का | और इस संकल्प से ही उन्होंने मानो अपना नश्वर शरीर योग समाधि लेकर छोड़ दिया | 

चौदह वर्षीय केशव अब मात्रपित्र विहीन थे | बड़े भाई महादेव की जीवन शैली थी व्यायाम, पुरोहित्य और मित्रमंडली के साथ भंग की तरंग, स्वभाव में भी उग्रता थी, दोनों छोटे भाई अब परिवार में भोजन बनाने सहित अन्य जिम्मेदारियों का बोझ उठा रहे थे | कमाने का काम बड़े भाई के जिम्मे था | केशव सबसे छोटे थे और अध्ययन के लिए उन्हें एक अंग्रेजों द्वारा संचालित नील सिटी हाईस्कूल में भेजा गया | बड़े भाई की इच्छा थी कि वे युगानुकूल शिक्षा प्राप्त कर परिवार में उनका हाथ बटायें | लेकिन केशव तो कुछ और ही ठान चुके थे | वे तो अध्ययन से ज्यादा डॉ. मुंजे के सहयोगी बन चुके थे | अपने मित्रों के साथ मिलकर एक "पैसा फंड" गठित किया, जिसके माध्यम से पर्याप्त राशि संगठनात्मक कार्यों के लिए डॉ. मुंजे को प्राप्त हुई | तिलक जी नागपुर आये तो वे भी तेजस्वी तरुण केशव की पीठ थपथपा कर गए | तिलक जी के केसरी और शिवराम पन्त के काल जैसे समाचार पत्र की प्रसार संख्या बढाने में भी केशव ने अपना योगदान दिया, जो अंग्रेजों को साक्षात कराल काल ही प्रतीत होते थे | 

उन्हीं दिनों केशव दशहरे की छुट्टियों में अपने चाचा आबाजी के पास रामपायली गए | दशहरे के दिन रावण दहन के बाद जब सब लोग वापस जाने को उद्यत हुए, तभी केशव ने दग्ध रावण के निकट ऊंचाई पर खड़े होकर भाषण देना शुरू कर दिया | रावण का पुतला जलाने से कुछ नहीं होने वाला | मुख्य है दुष्ट प्रवृत्तियों का विनाश, जिनका आज शासन है | आज तो राज ही रावण की विचारधारा का है | अगर आपको मेरी बात सही लगती है तो मेरे साथ गाईये भारत माता का स्तुति गान – 

वन्दे मातरम, त्वं हि दुर्गा दश प्रहरण धारिणीं, कमला कमल दल विहारिणीं, वाणीं विद्या दायिनीम नमामि त्वां | इस भाषण का नतीजा यह हुआ कि चाचा आबा जी की सरकारी नौकरी छूट गई | दुर्भाग्य तो देखिये कि जन सामान्य के ह्रदय में अपना स्थान बना चुका, वही वन्दे मातरम आज स्वतंत्र भारत में विवाद का विषय बना दिया गया है | 

खैर तभी स्कूलों में रिस्ले सर्कुलर लागू हुआ, जिसके अनुसार सभा सम्मलेन और जलूसों पर प्रतिबन्ध लग गया | गणेशोत्सव, शिवाजी राज्यारोहण दिवस, रामदास नवमी जैसे आयोजनों पर भी प्रतिबन्ध लग गया | उसी सन्दर्भ में एक दिन एक अंग्रेज अधिकारी स्कूल के इंस्पेक्शन को आया | उसके स्वागत में पूरा स्कूल किसी वैवाहिक समारोह की तरह सजाया गया था | छात्रों को सख्त हिदायत दी गई थी कि सभी साफ़ सुथरे कपडे पहिनकर आयें | लेकिन यह क्या जैसे ही अधिकारी ने कक्षा में प्रवेश किया, पूरी क्लास ने वन्दे मातरम के उद्घोष से उसका स्वागत किया | स्कूल प्रबंधन के हाथ पैर फूल गए | इतने पर ही बस नहीं हुई सर्कुलर के विरोध में बच्चों ने स्कूल में हड़ताल कर दी, कक्षाओं का बहिष्कार, स्कूल जाना बंद | पंद्रह दिन यह आन्दोलन चला | जांच पड़ताल शुरू हुई कि इसके पीछे नेता कौन है | किसने भड़काया है सब विद्यार्थियों को | अभिभावकों को बुलाया गया, उन्हें फटकारा गया, अंग्रेज राज में उन सामान्य गृहस्थों की कहाँ हिम्मत थी उनसे टकराने की | हड़ताल तो टूट गई और साथ ही केशव विद्यालय से निष्कासित हो गए | 

बड़े भाई महादेव के गुस्से का कोई ठिकाना नहीं था, ऐसे में उनके रक्षक बनकर आये वही चाचा आबाजी, जिनकी नौकरी केशव के कारण जा चुकी थी | वे उन्हें अपने साथ रामपायली ले गए और साथ ही कह गए महादेव को – महादेव इसके और हम जैसे सामान्य लोगों के रास्ते बहुत अलग हैं | वे केशव को ले तो आये, लेकिन उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि अब किया क्या जाए | लेकिन तभी विधि का विधान तो देखिये कि लोकनायक के नाम से विख्यात बापूजी अणे भाषण देने रामपायली आये और जब आबाजी ने उन्हें केशव की स्वाभिमानी गाथा सुनाई, तो वे बोले – लगता है तुम्हें स्कूल से निकाला जाना, ईश्वरीय प्रेरणा से हुआ कार्य है, ताकि तुम आपटे गुरू जी का सानिध्य प्राप्त कर सको, उनके यवतमाल स्थित राष्ट्रीय विद्यागृह में जाकर अध्ययन कर सको | उसके बाद की पढाई केशव की यवतमाल में हुई और वहां से जब आगे डाक्टरी की पढाई के लिए कोलकता के लिए ट्रेन में बैठे, तब उन्हें छोड़ने बड़े भाई महादेव भी आये | आवाज रुद्ध थी, बस खिड़की पर रखे केशव के हाथ पर हाथ रखे डबडबाई आँखों से उन्हें निहार रहे थे | कोलकता में एक नया संसार केशव का इंतज़ार कर रहा था | 

युवा क्रांतिकारी 

कोलकता के नेशनल मेडिकल कोलेज के युवा विद्यार्थियों का रुझान सशस्त्र क्रांति की ओर था, प्रायः सभी छात्र अनुशीलन समिति के सदस्य थे, तो भला केशव कैसे दूर रह सकते थे, वे तो आये ही इसी योजना से थे | डॉ.मुंजे ने भी उनके हाथों पुलिनबिहारी घोष के नाम चिट्ठी भेजी थी | वे चिट्ठी लेकर पहुंचे भी लेकिन घोष बाबू ने मिलने से ही इंकार कर दिया और कहलवाया मुझसे तो वही मिल सकता है, जिसने पहले शपथ ग्रहण कर ली हो | केशव ने भी तुरंत जबाबी सन्देश दिया, जब आप कहें तब शपथ लेने को तत्पर हूँ | जल्द ही बुलावा आ गया, शपथ का स्थान और समय तय हुआ – रात ग्यारह बजे श्मशान में | रोंगटे खड़े हुए, कुछ विचित्र भी लगा, लेकिन पुलिन बिहारी घोष और शामबाबू चक्रवर्ती से मिलने की उत्कंठा भी थी, सो राम रक्षा स्तोत्र और हनुमान बाहुक का मनहीमन जाप करते हुए जा पहुंचे निर्धारित समय पर श्मशान | 

बड़ी देर तक जलती हुई चिताओं के समीप प्रतीक्षा करने के बाद पांच लोग वहां आये और शपथ का कार्य संपन्न हुआ | केशव ने शपथ ली मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र क्रांति के पथ पर अग्रसर हो रहा हूँ | देश्धर्म को स्वीकार कर व्यक्तिगत स्वार्थभावना समाप्त कर रहा हूँ, मेरा धर्म, जाति, कर्तव्य एक ही है – मातृभूमि की स्वाधीनता | 

उसके बाद कोलेज की नियमित दिनचर्या के साथ साथ अनुशीलन समिति का कार्य भी शुरू हो गया | जनजागरण के लिए गाँव गाँव घूमते, स्वास्थ केन्द्रों में दवाओं के साथ देशप्रेम की घुट्टी भी पिलाते, जब कभी छुट्टियों में नागपुर लौटते तो डॉ. मुंजे के लिए रिवोल्वर भी लेकर जाते | नए लोगों से परिचय संपर्क हुआ, उनमें से एक थे मौलवी लियाकत हुसैन, लोकमान्य तिलक के पक्के अनुयाई, उम्र साठ से अधिक, लेकिन उत्साह नौजवानों से कहीं ज्यादा | सभाओं में स्वदेशी पर भाषण देते, देश की आजादी के लिए मर मिटने को सदा तत्पर | एक पाँव जेल में तो एक बाहर | दूसरे नए मित्र बने नारायण सावरकर, उनके माध्यम से उनके बड़े भी विनायक सावरकर के लोमहर्षक वृतांत सुनने को मिलते रहते | कैसे क्रांतिकारी कार्यों के कारण पकड़कर भारत लाये जाते समय वे समुद्र में कूद पड़े, महासागर तैर कर अंग्रेजों के चंगुल से बच निकलने का प्रयास किया, किन्तु कैसे फ़्रांस के तट पर पकडे गए और दो दो कालापानी की सजा उन्हें सुनाई गई | उनके तथा अन्य साथियों के मन में तीव्र प्रतिशोध का भाव जागृत होता | 

रत्नागिरी के एक छोटे से कसबे में रहने वाला नौजवान विदेश से बम बनाना सीख कर आया और वापस घर न जाकर कलकत्ता के नजदीक के छोटे से गाँव की अंधेरी काल कोठरी में में रहकर क्रांतिकारियों के लिए बम बनाने लगा | महीनों तक सूरज की रोशनी न देखने के कारण, बीमार हो गया, और अंततः चल बसा | उसने अपना जीवन अँधेरे में गुजारा ताकि देश में स्वतंत्रता का उजाला आ सके | उसकी इच्छानुसार देशभक्त नौजवानों की टोली ने ही उसका अंतिम संस्कार किया | उस समय हर युवक उसके जीवन को सफल हुआ मानकर अनुप्राणित हो रहा था | 

युवाओं की यह टोली जरूरत होने पर सेवा कार्यों में भी जुटती | दामोदर नदी में बाढ़ आई तो रामकृष्ण मिशन के कार्यकर्ता बनकर केशव, नलिनी गोखले, देशपांडे, सुर्वे, यादवराव, तेंडुलकर और बेंकट रमण आदि ने सहायता के हाथ बढाए | एक दिन नदी किनारे बैठे थे, तभी किसी के गाने की ध्वनि कानों में पड़ी | एक युवक गा रहा था – हे प्रियतमे, प्रतीक्षा मत करना मेरी | मत पुकारो मुझे सजनी, प्रतीक्षा मत करना मेरी | केशव पूर्व परिचित थे उस युवक से | क्रांतिवीर जो था वह | लेकिन उसके कंठ से फूटता यह करुण गीत पहली बार सूना था | पूछा तो नौजवान ने बताया – विवाह तय हो गया था, किन्तु उसने अपनी मंगेतर को स्पष्ट कर दिया, मैं तो पहले ही देश धर्म को समर्पित हो चुका हूँ, तुम्हारा साथ नहीं दे सकूंगा | अभिभूत मंगेतर ने कहा कोई बात नहीं, मैं आपकी याद दिल में समाये अकेली जी लूंगी पर विवाह आपसे ही करूंगी | विवाह हुआ, और उस गर्भवती को छोड़कर यह नौजवान कोलकता आ गया, क्रान्तिकार्य हेतु | तो ऐसे क्रांतिधर्मियों के साथ छः साल केशव कोलकता रहे और डॉ. की डिग्री लेकर वापस नागपुर लौटे, पहले से कहीं अधिक देश धर्म के लिए समर्पण का भाव मन में बसाए | 

नागपुर आते ही ज्ञात हुआ कि बड़े भाई महादेव के क्रोधित स्वभाव से परेशान होकर मंझले भाई सीताराम अलग हो चुके हैं और फडनवीस के यहाँ पुरोहिताई कर जीवन यापन कर रहे हैं | एकाध महीना तो सबसे मिलने जुलने में बीता, फिर बड़े भाई ने आग्रह किया भाई मध्यप्रदेश और विदर्भ में कुल मिलाकर बमुश्किल तमाम 75 डॉक्टर ही होंगे | तुम्हें समाज सेवा करना है, शौक से करो, पर कमाना भी शुरू करो | भूखे पेट तो समाज सेवा भी नहीं होगी | केशव को बात जमी भी, किन्तु अभी कुछ निश्चित कर पाते, तब तक एक बार फिर प्लेग की महामारी ने दस्तक दे दी | केशव का पूरा दिन रोगियों की देखभाल में बीतने लगा, सुबह छः बजे से रोग प्रतिरोधक टीके लगाने का काम शुरू होता और देर रात को थक कर चूर डॉ. केशव हेडगेवार घर पहुंचते | एक दिन जब घर पहुंचे तो वातावरण कुछ ज्यादा ही शांत प्रतीत हुआ | यह शांति अकारण नहीं थी, बड़े भाई महादेव भी प्लेग के शिकार बन चुके थे | महादेव शास्त्री ने व्यायाम और कसरत से शरीर को बलिष्ठ बनाया था, उनकी धारणा थी की प्लेग उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता, किन्तु उन्हें जाना ही पड़ा | 

इस समाजसेवी डॉ. की ख्याति बढ़ने लगी तो विवाह के प्रस्ताव आने शुरू हुए | स्वजनों ने समझाया भी कि महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, यहाँ तक कि विनायक दामोदर सावरकर भी विवाहित हैं, तो सामाजिक कार्य में गृहस्थी बाधक नहीं है, विवाह कर लो | किन्तु केशव अडिग थे, भारतवासियों की फूट, अकर्मण्यता, लोलुपता और स्वार्थ भावना उन्हें खाए जा रही थी | उन्होंने लक्ष्य निर्धारित कर लिया था, जब तक समाज जागृत नहीं है, अगर स्वतंत्रता मिल भी गई तो वह स्थाई नहीं होगी | नई पीढी को सुसंस्कारित करना देश की प्राथमिक आवश्यकता है | अतः चाचा आबाजी को लिख भेजा कि बड़े भाई सीताराम के विवाह की चिंता करो, मेरा विवाह का कोई मन नहीं है | 

सीताराम का विवाह हुआ, भोली और सुन्दर किन्तु अनपढ़ रमा देवी से | अल्हड कंजे खेलने वाली रमा घर गृहस्थी की जिम्मेदारी उठाने लगी | यह जिम्मेदारी उन्होंने कैसे उठाई इसका एक उदाहरण कुछ इस प्रकार है | डॉ. साहब ने कम पढी लिखी होने का उलाहना दिया, तो वे आंसू बहाते एक कोने में बैठ गईं | केशव ने मनाने की कोशिश करते हुए कहा भाभी आज मैं खाना बनाकर तुम्हें खिलाऊंगा, तुम आराम करो | यह सुनते ही रोना छोड़कर रमा उठ बैठीं, बोलीं, यह नहीं होगा, खाना तो मैं ही बनाउंगी | केशव ने जिद्द की अरे मुझे बनाना आता है, आपके आने के पहले मैं ही तो बनाता था | आज तो मैं ही बनाऊंगा | रमा बोलीं – ठीक है, आपको बनाना है तो कल बना लेना, आज तो मैं ही बनाउंगी, आप ऊपर जाईये | इन दोनों में यह चकल्लस चल ही रही थी, तब तक सीताराम भैया भारी थैलियाँ उठाये हांफते हुए अन्दर आये और बोले घर में अनाज का दाना नहीं था, कहकर गया था कि मेरे आने के बाद खिचडी पका लेना | 

केशव की आखें छलछला आईं | उन्हें याद आया कि कल चार बाहर के लोगों का घर पर भोजन हुआ था, भैया भाभी ने पता नहीं कल भी बाद में कुछ खाया या नहीं, और आज भी मुझे पता नहीं चल जाए, इसलिए भाभी रसोई में नहीं जाने दे रही थीं | निर्धनता के इस पारिवारिक वातावरण में भी केशव उस राष्ट्रीय मंडल के सदस्य बने, जिसमें लोकमान्य तिलक के अनुयाई डॉ. बा. शि. मुंजे, नीलकंठराव उधोजी, नारायण राव अलेकर, नारायण राव वैद्य, डॉ. मोरूभाऊ अभ्यंकर, गोपालराव ओगले, भवानी शंकर नियोगी, डॉ. ना भा खरे, विश्वनाथ राव केलकर, डॉ. गोविन्दराव देशमुख, चोलकर और डॉ. परांजपे जैसे वरिष्ठ जन थे | नागपुर में श्री बोबडे, विश्वनाथ राव केलकर, बलबंतराव मंडलेकर, चोरघडे तथा ना भा खरे के साथ उन्होंने "नागपुर नॅशनल युनियन" की भी स्थापना की | इतना ही नहीं तो संकल्प नामक हिन्दी समाचार पत्र का प्रकाशन भी प्रारंभ कर दिया | केशव अब डॉ. केशव बलीराम पन्त के नाम से सार्वजनिक जीवन में ख्यात होने लगे | 

कांग्रेस के सत्याग्रही – जेल यात्रा – आरएसएस का शुभारम्भ 

कांग्रेस का अधिवेशन नागपुर में होना तय हुआ और लोकमान्य तिलक ने अध्यक्षता के लिए आने की स्वीकृति दी, तो डॉ. मुंजे, गणपतराव जोशी और बाबा साहब देशपांडे ने गाँव गाँव घूमकर उसकी तैयारी शुरू की | डॉ. मुंजे ने सूचना दी कि तिलक जी न केवल हेडगेवार जी के घर रुकेंगे, अपितु सभा में हेडगेवार जी का भाषण भी होगा | किन्तु तभी बज्राघात हुआ और लोकमान्य तिलक का स्वर्गवास हो गया | तिलक जी की अमोघ और स्पष्ट वाणी बंद हुई तो कांग्रेस में ऊष्णता का स्थान गांधी जी की शीतलता ने ले लिया | देखते ही देखते उनकी अहिंसावादी नीति ने जनमत को अपने पक्ष में कर लिया | डॉ. मुंजे और केशव कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए महर्षि अरविन्द घोष को निमंत्रण देने पांडिचेरी गए, जहाँ महान क्रांतिकारी सामाजिक जीवन से विरत होकर योग साधना में लीन थे | इन दोनों ने सामजिक परिस्थितियों का वर्णन उनसे किया, कैसे रोलेट एक्ट के कारण अंग्रेजों के अत्याचार सीआ पार कर रहे हैं और कैसे देश के मुसलमान तुर्किस्तान के हिमायती बनकर केवल खिलाफत पर जोर दे रहे हैं और कैसे उनके स्वर में स्वर मिलाकर महात्मा जी ने उसे असहयोग आन्दोलन का नाम दिया है | 

किन्तु महर्षि अरविन्द ने स्वीकृति नहीं दी, उन्होंने कहा कि मैंने अपना लक्ष्य निर्धारित कर लिया है और वह है धर्म और संस्कृति | आजादी मिल भी गई तो इसके बिना वह व्यर्थ होगी | वास्तविक स्वतंत्रता तो वह होगी जिसमें हमारी सनातन संस्कृति का दिग्दर्शन हो | सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः | हमारा स्वतंत्र राष्ट्र मानव धर्म पर आधारित हो | चार दिनों के सानिध्य में केशव ने महर्षि अरविंद के मार्गदर्शन कू पूरी तरह हृदयंगम कर लिया | उन्हें समझ में आ गया कि देश के लिए स्वतंत्रता जितनी महत्वपूर्ण है, उतना ही महत्वपूर्ण है, परम्परागत संस्कारों और भारतीय मनीषियों महर्षियों वाली हमारी सांस्कृतिक विरासत को कायम रखना | लौटकर सब लोगों के साथ अधिवेशन की तैयारी में जुटे | उत्साहपूर्ण माहौल में अधिवेशन प्रारंभ हुआ | श्री बढे द्वारा प्रस्तावित गौवध बंदी का प्रस्ताव खारिज हो गया, तर्क दिया गया कि इससे मुसलमानों की भावना को ठेस पहुंचेगी और वर्तमान में हिन्दू मुस्लिम एकता आवश्यक है | नागपुर अधिवेशन में ही प्रजातंत्र को कांग्रेस का ध्येय घोषित किया गया | 

अधिवेशन के बाद असहयोग आन्दोलन के नेता के रूप में स्थान स्थान पर डॉ. साहब के भाषण शुरू हुए – एक देश के लोगों का दूसरे देश पर शासन करना जुल्म है, अन्याय है, अत्याचार है | अंग्रेजों को क्या हक़ है, हमारे देश पर शासन करने का ? इस पावन हिन्दूभूमि के पुत्रों को गुलाम बनाकर उनका यह कहना कि हम हिन्दुस्तान के मालिक हैं, न्याय नीति और धर्म की हत्या नहीं तो क्या है ? चेचक के दागों से भरा घनी मूछों वाला सांवला चेहरा, जरी किनारे वाली धोती, काला कोट पहने, सर पर ऊंची गोल टोपी, हाथ में छडी और बोलते समय एक एक वाक्य से झरता ओज, लोग मंत्रमुग्ध हो जाते | जल्द ही शासन की वक्र दृष्टि हुई | वारंट निकला, गिरफ्तारी हुई और शुरू हुआ नागपुर के न्यायाधीश सिराज अहमद की अदालत में मुक़दमा | डॉ. साहब ने अपना पक्ष स्वयं रखा | ३१ मई से १९ अगस्त तक मुक़दमा चला | आरोपी से कठघरे से अपना पक्ष रखते हुए डॉ. साहब के जो भाषण हुए, उन्हें सुनकर और उनके द्वारा प्रस्तुत लिखित बयान अधकार न्यायाधीश ने टिप्पणी की कि आरोपी का बचाव मूल अपराध से कहीं ज्यादा संगीन है | डॉ. साहब को एक वर्ष सश्रम कारावास का दंड सुनाया गया | 

जेल में अन्य आन्दोलनकारियों के साथ एक काजी इनामुल्ला भी थे | वह प्रतिदिन ऊंची आवाज में कुरआन की आयतें पढ़ते, एक दिन डॉ. साहब ने उनसे कहा भाई कमसेकम जो बोलते हो उसका अर्थ भी तो बता दो, जिससे हमें भी अच्छा लगे | उसने कटु स्वर में जबाब दिया, ना तो मुझे अपने धर्म का ज्ञान देना और न तुम्हारे धर्म का ज्ञान लेना | बात आई गई हो गई | डॉ. साहब अपने को दिया गया काम पूरी लगन से करते, रात को कैदियों को रामायण महाभारत की कथाएं सुनाते, जेलर नीलकंठराव जठार उनसे सहज प्रभावित होते चले गए | वे अक्सर समय निकालकर उनसे सहज चर्चा करने आ जाते | उन्होंने डॉ. साहब को पढने के लिए पुस्तकें भी उपलब्ध कराईं | औरों की बात जाने दें, हर समय सबसे झगड़े पर आमादा रहने वाला काजी इनमुल्ला भी बोला – मैं बहुत ध्यान से आपकी बातें सुनता रहा हूँ | मेरे मन में कृष्ण को लेकर यह भाव था कि यह कैसा व्यक्ति था, जो कहता था, मेरी शरण में आ जाओ, अपने आप को खुद बड़ा कहता है, लेकिन जैसे जैसे आपको सुना तो बात समझ मैं आई | कृष्ण स्वयं को बड़ा नहीं कहते, वे जब कहते हैं कि मैं सर्वत्र हूँ, सबमें हूँ, तब उस परमात्मा के विषय में कहते हैं | शायद इसीलिए रसखान श्रीकृष्ण को अपना पति और स्वयं को उनकी पत्नी कहते थे | उसने कबीर का एक पद भी गाया – अंतरजामी एक तुम, आलम के आधार, जो तुम छोडो कबीरा, तो कौन उतारे पर | तो इस प्रकार सबको अपना बनाते बीता डॉ. साहब का जेल जीवन | 

बाहर निकल्रे तव तक गांधी जी का असहयोग आन्दोलन उनके पकडे जाने के बाद अपने आप बंद हो चुका था, उसे समाज ने कोई मान्यता नहीं दी | डॉ. साहब सोचने लगे कि इतना बड़ा आन्दोलन क्या एक व्यक्ति के कारण चल रहा था, हमारे समाज में स्वतः स्फूर्ति क्यों नहीं है ? उन्हें असहयोग आन्दोलन के नाम पर केरल में हुए मोपला विद्रोह की भी जानकारी मिली, कैसे वहां हिन्दुओं पर अत्याचार हुए, पंद्रह सौ हिन्दुओं का कत्ले आम हुआ, बीस हजार लोगों का बलात धर्म परिवर्तन करवाया गया, हिन्दू महिलाओं के साथ पाशविक बलात्कार हुए, और कांग्रेस ने इन सब घटनाओं को नकारते हुए, सामान्य माना | यह कैसी हिन्दू मुस्लिम एकता है ? उन्होंने एक दिन समीउल्ला से पूछा – सब कांग्रेसी खादी की सफ़ेद टोपी पहनते हैं, यहाँ तक कि मैंने भी अपनी काली टोपी छोडकर उसे ही पहनना शुरू कर दिया है, फिर आप कांग्रेसी होते हुए भी जालीदार तुर्की टोपी क्यों पहनते हैं ? 

उसके जबाब ने उन्हें चोंका दिया | वह बोला – मैं पहले मुसलमान हूँ, बाद में कांग्रेसी | यह टोपी हमारी राष्ट्रीयता की पहचान है | डॉ. साहब ने सोचा, जो लोग भारत में रहकर तुर्की टोपी को राष्ट्रीयता का प्रतीक मानते हैं, उनकी दम पर स्वाधीनता संभव नहीं ! नागपुर की एक सभा में मेंढक छूटे तो लोग सांप सांप चिल्लाकर भागने लगे ! भगदड़ मच गई ! डाक्टर साहब ने सोचा सब साथ में फिर भी अकेलेपन का भाव क्यों ? एक गली में आठ लोग जा रहे थे ! सामने से दो मुसलमानों को आते देखकर पीछे लौटने लगे ! ये आठ भी अकेले और वो दो पूरे मुसलमान ! हिन्दू स्वयं को अकेला समझता है, इसे कैसे दूर किया जाये ? 

तभी एक और घटना घटी | गणेश पैठ के गणेश उत्सव मंडल के सामने ही एक मस्जिद का निर्माण हुआ | किसी ने आपत्ति भी नहीं की, उलटे भोंसले राजपरिवार सहित अन्य हिन्दुओं ने मदद ही की | किन्तु मस्जिद बनते ही, मुसलमानों ने जिद्द की कि मस्जिद के सामने से कोई जुलूस न निकले, कोई वाद्य न बजे | सामने ही गणेश मन्दिर है, वहां पूजा के समय वाद्य घन्टे मंजीरे न बजें, भला यह कैसे संभव था | राजे लक्ष्मण राव भोंसले ने भी समझाने की कोशिश की, पर वे मानने को तैयार ही नहीं हुए | एक सभा मंच से डॉ. साहब ने गरजकर हिन्दुओं से कहा – तुम्हारे संयम और धैर्य के कारण ही यह स्थिति निर्मित हुई है | हम अपने ही घर में पराये होते जा रहे हैं | आप संगठित नहीं है और होना भी नहीं चाहते | तो फिर इन्तजार क्यों, अपने पुरखों का धर्म छोडो और आज ही इस्लाम या ईसाई मत स्वीकार कर लो | हिन्दू निर्वीर्य हो चुके हैं | 

यह कहते हुए जैसे ही डॉ. साहब जैसे ही सभामंच से नीचे उतरने को उद्यत हुए, सभा में कोलाहल हो गया | कई लोग आगे बढे और कहने लगे, हमसे भूल हुई है, किन्तु अब हम दिखा देंगे कि हम कायर नहीं हैं, आप जैसा कहेंगे, अब बैसा ही होगा | और उसके बाद जब गणेश विसर्जन के चल समारोह में समूचा नागपुर मानो सडकों पर उमड़ आया, तो किसी की हिम्मत ही नहीं हुई उसे रोकने टोकने की | देश भर में ऐसे माहौल का समाचार पाकर महात्मा गांधी ने जेल में ही हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए उपवास प्रारंभ कर दिया | देश में कई लोग हैरत में थे कि जिन लोगों ने इतनी अमानुष हत्याएं कीं, उन्हें दण्डित करने की मांग के स्थान पर उनके ह्रदय परिवर्तन हेतु स्वयं को सजा देना और जो हिन्दू महात्मा जी को प्रेम करते हैं, उनका जीवन संकट में डालना कहाँ की समझदारी है, कैसी न्याय बुद्धि है यह ? ऐसी अहिंसा का क्या अर्थ निकलेगा ? यह सत्याग्रह है अथवा दुराग्रह ? डॉ. साहब को भी अप्रिय तो लगा, किन्तु गांधीजी के प्रति उनका श्रद्धाभाव कम नहीं हुआ, किन्तु उन्होंने कांग्रेस कार्यकर्ता बने रहते हुए ही हिन्दुओं को संगठित करने के लिए काम करने का मानस बना लिया | सभी समविचारी साथियों के साथ विचार विमर्श के बाद अंततः सन १९२५ में दशहरे के दिन भाऊ जी काबरे, अन्ना सोहनी, विश्वनाथ राव, बालाजी हुद्दार, बापूराव सहित तीस चालीस युवक घर के कमरे में एकत्रित हुए | किसी ने गणेश स्तवन गाया, किसी में मातृभूमि की वंदना का गीत गाया, फिर डॉक्टर साहब का उद्बोधन हुआ | 

आज हम सभी अपनी संगठना का शुभारम्भ कर रहे हैं | दुर्बल शरीर में विचार भी दुर्बल ही होते हैं | एक ज्योति से घर का अँधेरा दूर होता है, हर घर में ज्योति जले तो पूरे गाँव या शहर, प्रांत या देश का अँधेरा दूर होता है | हम आज अपने सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के समक्ष अखंड नंदा दीप प्रज्वलित कर रहे हैं | प्रिय मित्रो, युवको, साथियो, सेवाभावी स्वयंसेवको, क्या यह नंदा दीप आपके हाथों में सोंप सकता हूँ ? जहाँ तक मेरा सवाल है, अपनी अंतिम सांस तक, प्राणों की बाजी लगाकर सारे तूफानों, बवंडरों में इसे प्रज्वलित रखूंगा | कहते कहते डॉक्टर साहब भावुक हो गए | 

संघ कार्य ईश्वरीय कार्य - महामानव का महाप्रयाण 

संगठन बन तो गया, लोग जुड़ने भी लगे, किन्तु अब संगठन का नाम क्या रखा जाए, इस पर विचार शुरू हुआ | कुछ दिनों बाद डॉक्टर साहब के घर पर विचार विमर्श हेतु छब्बीस लोग एकत्रित हुए | अनेक नाम सुझाए गए, किसी ने कहा महाराष्ट्र स्वयंसेवक संघ, तो किसी ने जरीपटका मंडल तो किसी ने भारतोद्धारक मंडल | डॉक्टर साहब न मुस्कुराते हुए सभी के अभिमत सुने और फिर कहा, महाराष्ट्र स्वयंसेवक संघ क्यूं, हिन्दू संगठन की आवश्यकता क्या केवल महाराष्ट्र में है ? यह तो पूरे देश में करणीय कार्य है | जरी पटका से भी पेशवाई और केवल शनिवार वाडे पर लहराते जरी पटके का बोध होता है | मुझे लगता है आसेतु हिमाचल संगठन खड़ा करने के लिए स्वयं की इच्छा से राष्ट्रसेवा का पथ अंगीकार करने वाले स्वयंसेवकों का संगठन अर्थात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम अधिक उचित होगा | सभी ने इस नाम पर सहमति जताई | 

धीरे धीरे युवकों में संघ का आकर्षण बढ़ने लगा | उन्हें लाठी तलवार जम्बिया चलाने का प्रशिक्षण व अनुशासन की शिक्षा दी जाने लगी | आदितवार दरवाजा स्कूल का मैदान कम पड़ने लगा तो छोटे किले के समान मोहिते की हवेली डॉ. परांजपे ने प्रदान कर दी | तभी एक प्रसंग ने डॉक्टर साहब को द्रवित कर दिया | अधिकाँश स्वयंसेवक ब्राह्मण ही थे | एक नौजवान दूर दूर से इनको देखता रहता, सुगठित शरीर, सौम्य मुखाकृति | मोहिते की हवेली का मैदान जब साफ़ किया जा रहा था, तब वह पास आया और बोला, आप यह काम न करें, यह मैं ज्यादा अच्छे से कर सकता हूँ | डॉक्टर साहब ने प्रसन्नता पूर्वक अनुमति दी और कार्य समाप्त हो जाने के बाद उसे गले लगाना चाहा तो वह दूर छिटक गया, बोला मुझे पाप न चढ़ाएं, मैं अछूत हूँ, सफाई कर्मी हूँ | डॉक्टर साहब ने कहा, तुम पूरे शहर को स्वच्छ करते हो, तुम अछूत कैसे हो सकते हो ? तुम्हारा नाम क्या है ? 

युवक ने जबाब दिया – डॉक्टर साहब मेरा नाम दगडू है, मेरा कोई नहीं है, न मां न पिता | आप भले छुआछूत न मानें, किन्तु यह संस्कार मेरी नस नस में समाया हुआ है | मैं स्वयं ही घुलमिल नहीं सकता | आप मुझे अपना मानें, मेरे लिए यही बहुत है | डॉक्टर साहब गदगद हो गए | वह युवक नहीं रुका, चला गया | 

उसके बाद आठ दस दिन वह नहीं दिखा तो, डॉक्टर साहब उससे मिलने को आतुर हो उठे, कहीं बीमार तो नहीं पड़ गया दगडू ? वे उसके विषय में पूछते ताछते मस्कासाथ स्थित झोंपड पट्टी जा पहुंचे | एक स्त्री ने बताया कि आठ दस दिन पूर्व सांप के काटने से उसकी मृत्यु हो गई | उसका कोई नजदीकी था नहीं, केवल एक कुत्ता था | उसके मरने के बाद कुत्ते ने भी कुछ नहीं खाया पिया और आज सबेरे वह भी मर गया | आगे कुछ सुनने के लिए डॉक्टर साहब वहां नहीं रुके | आख्नें छलछला रही थीं और सोच रहे थे कि दगडू सांप के काटने से मरा, या उसका मन ही जात पांत के बंधनों से ऊब गया था ? और यहीं से वह बीज पड़ गया, हम सब हिन्दू एक | न हिन्दू पतितो भवेत | कोई हिन्दू पतित नहीं, सबमें उसी ईश्वर का वास, सब समान, जाती गौण, हिंदुत्व प्रमुख | 

उन्हीं दिनों में स्वामी श्रद्धानंद की दिल्ली में जघन्य हत्या हो गई | उसका दोष केवल इतना था कि जबरन मुसलमान बनाए गए हिन्दुओं को उन्होंने पुनः हिन्दू बनाने का अभियान चलाया हुआ था | जन जागरण द्वारा उन्हें समाज मान्य भी करवा रहे थे | डॉक्टर साहब को यह दुःख इसलिए भी अधिक कष्ट दे रहा था, क्योंकि हिन्दू समाज में तो उस ह्त्या के विरुद्ध कोई उबाल नहीं आया था | इसके विपरीत उनके हत्यारों के चित्र दिल्ली के हर चौक हर बाजार में विजय प्रतीक के रूप में बेचे जा रहे थे | उन्हें लगा कि नागपुर में भले ही संघ द्वारा खड़े किये गए हिन्दू संगठन के कारण काफी हद तक हिन्दू निर्भय हो गए हैं, किन्तु अब इस कार्य की आवश्यकता शेष भारत में भी है | फिर आयोजित हुआ प्रथम ग्रीष्मकालीन अधिकारी प्रशिक्षण वर्ग, जिसमें सोलह स्वयंसेवकों ने आत्मरक्षा के साथ दूसरों की रक्षा करने में भी सिद्धता पाने का प्रशिक्षण लिया | अन्ना सोहनी तथा मार्तंडराव जोग ने इसके लिए भागीरथ प्रयत्न किये | आज इन वर्गों को संघ शिक्षा वर्ग कहा जाता है | 

यह हिन्दू संगठन कार्य आतताईयों को पसंद नहीं आ रहा था, एक दिन जब डॉक्टर साहब गणेशोत्सव के भाषण के सिलसिले में चांदा और वणी इलाके में गए थे, उनके घर पर हमला हो गया | अटारी के खप्पर, घर के दरवाजे और खिड़कियाँ सब तोड़ दी गईं | गरीबी में गीला आटा | अतिशय निर्धनता में जीवन यापन कर रहे सीताराम भैया और भाभी रमा के माथे पर इसके बाद भी सिकन नहीं आई | डॉक्टर साहब घर पहुंचे तो खाने के लिए और कुछ भी नहीं था, भाभी दूध में घोलकर सत्तू और गुड ले आईं | भावुक डॉक्टर साहब का संकल्प और दृढ हो गया | कभी किसी का घर न लुटे, टूटे या उजड़े, इसके लिए हिन्दू संगठन ही एकमात्र उपाय है | 

संघ कार्य प्रारंभ होने के बाद भी डॉक्टर साहब मध्यप्रदेश कांग्रेस की कार्यकारिणी के सदस्य थे | अतः उन्हें कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन का आमंत्रण मिला और वे गए भी | कोलकता में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ गंगा तट पर लम्बी वार्ता हुई | नेताजी की विदेशी शक्तियों से सहायता लेकर देश को आजाद कराने की योजना उनके गले नहीं उतरी | देश को स्वाधीनता तो देशवासियों के संगठन से ही प्राप्त हो सकती है, अपना यह मत उन्होंने नेताजी के सामने स्पष्टता से रखा | जबकि नेताजी यह मानने को तैयार नहीं थे कि भारत के हिन्दू कभी संगठित भी हो सकते हैं | अंत में दोनों इस बात पर एकमत हुए कि अपने अपने ढंग से दोनों कार्य चलते रहें, जिससे भी सफलता मिल जाए | 

डॉक्टर साहब के संपर्क में आये अच्छे घरों के योग्य बच्चे प्रचारक बने ! भैयाजी दाणी और भाऊ साहब देवरस को पढ़ने के लिए वनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में काशी भेजा तो मूल उद्देश्य संघकार्य ही था | प. मदन मोहन मालवीय जी का आशीर्वाद साथ था ! बाला साहब कलकत्ता गए तो दादाराव परमार्थ दक्षिण ! उन्हें तमिल नहीं आती थी ! अब कार्य प्रारम्भ कैसे किया जाए तो एक दिन जानबूझकर किराए की साईकिल लेकर एक अन्य साईकिल सवार से भिडा दी ! जब तक वो ठीक नहीं हुआ रोज उसके घर मिलने जाते रहे और इस बहाने उसे संघ कार्य की घुट्टी पिला दी ! 

वर्धा के दिगंबर राव तिजारे उज्जैन आये ! महाकाल मंदिर में दर्शन किये ! भंडारे में प्रसाद ग्रहण किया ! पर मुख्य बात शाखा लगना कैसे शुरू हो ? मंदिर के सामने मैदान में कुछ बच्चे फ़ुटबाल खेलते दिखे ! पर समस्या यह कि उनसे बातचीत कैसे शुरू हो ? इन्हें हिन्दी नही आती और खिलाड़ियों को मराठी का ज्ञान नही था ! अचानक फ़ुटबाल इनकी तरफ आई ! इन्होने उसे पकड़ लिया ! सब बच्चे आये और फुटबाल माँगी ! इन्होने कहा नहीं दूंगा, पहले मेरी बात सुनो ! बच्चों ने मारना शुरू कर दिया ! बच्चों की मार से तिजारे जी के वलिष्ठ शरीर पर क्या असर होता ? चुपचाप पिटते रहे और कहते रहे कि भले मार लो, पर फुटबाल तभी मिलेगी, जब मेरी बात सुन लोगे ! थक कर बच्चों ने कहा, कहो क्या कहना चाहते हो ! बस तिजारे जी फूट पड़े ! भारत माता जंजीरों में जकड़ी हुई है और तुम खेल खेलने में लगे हुए हो ! क्या तुम्हे माँ की मुक्ति का प्रयत्न नही करना चाहिए ? बच्चों ने पूछा भला हम लोग क्या कर सकते हैं ! इन्होने जबाब दिया संगठित होकर देशसेवा करना चाहिए ! संघ की शाखा लगाना चाहिए ! फिर क्या था हो गई उज्जैन में शाखा शुरू ! जो वालक पहला स्वयंसेवक बना बह थे राजाभाऊ महाकाल ! जो आगे चलकर संघ के प्रचारक बने और गोआ मुक्ति आंदोलन में शहीद हुए ! 

जिन दिनों संघ के शिक्षा वर्ग प्रारंभ होने थे, उन्हीं दिनों गांधी जी का नमक सत्याग्रह शुरू हुआ | डॉक्टर साहब ने स्वयं भी भाग लेना तय किया | हर जगह नमक तो होता नहीं है, अतः महाराष्ट्र में यह सत्याग्रह जंगल सत्याग्रह कहलाया | हाथ में गंडासा लिए डॉक्टर साहब ने यवतमाल के जंगल में प्रवेश किया तो जीवन में दूसरी बार उन्हें कारवास मिला | २१ महीने जेल की सजा सुनाई गई ! अनेक परिचित लोग मिले तो आनंद हुआ | अनेक नए मित्र भी बनाए और संघ का मन्त्र सबके मनों में उतारकर रिहा हुए | विरोधियों को भी अपना बना लेना उन्हें आता था ! छूटने के बाद लौटे तो घर तो जैसा था बैसा ही था, ढहती दीवारें, हिलती चौखटें, चरमराती सीढियां, खाली पड़े कनस्तर, जर्जर गाय, ठिठुराती सर्दियों में अटारी की टूटी खिड़की से आती वर्फीली हवाएं, लालटेन की फडफडाती लौ | ऐसी निर्धनता में भी अथक परिश्रम करते डॉक्टर साहब का स्वास्थ्य बिगडने लगा | टांगों में दर्द बढ़ने लगा | मन में केवल एक ही कसक थी, मेरे बाद कौन संघ कार्य को बढ़ाएगा | फिर सोचते यह तो ईश्वरीय कार्य है, गीता में स्वयं श्रीकृष्ण ने कहा है - परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम, धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे | संघ भी तो वही कर रहा है, तो हुआ ना उनका ही कार्य, क्या वे चिंता नहीं करेंगे | और एक दिन जब सुबह घूमने निकले तो हाथ में पकड़ी छडी छूट गई, लडखडाये, लेकिन गिरने के पहले ही किसी ने संभाल लिया | सामने एक गौरवर्णी तेजस्वी युवक खड़ा था | डॉक्टर साहब ने तुरंत पहचान लिया, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में जब महामना मालवीय से मिलने गए थे, तभी माधव गोलवलकर से परिचय हुआ था | उस दौरान डॉक्टर साहब कुछ नामचीन लोगों को संघ की प्रतिज्ञा संबंधी जानकारी दे रहे थे, तब कुछ लोगों ने तन मन धनपूर्वक के स्थान पर यथाशक्ति करने का सुझाव दिया | बैठक में उपस्थित गोलवलकर जी ने तुरंत डॉक्टर साहब के स्थान पर आपत्ति कर्ताओं से कहा – यह एक संगठन की प्रतिज्ञा है, स्वीकार है तो "हाँ" कहिये अन्यथा "ना" करिए | बैसे भी यथासंभव में टालमटोल की गुंजाईश होती है, अतः अगर विचार के प्रति पूर्ण समर्पण है तो यथासंभव का क्या औचित्य | डॉक्टर साहब बहुत प्रभावित हुए थे और अकस्मात् माधव को सामने देखकर उन्हें लगा कि यही हो सकता है उनके स्थान पर संघ कार्य संभालने वाला | लेकिन माधव के मन में तो संन्यास बसा था, वे सारगाछी जाकर गुरूजी कहलाने लगे ! उनके गुरू अखंडानंद जी ने कहा इसको हिमालय मत जाने देना, रामकृष्ण मिशन भी मत जाने देना, यह तो डाक्टर साहब के साथ जनता को जनार्दन मान सेवा करेगा ! डाक्टर साहब उच्च रक्तचाप से पीड़ित हुए ! रीढ़ की हड्डी में लम्बर पंक्चर कर उसे नियंत्रित किया जाता ! बाद में तबियत ज्यादा खराब होने लगी ! साथ में श्री गुरूजी ! अचेतावस्था में भी डाक्टर साहब बुदबुदाते – देरी हो गई, देरी हो गई ! बहां शाखा खुलनी थी, नहीं खुल सकी ! बीमारी के सन्निपात में भी उनका बडबडाना गुरूजी आँखों में अश्रु लिए सुनते ! तब गुरूजी को संघ समझ आया और वे भी संघमय हो गए ! 

भगवान श्री कृष्ण को अर्जुन के केश धोता देख नारद अचंभित हुए ! भगवान ने नारद से उन केशों से कान लगाने को कहा ! केशों से भी कृष्ण कृष्ण की ध्वनि निकल रही थी ! डाक्टर साहब के भी रोम रोम से संघ बोलता था ! बह देखकर गुरूजी ने भी स्वयं को पूर्णतः समर्पित कर दिया ! अंतिम क्षणों में भी भाव अंतरण ! उसी दिन रात को डाक्टर साहब ने गुरूजी से कहा – यह शरीर अब ज्यादा टिकने बाला नहीं ! स्वीकार करो कि संघ कार्य करोगे, फिर शरीर के साथ जो करना हो करो ! 

थे अकेले आप लेकिन, 

बीज का था भाव पाया ! 

बो दिया निज को, 

अमरवट संघ भारत में उगाया ! 

राष्ट्र ही क्या अखिल जग का, 

आसरा बन जाए ! 

और उसकी हम टहनियाँ, 

पत्तियाँ बन जाएँ !

आर्य समाज का जन्म

Posted: 07 Jan 2021 06:06 AM PST




यह तो सर्वज्ञात ही है कि किस प्रकार मोरवी गुजरात के एक छोटे से गाँव टंकारा में शिवरात्रि पर पूजन के दौरान शिवलिंग पर चुहिया को चढ़ते देख एक किशोर को मूर्तिपूजा से विरक्ति हुई, और आगे चलकर बही किशोर मूलशंकर आगे जाकर स्वामी दयानंद सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए | १८२४ में अर्थात भाद्रपद कृष्णपक्ष सम्वत १८८१ को औदीच्य ब्राह्मण करसन लाल जी तिवारी के घर जन्मे इस तेजस्वी बालक ने घर में ही रहकर संस्कृत और धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया था | यहाँ तक की चौदह वर्ष की आयु में ही यजुर्वेद संहिता सहित वेदों के पाठ भी सम्पूर्ण हो गए थे | 

जिस समय युवा मूलशंकर निराकार और साकार ब्रह्म को लेकर अपने मन में उठ रहे सवालों के जबाब ढूंढ रहे थे, प्रतिमा के स्थान पर साक्षात शिव को तलाश रहे थे, उस समय अंग्रेज शासक ईसाई मिशनरियों के माध्यम से हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों को आधार बनाकर हिन्दू धर्म पर सीधा आक्रमण कर रहे थे | उनका उद्देश्य एक ही था, ज्यादा से ज्यादा धर्मान्तरण करवा कर, हिन्दुओं को ईसाई बनाना और इस प्रकार अपनी सत्ता की जड़ें मजबूत करना | 

इसे समझकर ही आगे चलकर स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र को स्वामी विवेकानंद बनाया जिन्होंने हिंदुत्व के प्रति उपजी नकारात्मकता के स्थान पर उसकी श्रेष्ठता न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में प्रतिस्थापित करने में सफलता पाई | 

प्रकारांतर से यही कार्य स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी किया | अपनी प्रिय बहिन और चाचा जी के निधन ने उनके मनोमस्तिष्क में सवाल और बढ़ा दिए थे | ईश्वर का वास्तविक स्वरुप क्या है, के साथ साथ अब मृत्यु क्यों होती है, क्या इससे बचा नहीं जा सकता | और १८४६ में अपने सवालों का जबाब ढूँढने हेतु २२ वर्षीय दयानंद ने उस समय स्थाई रूप से घर छोड़ दिया जब मातापिता उन्हें विवाह बंधन में बांधने को उद्यत थे | उसके बाद शुरू हुआ, साधू सन्यासियों से मिलने और उनसे संवाद का दौर | इसी बीच एक ब्रह्मचारी ने उन्हें काषाय वस्त्र धारण करवा कर नया नाम भी दे दिया – शुद्ध चैतन्य | अहमदावाद के नजदीक सिद्धपुर नामक स्थान पर नीलकंठ महादेव मंदिर पर पिता ने आखिर इन्हें खोज ही लिया | सिपाहियों के साथ घर को रवाना किया, किन्तु मार्ग में ही चकमा देकर फिर भाग निकले | इन्हें तो अमरत्व पाना था, फिर नश्वर जगत से कैसा मोह ? उसके बाद फिर शुरू हुआ साधू सन्यासियों ब्रह्मचारियों से मिलने और ज्ञान चर्चा का दौर | अंत में एक महाराष्ट्रियन दंडी स्वामी पूर्णानंद सरस्वती ने इन्हें संन्यास की दीक्षा देकर "दयानंद सरस्वती" नाम दे दिया | उसके बाद स्वामीजी ने योग, व्याकरण और शास्त्रों का अध्ययन जारी रखा | एक ही लक्ष्य था सीखना और आगे बढ़ना | 

सच्चे शंकर की खोज में नागाधिराज हिमालय की भी रोमांचक यात्रा की | वहां तांत्रिक ग्रंथों के अनुशीलन के दौरान मांस मदिरा और स्त्री विषयक उल्लेख पढ़ मन को और भी खेद हुआ | 

रूद्र प्रयाग, केदारनाथ, गुप्तकाशी, त्रियुगीनारायण होते हुए शीतकाल में अकेले ही हिमालय की वन कंदराओं में घूमे कि शायद कोई ग्यानी ध्यानी साधू मिल जाए और उससे कुछ ज्ञान प्राप्त हो जाए | किन्तु अनेक कष्ट सहकर भी निष्कर्ष यही निकला कि वेद, उपनिषद, पातंजल और सांख्य शास्त्र के अतिरिक्त कहीं कुछ सार तत्व नहीं है | 

एक विशेष बात ध्यान देने योग्य है | महर्षि दयानंद सरस्वती की हस्तलिखित आत्मकथा उपलब्ध है, लेकिन उसमें १८५७ से लेकर १८६० तक की कोई चर्चा नहीं है | अनेक लोगों का मानना है कि उस दौरान वे क्रांतिकारी सन्यासी की भूमिका में थे, यद्यपि इसके अकाट्य तथ्य नहीं मिलते | १८५७ में नर्मदा का उग्द्गम देखने भीषण वनों में रीछ और हाथियों का सामना करते हुए वे आगे बढे, इसके बाद उनकी आत्मकथा में केवल यह उल्लेख मिलता है कि १४ नवम्बर १८६० को उनकी विरजानंद जी से मथुरा में भेंट हुई | 

विरजानंद जी की वेदादि आर्य ग्रंथों में प्रगाढ़ आस्था थी, किन्तु शेखर, कौमुदी आदि आधुनिक पुस्तकों के प्रति बड़ी अश्रद्धा थी | ८१ वर्षीय विरजानंद अंधे थे, किन्तु व्यक्ति पहचानने की उनमें अद्भुत क्षमता थी | उनके पास रहकर स्वामी जी ने ग्रंथों का अध्ययन प्रारंभ किया | ढाई वर्ष तक वहां रहकर उन्होंने अध्ययन किया और विदा लेते समय गुरू दक्षिणा स्वरुप कुछ लोंग विरजानंद जी के चरणों में समर्पित कीं, क्योंकि धन तो वे लेते ही नहीं थे | विरजानंद जी मुस्कुराकर बोले – दयानंद मुझे लॉन्ग नहीं चाहिए, लेकिन जो चाहिए, वह केवल तुम ही दे सकते हो | 

दयानंद बोले – आदेश कीजिए गुरू जी | 

विरजानंद ने धीर गंभीर स्वर में बोले – मैं तुमसे तुम्हारे जीवन की दक्षिणा चाहता हूँ | प्रतिज्ञा करो कि आर्यावर्त में अनार्ष ग्रंथों की महिमा स्थापित करोगे और भारत में वैदिक धर्म की स्थापना में अपने प्राण तक अर्पित कर दोगे | 

उसी क्षण दयानंद जी ने चरण छूकर उनका आदेश शिरोधार्य किया | उसके बाद स्वामी जी दो वर्ष आगरा में रहे, फिर ग्वालियर होकर जयपुर पहुंचे, जहाँ उनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर जयपुर नरेश उनके सहयोगी बन गए | १८५५ के हरिद्वार कुम्भ में उन्होंने अपने वस्त्र फाडकर एक पताका तैयार की और उस पर लिखा – पाखण्ड खंडिनी | उसे अपनी कुटिया पर फहराकर अधर्म अनाचार और शोषण के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी | कुम्भ के बाद पूरे देश में घूमकर उन्होंने वेद, शास्त्र, ब्रह्मचर्य, पराविद्या और सत्वगुण का प्रचार तथा पुराणादि ग्रंथों, मूर्ति पूजा, तंत्र में वर्णित वाम मार्ग, भांग आदि नशे का विरोध शुरू कर दिया | उनकी भाषा संस्कृत थी, इसलिए आमजन तो उनकी बात नहीं पहुँच पा रही थी, किन्तु पंडित वर्ग उनसे परेशान हो गया | १६ नवम्बर १८६९ को "मूर्तिपूजा वेदोक्त है अथवा नहीं" इस विषय पर काशी में एक शास्त्रार्थ का आयोजन हुआ, जिसमें काशी नरेश की अध्यक्षता में एक ओर तो अकेले महर्षि दयानंद सरस्वती थे, और दूसरी ओर उस युग के प्रकांड पंडित स्वामी विशुद्धानंद, बालशास्त्री, माधवाचार्य और तारचरण आदि थे | उस शास्त्रार्थ को लेकर पायोनियर और पैट्रियट आदि समाचार पत्रों ने आलेख प्रकाशित किये | ऐसे शास्त्रार्थों में कौन जीता कौन हारा, यह कहना कठिन होता है, किन्तु इस शास्त्रार्थ के बाद प्रयाग मिर्जापुर आदि स्थानों पर भ्रमणकर स्वामी जी जब एक बार फिर बनारस पहुंचे तो काशी नरेश ने उन्हें अपने राजमहल में आमंत्रित कर स्वर्ण सिंहासन पर आसीन करवाया | बनारस में तीन माह रहने के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार होते हुए जब वे कोलकता पहुंचे, तो वहां कई विद्वानों के साथ उनका विचार विमर्श हुआ और उसकी परिणति यह हुई कि उन्होंने संस्कृत के स्थान पर अपना उद्बोधन हिन्दी में देना प्रारंभ कर दिया | बाद में सत्यार्थ प्रकाश भी उन्होंने हिन्दी में ही लिखा | साथ ही उनकी वेशभूषा भी बदल गई और उन्होंने धोती कुडता दुपट्टा पहनना शुरू कर दिया | स्वाभाविक ही अब स्वामी जी के विचार आम जनता तक भी पहुँचने लगे और उनका प्रभाव भी तेजी से बढ़ने लगा | 

२९ जनवरी १८७५ को वे मुम्बई पहुंचे, स्थानीय विद्वतसमाज ने उनका पलक पांवड़े बिछाकर स्वागत किया | मुम्बई में ही उसी वर्ष सम्वत १९३१ की वर्ष प्रतिपदा को आर्य समाज की स्थापना उन्होंने की, जिसके प्रारंभिक सदस्यों में शामिल थे – श्याम जी कृष्ण वर्मा, जिन्होंने बाद में इंग्लेंड में जाकर क्रांतिकार्यों का श्रीगणेश किया | तो इस प्रकार भारतीय नववर्ष आर्य समाज का भी जन्म दिवस है, इसीलिए नववर्ष की कहानियों में हमने इसे भी सम्मिलित किया है | 

आखिर अंग्रेज सरकार तक जन जाग्रति के यह स्वर कब तक नहीं पहुंचते | स्वामी जी की मृत्यु जिन परिस्थितियों में हुई, उससे भी यही आभास मिलता है कि उसमें निश्चित ही अग्रेजी सरकार का कोई षड्यन्त्र था। उन दिनों वे जोधपुर नरेश महाराज जसवन्त सिंह के निमन्त्रण पर जोधपुर गये हुए थे। वहां उनके नित्य ही प्रवचन होते थे। दो-चार बार स्वामी जी राजमहल में भी गए। वहां पर उन्होंने नन्हीं नामक वेश्या का महाराज जसवन्त सिंह पर अत्यधिक प्रभाव देखा। स्वामी जी ने महाराज को इस बारे में समझाया तो उन्होंने विनम्रता से उनकी बात स्वीकार कर ली और नन्हीं से सम्बन्ध तोड़ लिए। इससे नन्हीं स्वामी जी के बहुत अधिक विरुद्ध हो गई। उसने स्वामी जी के रसोइए कलिया उर्फ जगन्नाथ को अपनी तरफ मिला कर उनके दूध में पिसा हुआ कांच डलवा दिया, जिसने बाद में स्वामी जी के पास आकर अपना अपराध स्वीकार कर क्षमा मांगी । उदार-हृदय स्वामी जी ने उसे राह-खर्च और जीवन-यापन के लिए पांच सौ रुपए देकर वहां से विदा कर दिया ताकि पुलिस उसे परेशान न करे। 

स्वामी जी को जोधपुर के अस्पताल में भर्ती करवाया गया तो वहां सम्बन्धित चिकित्सक भी शक के दायरे में रहा। उस पर आरोप था कि वह औषधि के नाम पर स्वामी जी को हल्का विष पिलाता रहा। बाद में जब स्वामी जी की तबियत बहुत खराब होने लगी तो उन्हें अजमेर के अस्पताल में लाया गया। मगर तब तक काफी विलम्ब हो चुका था। स्वामी जी को बचाया नहीं जा सका। 

इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में आशंका यही है कि वेश्या को उभारने तथा चिकित्सक को बरगलाने का कार्य अंग्रेजी सरकार के इशारे पर किसी अंग्रेज अधिकारी ने ही किया। ३० अक्टूबर १८८३ को दीपावली के दिन स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृति और स्वदेशोन्नति के अग्रदूत स्वामी दयानन्द जी का शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया और वे अपने पीछे छोड़ गए एक सिद्धान्त, कृण्वन्तो विश्वमार्यम् - अर्थात सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ।

शालिवाहन उपाख्य सातवाहन गौतमीसुत सत्करणी

Posted: 07 Jan 2021 06:01 AM PST




सम्राट विक्रमादित्य शकों को पराजित कर शकारि कहलाये | स्वाभाविक ही सवाल उठता है कि कौन थे ये शक ? आज के उजबेकिस्तान, किर्गिस्तान ताजिकिस्तान के बीच से बहने वाली सिर नदी के किनारे छोटे छोटे कबीलों के रूप में बसने वाले शक ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व हूणों और युईस लोगों के आक्रमणों के कारण अपना क्षेत्र छोड़ने को विवश हुए | किन्तु इन आक्रमणों ने विस्थापित हुए शकों को एकजुट भी कर दिया और फिर तो उनकी सामूहिक शक्ति ने वैक्ट्रीया और पार्सियन साम्राज्यों को अस्तव्यस्त कर दिया | उसके बाद वे अफगानिस्तान के रास्ते सिंध में आकर बसे और मीननगर को अपनी राजधानी बनाया | आगे कैसे वे सौराष्ट्र और मालवा तक पहुंचे इसका वर्णन हमने सम्राट विक्रमादित्य वाले विडियो में किया ही है, जिसमें विक्रमादित्य के पराक्रम व महानता का कथानक भी था और अंतिम अंश में उनकी आश्चर्यजनक पराजय का भी वर्णन था | तो आईये उन्हें पराजित करने वाले महामानव की गाथा पर एक नजर डालें | 

हमारे पुराणों और अन्य संस्कृत ग्रंथों में महापुरुषों का वर्णन दैवीय चमत्कारों के साथ जोडकर किया जाता रहा, जिसे इतिहासकार काल्पनिक कहकर नकार देते हैं | यहाँ तक कि उन महापुरुषों के अस्तित्व पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया जाता है | किन्तु एक महानायक थे गौतमीसुत सत्करणी, जिन्हें नकारने की तो किसी ने हिम्मत नहीं जुटाई, किन्तु उनके बहाने विक्रमादित्य पर प्रश्नचिन्ह अवश्य लगाए | अर्थात कहा गया कि ये दोनों एक ही व्यक्ति थे | जो भी है, हम पहले संस्कृत ग्रंथों में वर्णित सत्करणी की गाथा को देखते हैं, उसके बाद इतिहासकारों के अभिमत पर चिंतन करेंगे | 

उज्जयिनी नगरी में रहने वाली एक अतिशय सुन्दर ब्राह्मण कन्या जब नदी में स्नान कर रही थी, तब उस पर मोहित होकर शेष नाग ने उससे प्रणय निवेदन किया | परिणाम स्वरुप वह गर्भवती हो गई | कुंआरी कन्या के गर्भवती होने से उसे सामाजिक लांछन सहने पड़े और यहाँ तक कि वह एकाकी दर दर की ठोकरें खाने को विवश हुई | अंततः उसे आज की अमरावती और उस काल की प्रतिष्ठान पुरी में एक कुम्हार के घर शरण मिली, जहाँ उसने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया | स्वाभाविक ही शेष नाग उसके संरक्षक रहे और उनके माध्यम से उसकी शिक्षा दीक्षा भी हुई और कई अलौकिक शस्त्रास्त्र भी प्राप्त हुए | जैसा कि पूर्व के विडियो में वर्णित किया गया है, सम्राट विक्रमादित्य के साथ उसका युद्ध हुआ और प्रथमतः वह पराजित हुआ, किन्तु रात्रि में शेष नाग के आदेश पर सर्पों ने विक्रमादित्य की सेना पर आक्रमण कर दिया | उनके विष से सारी सेना का विनाश हो गया, अकेले विक्रमादित्य ही शेष बचे और पराजय मान उज्जयिनी वापस लौटे | इसके बाद तो वह नौजवान प्रतिष्ठान पुरी का नायक बनना ही था, जनता ने उसे ही अपना राजा स्वीकार कर लिया | 

अंतर केवल इतना है कि इतिहासकार उस नौजवान को सातवाहन वंश का एक महान राजा और शकों को पराजित करने वाला मानते है, जिसने लगभग 25 वर्षों तक शासन करते हुए एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उसने शक शासक नहपान को पराजित किया । नहपान ने उस काल में आज के नासिक, पूना, दक्षिण और उत्तरी गुजरात, कोंकण, भड़ौंच से सोपारा तक, बड़ौदा से प्रभास तक, मालवा से पुष्कर तक अपना साम्राज्य फैला लिया था। वह जिन राजाओं को जीतता उनके पुत्रों को अपनी राजधानी में नजरबंद करके रखता था, ताकि कोई भी राजा विद्रोह न कर सके | नहपान ने शतकर्णी के पास भी सन्देश भेजा कि वह उसका अधिपत्य स्वीकार करके अपने पुत्र को जमानत के रूप में उसके पास भेजे | शतकर्णी ने बड़ा ही वीरोचित जबाब दिया – मैं अपने आठ वर्षीय पुत्र को साथ लेकर तुम्हारे पास आ रहा हूँ, हिम्मत हो तो उसे छीन लो | 

उसके बाद शतकर्णी ने नहपान के साथ युद्ध किया और न केवल विजय प्राप्त की वरन उन राजपुत्रों को भी मुक्त कराया जिन्हें नहपान ने बंधक बना रखा था | शतकर्णी ने कृष्णा नदी के तट पर स्थित ऋशिक नगर, विदर्भ आदि प्रदेशों पर भी अधिपत्य कर लिया । उसका प्रभाव क्षेत्र उत्तर में मालवा तथा काठियावाड़ से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक तथा पूर्व में बरार से लेकर पश्चिम में कोंकण तक फैला हुआ था। शतकर्णी ने शक, यवन और पार्शियन तीनों विदेशी आक्रान्ताओं का मुकाबला किया और उन्हें परास्त किया | 

उसने 'त्रि-समुंद्र-तोय-पीत-वाहन' उपाधि धारण की जिससे यह पता चलता है कि उसका प्रभाव पूर्वी, पश्चिमी तथा दक्षिणी सागर अर्थात बंगाल की खाड़ी, अरब सागर एवं हिन्द महासागर तक था। जिन दिनों शातकर्णी का विजय अभियान पूरे देश में चल रहा था, अहिंसा के समर्थक बौद्ध भिक्षु उसकी माता के पास पहुंचे और कहा कि अब तक हम इस राज्य में शान्ति से रह रहे थे, किन्तु अब जब आपका बेटा हिंसाचार कर रहा है, लगातार युद्ध में रत है, हम इस राज्य में नहीं रह सकते | मां ने कहा कि आप मेरे पुत्र के आने तक थोडा रुक जाएँ | शतकर्णी जब युद्ध से लौटे, तब मां ने उन बौद्ध भिक्षुओं को उनसे मिलवाया | शतकर्णी ने जोर से हंसकर कहा, भंते मेरा राज्य छोडकर कहाँ जाओगे, अब तो जहाँ भी जाओगे वहां मेरा ही राज्य पाओगे | बेचारे बौद्ध इस सचाई को जान समझ कर चुप रह गए | 

शतकर्णी की चारित्रिक विशेषता और द्रढता का परिचायक एक प्रसंग विशेष ध्यान देने योग्य है | अपना विशाल साम्राज्य खड़ा कर लेने के बाद शतकर्णी ने एक राजसूय यज्ञ का आयोजन किया और यज्ञ के दौरान प्रथम पूज्य के रूप में अपनी मां के चरण पखारे | कई राजाओं और प्रभावी धर्मगुरुओं ने इस पर आपत्ति जताई और कहा एक कुंआरी मां को यह सम्मान कैसे दिया जा सकता है ? शतकर्णी ने गरजकर कहा, जिस माँ नौ माह मुझे गर्भ में रखकर मुझे जन्म दिया, जिसने अपार कष्ट सहकर मेरा लालन पालन किया, मेरे लिए तो वही प्रथम पूज्य है | आज मैं न केवल उनका पूजन करूंगा बल्कि आज से मेरा नाम केवल शतकर्णी नहीं, बल्कि गौतमीसुत शतकर्णी होगा | मैं ही नहीं मेरे वंशज भी अपनी मां के नाम से ही जाने जायेंगे | मेरे बाद मेरा बेटा भी वाशिष्ठी पुत्र पुलोमावि के नाम से जाना जाएगा | और ऐसा ही हुआ भी | 

इतिहासकारों का मानना है कि वह कुंआरी मां का पुत्र नहीं, बल्कि सातवाहन राजा का पुत्र था | मौर्य साम्राज्य की शक्ति क्षीण होने पर पुष्यमित्र श्रंग या शुंग के वंश का अभ्युदय हुआ, उसके बाद कन्व वंश सत्तारूढ़ हुआ, जिसके अंतिम राजा सुशर्मा को मारकर प्रथम सातवाहन राजा सिमुक ने मगध के राजसिंहासन पर कब्ज़ा किया | उनकी तीसरी पीढी में शतकर्णी का जन्म हुआ | इस मत से तो कलिंग नरेश खारवेल और सातवाहन शतकर्णी का कार्यकाल एक ही हुआ | दोनों ही एक साथ विजेता कैसे हो सकते थे ? इसके अतिरिक्त इतिहास कार एक और अटपटी बात मानते हैं कि भारत में प्रचलित शक संवत वस्तुतः शकों ने चलाया था | जिन शकों का आज कोई अस्तित्व ही नहीं है, प्रतापी विक्रमादित्य और शतकर्णी ने जिनको या तो जड़ मूल से समाप्त कर दिया या हिन्दू समाज में ही वे समरस होकर स्वतः अस्तित्व शून्य हो गए, उन्होंने कभी नवीन संवत प्रचलन में लाया होगा, तह तर्क गले नहीं उतर सकता | इसके अतिरिक्त विक्रम संवत के ७५ वर्ष बाद शक संवत प्रारंभ होता है | तो जब सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर अपना साम्राज्य विस्तीर्ण कर लिया, उसके ७५ वर्ष बाद किसी शक राजा ने किस उपलक्ष में अपना संवत शुरू किया होगा ? 

शतकर्णी संस्कृत ग्रंथों के अनुसार कुंआरी मां के पुत्र हों या किसी सातवाहन राजा की विधवा रानी के, उनका पराक्रम निर्विवाद है | वे शालिवाहन जिनके विषय में जनश्रुति है कि वे मिट्टी के पुतलों में प्राण फूंककर अपनी सेना बना लेते थे, इसका भावार्थ यह ही माना जाना चाहिए कि वे अतिशय सामान्य जन में भी चेतना का संचार करने में प्रवीण थे | उनकी विजय वाहिनी की मूल शक्ति आमजन ही था | अंत में एक महत्वपूर्ण तथ्य ध्यान में रखने योग्य है | शतकर्णी के बाद लगभग पंद्रह सौ वर्ष तक भारत पर कोई विदेशी आक्रमण नहीं हुआ | संभवतः यह शतकर्णी द्वारा जागृत की गई सामजिक चेतना का ही परिणाम था | ऐसे जननायक, अद्भुत मातृभक्त और शालिवाहन शक संवत प्रणेता को सादर वंदन |

शकारि विक्रमादित्य

Posted: 07 Jan 2021 05:55 AM PST




कवि सोमदेव भट्ट ने सम्राट विक्रमादित्य के पिता महेन्द्रादित्य का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है - अवन्ती नगरी में महेन्द्रादित्य नामक एक विश्व विजई शत्रुजेता राजा राज्य करता था | वह विभिन्न शस्त्र संचालन में कुशल था, साथ ही कामदेव के समान सुन्दर भी था | दान में उसका हाथ खुला रहता था, किन्तु तलवार की मूठ पर कसा रहता था | 

किन्तु दुर्भाग्य से कवियों द्वारा इस प्रकार प्रशंसित महेन्द्रादित्य को शकों के विनाशकारी आक्रमण का सामना करते हुए पराजित भी होना पड़ा और प्राण रक्षा के लिए वनों की शरण लेना पड़ी | उनकी पराजय का कारण भी वही था, जिसके लिए भारत कुख्यात है, अर्थात घर का भेदी लंका ढाए | महेन्द्रादित्य शैव्य थे और ईसा से सत्तर वर्ष पूर्व का यह वह काल था, जब बौद्ध, जैन सनातनी संघर्ष चरम पर था | इसी संघर्ष को रेखांकित करने वाले कथा सरित्सागर के ये शब्द प्रयोग ध्यान देने योग्य हैं – 

महेंद्रादित्य ने पुत्र प्राप्ति हेतु अनेक व्रत किये, तपस्या की, और फिर शिवजी की कृपा से उनके ही एक गण माल्यवंत ने उनके यहाँ पुत्र के रूप में जन्म लिया | सम्पूर्ण नगर उत्सव के आनंद में मग्न हो गया, उस समय राजा ने धन की इतनी वर्षा की कि बौद्धों को छोड़कर कोई भी अनीश्वरवादी नहीं रह गया | 

महेन्द्रादित्य ने अपने इस पुत्र विक्रमादित्य की शिक्षा के लिए हर संभव प्रयत्न किये और कुशाग्र बुद्धि वाले विक्रमादित्य युद्ध और शान्ति दोनों काल की कलाओं में पारंगत हो गए | लेकिन तभी सनातनी और जैन बौद्ध संघर्ष की परिणति यह हुई कि कालक नामक एक महाशय ने विदेशी शकों से सहायता ली और महेन्द्रादित्य की सत्ता का उन्मूलन हुआ | कालक को कतिपय इतिहासकारों ने जैन माना है, तो कुछ ने बौद्ध, जो भी है, मालव भूमि शकों के पदाघात से अपावन हुई | शकों के अवन्ती पर आधिपत्य के परिणाम स्वरुप महेन्द्रादित्य का पूरा परिवार चिन्न भिन्न हो गया | विक्रमादित्य भी अपने पिता से बिछुड़कर अपनी माता के साथ यहाँ वहां छुपने को विवश हुए | निस्सहाय होते हुए भी विक्रमादित्य के मन में शत्रुओं से प्रतिशोध लेने की भावना बनी हुई थी | मां के प्रेरक उपदेश उनके संबल थे | मालव प्रजा उनके साथ थी | शकों का यह आक्रमण किसी झंझावात के समान अकस्मात हुआ था | महेन्द्रादित्य असावधान थे, उन्हें कल्पना ही नहीं थी कि शक उनपर इतनी दूर से आकर आक्रमण कर सकते हैं | मालवा ने तो उस समय प्रतिकार भी किया था, सौराष्ट्र तो बिना किसी ख़ास प्रतिरोध के ही शकों के आधिपत्य में आ गया था | 

बर्बर शक जिस प्रदेश से होकर गए, उसे ध्वस्त कर दिया | गाँव जला दिए, फसलें उजाड़ दीं, जनता का विनाश किया | वे केवल विनाशकारी थे | किन्तु शकों के अत्याचारों ने समाज को जागृत कर दिया और विक्रमादित्य के नेतृत्व में न केवल मालवा बल्कि राजपूताना, मध्यभारत और पूर्वी पंजाब तक के गणतंत्र साथ हो गए | प्रभावक चरित के अनुसार शकों और गणतांत्रिक सेनाओं के बीच हुए घनघोर युद्ध में शकों के वंश का पूर्ण उन्मूलन कर दिया गया | महज चार वर्ष ही शकों का आधिपत्य उज्जयिनी पर रह सका | शकों पर विजय के कारण विक्रमादित्य को शकारी की उपाधि प्राप्त हुई | और भारतीय इतिहास की इस महत्वपूर्ण विजय के उपलक्ष्य में एक संवत की स्थापना की गई, जिसे पहले कृत संवत, बाद में मालव गण संवत और नवीं सदी आते आते विक्रम संवत कहा जाने लगा | विक्रमादित्य की महानता तो देखिये, उन्होंने अपने काल में इसे अपना नाम नहीं दिया, कृत संवत कहा | कृत अर्थात सतयुग के बाद का शान्ति और समृद्धि का युग, भगवान राम के काल कृत युग का स्मरण | 

विक्रमादित्य ने विचार किया कि केवल मालवा से शकों का उन्मूलन ही पर्याप्त नहीं है, जब तक कोंकण, सौराष्ट्र, सिंध और भारत के पश्चिमी सीमांत के समीपवर्ती भागों में वे विद्यमान हैं, भारत तब तक सुरक्षित नहीं है | इसके लिए आवश्यक है सबको एक झंडे के नीचे लाना, सबको संगठित करना, या तो अनुनय से अथवा बलपूर्वक | उन्होंने दोनों उपायों का सहारा लिया | राज्य विस्तार उनकी अभिलाषा नहीं रही, वे धर्मविजई थे, इसीलिए भारत उनका आज भी स्मरण करता है | सर्व प्रथम विक्रमादित्य ने सौराष्ट्र और सिंध को शकों से मुक्त कराया | उनके इस विजय अभियान को देखकर, उनकी शक्ति को जानकर, गौडाधिराज शक्तिकुमार, कर्णाटक के राजा जयध्वज, लाट नरेश विजयवर्मन, कश्मीर के अधिपति सुनंदन, सिन्धुराज गोपाल, भिल्लराज विन्ध्यबल और पारसीकों के राजा निर्मुक ने उनकी अधीनता स्वीकार कर ली, तो सिंहल नरेश और कलिंगराज ने अपनी पुत्रियों का विवाह उनसे करके संबंधों को मधुर बना लिया | विक्रमादित्य ने भी इन राज्यों पर अपना अधिकार नहीं जमाया, किसी राजा का राज्य नहीं छीना, राजनैतिक प्रभुता अवश्य स्थापित की | देश ने विदेशी शासन तथा शोषण से मुक्त होकर शान्ति और समृद्धि का उपभोग किया | 

जैसा कि हमने पूर्व में वर्णित किया यह वह समय था, जब बौद्ध, जैन, सनातनी संघर्ष चरम पर था, उसकी ही परिणति था शकों का आक्रमण | किन्तु शांतिकाल में विक्रमादित्य ने सर्वधर्म समभाव का ही उदाहरण प्रस्तुत किया, जैन ग्रंथों में भी उनकी प्रशंसा करते हुए उल्लेख है | एक उदाहरण देखिये – 

एक बार जैन सूरि सिद्धसेन दिवाकर अवन्ती पहुंचे | उसी समय बिहार के दौरान संयोग से विक्रमादित्य उनके सामने आ गए | विक्रमादित्य ने उनकी परीक्षा लेने के लिए उन्हें मानसिक अभिवादन किया और सूरी जी ने हाथ उठाकर उन्हें आशीर्वाद दिया | राजा ने पूछा, जब हमने अभिवादन नहीं किया, तब आपने हमें आशीर्वाद क्यों दिया ? सूरी जी ने कहा, यह उसे दिया गया है, जिसने अभिवादन किया, तुम हमारा आदर करने से चुके नहीं हो, अतः आशीर्वाद के अधिकारी हो | राजा हाथी से नीचे उतरे और उनका स्वागत करते हुए एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ समर्पित कीं | अब समस्या यह आई कि निर्लोभ सूरी जी उसे कैसे स्वीकार कैसे करते और दिए हुए दान को विक्रमाधित्य कैसे वापस लेते | मध्य मार्ग निकाला गया और वह धन भग्न मंदिरों के जीर्णोद्धार में लगाया गया | 

विक्रमादित्य ने जो अद्भुत सफलताएँ पाईं, उनके जिन सद्गुणों ने उन्हें लोकमान्य बनाया, उनके कारण वे एक आदर्श बन गए | उनके बाद जिस किसी भारतीय शासक ने विदेशी आक्रमणकारी को परास्त करने में सफलता पाई, उसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की | वस्तुतः यह एक प्रकार से उज्जयिनी नरेश विक्रमादित्य के प्रति उनका सम्मान व्यक्त करना ही था | समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त, स्कन्दगुप्त, चालुक्य नरेश षष्ठ विक्रम तथा चोल नरेश विक्रम ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं | पानीपत के द्वितीय युद्ध में १५५५ में मुगलों के खिलाफ लड़ते हुए दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु का शिकार हुए हेमचन्द्र विक्रमादित्य उपाख्य हेमू तक यह परंपरा बनी रही | 

अब आप ही बताईये कि हम भारतीयों को नव वर्ष अपने विजय पर्व विक्रम संवत के प्रथम दिवस वर्ष प्रतिपदा को मनाना चाहिए या हास्यास्पद आंग्ल नव वर्ष को ? 

विक्रमादित्य का कार्यकाल आमतौर पर ईसा से लगभग सौ वर्ष पूर्व का माना जाता है | उनके जीवन के अंतिम समय में हुई एक पराजय का भी वर्णन संस्कृत साहित्य में मिलता है | वह कथा कुछ इस प्रकार से है – 

विक्रमादित्य के सम्मुख एक दिन एक विचित्र और पेचीदा मामला आया | एक धनपति ने मृत्यु पूर्व अपने चारों पुत्रों को बसीयत छोडी कि उनके पलंग के पायों नीचे उन चारों के हिस्से की संपत्ति है | पिता की मृत्यु के बाद जब पलंग हटाकर पायों वाले स्थान को खोदा गया, तो चार घड़े निकले, जिनमें क्रमशः मिट्टी, तृण, हड्डियां और कोयला भरे थे | किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि इसका क्या अर्थ है ? विक्रमादित्य के दरवार में भी कोई इसका मतलब नहीं समझ पाया | स्वर्गवासी धनिक के निराश चारों पुत्र महाराष्ट्र और आंध्र के सीमावर्ती प्रतिष्ठान नगरी में गए और आश्चर्यजनक ढंग से वहां एक कुम्हार के घर में पल रहे नौजवान ने उनकी समस्या का समाधान कर दिया | उसने कहा कि मिट्टी का अर्थ है भूमि, तृण का अर्थ है धान्य, हड्डियों का अर्थ है पशु और कोयले का अर्थ है स्वर्ण व रत्न | अब आप लोग अपनी रूचि के अनुसार संपत्ति में से अपना अपना भाग ले लो | चारों बेटे संतुष्ट होकर लौट गए | 

यह प्रसंग सुनकर विक्रमादित्य ने उस युवक को अपनी सभा में आमंत्रित किया, किन्तु युवक ने चोंकाने वाला जबाब दिया | उसने कहा मुझे आपसे कोई काम नहीं है, आपको है तो आप मेरे पास आईये | नाराज होकर विक्रमादित्य ने सेना सहित प्रतिष्ठान पुरी को घेर लिया और वहां के राजा को सन्देश भेजा कि उस नादान युवक को उनके पास भेजा जाए | लेकिन युवक फिर भी नहीं आया, युद्ध हुआ और उसमें विक्रमादित्य की पराजय हुई | कौन था वह युवक ? कैसे हुई वह पराजय ? जानने के लिए अगला अंक देखना न भूलें 


त्रिपुरा के राजसन्यासी गोविन्द माणिक्य और शुजा की मौत

Posted: 07 Jan 2021 05:46 AM PST



प्रस्तुत कथानक गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर की अमर कृति राज सन्यासी पर आधारित है | त्रिपुरा नरेश गोविन्द माणिक्य प्रतिदिन गोमती स्नान के लिए आते, और एक नन्हीं बालिका हासी और उसका छोटा भाई ताता अपनी बालसुलभ हरकतों से उनका मनोरंजन करते | हासी और ताता के माता पिता स्वर्गवासी हो चुके थे, चाचा ही उनका लालन पालन कर रहे थे | स्वाभाविक ही निसंतान राजा को उन अनाथ वत बच्चों से विशेष मोह हो गया था | एक दिन नदी के किनारे स्थित भुवनेश्वरी देवी के मंदिर की सीढियों से बहती रक्त की धार नदी के जल में आकर मिलती देख बच्ची ने राजा से पूछा – यह क्या है ? 

राजा ने जबाब दिया यह रक्त है, कल एक सौ एक भेंसों की बलि देवी के सम्मुख दी गई थी, यह उनका ही रक्त है ? 

हासी ने रूहांसे स्वर में फिर पूछा – ओ मां, इतना रक्त क्यों ? और वह अपने आँचल से सीढियों पर बहते रक्त को साफ़ करने लगी | उसकी देखा देखी उसका छोटा भाई भी वही करने लगा | दूसरे दिन दोनों बच्चे राजा को वहां दिखाई नहीं दिए तो वे उद्विग्न हो गए और उनके घर जा पहुंचे | मालूम हुआ कि बच्ची हासी को तेज बुखार चढ़ आया है और सन्निपात में वह बार बार एक ही वाक्य दोहरा रही है – ओ मां,इतना रक्त क्यों, ओ मां,इतना रक्त क्यों ? राजा ने सांत्वना भी दी, हासी चिंता न करो, मैं यह खून की धार मिटा दूंगा | उनके आदेश पर राजवैद्य आये, उपचार भी किया, किन्तु बच्ची नहीं बचाई जा सकी | 

वह तो चली गई, लेकिन राजा के कानों में उसके स्वर गूंजते रहे – ओ मां, इतना रक्त क्यों ? 

दूसरे दिन जब भुवनेश्वरी मंदिर का पुजारी बलि के लिए दान लेने दरवार में आया तो राजा ने न केवल दान देने से मना कर दिया, बल्कि आदेश भी दे दिया कि आज के बाद उनके राज्य में बलि प्रथा बंद, मंदिरों में कोई पशु बलि नहीं होगी | दरवारियों की बात तो जाने दें, राजा के भाई नक्षत्र राय के भी रोंगटे खड़े हो गए | भाई यह क्या कह रहे हैं, युगों से चली आ रही प्रथा इस तरह कैसे बंद की जा सकती है | पुरोहित रघुपति भी गरज कर बोला – 

राजा तुम्हारी मति मारी गई है | देवी के क्रोध का तुम्हें कोई अनुमान है या नहीं ? सर्वनाश हो जायेगा, तुम्हारे पाप का फल पूरी जनता को भुगतना पड़ेगा | 

राजा ने तत्काल उत्तर दिया – नहीं पुजारी जी, मति नहीं मारी गई है, आज ही अक्ल आई है | एक बालिका का रूप धारण कर साक्षात जगजननी मां ने मुझे दर्शन दिया है और साफ़ साफ संदेश भी दिया है | बहुत हुआ, अब मां अपने ही जीवों का, अपने ही बच्चों का खून और नहीं देख सकतीं | 

रघुपति ने जनेऊ हाथ में लेकर कहा – देवी का संवाद वर्षानुवर्ष से अपने पुजारी से ही होता आया है, आज वह राजा से कैसे हो गया ? तुम मिथ्या बोल रहे हो, मेरा श्राप है, तुम्हारा नाश हो जाए और वह दरवार से निकल गया | सभा में सन्नाटा छा गया | यह वह समय था जब प्रजा की आस्था के चलते धर्मगुरुओं पर राजा का शासन नहीं होता था, उनका कोई भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता था | 

पुजारी रघुपति आगबबूला हो रहा था, उसने राजा के भाई नक्षत्र राय को अपने पास बुलवाया और उसे पट्टी पढाई – राजा तो अब नहीं बचेगा, लेकिन जरा सोचो अगर उसने उस बालक ताता को दत्तक ले लिया, तो तुम्हारा क्या होगा | उसके बाद राजा तुम बनोगे या फिर वह अनाथ ताता ? 

नक्षत्र राय ने विचलित और चिंतित स्वर में पुछा – प्रभो, मुझे क्या करना चाहिए ? 

एक ही उपाय है, देवी रक्त मांग रही है, राजवंशी रक्त – रघुपति गभीर होकर बोला | देवी की आज्ञा मानकर तुम राजा को शीश मां के चरणों में समर्पित करो और अक्षय कीर्ति को प्राप्त करो | तुम और तुम्हारे बाद तुम्हारे वंशज इस राज्य पर युगों तक राज्य करेंगे | 

नक्षत्र राय असमंजस में था, वह विचार मग्न वहां से चला आया | राजा भी असावधान न थे | उनके पास भी रघुपति और नक्षत्र राय की भेंट का समाचार पहुँच गया | दो दिन बाद ही राजा अपने भाई को साथ लेकर शिकार के बहाने घने जंगल में जा पहुंचे और योजना बद्ध अपने सैनिकों से अलग भी हो गए | एक नदी के किनारे नितांत एकांत में उन्होंने अपने भाई से कहा – भाई, मुझे न प्राणों का कोई मोह है और ना ही राज्य का | यह तलवार लो और मुझे मारकर मेरे शव को नदी में फेंक दो | लौटकर सबसे कह देना की मुझे शेर खा गया | किसी को कोई संदेह भी नहीं होगा | अगर मुझे महल में मारोगे तो जनता को देर सबेर पता चल ही जाएगा और भाई का हत्यारा मानकर उनकी नज़रों में तुम्हारी कोई इज्जत नहीं बचेगी | इसलिए मुझे महल में नहीं यहाँ मारो | 

नक्षत्र राय की आँखें डबडबा गईं | वह अपने भाई के चरणों में गिर पड़ा और क्षमा याचना की | जंगल से लौटकर उसने पुजारी रघुपति से साफ कह दिया, नहीं मैं अपने भाई का हत्यारा नहीं बन सकता... 

रघुपति ने हिम्मत नहीं हारी और फिर समझाया – कोई बात नहीं है, राजा को तो देवी दंड देंगी ही, लेकिन तुम कमसेकम अपने मार्ग के सबसे बड़े रोड़े, उस बालक ताता को तो यहाँ ला सकते हो | मैं अपने हाथों से उसे देवी को बलि दूंगा | इससे प्रसन्न होकर देवी का तुम पर आशीर्वाद हो जाएगा और देर सबेर तुम राजा बन ही जाओगे | 

नक्षत्र राय को यह बात जम गई और एक रात वह उस अनाथ बालक का अपहरण कर रघुपति को सोंप आया | राजा सज्जन अवश्य थे, किन्तु असावधान और अयोग्य नहीं | जिस समय रघुपति उस बालक की बलि देने जा रहा था, उसे गिरफ्तार कर लिया गया | रघुपति को राज्य से निष्कासित कर दिया गया और उसके सहयोग के आरोप में यही व्यवहार नक्षत्र राय के साथ भी हुआ | 

राज्य से निष्कासित नक्षत्र राय तो ब्रह्मपुत्र के किनारे गूजरपाडा नामक छोटे से गाँव के जागीरदार पीताम्बर राय के यहाँ अतिथि बनकर रहने लगे, किन्तु बदले की आग में जलता रघुपति ढाका पहुंचकर मौके की तलाश करने लगा | उसके जीवन का बस एक ही लक्ष्य था त्रिपुरा में हुए अपमान का बदला लेना | 

ढाका उन दिनों बादशाह शाहजहाँ के मंझले बेटे शुजा के अधिकार में था, जिसे शाहजहाँ ने बंगाल का सूबेदार बनाकर नियुक्त किया हुआ था | रघुपति ने विचार किया कि अगर किसी प्रकार शाह शुजा की कृपा मिल जाए तो आसानी से राजा गोविन्द माणिक्य से बदला लिया जा सकता है | उसे यह अवसर जल्द ही मिल भी गया | शाहजहाँ के मृत्यु शैय्या पर होने का समाचार पाते ही उसके चारों बेटे राजमुकुट को अपने अधिकार में लेने को उतावले हो गए | अपनी राजधानी राजमहल से शुजा भी सेना लेकर दिल्ली की ओर चल पड़ा | 

रघुपति ने भी ढाका छोड़कर विजय गढ़ नामक एक दुर्ग के हिन्दू सरदार विक्रम सिंह के चाचा से दोस्ती गांठकर वहां रहना शुरू कर दिया | उसकी किस्मत से शुजा के विद्रोह को दबाने की जिम्मेदारी आमेर नरेश जयसिंह को मिली, जिन्होंने न केवल शुजा को परास्त कर दिया, वरन उसे गिरफ्तार कर इसी विजय गढ़ के बन्दीखाने में रखा | शुजा से नजदीकी बढाने को बेताव रघुपति को मौका मिल गया और एक रात उसने शुजा को आजाद कराकर गुप्त रास्ते से बाहर कर दिया | शुजा अभी अपनी सेना संगठित ही कर पाया था कि तब तक औरंगजेब बड़े भाई दारा को मारकर दिल्ली के मुग़ल राजसिंहासन पर काबिज हो गया | यह समाचार पाकर निराश हुए शुजा ने एक दूत भेजकर औरंगजेब के प्रति सद्भाव व समर्थन दिखाने में ही भलाई समझी | औरंगजेब ने भी उसे यथावत बंगाल का सूबेदार बना रहने दिया | ना तो शुजा का मन साफ़ था और ना ही औरंगजेब का, यह तो बाद में सामने आ ही गया | 

किन्तु रघुपति को इससे क्या, उसका लक्ष्य तो एक ही था – त्रिपुरा का पराभव | उसने पहले तो नक्षत्र राय को ढूंढा और फिर पहले की तरह उसे पट्टी पढाई और फिर शुजा से आग्रह किया कि गोविन्द माणिक्य के स्थान पर नक्षत्र राय को त्रिपुरा का राजा घोषित कर दिया जाए | रघुपति के अहसान तले दबे शुजा ने बात मान ली और मुग़ल सेना का एक दस्ता साथ लेकर नक्षत्र राय और रघुपति त्रिपुरा की ओर रवाना हो गए | 

त्रिपुरा में जब इस आक्रमण का समाचार पहुंचा तो रघुपति के स्थान पर मां भुवनेश्वरी मंदिर की पूजा अर्चना हेतु नियुक्त हुए नए पुजारी बिल्वन का सन्देश पाकर कुकि जाति के युद्ध प्रिय लोग आनंद से नाच उठे | युद्ध की सूचना के रूप में लाल कपडे से बंधी हुई कटार गाँव गाँव पहुँचने लगी | देखते ही देखते त्रिपुरा की पहाड़ियां रणबाँकुरे सैनिकों से भर गईं | बड़े पत्थरों से गोमती का पानी रोक दिया गया ताकि अवसर आने पर शत्रु सेना को बाँध तोड़कर बाढ़ से डुबोया जा सके | लेकिन जब इसकी जानकारी मिली तो राजा गोविन्द माणिक्य ने भाई से युद्ध करने के स्थान पर वनों की शरण लेना ज्यादा उचित माना | आखिर रक्तपात व जीव हिंसा रोकने वाला वह राजसन्यासी और करता ही क्या | पुजारी बिल्वन के सब प्रयत्न निष्फल हुए और विजई मुग़ल सेना ने त्रिपुरा में प्रवेश किया | 

नक्षत्र राय राजा बन गया, मुग़ल सेना ने खूब लूटपाट की | भुवनेश्वरी मंदिर की प्रतिमा भी गोमती में फेंक दी गई | नक्षत्र राय को अब पुजारी रघुपति की जरूरत नहीं थी सो उसके साथ वही व्यवहार हुआ, जिसके वह काबिल था, घनघोर अपमान | मुग़ल सेना कुछ समय बाद वापस हो गई, लेकिन पीछे छोड़ गई हिंसा में मृत लोगों के क्षत विक्षत शव, उजड़े हुए खेत खलिहान, जली हुई बस्तियां, भग्न मंदिर और प्रजा में असंतोष व प्रतिशोध की ज्वाला | पुजारी बिल्वन अपने शिष्यों के साथ सेवा कार्य में जुटे थे, जबकि आहत रघुपति कुंठा और आत्मग्लानि में डूबकर स्वतः राज्य से निष्कासित हो गया | 

उधर गोविन्द माणिक्य को अराकान के राजा ने अपना मेहमान बनाना चाहा, किन्तु उन्होंने महलों के स्थान पर मयानी नदी के तट पर एक झोंपड़ी बनाकर वही ईश्वराराधन करना निश्चित किया | अब वे' राजा नहीं राजसन्यासी बन चुके थे | कुछ समय बाद अराकान राजा से अनुमति लेकर रामू नगर के दक्षिण में बने एक दुर्ग में उन्होंने बच्चों की एक पाठशाला खोल ली | वे बच्चों को पढ़ाते, उनके साथ खेलते, कोई बीमार पड़ जाता तो उसे देखने उसके घर जाते | 

शुजा और औरंगजेब के सम्बन्ध तो बिगड़ने ही थे, औरंगजेब का बेटा मुहम्मद और सेनापति मीर जुमला उस पर चढ़ दौड़े | लेकिन मुहम्मद शुजा की बेटी का मंगेतर भी था | संबंधों ने जोर मारा और मुहम्मद बगावत पर उतर आया | शुजा ने अपनी बेटी की शादी मुहम्मद से कर दी | लेकिन सेनापति मीर जुमला कहाँ मानने वाला था | लड़ाई जारी रही और शुजा का बेटा मारा गया | स्वयं शुजा ढाका छोड़कर मक्का जाने का निश्चय कर अपनी पत्नी और दो बच्चियों के साथ भेष बदलकर निकल पड़ा | और किस्मत तो देखिये ये लोग फकीर भेष में उसी किले में जा पहुंचे जहाँ राजसन्यासी गोविन्द माणिक्य का विद्यालय था | उसी दौरान रघुपति और बिल्वन भी वहां आ पहुंचे | रघुपति पश्चाताप की आग में जल रहा था और प्रायश्चित करना चाहता था | जबकि बिल्वन त्रिपुरा की प्रजा के सन्देश वाहक बनकर आये थे | नक्षत्र राय की मृत्यु हो चुकी थी | 

बिल्वन ने स्वेच्छा से गोविन्द माणिक्य द्वारा प्रारंभ किये गए विद्यालय का भार अपने कन्धों पर ले लिया | राजसन्यासी गोविन्द माणिक्य जब त्रिपुरा पहुंचे तो जनता ने उनका भव्य स्वागत किया, वे एक बार फिर राजा बने | रघुपति एक बार फिर मंदिर के पुजारी बन गए | शुजा को गोविन्द माणिक्य ने अपने मित्र अराकान के राजा की शरण में भेजा, लेकिन राजा ने विश्वासघात किया और शुजा को मारकर उसकी सबसे छोटी बेटी से शादी कर ली | गोविन्द माणिक्य को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने अभागे शुजा की याद में कुमिल्ला नगर में एक मस्जिद बनवा दी, जिसे आज भी शुजा मस्जिद के नाम से जाना जाता है | उन्होंने कुमिल्ला के दक्षिण में एक बड़ा तालाब भी बनवाया | उनके प्रयत्न से ही मिहिर कुल आबाद हुआ | राजा गोविन्द माणिक्य ने १६६९ में अपनी जीवन यात्रा पूर्ण की |

Post Bottom Ad

Pages