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Tuesday, November 30, 2021

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सामाजिक दायरे और बंदिशों में बंध कर रह गया है पेशा

Posted: 30 Nov 2021 07:26 PM PST



एमपी नाउ डेस्क

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लेेेख अरविंद साहू AD (mcu student)


नज़रिया।भारत विभिन्नता से भरा हुआ देश है.भारत में निवासरत अरबों की जनसँख्या अपनी रोज़ी रोटी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए किसी न किसी पेशे पर निर्भर है. इन सब के बीच इनमें एक बात में समानता पाई जाती हैं.जब भी हम अधिकतर किसी व्यक्ति को देखते है तो उनका पेशा जातियों के आधार में ही बंटा नजर आता है. जैसे कोई बढ़ई समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है तो उसका पेशा वस्तुओं को आकृति देना होगा एक शिल्पकार होगा,यदि कोई सुनार है तो वह स्वर्ण आभूषणों के पेशे में कार्य करते हुए नजर आता है,वही कोई तेली(साहू) समुदाय से है जो वह व्यपारी होगा या साहूकारी लेंन देन करते नजर आएगा।
कहने का आशय है किसी भी व्यवसाय को करने वाले व्यक्ति की व्यवसाय में उसके जातिगत सामाजिक पृष्टभूमि ज्यादातर मामलों में नजर आती है. यदि वह पृष्टभूमि को तोड़ने की कोशिश करता है तो उसकी समाजिक पारिवारिक विचारधारा को चोट करता है ऐसा अक्सर उस समाजिक पृष्टभूमि का मानना होता है।
मुझे एक वाक्या याद है जो कुछ दिन पहले का है, में ख़रीदी के लिए पीर गेट में सिंधी मार्किट भोपाल में ख़रीदी कर रहा था वह एक शॉप में कुछ समान ख़रीदने के बाद जब मैंने उनसे पेमेंट देने की बात की तो उन्होंने कुछ 1500 के रु बिल की जानकारी मुझे दी बिल की रक़म मैंने फ़ोन पे से ट्रांजेक्शन की फ़ोन पे मेरा नाम और सरनेम जानने के बाद दुकानदार ने उत्सुकता के साथ पूछा कहाँ से आये हो मैंने अपना परिचय दिया साथ ही शहर के बारे में भी जानकारी दी. 
क्या करते हो ? कैसे आना हुआ भोपाल ? जैसे सवाल एक के बाद एक दाग दिया. मैंने उन्हें सब जानकारी बड़ी विनम्रता से देते गया.
मेरी सब बातों को सुनने के बाद उनका जो मेरे प्रति व्यवहार था थोड़ा बदल गया,उनका मानना था जो में पेशा चुना हू जिसकी शिक्षा में ग्रहण कर रहा हु मेरे जीवन के लिए वह बेकार है. दुकान दार थोड़े बुज़ुर्ग थे पुराने ख़यालात से इत्तेफाक रख़ते थे उनका कहना पड़ा ये जो सब पेशा (व्यवसाय) है लड़के लड़कियों को बिगाड़ते है और ये हमारे समाज मे शोभा नहीं देता.
 मैंने उसने संकोच में पूछा मतलब? 
ये हमारे साहू(तेली)समाज मे ये सब कार्य नही करते. तुम क्या सोच कर ये कर रहे हो? हमारे समाज में व्यपारी लोग हमें ये सब काम शोभा नही देता.
ये सब मत करो तुम भी बिगड़ जाओगे
औरों के जैसे उनके इस प्रकार के सम्बोधन के बाद एक बात अभी तक ज़हन में चल रही है. क्या कोई भी पेशा ऐसे कब तक समाजिक बंधन में बंधा रह जाएगा? ऐसी बंदिशें कब तक ये जातियों के नाम पर जकड़े रहेंगी, और क्या ग्लैमर वर्ल्ड को आज भी कुछ लोग बिगड़ने वाले पेशे के रूप में देखते है। 
 इस वाक्ये को इमाईल दुर्खीम के समाज शास्त्र की परिकल्पना को उदारण समझा जा सकता है.
दुर्खीम मानते थे कि समाज के पारम्परिक और आधुनिक रूपों में विभ्रम के कारण तथा आधुनिक समाजों पर पारम्परिक कानून या नियम थोपने की प्रवृत्ति ही कई सामाजिक समस्याओं के लिए जिम्मेदार रही है। जिस प्रकार वह बुजुर्ग समाजिक पृष्टभूमि को मुझ में भी थोपने की कोशिश कर रहे थे या जता रहे थे कि में सामाजिक पृष्टभूमि के विपरीत धाराओं में बह रहा हूँ। ऐसे ही दो विभिन्न विचार आधुनिक और पारम्परिक समाजिक में वैचारिक मतभेद का कारण बन रहे है। सवाल बड़े है जबाव देने के क़ाबिल हम है नही तो इसे वक्त समय के ऊपर छोड़ देते है।


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