जनवादी पत्रकार संघ |
| Posted: 11 Jul 2020 09:29 PM PDT |
| रामकृष्ण परमहंस क्यों कहते थे अपनी पत्नी को मां Posted: 11 Jul 2020 09:18 PM PDT रामकृष्ण परमहंस यानी एक ऐसा संन्यासी जो गृहस्थ था और एक ऐसा ज्ञानी जो विद्वान नहीं था। परमहंस सिद्धि के शिखर तक पहुंच चुके थे। जानिए वे क्यों कहते थे अपनी पत्नी को मां। रामकृष्ण परमहंस यानी एक ऐसा संन्यासी जो गृहस्थ था और एक ऐसा ज्ञानी जो विद्वान नहीं था। परमहंस सिद्धि के शिखर तक पहुंच चुके थे और उन्होंने मां काली का साक्षात्कार किया था, लेकिन वे पुस्तकीय ज्ञान के बजाय भक्ति पर अधिक जोर देते थे। उस जमाने में वे साधारण साक्षर थे और उन्होंने खुद के बारे में कुछ नहीं लिखा लेकिन विश्व का आध्यात्मिक साहित्य उनके जिक्र के बिना अधूरा है। लोग अक्सर पहले स्वामी विवेकानंद को जानते हैं। उनकी महानता और जीवन के प्रति दृष्टि को देखकर वे यह जानना चाहते हैं कि जब स्वामीजी इतने महान हैं तो उनके गुरुदेव निश्चित रूप से बहुत महान रहे होंगे। फिर वे रामकृष्ण परमहंस के बारे में जानने की कोशिश करते हैं। 18 फरवरी 1836 को पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के कामारपुकुर गांव में जन्मे रामकृष्ण परमहंस मां काली के भक्त थे। जिस समय बंगाल बड़े-बड़े दार्शनिकों, विद्वानों और समाज सुधारकों का केंद्र था, तब दक्षिणेश्वर काली मंदिर में बैठा यह साधारण से भी साधारण लगने वाला पुजारी, विद्वता, प्रचार जैसी बातों से कोसों दूर था। परमहंस अंग्रेजी नहीं जानते थे और न ही उन्होंने पश्चिमी दार्शनिकों का अध्ययन किया था। वे उन दार्शनिकों को जानते भी नहीं थे, लेकिन वे मां काली को जानते थे और रोज उसका साक्षात्कार करते थे। उन दिनों यह अफवाह फैली थी कि दक्षिणेश्वर में आध्यात्मिक साधना के कारण रामकृष्ण का मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। वे मां की याद में रोना शुरू करते तो काफी देर तक रोते ही रहते। तब उनके परिजनों ने फैसला किया कि अब रामकृष्ण का विवाह कर देना चाहिए। शायद इससे उनका ध्यान गृहस्थी की ओर जाएगा। उनका विवाह हो गया, लेकिन रामकृष्ण की भक्ति-साधना में कोई बाधा नहीं आई। रामकृष्ण अनूठे साधु थे। एक बार पत्नी शारदा ने उनसे पूछा, आप मुझे किस रूप में देखते हैं? रामकृष्ण का जवाब था- उसी मां काली के रूप में जो दक्षिणेश्वर मंदिर में विराजमान है। वे शारदा को ही नहीं बल्कि समस्त महिलाओं व बच्चियों में मां काली का ही दर्शन करते थे। रामकृष्ण परमहंस के उपदेश बहुत गंभीर और कठिन नहीं हैं। उन्हें विद्वान से लेकर साधारण साक्षर तक, हर कोई समझ सकता है, लेकिन उनका भाव बहुत गंभीर और गहरा है। ईश्वर है या नहीं - इस पर रामकृष्ण कहा करते थे - रात में आकाश की ओर देखने से तारे दिखाई देते हैं लेकिन सुबह सूर्योदय के बाद एक भी तारा नहीं दिखता, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि आकाश में तारे ही नहीं हैं। इसलिए हे मनुष्य, अगर तुम ईश्वर को नहीं देख सकते तो यह मत कहो कि ईश्वर नहीं है। #काली_पुत्र🌺 |
| *भारत-चीन रिश्ते एक यह दृष्टि भी* Posted: 11 Jul 2020 05:57 PM PDT १२ ०७ २०२० *भारत-चीन रिश्ते एक यह दृष्टि भी* भारत-चीन रिश्तों को परिभाषित करने वाला तालमेल अब लगभग भंग हो चुका है। जरा सोचिये, इस मतैक्य के प्रमुख तत्त्व क्या थे? जब ध्यान से सोचेंगे,कुछ ऐसी बातें नजर आयेंगी जो वर्तमान परिदृश्य में ध्यान में रखना जरूरी हैं | जैसे कभी भारत चीन के लिए खतरा नहीं था और न अब है इसके विपरीत चीन का दृष्टिकोण हमेशा भारत के लिए, संदेहास्पद रहा है । एशिया महाद्वीप और समूचे विश्व में दोनों देशों की प्रगति के लिए पर्याप्त गुंजाइश थी पर चीन ने भारत को बाज़ार समझा । चीन ने हमेशा भारत से आर्थिक अवसर समेटे । इन बातों के चलते दोनों देश सीमा विवाद का राजनीतिक हल चाह रहे थे ताकि वे साझा हितों वाले तमाम वैश्विक मुद्दों पर मिलकर काम कर सकें। अब ये बातें खटाई में पडती नजर आ रही हैं | २००५ में चीन के प्रधानमंत्री वेन च्यापाओ की भारत यात्रा के दौरान सहयोग की जो बातें साफ नजर आई वे २००९ के बाद से यह लगातार छीज रही थी। आखिरी बार भारत और चीन २००९ कोपनहेगन में आयोजित जलवायु परिवर्तन शिखर बैठक में साथ नजर आये । इसके विपरीत २०१० में च्यापाओ की भारत यात्रा के समय यह बदलाव तब नजर आया जब उन्होंने कहा कि सीमा विवाद हल होने में लंबा समय लगेगा। २०१५ में पेरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के दौरान अमेरिका और चीन की बातें समझौते का आधार बनीं। भारत तब चीन के लिए उतना अहम नहीं रहा था। चीन ने खुद को अमेरिका के सामने मानक के रूप में पेश करना शुरू कर दिया और अन्य उभरते देशों के साथ अपने रिश्ते कायम करने लगा। अब एशियाई तथा विश्व स्तर पर भी चीन के लिए भारत के साथ रिश्ते उतने अहम नहीं रहे थे। चीन तब भी मानता था और अब भी मानता है कि एशिया में केवल चीन के विस्तार और उभार की गुंजाइश है, भारत के लिए नहीं। अब तो मतैक्य का पूरी तरह अंत हो गया है। हालांकि इस बीच भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच शिखर बैठकों के कई दौर हुए। दरअसल चीन अपने इरादे छिपाने में कामयाब रहता है और विरोधियों को आश्वस्त होने देता है। यह उसकी फितरत है | इस फितरत से अलहदा चीन का भारत को नीचा दिखाने की कोशिश भी एक अतिरिक्त वैचारिक पहलू भी है। वह भारत की लोकतांत्रिक राजनीति को अस्तव्यस्त और नाकाम दिखाने के साथ-साथ यह दिखाना चाहता है कि सत्ता का चीन मॉडल अधिक श्रेष्ठ है। चीन का अधिनायकवादी शासन महामारी के उभार को चिह्नित करने में नाकाम रहा और उसने दुनिया को पारदर्शी तरीके से इसके खतरों से अवगत नहीं कराया। एक उदार लोकतांत्रिक देश में ऐसा करने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था, परंतु चीन ने अत्यंत कड़ाई से इस समस्या से निपटते हुए अपनी इस नाकामी को ढक दिया। जिसे दुनिया को चीन के बेहतरीन मॉडल की एक खतरनाक नाकामी के रूप में देखना था, वह महामारी से निपटने की शानदार सफलता के प्रदर्शन में बदल दिया गया। चीन का मुकाबला करने के लिए यह आवश्यक है कि हमारे उदार लोकतंत्र और भारतीय संविधान में उल्लिखित मूल्यों के प्रति भरोसा कायम किया जाए। यह खेद की बात है कि हमारे देश में चीन को मॉडल मानकर उसका अनुकरण करने की प्रवृत्ति रही है। लगातार ऐसा सुनने में आता है कि लोकतंत्र होने के नाते भारत पीछे रह गया। बगैर व्यक्तिगत स्वतंत्रता को त्यागे देश के बहु-सांस्कृतिक, बहुभाषीय, बहुधार्मिक और बहुजातीय समाज का बेहतरीन प्रबंधन करना हमारी बहुत बड़ी सफलता है। यह हमारी बहुत बड़ी ताकत है। |
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