जनवादी पत्रकार संघ - 🌐

Breaking

Home Top Ad

Post Top Ad

Monday, August 17, 2020

जनवादी पत्रकार संघ

जनवादी पत्रकार संघ


मीडिआ को भस्मासुर बनाने में कांग्रेस भी कम दोषी नही

Posted: 16 Aug 2020 10:30 PM PDT


मीडिया को भस्मासुर बनाने में कांग्रेस भी कम दोषी नहीं
- - - - -
शकील अख्तर
अभी दो दिन पहले ही लिखा था कि पत्रकारिता बहुत खराब हालत में है। मगर यह नहीं मालूम था कि ये टीवी चैनल किसी की जान भी ले लेंगे। यह टीवी लिंचिंग
है! न्यूज चैनलों की जहरीली डिबेट ने कांग्रेस के जुझारू नेता और प्रवक्ता राजीव त्यागी की जान ले ली। इन चैनलों को किस बात के लिए लाइसेंस मिला था? पत्रकारिता के लिए या नफरत, विभाजन, झूठ की भड़काऊ डिबेटों में फंसाकर लोगों का मारने के लिए?
अभी जिस चैनल पर जयचंद जयचंद सुनकर अपमान की आग में उद्वेलित होते हुए राजीव त्यागी को हार्ट अटैक आया उस चैनल के एडिटर कुछ समय पहले ही अपनी ही एक भड़काऊ एंकर को इटंरव्यू देते हुए कह रहे थे कि हमें कोई पत्रकारिता नहीं सिखाए! सही कहा! जिन्होंने सबसे पहले बलात्कार का नाट्य रूपांतरण दिखाया हो उन्हें पत्रकारिता कौन सिखा सकता है? बलात्कार टीवी के परदे पर दिखाया जा रहा है? ये पत्रकारिता है?
पत्रकारिता कभी सत्य, सूचना, संवेदना जागरूकता, वैज्ञानिक नजरिया फैलाने का माध्यम थी। आज वह फुफकार रही है। राजीव त्यागी के माथे पर लगे टीके का
उपहास कर रही है। कांग्रेस के एक प्रवक्ता गौरव वल्लभ ने कहा कि हमारे माइक बंद कर देते हैं। विशेषज्ञों के नाम पर तीन चार लोग और बैठा लेते हैं। हमारे और पार्टी नेताओं के खिलाफ अपशब्द कहते हैं। उन्होंने साफ कहा
है कि मैं समझ सकता हूं कि डिबेट के दौरान राजीव त्यागी पर क्या दबाव रहा होगा।
कांग्रेस के कुछ और नेताओं की भी आत्मा जागी है। उन्होंने भी सवाल उठाए हैं। मगर क्या उन्हें याद नहीं कि इस विष वृक्ष को रोपने, खाद, पानी देने का काम उन्होंने ही किया था? यह कहना बिल्कुल गलत है कि यह जहर पिछले छह सालों में फैला। उपर जिस बलत्कार की टीवी नाट्य प्रस्तुति का जिक्र किया है वह भी छह साल पहले की घटना है। उस समय टीवी चैनलों और कांग्रेस के कुछ
मंत्रियों और नेताओँ के बीच अलिखित समझौता था कि तुम हमें बख्शना, हम तुम्हें! चैनल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, राहुल, कुछ मंत्रियों और नेताओं को निशाना बनाते थे और कुछ पर दया दृष्टि बरसाते रहते थे। आज कांग्रेसी अगर रो रहे हैं तो इनकी कौन सुनेगा?
जो आपबीती, तथ्य आज कांग्रेस प्रवक्ता प्रो. गौरव वल्लभ बता रहे हैं, वे राजीव त्यागी सहित कांग्रेस के कई प्रवक्ताओं ने अपने नेताओं को बताए। अपने और पार्टी नेतृत्व के अपमान और उपहास की दास्तान सुनाई। मगर किसी जिम्मेदार नेता ने टीवी मालिकों, एडिटरों, एंकरों से बात नहीं की। कांग्रेस के बड़ी ठसक रखने वाले मंत्री रहे एक नेता से एंकर कह रहा है, मिर्ची क्यों लग रही है?
मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। विज्ञान भवन में उनकी नेशनल प्रेस कान्फ्रेंस में इस समय का एक बड़ा एंकर मनमोहन सिंह से पूछता है आपके दोनों तरफ दो महिलाएं हैं आप किसकी सुनते हैं? यह सवाल नेशनल प्रेस कान्फ्रेंस में पूछा जा रहा है! और जानते हुए भी कि यह पत्रकार क्या पूछेगा मौका दिया जा रहा है! यहां यह भी बता दें कि नेशनल प्रेस कान्फ्रेंस का क्या मतलब होता है। विज्ञान भवन के विशाल हाल में होने वाली इस प्रेस कान्फ्रेंस में पूरे देश से पत्रकारों को बुलाया जाता है।
विदेशी पत्रकार भी होते हैं। इसे सूचना प्रसारण मंत्रालय आयोजित करते हैं। मनमोहन सिंह ने अपने कार्यकाल में दो कीं। वाजपेयी जी ने एक। मोदी जी ने अभी नहीं की है।
अब आगे की कहानी सुन लीजिए। पत्रकार के इस वीर, बहादुरी वाले सवाल पर बधाई किस ने दी? कांग्रेस के एक बड़े पदाधिकारी ने। कहां? कांग्रेस के मुख्यालय में अपने कमरे में। बेहिचक, सबके सामने।
अब इसके आगे क्या कहने को बचता है? वह नेता पिछले साल तक वैसे ही पावर में बना रहा। प्रमुख पद पर बैठकर मोदी जी को भारतीयता का प्रतीक बताता रहा। यहां से प्राप्त शक्ति का उपयोग करके अपने बेटे को भाजपा में भेजने में कामयाब रहा। तो यह है कांग्रेस के नेताओं का हाल। उस समय जो होता था उसका दसवां हिस्सा भी यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को नहीं मालूम होता था। और आज जो भी हो रहा है उसका बड़ा हिस्सा राहुल गांधी को नहीं मालूम। क्या राहुल को मालूम है कि कांग्रेस के मुख्यालय में ऐसे लोगों को रखा गया है जो उनके अलावा, प्रियंका और सोनिया जी को गालियां देते हैं? पदाधिकारी कहते हैं कि हम कुछ नहीं कर सकते ये पहुंच वाले हैं। कांग्रेस में वह किसकी पहुंच है कि जिसके आदमी परिवार को जो मुंह में आए कहें और उनसे कोई
जवाब भी नहीं मांग सके। हमें पूरी उम्मीद है कि इसे पढ़कर भी कांग्रेस के नेताओं के कान पर जूं तक नहीं रेगेंगी।
कांग्रेस के नेताओं को अगर अपने स्वार्थ के अलावा कुछ और सुनने की आदत होती तो आज वह दुखद हादसा नहीं होता जो हुआ। आज गौरव वल्लभ बार बार सारी
कहानी बता रहे हैं कि किस तरह टीवी डिबेट में उन लोगों को जलील किया जाता रहा। राजीव त्यागी ने पहले ही बताई थी। दूसरे अन्य प्रवक्ताओं और पैनलिस्टों ने कई बार बहुत दुःखी मन से बताया। लेकिन उल्टा उनका मजाक उड़ाया गया।
कांग्रेस के दोस्तों बुरा मानने की बात नहीं है। किसी का इस तरह मरना बहुत बड़ी बात होती है। उसके परिवार की सोचिए। सब बर्बाद हो गया। आज तो किसी को इसका जवाब देने चाहिए की इन्हीं अपमानजनक स्थितियों के कारण टीवी डिबेटों का बायकाट किया गया था। लेकिन स्थितियां तो बदली नहीं और खराब हो
गईं तो फिर वापस इन जहरीली डिबेटों में प्रवक्ताओं को भेजना क्यों शुरू किया?
जैसा उपर बताया कि कैसे मनमोहन सिंह उनकी पत्नी और सोनिया गांधी को अपमानित करने वाले प्रश्नकर्ता पत्रकार को बहादुर बताकर दूसरे पत्रकारों को उकसाया गया वैसे ही राहुल के मामले में अभी भी किया जाता है। राहुल तो भारी उदारता दिखाते हुए कहते है कि हां पूछ लो, कुछ भी पूछ लो! मगर क्या कांग्रेस के पदाधिकारियों की यह जिम्मेदारी नहीं है कि सालों से राहुल का उपहास उड़ाने के लिए पूछे जा रहे सवालों को रोकें? लेकिन पता नहीं क्या कारण है कि ऐसे लोगों को सवाल पूछने को कहा जाता है जो पूछते हैं आपको लोग पप्पू क्यों कहते हैं? आई टी सेल ने इस सवाल को स्थापित करने में
सबसे ज्यादा मेहनत की थी। मगर उसे भी नहीं मालूम था कि यह सवाल पूछने का मौका सबसे ज्यादा कांग्रेसी नेता मुहैया कराऐंगे।
क्या कांग्रेसी यह समझते है कि ऐसे सवालों से राहुल की छवि को फायदा होगा? अगर ऐसा है तब तो फिर अर्णब गोस्वामी के इंटरव्यू से राहुल की छवि पूरी तरह निखर जाना चाहिए थी! लेकिन उसका राजनीतिक परिणाम क्या हुआ क्या यह बताने की जरूरत है? एक इंटरव्यू ने पूरा चुनाव पलट दिया! और आज तक राहुल को यह नहीं मालूम कि उनका वह इंटरव्यू किस लिए करवाया गया था? और न कोई इस बात की गारंटी ले सकता है कि ऐसा ही कोई और प्लांटेड पत्रकार फिर उनका इंटरव्यू लेने नहीं जाएगा! कांग्रेस आज भी चीजों को मनिटर नहीं कर रही है। क्या उसे पता है कि उसके प्रवक्ताओं में कितने ऐसे मजबूत लोग हैं जो किसी भी स्थिति में पार्टी या राहुल का अपमान नहीं सहते हैं? और कितने ऐसे नेता हैं जो मालिकों, संपादकों, एंकरों से अच्छे संबंध सिर्फ
अपने लिए बनाकर रखते हैं। उन्हें पार्टी की मूल नीतियों की आलोचना या राहुल के उपहास से कोई फर्क नहीं पड़ता है। वे तो बस एक ही बात कहते हैं कि बॉस हमें बचा कर रखना।
एक नेता को एक बड़ी एंकर मिली। बोली अगर आप अध्यक्ष बन जाओ तो हम आपका समर्थन कर सकते हैं। राहुल का नहीं। वे नेता जो राहुल के खास हैं बड़ी
खुशी खुशी गरदन हिलाते हुए कहते रहे अरे नहीं नहीं, आप भी कैसी बातें करती हैं!
यह सारे सवाल आज कांग्रेस के सामने इसलिए आ रहे हैं कि इस मीडिया को भस्मासुर बनाने में सबसे बड़ा हाथ कांग्रेसी नेताओं का है। आडवानी जी हमेशा अपने आदमी मीडिया में लगाने के लिए विख्यात रहे। और कांग्रेस इसलिए रही कि वह फिर उन लोगों को बहुत प्यार से पालती पोसती रही।
राजीव त्यागी को राहुल गांधी ने कांग्रेस का बब्बर शेर बोला है। ठीक है। मगर इस शेर को सच्ची श्रद्धांजलि तब होगी जब राहुल गांधी जमीन पर काम कर रहे नेताओं, कार्यकर्ताओं की समस्याओं को समझेंगे। राहुल को अगर कांग्रेस को मजबूत करना है तो अकेले उनकी हिम्मत और बेखौफी से काम नहीं चलेगा। राजीव त्यागी जैसे जमीन पर लड़ने वाले मजबूत जुझारू लोगों की बात समय रहते
सुनना होगी। राजीव त्यागी की मौत कोई साधारण मौत नहीं है। यह घेर कर मार देने जैसा है। और इसके जिम्मेदार लोगों को कटघरे में खड़ा करने का काम कांग्रेस, खासतौर से राहुल का है।
साभार शकील अख्तर
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। नवभारत टाइम्स के राजनीतिक संपादक और चीफ आफ ब्यूरो रहे हैं।)

* स्वदेशी रक्षा उत्पाद और उससे जुड़े जरूरी सवाल*

Posted: 16 Aug 2020 08:14 PM PDT


*०प्रतिदिन* -राकेश दुबे
१७ ०८ २०२०
*स्वदेशी रक्षा उत्पाद और उससे जुड़े जरूरी सवाल*
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने पिछले दिनों १०१ रक्षा उत्पादों के आयात को प्रतिबंधित करने का जो फैसला किया, उसकी सराहना हो रही है। होनी भी चाहिए ,यह एक बहुप्रतीक्षित मांग को पूरा करने की ओर सरकार द्वारा की गई समयोचित कार्यवाही है | इससे देश को एक बड़ा फायदा यह होगा कि जरूरत के वक्त हमें किसी दूसरे देश के आगे हाथ नहीं फैलाने होंगे। यह एक सार्वभौम सत्य है कि कोई देश किसी अन्य देश को कभी समग्र रक्षा तकनीक नहीं सौंपता है। अत्याधुनिक लड़ाकू विमान राफेल की खरीद में भी ऐसी ही शर्तें हैं। जरा याद कीजिये १९९९ | जब कारगिल युद्ध के समय लेजर गाइडेड बम इजरायल से रातोंरात मंगाएं गये थे | स्वदेशी तकनीक आज की हर देश की सबसे बड़ी ताकत है |खास कर जब आपके पडौसी आपके शुभचिंतक न हो और उनके यानि पाकिस्तान और चीन जैसे देशों का रक्षा बजट हमसे ज्यादा हो |
भारत के अपने सैन्य उत्पाद हमेशा मानकों पर खरे उतरे हैं । तभी तो दिवंगत राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम इतनी मिसाइलें बनाई और देश पोखरण में अपने परमाणु बमों का सफल परीक्षण कर सका । हिन्दुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) में लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट बन चुके है, जो वायु सेना ने मानकों को पूरा करते है। १५५ एमएम गन अब हम खुद बनाने लगे हैं। कुल मिलकर हमारे पास क्षमता है, बस इच्छा-शक्ति की कमी है। सही मायने में स्वेदशीकरण के प्रयास पहले किए गए होते, आज सैन्य खरीद में हमारी निर्भरता दूसरे देशों पर इतनी ज्यादा नहीं होती, बल्कि हम कुछ और आगे करते । अभी तो आलम यह है कि अब तक हम अपनी राष्ट्रीय कार्ययोजना तक नहीं बना सके हैं। हम यह तय ही नहीं कर पाए हैं कि रक्षा मामलों को लेकर विश्व में हम अपना कौन सा मुकाम बनाना चाहते हैं?

रक्षा-क्षेत्र में घरेलू निर्माण और खरीद की जरूरत इसलिए भी है, क्योंकि हमारे देश में हथियारों की खरीद-प्रक्रिया बहुत पारदर्शी नहीं मानी जाती। इस प्रक्रिया में सबसे पहले सेना अपनी जरूरतें रक्षा मंत्रालय को बताती है, फिर मंत्रालय आबंटित बजट के अनुसार सैन्य-सामग्रियों की खरीद करता है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि खरीद में जिस तरह से बिचौलिए हावी रहते हैं, उससे कई तरह की अडचने पैदा होती हैं। एजेंट जो नमूना हथियार भेजता है, उसका इस्तेमाल करके यह तय किया जाता है कि उसकी कितनी जरूरत है। अधिकारीगण उसका उपयोग करके उसे स्वीकृत करते हैं या फिर खारिज। ऐसे कई उदहारण है जिस हथियार को सेना ने मना कर दिया, उसे भी किसी न किसी तरीके से बिचौलिए ने खरीदी के लिए स्वीकृत करवा लिया। स्वदेशी खरीद में ऐसा संभव नहीं हो सकेगा। इससे न सिर्फ बिचौलिए की संस्कृति खत्म हो सकेगी, बल्कि देश का पैसा देश में ही रहेगा, जिसका अन्य इस्तेमाल हो सकेगा।

आज रक्षा क्षेत्र में अनुसंधान और विकास को लेकरकई बड़े उद्ध्योग जैसे टाटा बजाज आदि औद्योगिक समूह शस्त्र विकास को लेकर खासे इच्छुक हैं। सरकार चाहे, तो निजी क्षेत्र को मौका देकर अपनी रक्षा जरूरतें पूरी कर सकती है। हालांकि, इसमें एक मुश्किल यह है कि तमाम कोशिशों के बावजूद हमारा रक्षा बजट काफी कम है। अभी हम अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज २.४ प्रतिशत रक्षा मद में खर्च करते हैं, जबकि पाकिस्तान और चीन जैसे देशों का रक्षा बजट हमसे ज्यादा है। आज जरूरत सैन्य खरीद में पसरी अफसरशाही को भी कुंद करने की है। अभी होता यह है कि सैन्य अधिकारी सेवानिवृत्त होने के बाद रक्षा-खरीद में शामिल हो जाते हैं, जो एक गलत परंपरा है, खासतौर से उस देश के लिए, जिसकी फौज संख्या-बल में विश्व की दूसरी सबसे बड़ी ताकत है।

Post Bottom Ad

Pages