जनवादी पत्रकार संघ |
- *अथ.. चंबल चरित्रम *@राकेश अचल जी वरिष्ठ पत्रकार
- संपादकीय/*भारत में विकास और उसकी कीमत*
- * कांग्रेस प्रत्याशी की गाड़ी शराब बांटते पकड़ी गयी, भाजपा प्रत्याशी के बेटे पर हमला * @संवाददाता नरेंद्र सिकरवार
| *अथ.. चंबल चरित्रम *@राकेश अचल जी वरिष्ठ पत्रकार Posted: 07 Nov 2020 09:25 PM PST ******************** आज लिखना तो अमेरिका की सियासत पर चाहिए था लेकिन अपना विदेशनीति पर ज्ञान शून्य है इसलिए गृहक्षेत्र चंबल पर लिखने का मन बना लिया .चंबल एक जमाने में किंवदंतियों की खान थी,थी इसलिए की चंबल घाटी न होते हुए भी घाटी है ,नदी तो है ही .बगावत का प्रतीक है .और आज से नहीं है शताब्दियों से है .चंबल की बगावत ने मुगलों और अंग्रेजों तक को चैन से नहीं बैठने दिया था तो बेचारे कमलनाथ किस खेत की मूली हैं. चंबल की बगावत से मध्यप्रदेश का दो साल पहले आया जनादेश अचानक धनादेश में बदल गया था,इस तब्दीली के पीछे बगावत थी और दो दिन बाद इसी बगावत के नतीजे आने वाले हैं.चंबल की जनता को बताना है कि उसे महल की बगावत पसंद है या नहीं .चंबल के पानी में बगावत है ,ये कहावत भी है और हकीकत भी. चंबल में सदियों से बाग़ी अपने गिरोह बनाकर रहते आये हैं,लेकिन बीते एक दशक से तकनीक ने चंबल के बागियों को अपना पेशा बदलने के लिए मजबूर कर दिया था .अब चंबल में बीहड़ों में रहने वाला कोई नामचीन्ह सूचीबद्ध गिरोह नहीं है . चंबल में केवल चंबल है.बाग़ी या तो रेत और पत्थर के वैध उत्खनन में व्यस्त हो गए या फिर उन्होंने सियासत को अपना भविष्य बना लिया. दोनों ही धंधों में जोखिम कम और मुनाफ़ा ज्यादा है ,लेकिन दोनों ही नए धंधों में धनबल और बाहुबल पहले की तरह ही इस्तेमाल किया जाता है .अंतर् सिर्फ इतना है की एक जमाने में जो महल बागियों के खिलाफ कार्रवाई करता था,वो ही अब खुद बगावत करने लगा है. वैसे महल ने फिरंगियों के खिलाफ बगावत भी की और दोस्ती भी .. महल को बगावत का तजुर्बा तो है ही. कमलनाथ से पहले द्वारिका प्रसाद की सरकार को महल के बाग़ी गिरा चुके हैं . चम्बल में आज के बागियों के गिरोह खाकी नहीं खादी पहनते हैं .अब बागियों के कन्धों पर बंदूकें नहीं विधायक होते हैं .इन बिधायकों को चाहे जब बेचा जा सकता है,इस्तीफा दिलाया जा सकता है, चुनाव लड़ाया जा सकता है .यानि विधायक ही बन्दूक हैं ,इन्हें सरदार जैसे चाहे चलाएं यानि हांकें.जिन विधायकों को पांच साल के लिए चुनकर जनता ने भोपाल भेजा था वे 18 महीने में ही बागी होकर भोपाल से वापस लौट आये .अब सबने दोबारा विधानसभा में जाने के लिए चुनाव लड़ा है .जनादेश ईवीएम मशीनों में बंद है. चंबल की जनता इस दशक की बगावत पर अपनी मुहर लगाती है या ठुकराती है इसका पता दो दिन बाद सबको लग जाएगा .बाबू जय प्रकाश नारायण ने भी कल्पना नहीं की होगी की चम्बल में एक दिन खादी वाले बागी भी अपने गिरोह बनाकर काम करेंगे .बाबू जयप्रकाश नारायण के जमने के बाग़ी सरगना अब बचे नहीं ,उनकी जगह खादी वाले डाकू गिरोहों के सरगनाओं ने ले ली हैं. ये सरगना कभी केंद्र में मंत्री होते हैं तो कभी राज्य में.कभी लोकसभा और विधानसभा के सदस्य होते हैं तो कभी राज्य सभा के .इन बागियों के डंडे-झंडे और दुपट्टे कब बदल जाएँ कोई नहीं जानता .जनता भी नहीं जानती जो इन्हें अपना आदेश देकर विभिन्न सदनों के लिए चुनती है . मजे की बात ये है कि चंबल के बाग़ी कभी भी ,किसी से भी बगावत कर सकते हैं. बगावत कभी नेता के कारण होतीहै कभी विचार के कारण,कभी मान के कारण होती है तो कभी सम्मान के कारण .अब इन उपचुनावों में भी बगावत होने की खबर है. कहते हैं की भाजपा के तपोनिष्ठ कार्यकार्ताओं ने तिरंगे विधायकों को उनके ऊपर थोपे जाने के कारण दल के भीतर बगावत की है .कुछ बागियों ने समर्पण कर कांग्रेसी बागियों को स्वीकार कर लिया है तो अनेक ने उन्हें सिरे से ख़ारिज कर दिया है .एक बागी दूसरे बागी से हमेशा प्रतिप्रश्न करने की स्थिति में होता है .वो पूछ सकता है कि जब आपकी बगावत सही है तो मेरी बगावत गलत कैसे हो सकती है ? बागियों से सवाल करने का हक केवल जनता को नहीं होता.जनता तो बागियों को चौथ देने के लिए अभिशप्त है ही.पहले खाकी वर्दी पहनने वाले बागियों को चौथ देती थी,अब खादी पहनने वाले बागियों को चौथ दे रही है .पहले भी बीहड़ में माधौ सिंह और मोहर सिंह होते थे,आज भी होते हैं केवल उनके नाम बदल गए हैं .किस गिरोह का सरगना टोपी है तो किसी का गोपी .जब खाकी पहनने बाग़ी होते थे तब हम उनसे मिलने खूब जाते थे लेकिन अब खादी पहनने वाले बागियों से मिलने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं रही .दरअसल इनके किस्से बाजार में बिकते नहीं हैं .यकीन मानिये की जब से बीहड़ खाकी पहनने वाले बागियों से खाली हुए हैं हम खबरनबीसों को कोई भाव ही नहीं देता . चंबल की बगावत जनता को पसंद है या नहीं इसका फैसला आने पर ही हमें राहत मिलेगी.यदि बगावत एप्रूव्ह हो गयी तो समझिये की चंबल की आन,बान, शान बची रहेगी और अगर रिजेक्ट कर दी गयी तो ये तीनों चीजे धूल में मिल जाएँगी .जनता के मन की बात जानना आसान नहीं होता फिर जनता चाहे चंबल की हो या अमेरिका की .कभी भी कुछ भी उल्ट-फेर कर सकती है जनता .शायद इसीलिए जनता को जनार्दन कहा जाता है .भारत वालों की दिलचस्पी चंबल के बाद अमेरिका से ज्यादा बिहार के चुनाव नतीजों में है. वहां भी बाग़ी-दागी चुनाव मैदान में हैं .बगावत के मामले में चंबल का बिहार से सनातनी मुकाबल चलता आया है . देश के दूसरे हिस्सों में बैठे हमारे बिरादरी वाले अक्सर हमें फोन कर पूछते रहते हैं चंबल के बागियों के बारे में .इस बार भी सबने जानना चाहा है की बागियों का भविष्य क्या है ?हमने सबसे कहा है की और सब पूछ लीजिये लेकिन ऊँट की करवट और बागियों के भविष्य के बारे में हमसे कोई भविष्यवाणी मत कराइये ,क्योंकि हमें ही पता नहीं है की कौन ,कितने पानी में है ? दरअसल अब चंबल का पानी भी अपनी तासीर बदल रहा है.उसमें भी मिलावट हो चली है ,इसलिए ये कहना कठिन है कि चंबल का पानी पीने वाले किस स्तर की बगावत कर रहे हैं .ख़ास बात ये है कि आत्मसमर्पित बागी इस बार कमल के फूल लिए घूम रहे थे .दद्दा मलखान सिंह की पसंद भी कमलफूल है.उन्होंने साइकल चलकर देख ली लेकिन मजा नहीं आया.और दूसरों ने उनका हाथ कभी अपने हाथ में लिया नहीं .हाथ की सवारी से मलखान को डर लगता है . हमारे पास चंबल में डोंगर -बैटरी के जमने से लेकर ज्योति बाबू के जमाने तक की बगावत का कच्चा-पक्का चिठ्ठा मौजूद है लेकिन इसका इस्तेमाल फिर कभी किया जाएगा .अभी तो आप दस तारीख का इन्तजार कीजिये. @ राकेश अचल |
| संपादकीय/*भारत में विकास और उसकी कीमत* Posted: 07 Nov 2020 06:05 PM PST ०८ ११ २०२० *भारत में विकास और उसकी कीमत* हाल ही में आई एक रिपोर्ट का कहना है शहरों को विकास के नाम पर नगर नियोजक खराब कर रहे हैं |इस राय के पीछे उनका तर्क बुनियादी सुविधाओं का निरंतर महंगा और दुर्लभ होना है |इस रिपोर्ट के अनुसार २०४० तक भारत को अपनी बुनियादी सुविधाओं के लिए ४.५ खरब अमेरिकी डॉलर की जरूरत होगी, जबकि केन्या को २२३ अरब और मेक्सिको को १.१ खरब डॉलर की। इसका मतलब है कि अधिकतर शहरों में छोटे-छोटे इलाके ही होंगे, जिनमें बढ़िया बुनियादी सुविधाएं हों और इसी वजह से यहां जमीन की कीमतें आसमान छूती हैं। वैसे दुनिया में चंद सर्वाधिक महंगे इलाके भारत में हैं। निवेश की कमी के कारण शहर का बाकी इलाका अनियमित तरीके से विकसित होता है और इन स्थितियों में गरीब आबादी आम तौर पर खाली पड़ी जमीन पर जा बसती है जहां न सीवर होता है और न पानी की पाइपलाइन। उन्हें पता होता है कि चूंकि ये जमीन उनकी नहीं है, उन्हें कभी भी हटाया जा सकता है, लिहाजा वे अस्थायी घर बना लेते हैं, जो चमक-दमक भरे शहर के लिए धब्बे की तरह होते हैं।सारे विकासशील देशों की झोपड़पट्टियां ऐसी ही होती हैं। दुनिया में सभी विकास सिद्धांतों का केंद्रीय भाव है कि "सारे संसाधन उस ओर लगते हैं जहां उनका अधिकतम उत्पादक इस्तेमाल हो सके।" जब तक बाजार सही तरीके से काम करते हैं, यही स्वाभाविक अवधारणा होती है। उत्कृष्ट कंपनियों को उत्कृष्ट लोगों की सेवाएं लेनी चाहिए। जमीन के सर्वाधिक उपजाऊ टुकड़ों पर सर्वाधिक सघनता के साथ खेती होनी चाहिए, जबकि कम उपजाऊ टुकड़ों का उपयोग उद्योगों के लिए होना चाहिए। जिनके पास उधार पर देने के पैसे हैं, उन्हें सर्वोत्कृष्ट उद्यमियों को पैसे देने चाहिए। लेकिन यह हमेशा सच नहीं होता। कुछ कंपनियों के पास जरूरत से अधिक कर्मचारी होते हैं, जबकि कुछ नियुक्ति की स्थिति में नहीं होतीं। कुछ उद्यमियों के पास जबर्दस्त आइडिया होते हैं, लेकिन इन्हें जमीन पर उतारने के पैसे नहीं होते, जबकि कुछ लोग जो कर रहे होते हैं, उसमें दक्ष नहीं होने के बावजूद उसे जारी रख पाते हैं। माइक्रो इकॉनोमिक्स में इसे त्रुटिपूर्ण आवंटन (मिस ऐलोकेशन) कहते हैं।... एड ग्लीजर ने अपनी बेहतरीन पुस्तक 'ट्रियम्फ ऑफ दि सिटी' में लिखा है कि स्थिति को टाउन प्लानरों ने और भी खराब कर दिया है जो शहर को हरा-भरा रूप देने की जगह मघ्यवर्ग के लिए बहुमंजिली इमारतों की बगल में घनी आबादी बसाने पर जोर देते हैं।कम आय वाले प्रवासियों के लिए इस तरह की खराब नीतियां मुश्किल हालात पैदा कर देती हैं। अगर वह भाग्यशाली है तो किसी झुग्गी में ठिकाना पा सकता है, काम की जगह तक पहुंचने के लिए घंटों की यात्रा कर सकता है या तो वह हालात से लाचार होकर जहां काम करता है, उसी इमारत की फर्श पर सो सकता है; जिस रिक्शे को चलाता है, उसी पर सो सकता है; जिस ट्रक पर काम करता है, उसके नीचे सो सकता है या तो जिस फुटपाथ पर अपना खोखा वगैरह लगा रखा है, वहीं रात बिता सकता है।... अकुशल प्रवासियों को पता होता है कि शुरू में उन्हें वही काम मिल सकता है जिसे कोई करना न चाहता हो। अगर आपको किसी ऐसी जगह छोड़ दिया जाए जहां कोई विकल्प न हो तो आप उसी में गुजारा करेंगे। बड़ा मुश्किल होता है अपने परिवार-दोस्तों को छोड़कर दूर जाकर किसी पुल के नीचे सोना, फर्श साफ करना।... भारत की अर्थव्यवस्था ऐसी है जिसमें संभावित उद्यमियों की बड़ी संख्या है और तमाम ऐसे अवसर शेष हैं जिनका उपयोग किया जाना बाकी है। अगर यह सही है, तो भारत की चिंता यह होनी चाहिए कि क्या होगा जब ये अवसर खत्म हो जाएंगे। दुर्भाग्य से, जैसा कि हम नहीं जानते हैं कि विकास कैसे किया जाता है, इसके बारे में भी हमें बहुत कम जानकारी है कि कुछ देश क्यों अटक गए और कुछ क्यों नहीं अटके या कोई देश इसमें से कैसे बाहर निकलता है। दक्षिण कोरिया क्यों बढ़ रहा है और मेक्सिको ऐसा क्यों नहीं कर पा रहा है? वास्तविक खतरा इस बात का है कि तेज विकास के चक्कर में भारत ऐसी नीतियों पर न चल पड़े जिसमें भावी विकास के नाम पर गरीबों को संकट का सामना करना पड़े। विकास की दर बनाए रखने के लिए "व्यापार अनुकूल" होने कीआवश्यकता को वैसे ही परिभाषित किया जा सकता है जैसा रीगन-थैचर युग में अमेरिका और ब्रिटेन में होता था, यानी अमीरों का पक्ष लेने वाली नीतियां जो गरीब-विरोधी हों और व्यापक जन समुदाय की कीमत पर कुछ खास लोगों को समृद्ध करती हों। |
| Posted: 01 Nov 2020 10:19 PM PST @संवाददाता नरेंद्र सिकरवार ग्वालियर. भाजपा प्रत्याशी के सुपुत्र रिपुदमन ने जब अवैध शराब बांटती गाडी पकड़ी तो उस पर हमला कर दिया रिपुदमन के हाथ में चोट आई रिपुदमन के अनुसार हमलावर ने चाबी को हथेली में चोट पहुंचाने की कोशिश की है। ऐसा बताया जा रहा है कि गाडी कांग्रेस प्रत्याशी की है। पड़ाव पुलिस ने गाडी को पकड़ लिया है। गाड़ी से अवैध शराब बांटी जा रही थी उसी समय रिपुदमन वहां पर पहुंच गया और गाड़ी पकड़ ली बस इसके बाद ही गाड़ी के ड्रायवर ने भाजपा प्रत्याशी के बेटे पर हमला कर दिया है। गाडी पर कांग्रेस प्रत्याशी सुनील शर्मा की परमिशन गाड़ी पर चिपकी हुई हैं। यह गाड़ी सेवानगर इलाके में पकड़ी गयी है और गाडी का नम्बर एमपी07 सीएच 6259 हे |
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