दिव्य रश्मि न्यूज़ चैनल |
- केरल में मोपला के दंगे ‘जिहाद’ ही था ! - अधिवक्ता कृष्ण राज
- एलिट ने फिर लहराया जेईई-मेन में सफलता का परचम ।
- इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।
- तिलांजली
- अयलक एलेक्सन
- पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्
- संतान की सुरक्षा और दीर्घायु का पर्व जीवित्पुत्रिका
- आज 24 सितम्बर 2021, शुक्रवार का दैनिक पंचांग एवं राशिफल - सभी १२ राशियों के लिए कैसा रहेगा आज का दिन ? क्या है आप की राशी में विशेष ? जाने प्रशिद्ध ज्योतिषाचार्य पं. प्रेम सागर पाण्डेय से |
- दिनकर दर्शन
- भारतीय संस्कृति के मूलतत्व
- पुस्तक
- तीन दिवसीय निःशुल्क हृदय जांच शिविर के पहले दिन मरीजों की हुई जांच, 24 एवं 25 सितंबर को भी होगी जांच।
- जमशेदपुर mgm अस्प्ताल के डॉ अमित कुमार ने अपने आप को मारा गोली।
- 25 सितम्बर को गणतंत्र की जननी वैशाली से जीकेसी करेगी शंखनाद यात्रा की शुरूआत
- सच्चा तिलांजलि
| केरल में मोपला के दंगे ‘जिहाद’ ही था ! - अधिवक्ता कृष्ण राज Posted: 23 Sep 2021 08:17 AM PDT 'मोपला दंगे : हिन्दू नरसंहार के 100 वर्ष !' इस विषय पर 'ऑनलाइन' विशेष संवाद ! '1921 मे हुए मोपला के दंगे की पृष्ठभूमि पहले विश्वयुद्ध से ही है । इस दंगे में सरकारी कर्मचारी, पुलिस और तत्कालीन अंग्रेज सैनिकों पर आक्रमण किए गए और हिन्दुओं का बडा नरसंहार किया गया । यह दंगा लगभग छः महीने चला । जिहादियों ने यह हमारा आंदोलन था और यह हमारी विजय थी, ऐसी घोषणा की; परंतु यह आंदोलन नहीं था, अपितु वह हिंदुओं का नरसंहार ही था । मोहनदास गांधी ने 'मोपला दंगे में मुसलमानों ने हिन्दुओं पर अत्याचार किए; परंतु 'हिन्दू मुसलमान एकता के लिए' हिन्दू ये अत्याचार सहन करें' ऐसे अनेक धक्कादायक वक्तव्य किए थे । मोपला दंगा 'जिहाद' का ही एक भाग था, किंबहुना दंगाखोरों ने यह 'जिहाद' ही है, यह स्वीकार किया था', ऐसा प्रतिपादन उच्च और सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता कृष्ण राज ने किया । वे हिन्दू जनजागृति समिति द्वारा आयोजित 'मोपला दंगे : हिन्दू नरसंहार के 100 वर्ष !' इस 'ऑनलाइन' विशेष संवाद में बोल रहे थे । 'दि धर्म डिस्पैच' के संस्थापक-संपादक और लेखक श्री. संदीप बालकृष्ण ने इस समय कहा कि, खिलाफत आंदोलन के नाम पर अली बंधुओं ने अंग्रेजों के विरोध में 'जिहाद' पुकारकर मुसलमानों को एकत्रित किया । अंग्रेजों ने अली बंधुओं को बंदी बनाने के उपरांत मोपला में मुसलमानों ने भयानक नरसंहार किया । इन मोपलों ने केवल दंगे ही नहीं किए, अपितु सुनियोजित पद्धति से हिन्दुओं का सामूहिक हत्याकांड किया । इस दंगे में मुसलमान महिलाएं भी सम्मिलित थीं । खेद की बात यह है कि मोपलाआें के इस नरसंहार को इतिहास में इसे 'मुसलमानों द्वारा अंग्रेजों के विरोध में कार्यान्वित आंदोलन' लिखा गया और केरल की पाठ्यपुस्तकों में भी यह सिखाया गया; परंतु अब इससे संबंधित वास्तविकता सामने आ रही है । अन्नपूर्णा फाउंडेशन के अध्यक्ष श्री. बिनिल सोमसुंदरम ने कहा कि, 'मोपला नरसंहार में उजागर रूप से हिन्दुओं पर अत्याचार किए गए । इस्लामी सत्ता स्थापित करने के लिए ये दंगे किए गए थे । मोपला दंगे के 100 वर्ष पूर्ण होने के निमित्त केरल के हिंदुओं ने इस दंगे में प्राण खोए हुए पूर्वजों का श्राद्ध किया तथा विविध माध्यमों से जागृति करने का प्रयत्न किया । वर्ष 2018 से शबरीमला आंदोलन के समय से केरल का हिन्दू समाज बिना किसी राजकीय समूह अथवा अन्य किसी का समर्थन न होते हुए भी अब जागृत हो गया है । दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
| एलिट ने फिर लहराया जेईई-मेन में सफलता का परचम । Posted: 23 Sep 2021 08:08 AM PDT एलिट ने फिर लहराया जेईई-मेन में सफलता का परचम ।जेईई-मेन 2021 में एलिट संस्थान के 186 छात्र-छात्राओं ने अपनी सफलता दर्ज करवाई, जिसमें 80 प्रतिशत बच्चों का रिजल्ट 94 परसेंटाइल से ज्यादा है। 186 सफल छात्र-छात्राओं में सामान्य वर्ग के 78, ओबीसी के 64 और 44 एससी/एसटी वर्ग से छात्र शामिल हैं। इन सफल छात्र-छात्राओं में आदित्य प्रकाश, कुमार संभव, ईशिका शर्मा, कोमल प्रिया, असलम आजाद और अजीत दास की सफलता विशेष तौर पर उल्लेखनीय है। संस्थान के संस्थापक-निदेशक अमरदीप झा गौतम ने सफलता का कारण संस्थान के द्वारा छात्रों को सही दिशानिर्देश,स्पेशल डिस्कसन-आवर्स, टेस्ट-सीरिज, डीपीपी, स्टडी-पैकेज और छात्रों की कड़ी-ंंमेहंंनत को बताया। उन्होंने सफलता हासिल कर इंस्टिच्युट का नाम रौशन करने वाले छात्रों को शुभकामनायें दी। उन्होने बताया कि एलिट के प्रत्येक बैच में सीमित बच्चों की संख्या रहने के कारण शिक्षक और छात्रों के बीच अच्छा तालमेल रहता है, जिसमें प्रत्येक बच्चे पर ठीक तरीके से ध्यान देना संभव हो पाता है और बच्चे खुलकर अपनी समस्याओॆ को शिक्षकों के समक्ष रख पाते हैं । इन सभी चीजों का प्रभाव यहाँ के रिजल्ट में दिखता है। लॉकडॉन के समय ऑनलाइन-क्लास के साथ क्लास-नोट्स और लेक्चर-वीडियो के कारण बच्चों की निरंतरता बनी रही, जिसका परिणाम है कि एलिट ने अपनी सफलता दर्ज की है। एलिट इंस्टिच्युट छात्रों के पठन-पाठन के लिए लाइब्रेरी और अनुशासित-माहौल के अपने विशेष गुणों के कारण काफी लोकप्रिय है। दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
| Posted: 23 Sep 2021 08:02 AM PDT पूज्य कवि 'दिनकर' जी को, अंतस काव्यांजलि ................................................................ इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।परशुराम कि कहीं प्रतीक्षा कहीं युद्ध कुरुक्षेत्र बना है नील कुसुम खिलते बगिया में कहीं मौन हुँकार मना है अनसुलझा साहित्य पड़ा है कविता का वह बुनकर दे दो। इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।। देकर सिंहासन को झटके खेतों खलिहानों में भटके रूप राशि को स्वर्णिम करके प्रगति वाद के भरे थे मटके कृषक रहे न भूखा नंगा जग की खुशियां उन पर दे दो। इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।। काव्य जनक जो रश्मिरथी के कलमकार जो रसवंती के नायक सूत पुत्र बन बैठा विवश पांच पुत्र कुंती के कांच के टुकड़े भरे पड़े हैं उनमें हीरा चुनकर दे दो। इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।। स्वर्ग के पथ पर बढ़ें युधिष्ठिर हमसे भीम की गदा न छीनो पार्थ कर्ण में क्या अंतर है मेरी नजर में श्रेष्ठ हैं दोनों पौरुष के वह प्रबल पुजारी वही कर्ण के किंकर दे दो। इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।। उषा दिशा आच्छादित करती पसरे अंधियारे को हरती संध्या काल निकट जब आता पूरे दिन को जीकर मरती जहां-तहां बिखरी है रचना एक-एक को बिन कर दे दो इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।। राष्ट्र चेतना का हो गुंजन देशभक्ति से खिला हो तन-मन जगत ने जिनको किया तिरस्कृत उनके लिए तड़पता था मन वीणा के तारों में झंकृत मधुर-मृदुल सुर तिनकर दे दो। इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।। कब तक रहें काव्य से वंचित पड़ी हुई है धरा असिंचित सुप्त शांति सोई है ज्वाला जागेगी क्या कभी अकिंचित तरुणाई ले ले अंगड़ाई कुछ ऐसे पथ गिनकर दे दो। इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।। ज्यों उपवन खिलता बहार में था मुंगेर जिला बिहार में रामधारी सिंह 'दिनकर' बनकर जन्में उसी पुण्य कछार में उर अंतर के मानस पुष्पित छंद विद्या स्वर सुनकर दे दो। इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।। ............................................................. (रवि प्रताप सिंह,कोलकाता,8013546942) दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
| Posted: 23 Sep 2021 07:10 AM PDT तिलांजली --:भारतका एक ब्राह्मण. संजय कुमार मिश्र"अणु" ---------------------------------------- तिलांजली, है अपने पूर्व पुरुषों की- सच्ची श्रद्धांजली।१। चाहते हैं पितर, मेरा तर्पण करे वंशज- और दे कागवली।२। देते हैं आशीर्वाद, बढता रहे हाल औलाद- ज्यों अमलवेली।३। पुनपुन का स्नान, और पितृ-तीर्थ में दान- बढाता है वंशावली।४। जान पितृपक्ष, आते पितर गया कक्ष- लेने कै कव्य तिलांजली।५। ---------------------------------------- वलिदाद,अरवल(बिहार)८०४४०२दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
| Posted: 23 Sep 2021 06:37 AM PDT नेता भी घुमलन उनकर बेटा भी घुमलन अनपढ़ के लगलन बुझावे कि नेताजी घरे घरे घुमलन। जातिवाद करे शोर जाग अब भैया मोर एतना दिन सुतल कखनिये से भेल भोर। जगल के लगलन जगावे कि नेताजी घरे घरे घुमलन। ई बिहार हमनी के लुटब तो लूट ल ओखरी में धान डाल मतलब भर कूट ल। जनता के बुड़बक बनावे कि नेताजी घरे घरे घुमलन। सत्ता में सुखे सुख बाकी सब दुखे दुख काजू किशमिस पिस्ता से मिट हे हमर भूख। चल अब भोग लगावे कि नेता जी घरे घरे घुमलन। रजनीकांत। दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
| Posted: 23 Sep 2021 06:29 AM PDT पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्हमारे शास्त्रों में एक से बढ़ कर एक संदेश भरे पड़े हैं। 'को बड़ छोट कहत अपराधू' वाली बात है, किसी को कमतर नहीं आँका जा सकता । आवश्यकता है सिर्फ सधन दृष्टिपात की। श्रद्धा-विश्वास पूर्वक ढूढ़ेंगे तो कुछ न कुछ महत्त्वपूर्ण मिल ही जायेगा। अर्थ बहुल सांसारिक जीवन में अर्थ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है, किन्तु इसकी सम्यक् प्राप्ति और प्राप्ति के पश्चात् समुचित भोग हेतु स्वस्थ्य शरीर और शान्त-सुखद पारिवारिक-सामाजिक परिवेश भी होना उतना ही आवश्यक है, अन्यथा शरीर और परिवार ही साथ न दिया तो फिर संचित धन का भोग कैसे करेंगे—सोचने वाली बात है। तटस्थ भाव से विचार करें तो आसपास में ही एक से एक धनाड्य मिल जायेंगे, किन्तु निकट से उन्हें देखेंगे तो शारीरिक-मानसिक पीड़ा के कारण उपलब्ध धन से सुख प्राप्त नहीं है उन्हें। मिठाइयाँ तो फ्रिज में पड़ी है,किन्तु ब्लडसूगर है। मिठाई खा नहीं सकते । घी है,किन्तु कॉलेस्ट्रोल का खतरा है। ए.सी.में डनलप दीवान पर पड़े करवटें बदलते रातें कटती है। नींद की गोलियाँ भी बेअसर हो जाती हैं। पारिवारिक अशान्ति से उब कर आत्महत्या के विचार मन में आते हैं....इत्यादि। वस्तुतः धन की अपनी सीमा है, जिसकी सीमा में सुख समा नहीं सकता। और जब सुख ही नहीं समा सकता तो फिर शान्ति कहाँ से समायेगी । और रही बात आनन्द की तो वो बहुत दूर की चीज है, जिसे धन से कुछ लेना-देना नहीं। इसे ठीक से समझें तो पता चलेगा कि सुख की सीमा शरीर तक ही सिमटी हुयी है। प्रयास करके धन के माध्यम से यत्किंचित सुख की प्राप्ति हो सकती है, किन्तु शान्ति तो मन का विषय है और आनन्द इससे भी ऊपर—आत्मा का विषय है। और इन दोनों का धन से दूर-दूर तक का भी सम्बन्ध नहीं है। धन से सुख के संसाधन जुटाये जा सकते हैं, किन्तु शान्ति और आनन्द को धन से कदापि पाया या खरीदा नहीं जा सकता। वैज्ञानिक दृष्टि से भी देखें तो संसार का अस्तित्व सूर्य पर टिका हुआ है। शास्त्रों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है— 'सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च' । स्पष्ट है कि सूर्याराधन से हमारी लौकिक-पारलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो सकती है। विशेष कर शाकद्वीपियों के लिए तो एक मात्र सूर्य ही आराधक होने चाहिए। इनकी आराधना 'त्रिदेवों'— ब्रह्मा, विष्णु, महेश की आराधना है। वेदमाता गायत्री इनकी शक्ति है। सावित्री और गायत्री में बहुत निकट का सम्बन्ध है। इस अन्योन्याश्रित सम्बन्ध की चर्चा पुराणों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। भविष्यपुराण तो मुख्यतः सूर्य-प्रधान ग्रन्थ ही है। शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को 'सूर्यांश' कहा गया है, क्योंकि सूर्य के तेज से ही इनकी उत्पत्ति हुयी है। ध्यान रहे—सूर्यांश हैं ये, सूर्यवंशी नहीं। अंश और वंश में पृथ्वी और आकाश का अन्तर है। हमें चाहिए कि इस जगदात्मा सूर्य की सम्यक् आराधना नियमित रुप से करें। इनकी कृपा से पुरुषार्थ चतुष्टय—धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष की सिद्धि अवश्य होगी। आवश्यकता है श्रद्धा-विश्वास पूर्वक इसे साधने की। उपनयनोंपरान्त संध्या-गायत्री की अनिवार्यता इसी बात का संकेत है। शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि जो विप्र अकारण लागातार तीन दिनों तक संध्या-गायत्री नहीं करते , वे चाण्डालवत हो जाते हैं। उन्हें चाहिए कि पुनः मुण्डन-संस्कार करा कर, शुद्ध उपवीती होकर, क्रिया प्रारम्भ करें। वर्तमान परिवेश की विडम्बना ये है कि समय पर यज्ञोपवीत संस्कार शायद ही होता है। 'हैपीवर्थ डे' के अंडे वाले केक की याद रहती है, किन्तु जनेऊ की महत्ता समझ नहीं आती। संस्कारहीनता कूट-कूट कर भरती जा रही है—पछुआ वयार में। विप्रबन्धु यदि उपनयन की महत्ता को हृदयंगम करें, संध्या-गायत्री की उपादेयता को समझ लें और जगत की आत्मा सूर्य के शरण में आ जायें तो उनकी सारी समस्याओं का निदान मिल जाए। यूँ तो ये सबके लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण है, किन्तु विशेषकर सूर्याशों—शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का तो काम ही नहीं चल सकता इसके बिना। संध्या-गायत्री के बिना हमारी स्थिति वैसी ही है जैसे किसी सुव्यवस्थित मकान में विजली के सारे उपकरण तो लगे हुए हैं, किन्तु विजली का कनेक्शन ही नहीं लिया है। आधुनिक भाग-दौड़ भरी जिन्दगी में विशेष कुछ न भी कर सकें तो कम से कम संक्षिप्त संध्योपासन और आदित्यहृदयस्तोत्र (भविष्योत्तरपुराण वाला) का एक पाठ तो अवश्य कर लिया करें। १७२ श्लोकों का पूरा पाठ न सम्भव हो तो अन्त के "मंगलाष्टक" के बारह श्लोकों का भावमय पाठ तो कर ही सकते हैं नित्य प्रातः स्नान के बाद। ये घनीभूत भाव ही जीवन के समस्त अभाव को दूर करेगा। आप इसे साध कर देखें—आपकी दुनिया बदल जायेगी। चमत्कार घटित हो जायेगा आपके जीवन में। रिश्वसखोरी वाला सरकारी टेबल भले न मिले, हवाई जहाज का सफर भले न कर पायें, किन्तु जीवन का सफर तो आनन्ददायक अवश्य हो जायेगा—इसमें दो राय नहीं। (नोट—मांसाहारी इस क्रिया को भूल कर भी न आजमायें, अन्यथा भयंकर क्षति होगी) |
| संतान की सुरक्षा और दीर्घायु का पर्व जीवित्पुत्रिका Posted: 23 Sep 2021 06:22 AM PDT संतान की सुरक्षा और दीर्घायु का पर्व जीवित्पुत्रिकासत्येन्द्र कुमार पाठक सनातन धर्म की वाङ्गमय शास्त्रों में संतान की सुरक्षा एवं दीर्घायु का पर्व जीवित्पुत्रिका का उल्लेख है । जितिया निर्जला उपवास कर माताओं द्वारा अपने पुत्रों की भलाई के लिए मनाया जाता है। भारत के बिहार , झारखंड , उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल, नेपाल के पूर्वी थारू और सुदूर-पूर्वी मधेसी लोगों द्वारा मानाया जाता है । बिक्रम संवत के अश्विन माह में कृष्ण पक्ष के सातवें से नौवें चंद्र दिवस तक तीन दिन तक चलने वाला पर्व है। जिवितपुत्रिका के प्रथम दिन माताएं स्नान करने के बाद पवित्र भोजन ग्रहण करती हैं। जिवितपुत्रिका द्वितीय दिवस पर, निर्जला उपवास,और तीसरे दिन व्रत का पारन के साथ समापन होता है । जितिया को जिउतिया , जीवित्पुत्रिका , जितिया , खुर जितिया , खरजिटिया , खैरजीतिया कहा गया है । जितिया ब्रतधारी माताएं जितिया पर्व के प्रथम दिन मडुआ की रोटी , नोनी की साग , सत्पुतिया की सब्जी , कोहड़े या परोर की पत्ती का प्रयोग एवं चावल कढ़ी का प्रयोग करती है । द्वितीय दिन निर्जला रहकर कुश से निर्मित जीमूतवाहन की पूजा उपासना और समापन के दिन चावल , चने और चावल के आटे से बना तोड़ा कढ़ी , नोनी की साग , मडुआ की रोटी , सत्पुतिया की सब्जी चील्ह पक्षी और सियार को अर्पित कर माताएं अपनी पुत्र की दीर्घायु पुत्र के अनुसार चना , नोनी की साग , खरे की बीज के साथ गाय की कच्चे दूध के साथ पारण करती है । चील्ह पक्षी और मादा लोमड़ी नर्मदा नदी के समीप हिमालय के जंगल में महिलाओं को पूजा करते और उपवास करते देखने के बाद उपवास कर जितिया ब्रत की थी । उपवास के दौरान, लोमड़ी भूख के कारण बेहोश हो गई और चुपके से भोजन किया। दूसरी ओर, चील ने पूरे समर्पण के साथ व्रत का पालन किया था । परिणामस्वरूप, लोमड़ी से पैदा हुए सभी बच्चे जन्म के कुछ दिन बाद ही खत्म हो गए और चील की संतान लंबी आयु के लिए धन्य हो गई थी । गंधर्व के बुद्धिमान राज जीमूतवाहन शासक से संतुष्ट नहीं थे और परिणामस्वरूप जीमूत अपने भाइयों को अपने राज्य की जिम्मेदारियाँ दीं और अपने पिता की सेवा के लिए जंगल चले गए। जंगल में भटकते हुए जीमूतवाहन को बुढ़िया विलाप करती हुई मिली थी । जीमूतवाहन ने बुढ़िया से रोने का कारण पूछा, जिस पर उसने उसे बताया कि वह नागवंशी के परिवार से है और उसका एक बेटा है। संकल्प के रूप में, प्रत्येक दिन, नागवंशी के पुत्र को पक्षी राज गरुड़ को भोजन के लिए भेजा जाता है । उसकी समस्या सुनने के बाद, जिमुतवाहन ने उसे सांत्वना दी और वादा किया कि वह अपने बेटे को जीवित वापस ले आएगा और गरुड़ से उसकी रक्षा करेगा। जीमूतवाहन ने चारा के लिए गरुड़ को भेंट की जाने वाली चट्टानों के बिस्तर पर लेटने का फैसला करता है। गरुड़ अपनी अंगुलियों से लाल कपड़े से ढंके जिमुतवाहन को पकड़कर चट्टान पर चढ़ जाता है। गरुड़ को आश्चर्य होता है जब वह जिस व्यक्ति को फंसाता है वह प्रतिक्रिया नहीं देता है। वह जिमुतवाहन से उसकी पहचान पूछता है जिस पर वह गरुड़ को पूरे दृश्य का वर्णन करता है। गरुड़, जीमूतवाहन की वीरता और परोपकार से प्रसन्न होकर, नागवंशियों से कोई और बलिदान नहीं लेने का वादा करता है। जिमुतवाहन की बहादुरी और उदारता के कारण, नागवंशियों की दौड़ बच गई थी । बच्चों के कल्याण और लंबे जीवन के लिए उपवास मनाया जाता है। साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि संतान की दीर्घायु एवं समृद्धि के लिए जीवित्पुत्रिका ब्रत सहस्त्रब्दियों से प्रारंभ है । गंधर्व राज जीमूतकेतु का पुत्र जीमूतवाहन की पत्नी मलयवती थी । कथासरित्सार के अनुसार पर्वतराज हिमालय पर कांचनपुर में विद्याधरों का राजा जीमूतकेतु का पुत्र जीमूतवाहन का जन्म आश्विन कृष्ण अष्टमी तिथि को हुआ था । कंचनपुर में कुलपरम्परा से प्राप्त, सब मनोरथों को पूरा करने वाला कल्पवृक्ष की कृपा से गंधर्व राज जीमूतकेतु को जीमूतवाहन नामक परम दानी, कृपालु महापुरुष, धर्मात्मा पुत्र की प्राप्ति हुई थी । जीमूतवाहन के युवावस्था प्राप्त करने पर गंधर्वराज जीमूतकेतु ने सिंहासनारूढ़ कर तपस्या के लिए हाल दिए थे ।युवराज होने पर जीमूतवाहन ने कल्पवृक्ष के सम्बन्ध में सोचा- ''हमारे पूर्वजों ने अपने क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति के अतिरिक्त इस वृक्ष से कोई लाभ नहीं उठाया । मैं इससे अपना मनोरथ पूरा करूँगा ।'' यह विचार कर उसने कल्पवृक्ष से कहा- -''देव! मेरी एक कामना पूरी करें । मैं इस समस्त संसार को दरिद्रता से मुक्त देखना चाहता हूँ; इसलिए, भद्र, जाओ, मैं तुम्हें संसार को देता हूँ ।'' यह कहना था कि क्षण में ही कल्पवृक्ष ने आकाश में उठकर इतनी धन-वर्षा की कि पृथ्वी पर दरिद्र नही रहा था । प्राणियों पर दया दिखाने के कारण जीमूतवाहन का तीनों लोकों यश फैल गया । तब ईर्ष्या के कारण असहिष्णु हुए, उसके कुल-बन्धुओं ने जीमूतवाहन के राज्य को हथियाने के लिये युद्ध की तैयारी की । यह देखकर जीमूतवाहन ने अपने पिता को कहा-तात, आपके शस्त्र धारण करने पर किस शत्रु की शक्ति ठहर सकती है? किन्तु इस' नाशवान् पापी शरीर के लिये बन्धुओं को मारकर कौन राज्य की इच्छा करे? इसलिए कहीं अन्यत्र जाकर हम दोनों लोकों का सुख देने वाले धर्म का ही आचरण करें । राज्य के लोभी ये बन्धु-बान्धव आनन्द करें ।'' पिता ने कहा-''पुत्र, तेरे लिए ही राज्य है । यदि तू ही दया करके उसे छोड़ रहा है, तो मुझ वृद्ध को इससे क्या? '' इस प्रकार दयार्द्र होकर-जीमूतवाहन राज्य को त्याग कर मलयाचल पर चला गया, वहां आश्रम बना कर रहने लगा और माता-पिता की सेवा करने लगा । एक बार जीमूतवाहन एक मुनिपुत्र के साथ घूमता हुआ जंगल में देवि- मन्दिर देखने गया । वहाँ उसने भगवती पार्वती की आराधना के लिए आई हुई, अपनी सखियों के साथ बैठी वीणा बजाती हुई किसी सुन्दरी कन्या को देखा । कन्या उसके प्रति आकर्षित हुई । जीमूतवाहन के पूछने पर, उसकी एक सखी ने उसका नाम और वंश बताते हुए कहा-यह मित्रावसु की बहन और सिद्धराज विश्वावसु की पुत्री मलयवती है ।'' सखी के पूछने पर मुनि-पुत्र ने भी जीमूतवाहन का नाम, वंश बता दिया । दूसरी सखी जीमूतवाहन का आतिथ्य-सत्कार करती हुई उसके लिए एक पुष्पमाला लाई । उसने प्रेम में भरकर उस माला को मलयवती के गले में डाल दिया । इतने में एक दासी ने आकर कहा-''राजकुमारी, तुझे माता ने बुलाया है ।'' यह संदेश पाकर मलयवती ने अपने प्रिय जीमूतवाहन के मुख से अपनी दृष्टि को बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार हटाया और घर को चली । जीमूतवाहन उसका ही ध्यान मन में रखे अपने आश्रम में आ गया । तब से दोनों प्रेम-पाश में बन्ध गए । सिद्धराज विश्वावसु यह जानकर बड़ा प्रसन्न हुआ कि महात्मा जीमूतवाहन यहाँ मलयाचल पर आकर रह रहा है । उसने अपने पुत्र मित्रावसु को जीमूतवाहन के पिता के पास भेजकर अपनी कन्या को जीमूतवाहन के साथ मलयवती का विवाह कर दिया गया । एक दिन जीमूतवाहन अपने साले मित्रावसु के साथ मलयपर्वत से .भ्रमण करता हुआ समुद्र-वेला देखने गया । भ्रमण करने के दौरान अस्थियों का ढेर देख कर उसने मित्रावसु से पूछा-यह किन प्राणियों की .अस्थियों का ढेर है ।'' मित्रावसु ने कहा -''पक्षिराज गरुड़ द्वेष के कारण पाताल में प्रविष्ट होकर सदा नागों को खाता था । नागों खाता, कुचलता और डर के मारे अपने आप मर जाते । यह देखकर नागराज वासुकी ने सब नागों की समाप्ति की आशंका से गरुड़ को विनय- पूर्वक कहा-' 'पक्षिराज, मैं आपके आहार के लिए हर रोज एक-एक नाग को दक्षिण सागर के तट पर भेज दूंगा, आप पाताल में प्रवेश न करें । एकदम -ही सब नागों का नाश करने में आपका क्या लाभ है । '' स्वार्थदर्शी गरुड़ ने स्वीकार कर लिया । उसके बाद नित्यप्रति वासुकी द्वारा भेजे गये एक-एक नाग को खाने के कारण तथा खाए हुए नागों की ये अस्थियां काल-क्रम से संचित होने के कारण इतनी एकत्र पड़ी हैं ।''यह सुनकर दयानिधि जीमूतवाहन को बहुत दुःख हुआ । उसने मन में सोचा-यह कुटिल वासुकी कैसा है, जिसने-''मुझे ही पहले खालो' '-ऐसा न कहकर प्रतिदिन एक-एक नाग को शत्रु का आहार बनाया । और यह निर्दयी गरुड़ भी कैसा है, जो नित्य ऐसा पाप करता है । मैं आज ही अपने इस निस्सार शरीर से किसी नाग के प्राणों की रक्षा करूँ गा ।''इतने में उन दोनों को बुलाने के लिये दूत आया । ' मित्रावसु, तुम चलो । मैं पीछे आऊँगा,' ' यह कहकर और उसे घर की ओर भेजकर जब 'जीमूतवाहन स्वयं अकेला घूम रहा था तो उसने दूर से एक रोदनध्वनि सुनी । -वहां जाकर उसने देखा कि एक वृद्धा एक सुन्दर युवक के पास बैठी-है। पुत्र, शंखचूड़, मैं तुझे अब कहां देखूँगी । इस प्रकार वह विलाप कर रही थी ।' जीमूतवाहन ने शीघ्र जान लिया कि यह गरुड़ का बलि नाग है । उस दयावान्. महासत्व ने मन में कहा-''यदि इस नाशवान् देह से मैं इस दुःखी नाग को न बचाऊं मुझे धिक्कार है, मेरा जन्म निष्फल है ।'' यह विचार कर उसने वृद्धा से कहा-''माता, मत रो । मैं अपना शरीर देकर तेरे पुत्र को बचाऊँगा ।'' जीमूतवाहन के इतना कहने पर शंखचूड़ ने उसे कहा-''ऐ महात्मा, निश्चय ही आपने बड़ी कृपालुता प्रकट की है । मैं भी तो आपके शरीर के बदले अपने शरीर को बचाना नहीं चाहता । रत्न को खोकर पत्थर की कौन रक्षा करना चाहेगा । इस प्रकार मना करके वह अपनी माता को कहने लगा-' 'माता, तुम भी लौट जाओ । और जबतक वह गरुड़ नहीं आता, तब तक मैं समुद्र के तट पर जाकर भगवान् गोकर्ण को नमस्कार करके आता हूए ।'' शंखचूड़ गोकर्ण देव को प्रणाम करने के लिये चला गया । अचानक वायु की तीव्रता से वृक्षों को हिलता देखकर जीमूतवाहन ने सोचा कि गरुड़ के आगमन का समय आ गया है । वह स्वयं वध्यशिला पर चढ़ गया । शीघ्र ही अपने पंखों से आकाश को आच्छादित करता हुआ गरुड़ तेजी से आया । वह अपनी चोंच से जीमूतवाहन को पकड़ कर उठा ले गया और उसका सिर खाने' लगा । चोंच से उखाड़ने के कारण जीमूतवाहन का शिरोरत्न खून से भर गया । गरुड़ ने उसे फैंक दिया । संयोग से वह रत्न मलयवती के आगे आ गिरा । वह देखकर और सब कुछ समझकर बहुत व्याकुल हुई । उसने अपने सास-ससुर को दिखाया । पुत्र का शिरोरत्न देखकर बूढ़े मां-बाप भी आश्चर्य और शोक से भर गए । अपनी योग-विद्या से जीमूतकेतु ने सारा वृत्तान्त जान लिया, और अपनी पत्नी और पुत्र-वधू के साथ शीघ्र ही वहां पहुँच गया जहाँ गरुड़ जीमूतवाहन को खा रहा था । जब शंखचूड् गोकर्ण देव की वन्दना करके वापिस लौटा, उसने: वध्यशिला को रुधिर से भरा देखा । 'हा, महापाप हुआ है, मैं मारा गया! निश्चय ही उस दयालु महात्मा ने मेरे कारण निज को गरुड़ की भेंट चढ़ा दिया,-यह विचार कर वह बहुत दुःखी हुआ और लहू की धार का अनुसरण करता हुआ गरुड़ को ढूँढने लगा । जीमूतवाहन को हंसते-हंसते आत्मोत्सर्ग करते देखकर गरुड़ विचारने लगा-यह कोई अपूर्व प्राणी है, जौ इस प्रकार खाये जाने पर भी प्रसन्न है । यह नाग प्रतीत नहीं होता । पूछना चाहिये कि यह कौन है? '' गरुड़ को रुकते, देखकर जीमूतवाहन ने ही कहा-''पक्षीराज, खाना क्यों छोड़ दिया? अभी, मेरे शरीर पर मांस और रुधिर रहता है, इसे भी लो ।'' यह सुनकर गरूड़ ने बहुत आश्चर्य से पूछा-''तुम नाग नहीं हो, बताओ महात्मन् तुम कौन हो? '' जीमूतवाहन ने कहा 'मैं नाग ही हूँ । यह तुम्हारा कैसा प्रश्न है? तुम अपना काम करो ।'उन दोनों में यह बातचीत हो रही थी कि शंखचूड़ वहाँ आ पहुँचा । उसने दूर से ही पुकारा-''पक्षीराज, अनर्थ हो गया, मेरा अनर्थ हो गया! ?तुम्हें भी क्या भ्रम हुआ. नाग वस्तुत: मैं हूँ । क्या तुम मेरे फण और जिह्वा को नहीं देख रहे? क्या इस देवजाति विद्याधर की सौम्य-आकृति तुम्हें दिखाई नहीं देती है'' । जीमूतवाहन के माता-पिता और पत्नी भी बहुत जल्दी इसी समय आ पहुंचे । अपने पुत्रको खूनसे लत-पथ देखकर वृद्ध माता-पिता विलाप करने लगे- ही पुत्र, हा वत्स! हाय गरूड़, तू ने बिना सोचे-विचारे यह क्या किया? '' गरुड़ यह सब सुनकर बहुत दुखी हुआ । वह सोचने लगा-हा, इसकी तीनों लोकों में कीर्ति है । मोहवश मैंने इसका भक्षण कर लिया । मेरे पाप का प्रायश्चित्त मेरे अग्नि-प्रवेश से भी न होगा ।'' वह इस प्रकार विचार-मग्न था, कि घावों की पीड़ा से जीमूतवाहन के प्राण निकल गए । उसके माता-पिता भारी दुख से चिल्लाने लगे । शंखचूड़ आत्मभर्त्सना करता रहा और मलयवती - देवी गौरी को उपालम्भ देती हुई दुख प्रकट करने लगी ।. इसी समय देवी गौरी साक्षात् प्रकट हुई-''पुत्री, दुखी मत हो यह कह कर उसने अपने कमण्डल से जीमूतवाहन पर अमृत छिड़का । इससे जीमूतवाहन सम्पूर्ण अंगों सहित पहले से भी अधिक ज्योति पाकर उठ खड़ा हुआ । ' 'मैं इसे अपने ही हाथों से विद्याधरों के चक्रवर्ती राज-पद पर अभिषिक्त करूँगी' '-यह कह कर देवी ने अपने कलश के जल से उसका अभिषेक कर अन्तर्धान हो गई । आकाश से पुष्प-वृष्टि हुई, और आनन्द-ध्वनि से गगन मंडल गूँजने लगा ।तत्पश्चात् गरुड़ ने नम्रतापूर्वक जीमूतवाहन से कहा-' 'महाराज, मुझे आज्ञा करें । मुझ से वांछित वर मांगें । '' जीमूतवाहन ने कहा- '' आप नाग-भक्षण छोड़ दें और पहले: खाये हुए नाग भी जीवित हो जाये । '' गरुड़ ने 'एवमस्तु' कहा । वे नाग सब जी उठे, और गरूड़ ने नाग-भक्षण छोड़ दिया । जीमूतवाहन भगवती गौरी की कृपा से चिरकाल तक विद्याधरों का राजा रहे है । विक्रम पंचांग के अनुसार, आश्विन मास कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि मंगलवार 2078 दिनांक 28 सितंबर 2021 समय शाम 06 बजकर 16 मिनट से अष्टमी तिथि प्रारम्भ हो कर दिनांक 29 सितंबर 2021 बुधवार को समय रात्रि 08 बजकर 29 मिनट तक रहेगी और 08 बजकर 30 मिनट रात्रि से नवमी तिथि प्रारम्भ होकर दिनांक 30 सितंबर 2021 को समाप्त होगी । जीवित्पुत्रिका व्रतधारी माताएं संतान प्राप्ति , लंबी आयु एवं संतान की खुशहाली के लिए निराहार और निर्जला व्रत रखती हैं । जीवित्पुत्रिका व्रत 28 सितंबर को नहाए खाए के साथ प्रारम्भ होगा । 29 सितंबर को पूरे दिन निर्जला व्रत रखा जाएगा और 30 सितंबर को व्रत का पारण किया जाएगा । भविष्य पुराण , गरुड़पुराण एवं महाभारत के अनुसार जीवित्पुत्रिका व्रत को करने से संतान के सभी कष्ट दूर होते हैं । महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पुण्य कर्मों को अर्जित करके उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु को जीवनदान दिया था । जीतिया ब्रती स्नान करने के बाद सूर्य नारायण की प्रतिमा को स्नान कराएं. धूप, दीप से आरती करें और इसके बाद भोग लगाने के बाद माताएं सप्तमी को खाना और जल ग्रहण कर व्रत की प्रारम्भ करती हैं । अष्टमी तिथि को पूरे दिन निर्जला व्रत रखने के बाद नवमी तिथि को व्रत का समापन किया जाता है । गन्धर्वराज जीमूतवाहन बड़े धर्मात्मा और त्यागी पुरुष थे. युवाकाल में ही राजपाट छोड़कर वन में पिता की सेवा करने चले गए थे । एक दिन भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन ने नागमाता के विलाप करने का कारण पूछा था । नागमाता ने बताया कि नागवंश गरुड़ से काफी परेशान है । वंश की रक्षा करने के लिए वंश ने गरुड़ से समझौता किया है कि वे प्रतिदिन उसे एक नाग खाने के लिए देंगे और इसके बदले वो हमारा सामूहिक शिकार नहीं करेगा । इस प्रक्रिया में आज उसके पुत्र को गरुड़ के सामने जाना है । नागमाता की पूरी बात सुनकर जीमूतवाहन ने उन्हें वचन दिया कि वे उनके पुत्र को कुछ नहीं होने देंगे और उसकी जगह कपड़े में लिपटकर खुद गरुड़ के सामने उस शिला पर लेट जाएंगे, जहां से गरुड़ अपना आहार उठाता है और उन्होंने ऐसा ही किया । गरुड़ ने जीमूतवाहन को अपने पंजों में दबाकर पहाड़ की तरफ उड़ चला । जब गरुड़ ने देखा कि हमेशा की तरह नाग चिल्लाने और रोने की जगह शांत है । उसने कपड़ा हटाकर जीमूतवाहन को पाया । जीमूतवाहन ने सारी कहानी गरुड़ को बता दी, जिसके बाद गरुड़ ने जीमूतवाहन को छोड़ दिया और नागों को न खाने का वचन दिया है । गरुड़ द्वारा अमृत से मरे हुए नागवंशियों को जीवित कर दिया गया । दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
| Posted: 23 Sep 2021 06:13 AM PDT |
| Posted: 23 Sep 2021 06:07 AM PDT दिनकर दर्शनआज 23 सितंबर है। राष्ट्र कवि स्व रामधारी सिंह 'दिनकर' जी की जयंती है। बाल्य काल से ही उनके नाम से हम परिचित रहे हैं। मेरे साहित्यिक गुरु आचार्य पशुपति नाथ मिश्र ' प्रफुल्ल' उनके समकालीन कवि थे। जब भी किसी कविता की बात होती तो बड़े बाबूजी दिनकरजी को अनिवार्य रूप से स्मरण करते थे। तब दरभंगा जिला हिंदी साहित्य सम्मेलनों में एक ही मंच पर दिनकर जी, आरसी प्रसाद सिंह, पोद्दार रामावतार अरुण ,कलक्टर सिंह केसरी, गोपाल सिंह नेपाली के साथ आचार्य प्रफुल्ल शास्त्री भी मंच साझा किया करते थे। बड़े बाबूजी दिनकर जी की काव्य शैली में भी रचनाएँ किया करते थे। अर्थात उस काल में सर्वमान्य कवि के रूप में उन्हें जनता स्वीकार करती थी। आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री जी उसी कालखंड के महार्घ्य महाकवि थे किंतु संस्कृत निष्ठ लेखनी और भारी भरकम शब्दों के प्रयोग के कारण उन्हें श्रद्धा के योग्य तो समझती थी लेकिन सरल और ग्राह्य शब्दों के सरल प्रवाह के कारण दिनकर जी जनकवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए। बचपन में ही काव्य कीट का संक्रमण मुझे भी लग गया था। वजह घर में एक महागौनी कवि की उपस्थिति थी। उस वक्त रश्मि रथी की पंक्तियां हर उस बच्चे की जुबान पर रहती थी जो थोड़ा सा भी पढानुक थे। मेरी भी लालसा रहती थी कि कभी दिनकर दर्शन होगा। ऐसा अक्सर होता है कि जब किसी को भी आप पूरी शिद्दत के साथ चाहेंगे तो कभी न कभी आपकी सदिच्छा पूरी हो जाएगी। बहुत बार ऐसे संयोग मेरे साथ हुए हैं। 1970 में हम कालेज से मुक्त होकर घर आगये थे। नवम्बर में यह मनोकामना पूरी हुई। बताता चलूँ कि 1964 में ही तुलसी जयंती कविता पुरस्कार में प्रथम स्थान मिलने पर गीतकार गोपाल सिंह नेपाली जी के कर कमलों से पुरस्कार पाने पर चरण स्पर्श करते ही मैं भी उनकी जमात में शामिल हो गया था। यानी मैं जमुई हायर सेकेंडरी स्कूल का प्रतिनिधि कवि हो चुका था। काव्य का कीट जब संक्रमित करता है तो मियादी बुखार की तरह मियाद पूरी होने पर उतरता नहीं है। यह संक्रमण मन मस्तिष्क को इस तरह जकड़ लेता है कि कोई दवा काम नहीं करती । यह बुखार केवल और केवल बीबी की झाड़ू से ही उतरता है। यही कारण है कि कवि गण हर मंच पर बीबी से सम्बंधित कविताएँ जरूर सुनाते हैं। ओह, कहने चले क्या और कह रहा हूँ क्या । बहर हाल दिनकर दर्शन की बात चल रही थी । सो एक बिहारी युवा कवि का रूप धरे हम भी नई दिल्ली में आयोजित एफ्रो एशियन राइटर्स कान्फ्रेन्स में शिरकत करने पहुंचे । बाबा नागार्जुन की नकल करते हुए झोला लटकाया और विज्ञान भवन में घुस गए। उस दिन उदघाटन सत्र का शुभारंभ तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा जी को करना था। हम सब सज्जाद जहीर साहब के पास कार्ड पर दस्त खत कराने के लिए पँक्तिवद्ध थे । उस वक्त मैं 24 वर्ष का अविवाहित युवा था। किसी को धकिया कर आगे निकलने में लिहाज करने की जरूरत नहीं समझता था। दस्तखत कराया और झटपट मेन गेट की तरफ लपक कर गए। तभी देखा मेन गेट से थोड़ा हटकर दिनकर जी अकेले खड़े हैं। आर्य पुरुष की तरह लम्बी कद काठी , सफेद गांधी टोपी , चुस्त पायजामा, ठेहुने तक लटका कुर्त्ता । धर्मयुग , साप्ताहिक हिंदुस्तान आदि पत्रिकाओं में इनकी तस्वीर जग जाहिर थी। तभी एक महिला ने आकर उनके चरण छुए । स्वर्णाभूषण से लदी , कांजीवर्म की नीली साड़ी पहने वह अप्रतिम सुंदरी आकर्षित कर रही थी। अब हम दिनकरजी को न देखकर उसी को देखे जा रहे थे। मैं धीरे धीरे दिनकर जी के विल्कुल करीब पहुँच चुका था। मेरा बिहारी पन जग गया और मैं भी उनके चरणों में झुक कर स्पर्श किया । जब उनकी बातें उस महिला से समाप्त हुई तो पूछा - कहाँ से हो? मैंने कहा - बिहार से ।साथ में अपना नाम भी बताया। कुछ और बात बढ़ाने का मन तो था लेकिन दिनकर जी की नजरें किसी को ढूढ़ रही थी ।यह और कोई नहीं हरिवंश राय बच्चन थे जो छड़ी पकड़े विज्ञान भवन की सीढ़ियां चढ़ रहे थे। बच्चन जी आये और दिनकर जी से सलाम वन्दगी की । मैं एक पल भी गंवाना नहीं चाहता था ।मैंने बच्चन जी के चरणों का भी स्पर्श किया । बच्चन जी ने भी वही सवाल किया - कहाँ से हो। बिहार से , मैंने भी वही उत्तर दिया । ठीक है चलिए अंदर । हम पीछे पीछे हो लिए । यह भी ठान लिया कि ये जहां बैठेंगे उन्हीं के आसपास रहूँगा। तभी इंदिरा जी हाल में घुस गई। सिक्युरिटी वालों के कारण हमें अगली पँक्ति के पीछे तीसरी कतार मिली। उस दिन तो यही सब हुआ। मेरे ऑपोजिट साइड में डॉ प्रभाकर माचवे बैठे हुए थे। फोटोग्राफर एक एक कतार का फ़ोटो ले रहा था। हमारा भी लिया।लेकिन हम इस बात से बे परवाह थे कि फ़ोटो हमें हासिल होगा। दूसरे दिन के सत्र में वही फोटोग्राफर सभी फ़ोटो को दीवाल पर चिपकाए हुए था। सब अपना अपना चेहरा ढूंढ रहे थे। मैं भी लग गया। मेरा चेहरा भी मिला। जो अग्रिम पंक्ति से शॉट लिया गया। मेरे वाले फ़ोटो में दिनकर और बच्चन एक साथ बतियाते दिखे। मैंने झट फ़ोटो की डिमांड की । तब 20 रुपये देने पड़े। इस शाहखर्ची के लिए मेरे पास पर्याप्त पैसे तो नहीं थे । लेकिन यह अनमोल फ़ोटो के प्रति वैराग्य वरण नहीं कर सकता था । चलो देखा जाएगा। यह सोचकर मैने फ़ोटो ले लिया। लौटती में हम सड़क किनारे के उस होटल में नहीं गए। चार केले खाकर रात काट ली गयी। तब से यह फ़ोटो मेरी अमूल्य धरोहर के रुप में रखी है। यह हमें उस युग का बोध कराता है कि हमने हिंदी साहित्य के महान पुरोधाओं के साथ संगति की । उनकी गरिमामय उपस्थिति के बीच हम भी थे । उन्हें देखा। बातें की। क्षण भर के लिये ही तो देवता दर्शन देकर धन्य कर जाते हैं। आज फिर उसी 24 वर्षीय भावना के साथ जीवन के 74 वें वर्ष में पुनः प्रणाम कर रहा हूँ। इति शुभम। दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
| Posted: 23 Sep 2021 05:59 AM PDT भारतीय संस्कृति के मूलतत्वप्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज जी के लेखनी से । संस्कृति शब्द का अंग्रेंजी culture और धर्म का अंग्रेजी religion नहीं हो सकता। वस्तुतः अँग्रेजी के ये ये दोनों शब्द निम्न हैं और संस्कृत से निकले इन दोनों शब्दों की तरह व्यापक नहीं है। उनका ये आलेख पूरा पढ़ें, समझें, विचार करें और अपनी दृष्टि को व्यापक करें । संस्कृति शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में भी है - 'सा प्रथमा संस्कृतिः विश्ववारा। वहां इसका मूल अर्थ सार्वभौम संस्कृति से है जो विश्व में सर्वाधिक वरेण्य है। परंतु वर्तमान में अंग्रेजी के 'कल्चर' के पर्याय के रूप में जो संस्कृति शब्द चला है, उसका अर्थ इससे बिलकुल अलग है। वेद मानते हैं कि सम्पूर्ण विश्व में मानव जाति नामक एक ही जाति या प्रजाति है। स्थान भेद और कालभेद से तथा ज्ञानात्मक प्रकाश और संस्कार के प्रशिक्षण तथा साधना के भेद से मनुष्य-मनुष्य में भेद भी स्वाभाविक हैं परंतु उन सब के कुछ मूल आधार भी हैं तथा कुछ ऐसे मौलिक कर्तव्य हैं जो संसार में सभी मनुष्यों के द्वारा पालनीय हैं। तभी उनकी उन्नति होती है। नहीं तो वे मनुष्य नहीं रह जाते, राक्षस हो जाते हैं। आधुनिक यूरोपीय अर्थ में 'कल्चर', जिसे भारत में संस्कृति के रूप में अनुवाद करके प्रचारित किया गया है, वह एक नृजातीय अवधारणा है। उस अवधारणा के मूल में यह निहित है कि मनुष्यों की अलग-अलग नस्लें हैं और उनमें एक तारतम्य है जिसमें यूरोप की गोरी नस्लें सर्वोपरि है और उन्हें विश्व की बाकी सभी नस्लों के विषय में अध्ययन भी करना है और उनका मार्गदर्षन भी करना है। यही नृतत्वशास्त्र या एन्थ्रोपॉलाजी कहा जाता है। जिसके आधार पर अलग-अलग समाजों और समुदायों के रीति-रिवाजों, कानूनों, ज्ञान-सम्पदा और नैतिक आचरण का अध्ययन कर उनकी संस्कृति का स्वरूप जाना जाता है और प्रस्तुत किया जाता है। इसे ही वे सम्बिन्धत देश या समाज की संस्कृति कहते हैं। भारत की विशेषता को जानने के कारण यूरोप के इन नृतत्वशास्त्रियों ने 'इंडियन कल्चर' के विषेष अध्ययन पर चित्त एकाग्र किया और उसे ही वर्तमान भारतीय सरकारों और अकादमिक जगत के लोग भारतीय संस्कृति बता कर पढ़ते पढ़ाते हैं। इस अर्थ में संस्कृति का अर्थ हुआ 'जातीय व्यक्तित्व' या 'राष्ट्रीय व्यक्तित्व'। आधुनिक नृतत्वशास्त्रियों द्वारा जातीय व्यक्तित्व की व्याख्या में विचित्रताओं और विकृतियों को विशेष महत्व दिया जाता है। जबकि वैदिक अर्थ में जो संस्कृति है,उसमें सदाचार और श्रेष्ठ ज्ञानियों के आचरण तथा ज्ञान को ही संस्कृति कहा जाता है और उससे विचलन को विकृति कहा जाता है। इस प्रकार अगर वैदिक अर्थ में भारतीय संस्कृति शब्द का विचार करें तो उसी समय भारतीय विकृति पर भी विचार करना आवश्यक होगा। जबकि नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन में विकृति को संस्कृति की तरह ही प्रस्तुत किया जाता है। वस्तुतः इस मूल अर्थ में संस्कृति का सर्वाधिक निकटस्थ शब्द है धर्म। जो गुण, लक्षण और विशेषताएं किसी समाज को धारण करते हैं और उसकी विशेष पहचान बनाते हैं, वे ही उसका धर्म हैं और इसे ही संबंधित समाज की संस्कृति कहा जाना उचित है अतः उस अर्थ में भारतीय संस्कृति के मूल तत्व का अर्थ है सनातन वैदिक धर्म के मूल तत्व। जब आधे भारत में अंग्रेजों का राज्य था और सभी सम्पन्न लोगों में इंग्लैंड जाकर वहां के ईसाई शिक्षा केन्द्रों में पढ़ने की होड़ थी, तब ईसाइयत और इस्लाम को भी धर्म कहने की भूल की गई। परंतु अब तो स्वयं अंग्रेजी के नये शब्दकोषों में धर्म का अर्थ सृष्टि के सार्वभौम नियम अंकित है और 'रिलीजन' षब्द का अर्थ किसी पंथ प्रवर्तक द्वारा प्रचारित प्रकाशित आस्था अंकित किया गया है। अतः अब कोई भी पढ़ा लिखा व्यक्ति 'रिलीजन' को धर्म नहीं कहता और धर्म को 'रिलीजन' नहीं कहता। अतः भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों को इसी परिप्रेक्ष्य में जानना होगा। वेदों में प्रथम धर्म और सनातन धर्म (सनता धर्माणि) शब्दों का प्रयोग हुआ है। जबकि बौद्धों के साहित्य में 'ऋषि धर्म' शब्द का प्रयोग हुआ है। अतः भारतीय समाज का जो धर्म है, वही भारतीय संस्कृति कहा जायेगा। इस संदर्भ में विशेष ध्यान देने की बात यह है कि केवल भारतीय धर्मशास्त्रों में ही मानव धर्म का वर्णन है। शेष सभी रिलीजस या मजहबी पुस्तकों में अपने-अपने मजहब का ही गौरव बताया जाता है परंतु सभी मनुष्यों का कोई सामान्य गुण लक्षण नहीं बताया जाता। अन्य मजहब अपने अनुयायी मनुष्य से दूसरे मजहबों या पंथों के अनुयायियों को बिल्कुल अलग मनुष्य दिखाते हैं और मानव जाति को कम से कम दो हिस्सों में बाटंते हैं - मोमिन या काफिर अथवा फेथफुल और हीदन। इस प्रकार वे समस्त मनुष्यों के कोई सामान्य गुण लक्षण नहीं मानते। जबकि आधुनिक यूरोपीय विज्ञान समस्त मनुष्यों के सामान्य गुण लक्षण मानकर ही उस विषय में खोज करता है। इसीलिए ईसाइयत का विज्ञान से टकराव है। भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है मानव धर्म का बोध और प्रस्तुति। तदनुसार सभी मनुष्यों के द्वारा अनिवार्य रूप से पालन योग्य कुछ सार्वभौम नियम हैं जिन्हें मानव धर्म या सामाजिक धर्म और सामासिक धर्म कहा जाता है। जो सब के द्वारा पालनीय कर्तव्य हैं, उन्हें ही सार्वभौम धर्म, सामासिक धर्म या सामान्य धर्म कहा गया है। मनु के अनुसार अहिंसा, सत्य, अस्तेय, पवित्रता एवं संयम सार्वभौम धर्म हैं। विष्णु धर्मसूत्र के अनुसार क्षमा, सत्य, अस्तेय, पवित्रता, दान, इन्द्रिय संयम, अहिंसा, दया, सरल निष्छल स्वभाव, लोभ शून्यता तथा ईर्ष्याशून्यता आदि सामान्य धर्म हैं। महाभारत के शांतिपर्व में सत्य बोलना, क्रोध न करना, क्षमा, अपनी पत्नी से संतान उत्पादन, पवित्रता, ऋजुता, अद्रोह, न्याय एवं अधीनस्थों का सम्यक पोषण - ये नौ सामान्य धर्म हैं। इसके अतिरिक्त अपनी विशिष्टता के अनुरूप विशेष धर्म होते हैं, जो समाज में प्राप्त स्थिति, व्यवसाय, दक्षता, प्रतिभा, कार्य-क्षेत्र तथा स्व-भाव एवं स्व-संकल्प के अनुसार निर्धारित होते हैं। जैसे- यदि आपने संकल्प किया कि आज मैं प्रातः अमुक श्रेष्ठ कार्य (दान, यज्ञ, सेवा, करूणा आदि) करूँगा तो उस स्व-संकल्प के कारण वह उस समय आपका विशिष्ट धर्म होगा। वर्ण-धर्म, आश्रम-धर्म, राजधर्म, गुरु-धर्म, छात्र-धर्म आदि सब विशिष्ट धर्म ही हैं। प्रत्येक व्यक्ति का सामाजिक एवं आध्यात्मिक कर्तव्य उसका स्वधर्म है। इसमें सामान्य धर्म एवं विशिष्ट धर्म दोनों का समन्वय है। योगदर्शन में कहा है कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य (संयम) एवं अपरिग्रह-ये पाँच सार्वभौम यम हैं। सभी के द्वारा सभी समय में करणीय कर्तव्यों का निकष ये पाँच धर्म-कर्तव्य हैं। अपनी विशेष स्थिति के कारण वृत्ति-विशेष (जाति), देश-विशेष एवं काल-विशेष के अनुसार इनमें कतिपय सीमाएँ आ सकती हैं। धर्म के सन्दर्भ में योगदर्शन से सर्वाधिक प्रकाश मिलता है। योगसूत्र के व्यास भाष्य की पहली ही पंक्ति सपष्ट कहती है - योग्यतावच्छिन्ना धर्मिणः शक्तिः एव धर्मः। किसी धर्मी की योग्यता से विशेषित शक्ति ही उसका धर्म है। जैसे दाहकता अग्नि का धर्म है। दान देना दानी का धर्म है। पढ़ना विद्यार्थी का धर्म है। पढ़ाना अध्यापक का धर्म है। अर्थात जिससे जिस वस्तु या व्यक्ति की पहचान हो, वही उसका धर्म है। योग की भाषा में उसे यों कहा गया है 'पदार्थ का बुद्ध भाव ही धर्म है' यानी जिससे जिसका बोध हो, वही उसका धर्म है। इस प्रकार, योगदर्शन में तीन मूल धर्म बाहरी हैं - प्रकाश, कार्य, एवं जड़ता। इसी प्रकार तीन मूल धर्म आभ्यन्तर हैं - ज्ञान (बोध), क्रियाशीलता एवं स्थिति या धृति। कब क्या करणीय है, क्या अकरणीय है, इसका ज्ञान ही धर्माधर्म-विवेक है, जो ज्ञानपूर्वक ही अर्जित होता है। विवेक क्या है? योगदर्शन कहता है - सत्वगुण-प्रधान बुद्धि विवेकबुद्धि है। आत्मस्वरूप का दर्शन ही विवेक का आधार है। व्यक्ति में सर्वप्रथम विवेकज्ञान शास्त्रों के अध्ययन या श्रवण से होता है। बाद में युक्तिपूर्ण चिंतन-मनन द्वारा उसे दृढ़तर एवं स्पष्टतर करना होता है। विवेकज्ञान की दृढ़ता को ही ज्ञान-दीप्ति कहा जाता है। इस प्रकार विवेक की साधना केवल संयम-सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा ही सम्भव है। सत्वगुण-प्रधान बुद्धि का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में भलीभाँति किया गया है। जो बुद्धि कर्तव्य और अकर्तव्य को, अभय और भय को तथा बन्धन एवं मोक्ष को यथार्थतः जानती है, वह सत्व-प्रधान बुद्धि है। इसी प्रकार 'सात्विक ज्ञान वह है जो समस्त प्राणियों में एक ही अविनाशी को, चेतना को एवं परमसत्ता को समभाव से स्थित देखता है। यह सात्विक बुद्धि केवल अहिंसक चित्तभूमि के साथ ही सम्भव है। अहिंसा की परिभाषा है - ''सर्वथा सर्वदा समस्त प्राणियों के प्रति एवं प्रकृति के प्रति अनभिद्रोह ही अहिंसा है। केवल प्राणिपीड़ा का त्याग ही अहिंसा नहीं है अपितु प्रकृति, परिवेष एवं प्राणियों के प्रति मैत्री, करुणा एवं मुदिता वृत्तियों का पोषण भी अहिंसा का अनिवार्य अंग है।' यहाँ प्रश्न उठेगा कि चित्त-भूमि क्या है? योगदर्शन कहता है - दृष्टा, आत्मसत्ता, चैतन्यरूप है। इस चैतन्य द्वारा ही बुद्धि चेतन होकर सभी उपस्थित विषयों को प्रकाशित करती है। जो प्रकाशित होता है यानी जिसका ज्ञान होता है, वह - रूप, रस, गंध, स्पर्ष, शब्द आदि का सम्पूर्ण विस्तार-दृश्य है। चित्त द्वारा उनका ज्ञान होता है। ज्ञान, प्रवृत्ति (क्रियाशीलता) एवं स्थिति या धृति शक्ति से सम्पन्न अन्तःकरण ही चित्त है। समस्त बोध-रूप चित्त की ही वृत्तियाँ हैं। इन्हें ही योगदर्शन में प्रत्यय भी कहा जाता है। सभी प्रत्यय चित्त के दिखनेवाले धर्म हैं। साथ ही, चित्त में संस्कार भी अपरिदृष्ट रूप में रहते हैं। प्रत्यय एवं संस्कारों से सम्पन्न चेतना को ही चित्त कहा जाता है। चित्त को हम उसकी वृत्तियों से ही पहचानते हैं। वृत्तियों के लीन होने की दशा में चित्त के भी लीन होने की दशा है। योग दर्षन में पाँच प्रकार की चित्तवृत्तियाँ वर्गीकृत हैं:- (चित्तवृत्तियों को ही बुद्धिवृत्ति भी कहते हैं):- प्रमाण अर्थात् यथार्थ बोध, विपर्यय अर्थात् अयथार्थ बोध, विकल्प अर्थात् सम्बन्धित वस्तु से भिन्न अन्य वस्तु की भ्रांति में लिप्त रहना। स्मृति अर्थात अनुभूत भाव का पुनः अनुभव, निद्रा अर्थात् अभावात्मक वृत्ति का (क्षीण सा) बोध। उल्लेखनीय है कि मन को चित्त नहीं समझना चाहिए। मन तो संकल्प इन्द्रिय है एवं ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों का आभ्यन्तरिक केन्द्र है। मन जिन विषयों को ग्रहण करता है, धारण करता है या जिनमें प्रवृत्त होता है, उनका ज्ञान रखनेवाली शक्ति चित्त है। मानव-जीवन के चार पुरूषार्थ मानव-जीवन के चार पुरूषार्थ हैंः धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष। इनमें से तीन लोक-जीवन में साध्य पुरूषार्थ हैं यानी वे सामाजिक पुरूषार्थ हैं, लौकिक पुरूषार्थ हैं। चौथा पुरूषार्थ निजी है, अलौकिक है। वह परम पुरूषार्थ है। परम का अर्थ यहाँ 'मूल' या 'मुख्य' से नहीं है, अपितु 'सर्वोच्च' एवं 'सबसे परे' से है। मोक्ष सामाजिक जीवन का लक्ष्य नहीं है। जीवन के लक्ष्यों को जिसके ज्ञान से अधिप्रमाणित किया जाता है, जो समस्त जीवन-लक्ष्यों के यथार्थ को और परमार्थ को प्रकाशित करता है, वह है परम पुरूषार्थ। अतः जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति किसी भी एक कार्य या व्यवसाय में सर्वोच्च नहीं हो सकता, यद्यपि सिद्धान्ततः प्रत्येक व्यक्ति को सर्वोच्च होने का प्रयास करने का अधिकार भी है और कर्त्तव्य भी हो सकता है, उसी प्रकार सर्वोच्च या परम पुरूषार्थ मोक्ष प्रत्येक व्यक्ति द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता, यद्यपि वह प्रत्येक द्वारा प्राप्य है। मोक्ष, मनुष्य का सामान्य धर्म नहीं है। वह परम धर्म है, विशिष्ट धर्म है। मनुस्मृति ने स्पष्ट कहा है कि सभी मनुष्यों के लिए तीन पुरूषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, एवं काम। वस्तुतः मोक्ष मनुष्यों का सामान्य धर्म या सर्वसामान्य लक्ष्य कभी भी नहीं माना गया है। मनुस्मृति स्पष्ट कहती है- धर्मार्थौ उच्यते श्रेय, कामार्थौ धर्म एव च। अर्थ एवैह वा श्रेयः, त्रिवर्ग इति तु स्थितिः।। (कुछ का मत हैै कि धर्म एवं अर्थ की साधना श्रेयस्कर है, कुछ के अनुसार काम और अर्थ की तथा कुछ के मत से केवल धर्म की। इस विषय में सम्यक् स्थिति यह है कि धर्म, अर्थ एवं काम- ये तीनों ही (त्रिवर्ग) श्रेयस्कर हैं।) मनु ने स्पष्ट कहा है कि तीनों ऋणों (देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण) से मुक्त होकर ही मन को मोक्ष में निविष्ट करे (ऋणानि त्रीणि अपाकृत्य मनो मोक्षे निवेषयेत)। ऋण चुकाये बिना जो मोक्षार्थी होता है, वह अधोलोकों में जाता है (अनपाकृत्य मोक्षं तु सेवमानो व्रजति अधः)। जो भी द्विज वेदों का अध्ययन किये बिना, पुत्रोत्पत्ति किये बिना एवं यज्ञ-सम्पादन किये बिना मोक्ष की इच्छा करता है, वह अधोगति को प्राप्त होता है। स्पष्ट है कि जिनके मन किसी भी सामान्य गृहस्थी की आकांक्षा से मुक्त हैं, केवल वे ही जन्म-जन्मान्तर के अपने उन्नत संस्कारों के फलस्वरूप सीधे मोक्ष-साधना में प्रवृत्त हो सकने के अधिकारी हैं। मनु ने ही स्पष्ट किया है- 'सर्वस्व दक्षिणा देकर, सन्यस्त होकर, समस्त प्राणियों को अभय देकर जो घर से निकल कर प्रव्रज्या करता है, उस ब्रह्मवादी को तेजोमय लोक प्राप्त होते हैं।' धर्म, अर्थ एवं काम इस प्रकार त्रिवर्ग ही सामान्यतः धर्म है। मोक्ष-धर्म अति विशिष्ट धर्म है। वह समस्त पुरूषार्थों की निवृत्ति है, समाप्ति है। यहां 'धर्म' के अर्थों का सदा स्मरण आवश्यक है। जो जिसका सहज स्वभाव एवं सहज कर्त्तव्य है, वह उसका धर्म। जो समस्त मानवों द्वारा करणीय कर्त्तव्य हैं, वे हैं सामासिक धर्म या सामान्य धर्म। फिर, अपनी विशेष स्थिति के अनुरूप करणीय कर्त्तव्य हैं अपना विशेष धर्म या स्वधर्म। इस प्रकार धर्म का एक व्यापक अर्थ है और एक विशिष्ट। व्यापक अर्थ में जो कुछ भी कर्त्तव्य है, वह सब धर्म ही है। अतः काम एवं अर्थ भी जहाँ तक करणीय है, वहाँ तक वे धर्म ही हैं। इसीलिए धर्ममय काम एवं धर्ममय अर्थ ही साध्य हैं। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- 'धर्माविरूद्धो भूतेषु कामोेस्मि भरतर्षभ।' प्राणियों में धर्म का अविरोधी काम मैं स्वयं हूँ। यज्ञ: स्वरूप एवं अर्थ भारतीय दृष्टि को समझने के लिए धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष के साथ सृष्टि-चक्र (यज्ञ) को समझना भी आवश्यक है। ऋग्वेद में यज्ञ को 'भुवनस्य नाभिः' कहा है। पुरूषसूक्त में कहा है- 'सर्वहुत यज्ञ से ही वेदोें तथा समस्त पदार्थों की उत्पत्ति हुई। ब्राह्मण ग्रन्थों में से अधिकांष में यज्ञों का सही स्वरूप विस्तार से वर्णित है। ऐतरेय ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण जैसे प्राचीन ब्राह्मण ग्रन्थों में यह वर्णन विस्तार और गहराई तथा स्पष्टता से देखा जा सकता है। उनमें यज्ञ की व्याख्या बहुत ही साफ-साफ की गई है। यह सृष्टि मात्र मानवीय शक्ति पर आश्रित नहीं है। मानवीय शक्ति सृष्टि-प्रक्रिया का एक अंश है। सृष्टि की शक्तियाँ इससे बहुत विराट हैं, महत् हैं। वे देव-शक्तियाँ हैं। विश्व उन्हीं देव-शक्तियों की विसृष्टि है। अतः मनुष्य भी देव-शक्तियों की ही क्रिया और फल है। देव-शक्तियाँ ही असुर भी हैं। देवत्व और असुरत्व में कोई आत्यन्तिक विभाजन अथवा विरोध नहीं है। ऋत और सत्य से अनुशासित-मर्यादित सामर्थ्य देवत्व है। यह सामर्थ्य जब, जहाँ मर्यादा का उल्लंघन करे तब, वहाँ वह असुरत्व है। शक्ति वही है, अनुशासन और प्रयोजन की भिन्नता से उसका चरित्र भिन्न हो जाता है। रामेश्वर मिश्र पंकज दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
| Posted: 23 Sep 2021 05:45 AM PDT पुस्तक ............ज्ञान है विज्ञान है, अध्यातम है पुस्तक, सृष्टि के कण- कण का प्राण है पुस्तक। देव दानव, किन्नरों की पहचान है पुस्तक, माँ बहन, बेटी पत्नी का सम्मान है पुस्तक। मंदिर मे गीता रामायण, पुराण है पुस्तक, मस्जिद गुरूद्वारे, चर्च की शान है पुस्तक। बीते हुए युगों की शान, दास्तान है पुस्तक, अतीत है भविष्य है, वर्तमान है पुस्तक। कर्मों का लेखा जोखा, निदान है पुस्तक, जीवन के पल-पल का, विधान है पुस्तक। इज्ज़त है आबरू है, मेरा ईमान है पुस्तक, पूजा पाठ, धर्म-कर्म, और दान है पुस्तक, ईश्वर की भक्ति का, गुणगान है पुस्तक। मेहनत का फल मिलता, सम्मान है पुस्तक, चोर उच्चकों, बेईमानों का अपमान है पुस्तक। राणा शिवा और लक्ष्मी की, शान है पुस्तक, राधा और मीरा के प्रेम का,बखान है पुस्तक। वेद उपनिषद की बात, पुराण है पुस्तक, सत्य की विजय गाथा, निर्वाण है पुस्तक। अन्तरिक्ष पाने की चाह, अनुसंधान है पुस्तक, विजय ध्वज फैराना है, अभियान है पुस्तक। चिड़िया की आँख का, संधान है पुस्तक, मनुष्य के चरित्र का, निर्माण है पुस्तक। दादा और पिता का, अभिमान है पुस्तक, कुछ तो बाकी रह गया, नाम है पुस्तक। डॉ अ कीर्तिवर्धन दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
| Posted: 23 Sep 2021 05:39 AM PDT तीन दिवसीय निःशुल्क हृदय जांच शिविर के पहले दिन मरीजों की हुई जांच, 24 एवं 25 सितंबर को भी होगी जांच।
जमशेदपुर से हमारे संवाददाता मुकेश कुमार कि रिपोर्ट जमशेदपुर। शहर के युवा समूहों द्वारा संचालित सामाजिक संस्था कोशिश 'एक मुस्कान लाने की' एवं नाम्या स्माइल फाउंडेशन के संयुक्त तत्वावधान में एग्रिको क्लब हाउस में तीन दिवसीय हृदय जांच शिविर का शुभारंभ गुरुवार को हुआ। शिविर का शुभारंभ नाम्या फाउंडेशन के संस्थापक अध्यक्ष कुणाल षाड़ंगी, कोशिश संस्था के संरक्षक दिनेश कुमार, राजेश सिंह बम एवं निकिता मेहता ने संयुक्त रूप से किया। कोलकाता फोर्टिस अस्पताल के सौजन्य से लगाये गए शिविर में सैकड़ो मरीजों ने अपने हृदय की जांच कराई। शिविर में मरीजों के लिए ब्लड प्रेशर, ब्लड शुगर जांच के साथ ईसीजी की भी निःशुल्क व्यवस्था की गई थी। प्रातः 9 बजे से दोपहर 1 बजे तक चले शिविर में सौ से अधिक मरीजों की जांच की गई। जहां मरीजों की स्क्रीनिंग हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ वी आर के सिन्हा एवं डॉ मतीन अहमद खान ने किया। ह्रदय की समस्या से गंभीर रूप से पीड़ित मरीजों को बेहतर इलाज के लिए डॉ केएम मंदाना को रेफर किया गया है। जो 25 सितंबर को गंभीर ह्रदय रोग से पीड़ित मरीजों की जांच करेंगे। इस अवसर पर नाम्या स्माइल फाउंडेशन के अध्यक्ष कुणाल षाड़ंगी ने बताया कि कोरोना जैसी महामारी ने आमजनों को अपने हृदय के देखभाल के प्रति जागरूक और सचेत कर दिया है। आज शहर की भागदौड़ भरी जिंदगी, प्रदूषण और खानपान ने लोगों के स्वास्थ्य को प्रभावित किया है। ऐसे में कोशिश 'एक मुस्कान लाने की' एवं नाम्या स्माइल फाउंडेशन द्वारा तीनदिवसीय निःशुल्क जांच शिविर के माध्यम से जांच कर उन्हें ह्रदय की बीमारियों के प्रति जागरूक किया गया है। कहा कि शिविर में स्वास्थ्य लाभ लेने आये लोगों की संख्या से शिविर का आयोजन संतोषजनक है। वहीं, कोशिश संस्था के संरक्षक दिनेश कुमार ने कहा कि आज ह्रदय से संबंधित जांच एवं परामर्श काफी महंगी हो गयी है। नाम्या एवं कोशिश संस्था द्वारा ऐसे सार्वजनिक और निःशुल्क आयोजन के माध्यम से शहर के जरूरतमंद मरीजों तक पहुंचने का प्रयास किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि 23 और 24 को स्क्रीनिंग के पश्चात 25 सितंबर को कोलकाता फोर्टिस के डॉ के एम मंदाना एवं डॉ अशीमा भलोटकर जी द्वारा मरीजों के जांच एवं उपचार किया जाएगा। बताया कि प्रतिदिन दो सौ लोगों के जांच का लक्ष्य रखा गया है। जिसमें संस्था के युवा सदस्यगण मरीजों की सेवा में लगे हैं। हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ वी आर के सिन्हा ने युवाओं को धूम्रपान छोड़ने और खाने में कम नमक लेने की सलाह दी। साथ ही मार्निंग वॉक करने और खाने में हरी सब्जी के इस्तेमाल की बात कही। इस दौरान चंद्रशेखर मिश्रा,भाजपा जिलाध्यक्ष गुँजन यादव, सुधांशु ओझा, हलदर नारायण शाह, धर्मेंद्र प्रसाद, अमरजीत सिंह राजा, ज्योति अधिकारी, रश्मि भारद्वाज, नीलू झा, निधि केडिया, निखिल समेत संस्था के राजेश सिंह, राकेश गिरी, करण सिंह, प्रेम झा, ह्नन्नी परिहार, बंटी सिंह, पप्पू कुमार, पीयूष इशू, शेखर बाबू, अंकित अरोड़ा, अखिलेश तिवारी, अजय जायसवाल, लावण्या चक्रवर्ती, कुमार गौतम, शैलेंद्र प्रसाद, रोहित सिंह, शेखर बाबू, अमित वर्मा, सुबोध कुमार, संजू कुमार, धीरज सिंह, स्वरुप कुमार, अभ्यानंद सिंह, कुमार विवेक, अविनाश मिश्रा, सुमित कुमार, रमेश राजू, राणा प्रताप, अनिल कुमार, राकेश राव, राजा अग्रवाल, अभिषेक व अन्य सदस्य उपथित थे। दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
| जमशेदपुर mgm अस्प्ताल के डॉ अमित कुमार ने अपने आप को मारा गोली। Posted: 23 Sep 2021 05:36 AM PDT जमशेदपुर mgm अस्प्ताल के डॉ अमित कुमार ने अपने आप को मारा गोली।जमशेदपुर से हमारे संवाददाता मुकेश कुमार कि रिपोर्ट जमशेदपुर mgm अस्प्ताल के डॉ अमित कुमार ने अपने आप को मारा गोली। घायल डॉ अमित कुमार आदित्यपुर निवासी है जिनका शादी कुछ माह में होना था मगर अचानक घर मे अपने आप को गोली मार किया आत्महत्या का प्रयास । जहा उनका इलाज tmh अस्प्ताल में चल रहा जहा घायल डॉ का हाल जानने आदित्यपुर उप महापौर बॉबी सिंह ने कहा कैसे क्या हुवा जानकारी नही मगर गोली मारी है जिनका इलाज चल रहा है । वही पूर्व विधायक मलखान सिंह ने कहा हालात गंभीर है एक गोली मारा है जो mgm सरकारी अस्पताल में पदस्थापित है । जहा आदित्यपुर ने कहा जांच का विषय फिलहाल जान बचाने में अस्प्ताल के डॉ जुटे है गोली मारने का कारण का जानकारी नही । दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
| 25 सितम्बर को गणतंत्र की जननी वैशाली से जीकेसी करेगी शंखनाद यात्रा की शुरूआत Posted: 23 Sep 2021 05:00 AM PDT 25 सितम्बर को गणतंत्र की जननी वैशाली से जीकेसी करेगी शंखनाद यात्रा की शुरूआत
हमारे संवाददाता जितेन्द्र कुमार सिन्हा कि खास खबर राजनीतिक उपेक्षा, हक और अधिकार से वंचित किये जाने से आहत, कायस्थ समाज राष्ट्रीय स्तर पर विरोध का विगूल फूकेंगा। इसके लिए देश की राजधानी नयी दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में आगामी 19 दिसंबर को राष्ट्रीय- अंतराष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किये जा रहे विश्व कायस्थ महासम्मेलन में कायस्थ समाज एकजुट होकर अपनी आवाज को बुलंद करेगा। इसक्रम में बिहार में गणतंत्र की जननी वैशाली के हाजीपुर से 25 सितंबर से जीकेसी (ग्लोबल कायस्थ कॉन्फेंस) शंखनाद यात्रा की शुरूआत कर रहा है। जीकेसी के राष्ट्रीय प्रवक्ता कमल किशोर ने बताया कि आगामी 25 सितम्बर को जीकेसी शंखनाद यात्रा की शुरूआत वैशाली जिले के हाजीपुर से की जा रही है। इसी दिन समस्तीपुर में भी यात्रा की दूसरी बैठक होगी। उन्होंने बताया कि 26 सितम्बर को मुजफ्फरपुर और मोतिहारी में, 28 सितम्बर को गोपालगंज और छपरा में, 30 सितंबर को भागलपुर में, 02 अक्टूबर को जहानाबाद और गया में, 03 अक्टूबर को औरंगाबाद और सासाराम में, 04 अक्टूबर को बिहारशरीफ में, 16 अक्टूबर को बक्सर और भोजपुर, 17 अक्टूबर को बेगूसराय और मुंगेर में, 23 अक्टूबर को कटिहार, 24 अक्टूबर को पूर्णिया और खगड़िया, और 31 अक्टूबर को नवादा और जमुई में बैठक होगी। शंखनाद यात्रा में जीकेसी की प्रबंध न्यासी रागिनी रंजन, प्रदेश अध्यक्ष डा. नम्रता आनंद समेत कई राष्ट्रीय पदाधिकारी, बिहार प्रदेश अध्यक्ष, प्रमंडल प्रभारी एवं जिला प्रभारी भाग लेंगे। दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
| Posted: 23 Sep 2021 04:53 AM PDT सच्चा तिलांजलि ~ डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश" """"""""""""""""""""v"""""""""""""""""""" लोगों की सेवा में रत नित रहा करो , जबभी मिले मौका करो बड़े चाव से। निर्वहन सिर्फ सत्कर्मों का किया करो, सेवा करो तो नेक समर्पण के भाव से। नेक कर्म कर कुछ जगत में ऐसा, ईर्ष्या-द्वेष त्याग अपने वयादर से। हर कोई गुणगान करे यश तुम्हारा, लोग सभी शीश झुकाए आदर से। छोड़ व्यर्थ यूँ ही झूठा दम्भ भरना, नर से डरते नहीं तो डरो फादर से। दुखियारों का दुःख श्रद्धा से बांटो, सम्मानित करे लोग रेशमी चादर से। जिसने तेरा अस्तित्व दिया जमीं पर, उनका मान बढ़ाओ सत् कर्मो से। तभी खत्म होगा पितृऋण तुम्हारा, तर्पण करो संचित मानवीय धर्मो से। जिंदगी भर उनका किया है शोषण, व्यर्थ के दिखाबे और आडंबर से। अब तो दे सच्चा तिलांजलि उन्हें, दे आशीष आत्मा उनकी अंबर से। दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com |
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