जनवादी पत्रकार संघ - 🌐

Breaking

Home Top Ad

Post Top Ad

Thursday, August 20, 2020

जनवादी पत्रकार संघ

जनवादी पत्रकार संघ


मनुवादी भाजपा और जनादेश को बेचने वालों को सबक सिखाएं :माकपा

Posted: 20 Aug 2020 07:26 AM PDT



मुरेना। कुछ बिकाऊ विधायकों को खरीद कर जनादेश को पलटने वाली भाजपा और शिवराज सरकार ने जनादेश का अपमान किया है। फिर से सत्ता में आकर इस सरकार ने अपने मनुवादी मंसूबों को जाहिर किया है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव जसविन्दर सिंह ने मुरेना में पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक को सम्वोधित करते हुए उक्त बात कही।
माकपा ने कहा कि सत्ता को सुरक्षित करने के लिए यह सरकार संसदीय लोकतंत्र की मान्य परंपराओं को भी कलंकित कर रही है। एक मंत्री जो जनादेश का अपमान कर सौदेबाजी से मंत्री बना है, अपनी विधान सभा के सारे पुलिस थानों के प्रमुखों को पत्र लिख कर सारे अमले का जातीय विवरण मांग रहा है। मंत्री की संविधान विरोधी हरकत पर डीजीपी भी खामोश है। मुख्यमंत्री ने तो सौदेबाजी से ही कुर्सी पाई है, इसलिए वह इस मामले पर चुप्पी साध गए हैं। चिंता की बात तो यह है कि उनके विधान सभा का उप चुनाव होना है। मंत्री का यह कृत्य चुनाव की निष्पक्षता को भी प्रभावित करेगा, लेकिन चुनाव आयोग भी इस पर सुनवाई करने को तैयार नहीं है ।
माकपा नेता ने कहा कि भाजपा सरकार के सत्ता में आते ही बिजली कंपनियों की लूट बढ़ गई है, उपभोक्ताओं से अनाप शनाप बिल वसूले जा रहे हैं। प्रवासी श्रमिकों को कोई राहत या रोजगार नहीं दिया जा रहा है ।
जसविन्दर सिंह ने कहा है कि भाजपा के शासन काल में ही 2अप्रैल भारत बंद के दौरान दलित स्वरों पर झूठे मुकदमे लगाये थे। भाजपा के फिर से सत्ता में आते ही दलित उत्पीड़न फिर बढ़ गया है। इसलिए भाजपा को सत्ता से बेदखल करना हमारी प्राथमिकता है ।
माकपा नेता ने पार्टी की ओर से 16 सूत्रीय मांगों को लेकर चलाए जाने वाले अभियान की चर्चा करते हुए कहा कि मुरेना में भी यह अभियान व्यापक पैमाने पर चलना चाहिए ।यह अभियान 20 से लेकर 27 अगस्त तक चलेगा ।
बैठक की अध्यक्षता रामनिवास शर्मा ने की। बैठक में जिला सचिव गयाराम सिंह धाकड, जेके पिप्पल, बैजनाथ पिप्पल, अशोक जाटव, राजेंद्र जाटव, हरि सिंह जाटव, रामखिलाडी पिप्पल, अशोक दोनेरिया आदि उपस्थिति थे ।

जयंती विशेष/महाराज दलपत राव जयंती सती धाम सर सैनी पर धूमधाम से मनाई गई

Posted: 20 Aug 2020 05:50 AM PDT


#सिहोरी_ते_बर्रेंड_तक: क्षत्रिय शिरोमणि महाराज राव दलपत सिंह जी "दलकू बाबा" जयंती की शुभकामनाएं


मुरैना- चंबल /हमाए करके के गांमन में यह तकिया-कलाम प्रसिद्ध था कि किसी के यहाँ कोई भी बड़ा कार्यक्रम(भंण्डारा) होता था तो कहा जाता था कि "सिहोरी ते बर्रेंड तक" चूलि कौ नौता है ( "चूलि कौ नौता" ग्रामीण शब्दावली में एक तरह का निमंत्रण होता है, हर एक घर का, सपरिवार,पूरे परिवार सहित "with family invitation"

पर जब हम छोटे थे तब इस "सिहोरी से बर्रेंड तक" वाक्य को केवल करके के गांवों में होने वाले भंण्डारों में चूलि के नौतन तक ही जानते थे, हमारी उस पीढ़ी को कभी उस "सिहोरी ते बर्रेंड तक" की सांस्कृतिक ऐतिहासिक भूमिका का ज्ञान नहीं था। हमें नहीं बताया गया कि कैसे मुगलकाल में फतेहपुर सीकरी से लड़ते-लड़ते हमारे पूर्वज क्षत्रिय शिरोमणि महाराज राव दलपत सिंह जिन्हें हम उनके सभी क्षत्रिय वंशज बच्चे प्यार से "दलकू बाबा" भी कहते हैं ने यह "सिहोरी ते बर्रेंड तक" को बसाया और उसकी नींव रखी। मुरैना से नेशनल हाइवे क्रमांक 3 पर, देवरी घडियाल केंद्र से आगे निकलकर Abc अंबाह ब्रांच कैनल के बायीं तरफ तथा दिल्ली,आगरा से आने वाले लोगों की दाहिनी तरफ से abc कैनल के किनारे बसे हुए गांवों के क्षेत्रफल को पहले "करका" कहा जाता था। इसी करके के सिहोरी से लेकर जौरा,कैलारस तक लगे गांव बर्रेंड तक को महाराज दलपत सिंह जी और उनके वंशजों ने बसाया,आबाद किया। इस क्षेत्र में सिकरवार क्षत्रियों की आबादी अधिक होने की वजह से इसे 'सिकरवारी' भी कहा जाता है। राव दलपत सिंह जी के वंशजों ने सिहोरी, सरसैनी, पहाडगढ़ पर अपने गढ़ बनाए और निर्बल असहाय जनों का बल बनकर उनकी रक्षा की और अपने क्षत्रिय धर्म आश्रितों की रक्षा का पालन किया।
आज क्षत्रिय शिरोमणि महाराज दलपत सिंह जी की जयंती है। हम-उम्र युवाओं ने उनकी जयंती पर "सती-माता" मंदिर सरसैनी पर एक मिलन समारोह और संगोष्ठी भी रखी है, सूचना मिली। बड़ा हर्ष का विषय है कि हम युवाओं का इस ओर ध्यान गया और महाराज दलपत सिंह जी की जयंती बड़े धूमधाम से मनाने का फैसला लिया। आदरणीय महाराज की जयंती पर हमारा यह भी कर्तव्य बनता है कि जिस "सिहोरी ते बर्रेंड तक" की सांस्कृतिक ऐतिहासिक धरोहर को केवल अपने व्यक्तिगत दिखावे के लिए हमने चूलि के नौता तक ही सीमित कर दिया था। आज उस महान सांस्कृतिक ऐतिहासिक संस्कृति को फिर से सहेजें, अपने लोगों में बंधुत्व और एकता का भाव का संचार करें। हम आने वाली अपनी पीढ़ी को सनातन धर्म के ध्वज रक्षक क्षत्रिय शिरोमणि महाराज दलपत सिंह जी "दलकू बाबा" का महान ऐतिहासिक योगदान और "सिहोरी ते बर्रेंड तक" की एक "सांस्कृतिक यात्रा" का गौरव महसूस कराएं। आज के सुअवसर पर मेरी अपील भी है मेरे सभी बंधुओं से कि आप अपने पूर्वज महाराज दलपत सिंह जी की ही तरह किसी निर्बल का बल बनकर उनकी रक्षा करें नाकि किसी निर्बल को बलहीन समझकर उन्हें सताएं.....यही "दलकू बाबा" को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
महाराज दलपत सिंह जी सिकरवार की जयंती पर उन्हें सादर प्रणाम.....जय रघुनाथ जी की साहब 👏

नोट: "सिहोरी ते बर्रेंड तक" चूलि के नौता की जो पद्धति थी वह उस समय के अनुरूप बहुत महत्वपूर्ण थी। इन अवसरों पर हमारे पूर्वज अपने सामजिक बंधुओं से मिलते थे, सब बैठकर सामाजिक सरोकार, सौहार्द्र के विषयों पर विचार विमर्श करते थे। लेकिन समय के साथ यह आयोजन "चूलि के नौता" धीरे-धीरे यह केवल व्यक्तिगत दिखावे के,राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के, आपसी प्रतिस्पर्धा और आडंम्बर के स्वरूप मात्र गए और इसके मूल में छिपा सामाजिक सौहार्द्र और एकता विलुप्त सी हो गई।         साभार लेखक अज्ञात

संविधान की अवमानना का भी संज्ञान लीजिए

Posted: 19 Aug 2020 09:44 PM PDT


******************************************

आजकल सियासत के बाद सबसे ज्यादा सुर्ख़ियों में अदालत है ,क्योंकि जितनी भी गुत्थियां हैं उन्हें अदालत को ही सुलझाना पड़ रहा है,फिर चाहे प्रशांत का मामला हो या सुशांत का .ये अच्छी बात भी है क्योंकि अब जनता का एकमात्र सहारा अदालतें ही तो बचीं हैं वरना सबके सब जनता को ठगने में लगे हैं ,इसलिए मै सोचता हूँ कि अदालत को अपनी अवमानना के साथ ही संविधान की अवमानना करने वालों के खिलाफ भी स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई करना चाहिए .ताजा मामला है मध्यप्रदेश का जहाँ मुख्यमंत्री ने सरकारी नौकरियों में स्थानीय निवासियों को सौ फीसदी आरक्षण देने की घोषणा की है .
भारत के हर स्कूल-कालेज गए नागरिक ने पढ़ा होगा कि संविधान नागरिक के मूल अधिकारों में छेड़छाड़ की इजाजत नहीं देता लेकिन सबने देखा होगा कि छुद्र राजनीति के लिए हरेक राजनीतिक दल नागरिकों के मूल अधिकारों में छेड़छाड़ की न सिर्फ कोशिश करता है बल्कि तब तक करता रहता है जब तक कि देश की बड़ी अदालतें उनके कान न उमेंठ दें .एक मोटी जानकारी के मुताबिक देश के कोई 20 राज्यों में कुरसी पाने या कुरसी पर बने रहने के लिए इसी तरह की कोशिशें की गयीं हैं जैसी कि हाल ही में मध्यप्रदेश में की गयी है .
साल भर पहले तक जम्मू-कश्मीर में धारा 370 के कारण वहां भी ऐसी ही पाबंदियां थीं ,अब धारा 370 हट गयी है लेकिन अब भी वहां स्थिति पहले जैसी ही है सिवाय इसके की दो जिलों में जनता को 4 जी का नेटवर्क मिलने लगा है .देश में जब एक निशान ,एक संविधान की बात की जाती है तब बीच-बीच में ये स्थानीय बंधन कैसे प्रकट हो जाते हैं ? आप कैसे एक राज्य से दूसरे राज्य में नौकरियों को दूसरे के लिए प्रतिबंधित कर सकते हैं ? ऐसा तभी हो सकता है जब की आपने अपना संविधान बदल लिया हो या फिर आप संविधान की परवाह करना छोड़ चुके हों ?
आपको याद हो या न हो लेकिन मुझे याद है कि देश में कोई भी ऐसा राजनीतिक दल नहीं है जो चुनावों के समय इस तरह की असंवैधानिक और भड़काऊ घोषणाएं न करता हो .महाराष्ट्र में बाहरी लोगों को एक समय शिव सैनिकों ने मार-पीट कर भगाने की कोशिश की थी ,हरियाणा,गुजरात,छग,तमिलनाडु,और दिल्ली -चंडीगढ़ समेत कितने ही राज्य हैं जो अपने प्रदेश के लोगों को सरकारी नौकरियों में शत-प्रतिशत आरक्षण देने की बात करते हैं .ऐसा करते हुए हम भूल जाते हैं कि देश का ढांचा कैसा है ?वहां ऐसा करने की सुविधा है या नहीं ?अखिल भारतीय सेवाओं में ऐसा कोई बंधन क्यों नहीं है ?
राज्यवाद के कारण एक राज्य से दूसरे राज्य में यात्री बसों की आवाजाही,के अलावा अनेक ऐसे काम हैं जो जानबूझकर बाधित किये जाते हैं लेकिन गरीब संविधान की इस अवमानना के खिलाफ कोई खड़ा नहीं होता.किसी को न दोषी पाया जाता है और न किसी को सजा सुनाई जाती है ? संविधान की शपथ लेने वाले ही जब संविधान की अवमानना के आरोपी हों तो कोई कैसे न्याय की अपेक्षा कर सकते हैं .नौकरियों में मूल निवास की शर्त रखने वाले क्यों भूल जाते हैं कि चुनाव लड़ने में ,पूंजी निवेश करने में ऐसा कोई नियम-क़ानून इसी राज्य ने क्यों नहीं बनाया ? क्यों पूरब के नेता को पश्चिम से राज्य सभा में भेज दिया जाता है? क्यों महाराष्ट्र के उद्योगपति की पूंजी मध्यप्रदेश में स्वीकार कर ली जाती है ?शादी संबंधों,और स्कूल-कालेजों में प्रवेश के लिए ऐसे नियम क्यों नहीं बनाये जाते ?
देश में इस विवादास्पद और असंवैधानिक मुद्दे को लेकर अनेक समितियां बन चुकीं हैं,ऐसी समितियों की रिपोर्ट्स धूल फांकती रहतीं हैं लेकिन होता कुछ नहीं है .मध्यप्रदेश में डेढ़ दशक तक अखंड राज करने वाली भाजपा ने पहले इस तरह की घोषणा क्यों की ,क्योंकि उसे तब इसकी जरूरत नहीं पड़ी.आज उसके सामने दो दर्जन से अधिक विधानसभा सीटों के उप चुनाव जीतने की चुनौती है इसलिए जनता को एक झुनझुना पकड़ा दिया गया है.जनता झुनझुनों से खेलने की आदी हो चुकी है.वो ये कभी नहीं देखती की उसे जो झुनझुना पकड़ाया जा रहा है उसकी उपयोगिता है भी या नहीं ?
मुझे लगता है कि इस तरह की घोषणाएं करने वाले राजनेता या तो कुपढ़ होते हैं या फिर जानबूझकर संविधान की अवमानना करने का दू:साहस करते हैं ,या उनके महाधिवक्ता गुड़ खाकर बैठे रहते हैं और उन्हें घोषणाओं के कानूनी पक्ष की जानकारी नहीं देते .लेकिन अब स्थितियां बदलना चाहिए,देश की सम्वेदनशील बड़ी अदालतों को अपनी अवमानना के साथ साथ संविधान और जनता की अवमानना के मामलों में स्वत्: संज्ञान लेकर कार्रवाई करना चाहिए .यदि ऐसा न किया गया तो देश में अराजकता पैदा हो जाएगी .एक निशान,एक विधान,एक राशनकार्ड की बात करना और दूसरी तरफ क्षेत्रवाद को प्रोत्साहित करना परस्पर विरोधी बातें हैं ,जनता के साथ ठगी है,अपराध है .फैसला आपको करना है की ये सब आगे भी जारी रहे या नहीं ?
आपको नहीं भूलना चाहिए की एक तरफ राष्ट्रवाद की बात हो रही है और दूसरी तरफ क्षेत्रीयता को प्रोत्साहित किया जा रहा है,इससे एक तरफ अराजक स्थितियां बन रहीं हैं,दूसरी तरफ 'ब्रेन-ड्रेन' भी तेजी से हो रहा है.ऐसे में न लोकल को वोकल बनाया जा सकता है और न ग्लोबल .बातें चाहे जितनी कर लीजिये .इस मुद्दे पर कोई एक दल दोषी नहीं ही.क्योंकि सभी हमाम में नंगे खड़े हैं .
साभार@ राकेश अचल जी वरिष्ठ पत्रकार ग्वालियर

*मुक्त अभिव्यक्ति: बारीक लकीर पर मील का पत्थर*

Posted: 19 Aug 2020 06:48 PM PDT


*०प्रतिदिन* -राकेश दुबे
२० ०८ २०२०
*मुक्त अभिव्यक्ति : बारीक लकीर पर मील का पत्थर *
आज आप जब इस टिप्पणी को पढ़ रहे हैं, देश का सर्वोच्च न्यायालय अभिव्यक्ति और अवमामना के बीच की बारीक सी लकीर पर मील के पत्थर सी अटल, किसी नजीर पर विचार कर रहा है | यह नजीर सूचना क्रांति के इस युग में, जब अभिव्यक्ति के लिये फेस बुक, इंस्टाग्राम, टेलीग्राम और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है, के लिए एक बड़ा पायदान होगी | मूल मामला आप सब जानते हैं |अधिवक्ता प्रशांत भूषण को न्यायपालिका के बारे में उनके ट्वीट पर अवमानना का दोषी ठहराये जाने से उपजा है |
पूरे देश में इसके बाद अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार और इसकी सीमा को लेकर नये सिरे से बहस छिड़ गयी है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को लेकर सोशल मीडिया पर बुद्धिजीवी और समाज के प्रगतिशील तबके के लोग इस अधिवक्ता का समर्थन और विरोध में अपनी बेबाक टिप्पणियां कर रहे हैं| यहाँ प्रश्न, इस फैसले के परिप्रेक्ष्य में सवाल न्यायालय की अवमानना कानून के संदर्भ में अभिव्यक्ति की आजादी का नहीं है, बल्कि सवाल यह है कि अभिव्यक्ति की आजादी के इस अधिकार की सीमा क्या है और कहाँ तक है ?
संविधान के अनुच्छेद १९ (१) (ए) में भारत के नागरिकों को बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार प्राप्त है, साथ ही यह भी सही है कि यह अधिकार निर्बाध नहीं है। अब सवाल उठता है कि अगर अभिव्यक्ति और बोलने की आजादी का अधिकार निर्बाध नहीं है तो इसकी 'लक्ष्मण रेखा' कहाँ है? क्या संविधान में प्रदत्त इस अधिकार का इस्तेमाल करके किसी व्यक्ति के बारे में अभद्र या अश्लील भाषा का इस्तेमाल किया जा सकता है? क्या इस अधिकार का इस्तेमाल करते समय ऐसी भाषा का प्रयोग किया जा सकता है जो दूसरों को अपमानित करने वाली हो या किसी समूह को हिंसक रवैया अपनाने के लिये प्रेरित करने वाली हो?
सर्व विदित है कि हाल ही में संविधान में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के संदर्भ में न्यायालय की अवमानना कानून,१९७१ की धारा २ (सी)(१ ) के प्रावधान को चुनौती दी गई थी। तर्क था कि अवमानना कानून का यह प्रावधान असंवैधानिक है और यह संविधान की प्रस्तावना में प्रदत्त मूल्यों और बुनियादी सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। इस धारा के अनुसार न्यायालय को बदनाम करने अथवा उसके प्राधिकार को ठेस पहुंचाने संबंधी किसी सामग्री का प्रकाशन या ऐसा कोई अन्य कृत्य आपराधिक अवमानना है। वैसे न्यायालय की अवमानना कानून तो १९७१ में बना है लेकिन इससे पहले१९५० के दशक से ही अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के सवाल पर न्यायालय ने समय-समय पर अनेक व्यवस्थायें दी हैं।पिछले सप्ताह यह याचिका वापिस ले ली गई ।
भारत के संविधान ने नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार प्रदान किया है। मगर यदि कोई व्यक्ति अनुचित भाषा का प्रयोग करता है तो देश के प्रचलित अन्य कानूनो में इस तरह के अपराध के बारे में अलग-अलग प्रावधान भी मौजूद हैं।
फेसबुक, इंस्टाग्राम, टेलीग्राम और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया की उपलब्धता के दौर में इन मंचों पर अपलोड पोस्ट की पहुंच काफी दूर तक होती है। अगर इन पर कथित रूप से आपत्तिजनक पोस्ट किये गये हों तो इन पर आपत्तियां उठाये जाने की स्थिति में ऐसी पोस्ट सोशल मीडिया से हटाये जाने से पहले न जाने कितने लोग पढ़ चुके होते हैं और कितने ही इसके स्क्रीन शॉट ले चुके होते हैं। ऐसी स्थिति में इसके प्रभाव की कल्पना की जा सकती है।
शायद इसी कारण देश के सर्वोच्च न्यायालय को यह कहना पड़ा कि " ये ट्विट न्यायालय की शक्ति के प्रति असंतोष और निरादर पैदा करने में सक्षम है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।" इस निर्णय के प्रकाश में घोषित होने वाली सजा इस बात की नजीर होगी कि अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के प्रयोग में संयम जरूरी है और हम खुद ही इस निमित्त एक लक्ष्मण रेखा खींचें |

Post Bottom Ad

Pages