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Tuesday, September 22, 2020

जनवादी पत्रकार संघ

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*किसान ,किसानी, उच्च सदन और ये हंगामे*@ राकेश दुबे जी वरिष्ठ पत्रकार भोपाल

Posted: 21 Sep 2020 11:49 PM PDT


*०प्रतिदिन* -राकेश दुबे
२२ ०९ २०२०
*किसान, किसानी, उच्च सदन और ये हंगामे*
कृषि प्रधान देश भारत के किसानों के भले के लिए संसद को अखाडा बना दिया गया है | राज्यसभा जो गंभीर और उच्च सदन माना जाता है | वहां के नजारों की तुलना के लिए कोई और प्लेटफार्म नजर नहीं आ रहा |सदस्यों का हंगामा,निलम्बन से लेकर सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का घटनाक्रम इतनी तेजी से घट रहा है, यह विश्वास नहीं हो रहा कि यह विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र का उच्च सदन है | विषय किसानो को राहत को लेकर पारित विधेयक है, और सारे राजनीतिक दल इस बड़े वोट बैंक को अपने कब्जे में रखने के लिए संसदीय और असंसदीय आचरण में भेद नहीं कर पा रहे हैं |
जैसे राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू ने उपसभापति हरिवंश के खिलाफ आये विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को खारिज कर दिया और कहा कि यह उचित प्रारूप में नहीं था। प्रश्न यह है कि राज्य सभा के माननीय इतनी छोटी सी प्रक्रिया भी कब सीखेंगे ?वहीं, रविवार को सदन में अमर्यादित आचरण को लेकर विपक्ष के ८ सदस्यों को सत्र की शेष अवधि के लिए निलंबित कर दिया गया। सभापति नायडू कि इस टिप्पणी के भी गहरे अर्थ हैं | "एक दिन पहले उच्च सदन में कुछ विपक्षी सदस्यों का आचरण दुखद, अस्वीकार्य और निंदनीय है तथा सदस्यों को इस संबंध में आत्मचिंतन करना चाहिए"| यह टिप्पणी दूर तक जाती है,और सभी दलों द्वारा राज्यसभा में सदस्य भेजने की प्रक्रिया को भी सम्पूर्ण विचार के लिए चिन्तन क्षेत्र में खड़ा करती है |
नेता प्रतिपक्ष और ४६ सदस्य एक पत्र लिखते हैं जिसमें वे रविवार को कृषि संबंधी २ विधेयकों को पारित किए जाने के दौरान संसदीय प्रक्रियाओं का पालन नहीं करने की बात कहते हैं ।सभापति नायडू बीते कल की कार्यवाही पर गौर कर निर्णय देते हैं "उपसभापति पर लगाए गए आरोप सही नहीं हैं "|सभापति यह भी कहते हैं कि प्रस्ताव निर्धारित प्रारूप में भी नहीं है और इसके लिए जरूरी १४ दिनों के नोटिस का भी पालन नहीं किया गया है। इस सदन में कुछ माननीय दूसरी और तीसरी बार शिरकत कर रहे हैं| उनसे ऐसी चूक किस बार का संकेत करती है ?
टी वी पर दिखाए गये दृश्यों में साफ दिखता है कि रविवार को हुए हंगामे में सदस्यों ने कोविड-१९ संबंधी सामाजिक दूरी के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन तो किया ही इसके अलावा उन्होंने उपसभापति हरिवंश के साथ बदसलूकी की। माइक उखाड़े गए और नियमों की पुस्तिका फेंकी गयी। उप सभापति साथ अमर्यादित आचरण किया गया। आज सभापति नायडू ने तृणमूल कांग्रेस के डेरेक ओ ब्रायन को 'नेम' करते हुए उन्हें सदन से बाहर जाने को कहा।इसके बाद भी ब्रायन सदन में ही रहे। नियम यह है कि आसंदी द्वारा किसी सदस्य को 'नेम' किये जाने पर उसे सदन से बाहर जाना होता है। प्रश्न यह है कि ये घटना संसद खासकर राज्यसभा की प्रतिष्ठा को भी धूमिल करने वाली हैं , जिसमें सदस्य मेज पर खड़े हो गए और सदन में नृत्य तक किया। इन दृश्यों में साफ़ दिखता है अगर समय पर मार्शल को नहीं बुलाया गया होता तो उपसभापति के साथ क्या बर्ताव हो जाता अंदाज़ ही डरा देता है। क्या निलंबित किए गए सदस्यों जिनमें तृणमूल कांग्रेस के डेरेक ओ ब्रायन और डोला सेन, कांगेस के राजीव सातव, सैयद नजीर हुसैन और रिपुन बोरा, आप के संजय सिंह, माकपा के केके रागेश और इलामारम करीम शामिल हैं, को अपने इन आचरणों पर विचार नहीं करना चाहिए ?
दूसरी तरफ किसान संगठनों और विपक्ष के भारी विरोध पर केंद्र सरकार ने रविवार को कृषि सुधार से जुड़े दो बिल राज्यसभा में पारित करा लिये हैं |उन पर यह सोचना नहीं चाहिये कि। उच्च सदन में भारी विरोध का सामना सरकार को क्यों करना पड़ा? क्यों उसकी सरकार से एक मंत्री ने इस्तीफा दिया ? आखिरकार कृषि उपज ‍व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक-२०२० और कृषक (सशक्तीकरण और संरक्षण) कीमत और कृषि सेवा करार विधेयक-२०२० का इतना विरोध क्यों है ?सरकार को यह आशंका फौरन साफ़ करना चाहिए कि "किसानों को पूंजीपतियों के रहमोकरम पर नहीं छोड़ा जा रहा है? यह भी बताना चाहिए कि यदि बड़ी कंपनियां एमएसपी पर फसलों की खरीद नहीं करती हैं तो उसकी गारंटी कौन देगा? किसानों को अपने फसल के भंडारण की सुविधा, बिक्री में आजादी और बिचौलियों से मुक्ति कब मिलेगी।
कुछ सवाल इन बिलों को लेकर और भी हैं जो किसानों में आशंकाएं पैदा कर रहे हैं उन्हें दूर करने की गंभीर कोशिश क्यों नहीं हुई। किसान आशंकित हैं कि राज्य के गेहूं-धान का बड़ा हिस्सा खरीदने वाला एफ सी आई अब खरीद नहीं करेगा। ऐसे में राज्य भी एफसीआई से मिलने वाले छह प्रतिशत कमीशन से वंचित हो सकता है। आशंका है कि मंडियां खत्म होने से हजारों की संख्या में कमीशन एजेंटों , लाखों मंडी श्रमिकों और लाखों भूमिहीन खेत मजदूरों के सामने जीविका का संकट पैदा हो जायेगा। सवाल यह भी है कि राज्य के दूसरे जनपदों में भी फसल न बेच पाने वाले छोटे किसान दूसरे राज्यों में कैसे अपनी उपज बेच पायेंगे? कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग से किसान अपने ही खेतों में श्रमिक बन जायेगा साथ ही आवश्यक वस्तु संशोधन बिल के जरिये जमाखोरी को बढ़ावा मिलेगा, जो किसान व उपभोक्ता के हित में नहीं है।

*अब कोरोना के साथ व्यवस्थाएं भी हत्यारी*@ राकेश अचल जी वरिष्ठ पत्रकार ग्वालियर

Posted: 21 Sep 2020 11:38 PM PDT



विश्वव्यापी कोरोना संकट के समय दिन-रात गाल बजाने वालीं सरकारें कोरोना से ज्यादा हृदयहीन हो गयीं हैं .कोरोना के इलाज के लिए की गयी व्यवस्थाओं ने अब दम तोड़ दिया है .अब देश में लोग कोरोना से कम सरकारी व्यवस्थाओं में खामियों की वजह से ज्यादा मर रहे हैं .अब हर दिन अस्पतालों में अव्यवस्थाओं की ऐसी-ऐसी हृदयविदारक खबरें आ रहीं है कि जिन्हें सुनकर कलेजा मुंह को आने लगा है .
हम बचपन से सुनते आये हैं कि हिन्दुस्तान में मंदिरों और अस्पतालों के दरवाजे हर समय,हर किसी के लिए खुले रहते हैं .खुले रहते भी थे,लेकिन अब समय बदल गया है.अब आप मंदिर में तो एक बार आसानी से प्रवेश पा सकते हैं लेकिन अस्पताल में नहीं .कोरोना का ऐसा हौवा खड़ा कर दिया गया है कि सामान्य मरीज भी अब इलाज का मोहताज हो गया है .अगर आपके पास सिफारिश नहीं है तो आपको अस्पताल की दहलीज पर ही बिना इलाज मरने के लिए तैयार रहना चाहिए .
आप भरोसा करें या न करें,आपकी मर्जी है लेकिन हकीकत यही है .अभी हाल की बात है ग्वालियर में एक लड़की कोरोना से संक्रमित हो गयी.उसे उसके परिजन एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल लेकर भटकते रहे लेकिन किसी ने भी उसे भर्ती नहीं किया .संयोग से उसके राजनीतिक संपर्क थे,उस लड़की के परिवार ने जैसे-तैसे राज्य सभा सदस्य श्री ज्योतिरादित्य सिंधिया से सम्पर्क किया .सिंधिया ने कलेक्टर को लड़की की मदद करने के लिए कहा.कलेक्टर ने अपने अधीनस्थ को निर्देश दे दिए,इसके बावजूद लड़की को आधा दिन भटकने के बाद उसके लिए अस्पताल के दरवाजे खुले .
बीते रोज परिवहन मंत्री के निजी स्टाफ में शामिल नीलकंठ खर्चे किस्मत वाले नहीं थे इसलिए वे बिना इलाज के ही अस्पताल की दहलीज पर अपनी जान से हाथ धो बैठे. हमारे एक पत्रकार साथी को बड़ी मुश्किल से सुपर स्पेशलिटी अस्पताल में दाखिला मिला ,तब उनकी जान बच सकी .ऐसी असंख्य घटनाएं अकेले ग्वालियर में नहीं अपितु पूरे देश में हो रहीं हैं. देश की राजधानी दिल्ली से लेकर हर शहर में यही अराजकता है. इंदौर जैसे एक-दो शहर इसके अपवाद हो सकते हैं जहां जिला प्रशासन ने कोविड अस्पतालों में प्रवेश के लिए एक कंट्रोल रूम बनाकर पीड़ितों को अस्पताल में दाखिल करने की एक फुलप्रूफ व्यवस्था कर रखी है,फिर भी सबको इलाज की गारंटी नहीं है .
इस बात में अब कोई संदेह नहीं रह गया है कि कोरोना का फैलाव खतरनाक रफ्तार पकड़ चुका है.रोजाना एक लाख के आसपास नए मरीज सामने आ रहे हैं .हजार,बारह सौ की मौत हो रही है .इन आंकड़ों पर भी भरोसा इसलिए नहीं किया जा सकता क्योंकि आंकड़े जुटाने के मामले में केंद्र सरकार पहले ही अक्षम साबित हो चुकी है .फिर भी यदि ये आंकड़े सही भी मान लिए जाएँ तो भी स्थिति भयावह है .राज्य सरकारें दावे कर रहीं है कि उनके पास इलाज के समुचित इंतजाम हैं,बिस्तर हैं,आईसीयू हैं,वेंटिलेटर हैं ,आक्सीजन है. सवाल ये है कि यदि सब कुछ है तो मरीजों को अस्पताल में इलाज के लिए घुसने क्यों नहीं दिया जा रहा ?
एक अप्रत्याशित महामारी से देश की जनता को बचने के दावे यदि खोखले न होते तो अब तक देश में कोरोना 86 हजार से ज्यादा लोगों की जान न ले लेता .आप तर्क देंगे कि लोग तो अमेरिका में भी मर रहे हैं ,बिलकुल सही है लेकिन अमेरिका में कोई भी अस्पताल मरीज को लेने से इंकार नहीं कर रहा .हमारे यहां कोरोनाकाल, कमाई -काल में बदल गया है. सरकार ने कोविड प्रोटोकॉल को इस तरह से लागू किया है कि सरकारी अस्पतालों के अलावा निजी अस्पतालों में तो इलाज असम्भव हो ही गया है साथ ही निजी होटलों में बनाये गए आइसोलेशन सेंटर भी गरीब की पहुँच से बाहर हो गए हैं .आज बेरोजगारी,छंटनी,मंदी से जूझ रहे देश में कितने लोगों के पास कोरोना के लिए बनाये गए आईसोलेशन सेंटरों में रहने के लिए प्रतिदिन पांच से सात हजार रूपये खर्च करने की कूबत है ?और सरकारी आईसोलेशन सेंटर किसी बूचड़खाने से कम नहीं हैं .
मै अपने प्रदेश मध्यप्रदेश की बात करूँ तो यहां स्थिति बेहद खराब है. राजधानी भोपाल में एक चिरायु अस्पताल को छोड़कर दूसरे किसी अस्पताल में कोविड के मरीज को बिना सिफारिश भर्ती ही नहीं किया जा रहा .क्या ये मुमकिन नहीं है कि प्रदेश सरकार पूर्व में शहरों में वार्ड स्तर पर बनाये गए रैन बसेरों को कोविड उपचार केंद्रों में बदल दे .कम से कम मरीज को बुनियादी इलाज तो मिलना सुनश्चित किया जाना चाहिए .अस्पतालों को मंदिर की तरह सबके लिए खोलने की व्यवस्था करना राज्य सरकारों का नैतिक कर्तव्य है ,किन्तु दुर्भाग्य है कि अब नैतिकता घास चरने जा चुकी है .क्या सम्भव नहीं है कि जेसीज,रोटरी जैसी सम्पन्न संस्थाएं इस संकटकाल में अपने संसाधन ऐसे छोटे-छोटे उपचार केंद्र स्थापित करने में झौंक दें जिनमें मरीज को स्थानीय स्तर पर प्राथमिक इलाज मिल सके .
पिछले एक माह से जिस प्रकार मध्यप्रदेश कि सरकार उपचुनावों के लिए महा शिलान्यास समारोहों में व्यस्त है उसे देखकर नहीं लगता कि यहां कोरोना को लेकर कोई गंभीर है.सब राम भरोसे हैं. प्रदेश में एक लाख से ज्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं,दो हजार से ज्यादा अपनी जान गंवा चुके हैं और पता नहीं आने वाले दिन कितने भयावह होंगे .हम फिर निवेदन करना चाहते हैं कि अस्पतालों के दरवाजे हर मरीज के लिए हर समय खुले रहने की व्यवस्था को सुनिश्चित किया जाये ताकि लोग कोरोना से भले हार जाएँ लेकिन अव्यवस्थाओं की वजह से उन्हें मौत का शिकार न बनना पड़े .करना संक्रमित न तो व्यवस्थाओं के लिए आंदोलन कर सकता है और न धरने पर बैठ सकता है इसलिए ये सरकार की जिम्मेदारी है कि वो अपना नैतिक दायित्व निभाए.राजनीति के लिए तो हर रोज अवसर मिलेंगे लेकिन आम जनता की प्राण रक्षा का ऐसा दुर्गम अवसर कभी-कभी ही आता है.
@ राकेश अचल जी वरिष्ठ पत्रकार ग्वालियर

*इतिहास पुरुष बनने की होड़ में हरिवंश*@ राकेश अचल जी वरिष्ठ पत्रकार ग्वालियर

Posted: 21 Sep 2020 11:35 PM PDT



आजकल देश में इतिहास पुरुष बनने की होड़ चल रही है. कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जो इस बीमारी से अछूता हो.आप इस बीमारी को प्रतिस्पर्द्धा का नाम भी दे सकते हैं .इतिहास पुरुष बनने की आवश्यक अहर्ता है कि आपकी कमर में रीढ़ की हड्डी [मेरुदंड] न हो .और यदि हो भी तो इतनी लचीली हो की पूरी की पूरी झुक सकती हो . हाल ही में देश में राज्य सभा के उप सभापति हरिवंश इतिहास पुरुष बन गए हैं.मै उन्हें बधाई देना चाहता हूँ,क्योंकि उन्होंने अपने पद पर रहते हुए जो कुछ किया है ,वो सब इतिहास में दर्ज हो चुका है .
केंद्र सरकार द्वारा राज्य सभा में लाये गए किसान विधेयकों को पारित कराना कोई आसान काम नहीं था,लेकिन हरिवंश ने इसे आसान बना दिया. राज्य सभा में सरकार के अल्पमत में होते हुए भी उप सभापति ने इन विधेयकों को 'ध्वनिमत ' से पारित करा दिया .उन्होंने सदन में जो ध्वनि सुनी ,वो 'तुमुल ध्वनि' नहीं थी .हरिवंश ने जिसे ध्वनिमत माना वो दरअसल हंगामा था ,जो ठीक उनकी आसंदी के नीचे हो रहा था .इस हंगामे में कागद फाड़े जा रहे थे,माइक तोड़ने की कोशिश की जा रही थी .लेकिन उप सभापति के कान हैं ,वे इस हंगामे को ही ध्वनिमत समझ बैठे .इस उच्च सदन के सदस्य मत विभाजन की मांग करते रहे लेकिन हरिवंश ने किसी की एक न सुनी .और वो ही सब किया जिसके लिए उन्हें दूसरी बार उप सभापति बनाया गया है .
हरिवंश हमारी अपनी बिरादरी के हैं.हमसे भले ही उम्र में तीन साल बड़े हैं लेकिन उनका अनुभव हमसे तीस गुना ज्यादा है.उनका वैभव भी कम नहीं है और वे हमारी तरह शृद्धानिधि भोगी भी नहीं हैं .वे करोड़पति हैं. वे जिस अखबार के जरिये राजनीति में जगह बना पाए उस अखबार में मेरा धर्मपुत्र भी सम्पादक रह चुका है ,लेकिन ये हरीवंश की निजी जिंदगी में झाँकने का समय नहीं है .उनकी वंशबेल खोज कर अब कुछ हासिल होने वाला नहीं है .उन्होंने पत्रकार बिरादरी के साथ ही राजनीति को जितना नीचे दिखाना था ,दिखा लिया .
बेशक आप मेरी राय से इत्तफाक नहीं रखते हों ,लेकिन मेरी राय सिर्फ मेरी है.आपकी नहीं.आपकी दृष्टि में हरिवंश 'युगपरुष'/इतिहास पुरुष हो सकते हैं .लेकिन मेरी नजर में नहीं हैं. मेरी नजर में वे सरकार के इशारे पर नाचने वाली एक कठपुतली भर हैं,इससे ज्यादा नहीं .हरिवंश से पहले देश ने एक दर्जन और उप सभापति देखे हैं ,इनमें भी एक से बढ़कर एक समझदार लोग इस मह्त्वपूर्ण पद पर रह चुके हैं .इनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो हरिवंश की तरह प्रतिभा न होते हुए भी राष्ट्रपति के पद तक भी पहुँच जाते हैं .
इस पद पर लगातार दूसरी बार बने रहने वाले हरिवंश कोई पहले व्यक्ति नहीं हैं .उनसे पहले भी के रहमान खान,नजमा हेपतुल्ला ,श्यामलाल यादव,गोदे मुराहारी,श्रीमती अल्वा , और श्री एसवी कृष्णमूर्ति राव भी दूसरी बार उप सभापति बने लें जितनी रीढ़ हरिवंश ने झुकाई उतनी शायद ही किसी ने झुकाई हो .दरअसल रीढ़ की हड्डी झुकाना एक कला है और ये कला उन्होंने पत्रकारिता में रहते हुए ही शायद सीख ली थी .खैर किसी की निजी जिंदगी में क्या झांकना.चूंकि हरिवंश नारायण सिंह अब एक संवैधानिक पद पर हैं इसलिए उनके बारे में चर्चा करना आवश्यक है .उन्होंने जो किया उससे सरकार की नाक बच गयी लेकिन उप सभापति की नाक घायल हो गयी .
राज्य सभा में जिस तरह मर्यादाएं टूटीं उसके लिए हंगामेबाज सदस्य तो दोषी हैं ही,लेकिन उप सभापति भी कम दोषी नहीं हैं. मै भी यदि वहां होता तो शायद वो सब करता जो नियम-कायदे टूटते देख दुसरे सदस्यों ने किया.सदस्यों के पास हंगामा करने के अलावा दूसरा हथियार था भी क्या ?अब भले ही उप सभापति के खिलाफ विपक्ष अविश्वास का प्रस्ताव ले आये लेकिन उसका कोई लाभ नहीं मिलने वाला.क्योंकि जैसे किसान विधेयक पारित करा लिए गए वैसे ही अविश्वास प्रस्ताव को गिरा दिया जाएगा .फिर फिलहाल सरकार को हरिवंश की चिंता भी नहीं है. सरकार हरिवंश को जरूरत पड़ने पर शहीद करने से भी पीछे नहीं हटेगी .आखिर वे कोई संघदक्ष कार्यकर्ता तो हैं नहीं,हैं तो एक कठपुतली ही .
माननीय उपसभापति जी के बारे में मेरा ये लेख पढ़कर पुराने समाजवादी और नए भाजपाई मित्र नाराज हो सकते हैं,उन्हें इसका अधिकार भी है ,लेकिन मै तो फ़िलहाल अपने अधिकार का इस्तेमाल कर रहा हूँ ,मेरी नजर में हरिवंश एक का पुरुष हैं तो हैं .मेरा नजरिया शायद बदल नहीं सकता .क्योंकि मैंने हरिवंश को अन्य राजनेताओं से कुछ अलग देखा था ,माना था .मेरे साथ पत्रकारिता कर चुके एक माननीय राजयसभा तक तो पहुँच गए लेकिन वे हरिवंश नहीं बन पाए ,ये शायद मेरी ही तरह उनके भी नसीब में नहीं था .केवल झुकने भर से काम नहीं चलता,नसीब भी होना चाहिए .हरिवंश को उनका नसीब आगे कहाँ तक ले जाएगा ये तो पता नहीं लेकिन एक बात तय है कि वे जहाँ भी जायेंगे ,वहां कठपुतली से ज्यादा कुछ नहीं हो पाएंगे .
देश का दुर्भाग्य ये है कि कांग्रेस की तरह ही भाजपा भी संवैधानिक संस्थाओं के शीर्ष पदों पर बैठे लोगों को अपनी कठपुतली बनाकर अपनी हार को जीत में बदलने का प्रयास लगातार कर रही है .भाजपा ने न न्यायपालिका को छोड़ा और न अन्य किसी संस्था को.केंद्रीय चुनाव आयोग हो या सीबीआई ठीक उसी तरह इस्तेमाल किये जा रहे हैं जैसे अतीत में होते थे .भाजपा अलग चाल,चरित्र और चेहरे के साथ जनता के सामने आयी थी,लेकिन अब उसकी चाल,चरित्र और चेहरे में कांग्रेस ही झलकती है .ये छल लोकतंत्र के लिए अभिशाप है .कहा जाता है कि सत्ता सारे दुर्गुण सीखा देती है .लोकतंत्र में लोगों का यकीन बना रहे इसके लिए सत्तारूढ़ दलों को बहुत कुछ छोड़ने की आदत डालना पड़ेगी अन्यथा कभी इंदिरा गाँधी के रूप में तो कभी नरेंद्र मोदी के रूप में देश कि हठी नेतृत्व के साथ रहने की आदत डालना ही पड़ेगी .
राज्य सभा के उप सभापति जेडीयू के अंग हैं,जेडीयू बिहार में भाजपा के साथ सत्ता में है और आगे भी रहना चाहती है और शायद इसीलिए हरिवंश को भी शतुर्मुर्गी मुद्रा अपनाने के लिए विवश होना पड़ा .हरिवंश विवश थे या उन्होंने अन्य किसी कारणों से अपनी भूमिका को सवालों के घेरे में लाकर खड़ा किया है ,ये वे ही जानते होंगे .देश तो सिर्फ इतना जानता है कि उन्होंने देश के उच्च सदन की गरिमा को धूमिल किया है .उनकी जगह कोई दूसरा भी ये सब करता ,तो भी उसके लिए भी यही सब लिखा जाता .
@ राकेश अचल जी वरिष्ठ पत्रकार ग्वालियर

*मुझे मेरे TV से बचाओ*@ राकेश अचल जी वरिष्ठ पत्रकार ग्वालियर

Posted: 21 Sep 2020 11:36 PM PDT



आज का शीर्षक 1974 में बनी फिल्म 'आज की ताजा खबर के एक लोकप्रिय गीत की पैरोडी है .इस शीर्षक से 2001 में फिल्म भी बनी और ढेरों कविताएं भी लिखी गयीं,लेकिन 'मुझे मेरे टीवी से बचाओ' नाम की न कोई फिल्म बनी है और न कोई गीत ही लिखा गया है.मुमकिन है कि आने वाले दिनों में ये काम भी हो जाये,क्योंकि आजकल हमारे यहां कहा जाता है कि -'मोदी है तो मुमकिन है'.
दरअसल टीवी आज के समाज का सबसे बड़ा दोस्त और उससे बड़ा दुश्मछन बन गया है .टीवी को भारतीय जनमानस पर बढ़ता प्रभाव देखकर टीवी उद्योग से जुड़े लोगों ने इसका दुरूपयोग शुरू कर दिया है .अब वे जो दिखाया जाना चाहिए,उसे न दिखाकर वो सब दिखा रहे हैं जो नहीं दिखाना चाहिए और जिसके दिखने या न दिखने का जन स्वास्थ्य से कोई लेना-देना नहीं है .हमारी बैठकों से हमारे शयनकक्ष तक पहुंचे टीवी को घर से कैसे बाहर निकला जाये ये समस्या खड़ी हो गयी है .
भारत में टीवी की उम्र अब लगभग साठ साल की हो गयी है.इस लिहाज से आज के टीवी को जितना परिपक्व और जिम्मेदार होना चाहिए था,उतना हो नहीं पाया .उलटे आज का टीवी सठियाया हुया लगने लगा है .टीवी पर क्या दिखाया जाना चहिये और क्या दिखाया जा रहा है ये खुद टीवी को पता नहीं है .आये दिन कुकुरमुत्तों की तरह जन्म लेने वाले टीवी चैनलों के बीच शुरू हुई टीआरपी की अंधी होड़ अब खतरनाक मुकाम तक आ पहुंची है .टीवी चैनलों की इस लड़ाई के कारण जनता को वास्तविक परिदृश्य से दूर लेकर खड़ा कर दिया गया है .
एक जमाना था जब कुछ फ़िल्में सिनेमाघर के पर्दों से महीनों तक नहीं उतरती थीं ,आज यही हालत टीवी की हो गयी है.आजकल टीवी पर एक खबर अगर चढ़ जाये तो उसे उतरना मुश्किल होता है .अब देखिये न सुशांत सिंह राजपूत की खबर तीन माह बाद भी टीवी के लिए सदा बहार है जबकि देश में संसद से लेकर सड़क तक न जाने क्या-क्या हो चुका है .टीवी हमें वो सब दिखाना चाहता है जो उसने तय कर रखा है या जिसके लिए उसने सुपारी ले रखी है .टीवी को अवाम की जरूरतों का न कोई अंदाजा है और न वो अवाम की जरूरतों को पूरा करना चाहता है .अब भला किसान आंदोलन से टीवी को क्या हासिल होगा ? हरिवंश का कठपुतली नृत्य टीवी के किस काम का ?
अक्सर तर्क दिया जाता है कि -'आपके हाथ में रिमोट है,आप जब चाहें,तब चैनल बदलकर अपनी पसंद का चैनल देख लीजिये.'सवाल यही तो है कि हमारी -आपकी पसंद का कोई चैनल आज है क्या ? आप चाहे जितने चैनल बदल लीजिये ,हर चैनल पर सुशांत सिंह राजपूत की आत्मा मंडराती मिलेगी .सुशांत एक मिसाल है.टीवी जिस मुद्दे की सुपारी ले लेता है ,उसे तब तक दिखता है जब तक कि लक्ष्यपूर्ति न हो जाये या,नया विषय उसके हाथ न लग जाये .अब टीवी नए प्रोडक्शन पर खर्च नहीं करता.अब टीवी दंगल करता है .मुर्गों की लड़ाई दिखाता है ,या फिर सरकार के कहे पर घंटों सजीव भाषण दिखाता है .
जिन लोगों ने पहली बात टीवी देखा था वे चमत्कृत थे इस खोज को लेकर और एक लम्बे समय तक इसके जादुई असर से बाहर निकल नहीं पाए थे .अब परिदृश्य उलटा है. टीवी का दर्शक अब टीवी से बाहर निकलना चाहता है लेकिन टीवी भूत की तरह उसके पीछे लग गया है. टीवी बैठक और शयनकक्ष से होता हुआ आपके मोबाइल और कलाई घडी तक में जा घुसा है .आप आगे-आगे और टीवी आपके पीछे -पीछे .जाइये आप कहाँ जायेंगे ? सवाल यही है कि टीवी से आतंकित दर्शक अब कहाँ जाये ?उसका अपना तो कोई टीवी चैनल है नहीं .हर टीवी धन्नासेठों का है या फिर उसके ऊपर किसी न किसी राजनितिक दल का कब्जा है .
आप मानें या न माने किन्तु मेरी मान्यता है कि अब टीवी एक औजार बन गया है जनमानस को दूषित करने का .आपने देखा कि कॉरोनकाल में जनरबंद भारतीय दर्शक को 'रामायण 'और महाभारत' दिखाकर घरों में रोका गया ,कभी क्रिकेट टीवी पर छ गयी ,राजनीति का तो स्थाई डेरा है ही टीवी पर .आम आदमी का क्या है यहां ?.टीवी पर मंदिर है,मस्जिद है,छोटी-बड़ी अदालत है ,उसकी अवमानना है ,लेकिन आम आदमी का सुख-दुःख नहीं है .टीवी की स्वतंत्रता नियांत्रित है और उसका नियंत्रण जानबूझकर पूंजीपतियों ने अपने हाथों में ले लिया है ,ताकि जनता सवाल करना भूल जाये ?कभी न पूछे कि अपने क्या बेचा और क्या खरीदा ?कभी न पूछे कि बाजार में रोजमर्रा की चीजें लगातार मंहगीं क्यों हो रहीं है ?
मै अगर कहूंगा कि टीवी चैनलों पर अश्लील, अमर्यादित व डरावने दृश्यों को दिखाये जाने के कारण जनमानस में गलत संदेश प्रसारित हो रहा है,और इसी के परिणामस्वरूप युवा पीढ़ी दिशाहीन होकर टीवी दृश्यों की नकल कर रही है। तो शायद आप यकीन नहीं करेंगे .आप यकीन नहीं करेंगे कि युवकों में आवारागर्दी और पिता की कमाई पर ऐश करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है जो उनके कर्तव्य सृजनशीलता को नष्ट कर रही है। आप शायद नहीं मानेंगे कि निरंतर हत्याओं व बलात्कारों के दृश्य देखने से बच्चों के मानसिक विकास पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। देश में बढ़ती हुई हिंसक घटनाएं इसके दुष्परिणाम हैं। इन चैनलों पर नारी देह को नग्न दिखाने के साथ ही विज्ञापन के नाम पर चारित्रिक सीमाओं से तटस्थ होकर गंदे व अमानवीय चित्रों को प्रदर्शित किया जा रहा है।
हमारा टीवी अब हमें नए सामाजिक मूल्यों से प्रभावित करने का प्रयास कर रहा है. टीवी का नया नारा है-' तुम अपना देखो,मै अपना देखूं ".तो ठीक है आप अपना देखिये और उन्हें अपना देखने दीजिये .ये नए समाजिक मूल्य आपको कहाँ से कहाँ ले जायेंगे इसका पता शीघ्र चल जाएगा .मेरा काम तो आपको सतर्क करना है सो मै कर ही रहा हूँ.मेरी टीवी से कोई जाती दुश्मनी नहीं है .मुझे तो टीवी से यदा-कदा रोटी भी मिल जाती है लेकिन आप सोचिये,ठन्डे दिमाग से देखिये कि आपको आपके टीवी से कया हासिल हो रहा है. यदि पता चल जाये तो हमें भी बताइये .
@ राकेश अचल जी वरिष्ठ पत्रकार ग्वालियर

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