जनवादी पत्रकार संघ |
- *किसान विरोधी काले कानून वापस लो*
- *प्रतिदिन* @राकेश दुबे जी वरिष्ठ पत्रकार भोपाल
- *इस हाहाकार को कौन सुनेगा माई- बाप*@ राकेश अचल जी वरिष्ठ पत्रकार ग्वालियर
- खाकी से खादी की ओर प्रस्थान@ राकेश अचल जी वरिष्ठ पत्रकार ग्वालियर
*किसान विरोधी काले कानून वापस लो* Posted: 25 Sep 2020 06:03 AM PDT किसान विरोधी काले कानून वापस लो। किसानों ने अनाज मंडी पर धरना देकर ,रैली निकालकर तहसील पर किया प्रदर्शन। कैलारस-- अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के देशव्यापी भारत बंद के आह्वान की कड़ी में कैलारस में सैकड़ों किसानों ने इकट्ठे होकर सबसे पहले कृषि उपज मंडी कार्यालय के सामने धरना दिया। किसानों ने काले कानून वापस लेने, समर्थन मूल्य पर खरीदी सुनिश्चित करने का कानून बनाने, लागत से डेट दौड़े दाम देने, कर्ज माफी सहित किसानों के कई मुद्दे उठाए। अभी हाल ही में बाजरे की फसल आई हुई है बाजरा की फसल की समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद तत्काल शुरू करने की मांग भी किसानों द्वारा की गई। मध्यप्रदेश किसान सभा के बैनर तले किसानों ने रैली निकालकर तहसील कार्यालय पर जोरदार प्रदर्शन करते हुए राष्ट्रपति के नाम संबोधित ज्ञापन तहसीलदार सुब्रता त्रिपाठी को दिया। इस मौके पर हुई आमसभा को संबोधित करते हुए मध्य प्रदेश किसान सभा के प्रांतीय उपाध्यक्ष अशोक तिवारी ने कहा कि कोविड-19 की आड़ में केंद्र सरकार संसद में लोकतंत्र का पटाक्षेप करते हुए किसान विरोधी काले कानून लाई है । जिन्हें विपक्ष की अनुपस्थिति में पारित कराया गया है। जिनमें अनाज मंडी समाप्त करने, ठेका खेती शुरू करने, आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन, बिजली का निजीकरण करने संबंधी कानून लाए गए हैं। देशभर में किसान इसका विरोध कर रहे हैं। हम इसका पुरजोर विरोध करते हैं। तत्काल सरकार से मांग करते हैं कि इन कानूनों को वापस लिया जाए। खेती और किसानों को बचाया जाए । उन्होंने कहा कि सरकार की नीतियों के चलते खेती, व्यापार ,उद्योग ,लोकतंत्र, संविधान सबकुछ तबाह हो रहा है। इस को बचाने के लिए बड़ी संख्या में लोगों को मैदान में आना है। उन्होंने किसानों से अपील की कि एकजुट होकर सड़कों पर इसका मुकाबला करें । सभा को मध्य प्रदेश किसान सभा के जिला उपाध्यक्ष गयाराम सिंह धाकड़ ने संबोधित करते हुए किसानों से लामबंद होकर आंदोलन तेज करने का आग्रह किया। सभा में किसान सभा के सहायक जिला महासचिव ओमप्रकाश श्रीवास, फारवर्ड ब्लॉक के नरेंद्र सिंह सिकरवार युवा नेता महेश प्रजापति ,माता प्रसाद शर्मा, सियाराम सिंह, सुरेश धाकड़, छात्र नेता राजवीर सिंह सहित बनवारी लाल, भैरू सिंह धाकड़ ,जगन्नाथ सिंह उदय राज सिंह आदि किसान नेताओं ने आंदोलन का नेतृत्व किया । |
*प्रतिदिन* @राकेश दुबे जी वरिष्ठ पत्रकार भोपाल Posted: 24 Sep 2020 11:13 PM PDT *"दुष्काल" और उससे "मुक्ति का धर्म"*@ राकेश दुबे लगभग साल साल बीतने को है | विश्वव्यापी दुष्काल का पंजा विश्व पर ज्यों का त्यों है| इलाज के नाम पर जो हो रहा है, अनिश्चित है| प्रयोग धर्मी अभी भी वेक्सिन के प्रयोग कर रहे हैं | इस दुष्काल से मुक्ति दिलाने वाला कोई देवता, मसीहा अब तक अवतरित नहीं हुआ है | धर्म की सर्वव्यापकता को भी इस संकट के क्षण में अस्वीकार नहीं किया जा सकता | विश्व में पहले भी ऐसा होता रहा है | कुछ विद्वान 'रिटर्न ऑफ रिलिजन' की बात भी करने लगे हैं| कोरोना दुष्काल के मध्य तकरीबन सभी धर्मो के हवाले से जो खबरें आती रहीं, उनने एक बार फिर से महामारी और धर्म के अंतर्संबंधो को विमर्श में ला दिया है| कुछ किताबों के हवाले याद आते हैं, जो इस दुष्काल और मानवीय व्यवहार से मिलते जुलते हैं |डेनियल डेफो के बहुचर्चित उपन्यास 'अ जर्नल ऑफ प्लेग इयर', अलेस्संद्रो मंजोनी के उपन्यास 'द बेथ्रोथेड' और कामूस के उपन्यास 'द प्लेग', सभी सोलहवीं से बीसवीं सदी की महामारियों में लोगों के अंदर व्याप्त भय और चिंता, राज्य द्वारा मृतकों की संख्या छुपाने और समाज में व्याप्त महामारी के प्रति एक प्रकार के 'सेंस ऑफ डिनायल' को बखूबी दर्शाते हैं| लगभग अब विश्व में सरकारें वैसा ही कर रही है| इसका दूसरा पहलु भी यही लेखक अपनी रचनाओं में यह भी बताते हैं कि किस प्रकार दैवीय हस्तक्षेप, मृत्यु और मानवीय त्रासदी के मध्य संगठित धर्म के प्रति लोगों में गुस्सा पनपता है| आज विश्व उसी और बढ़ रहा है | चाहे दक्षिण कोरिया में 'पेशेंट३१' का मामला हो, भारत में तबलीगी जमात से जुड़ा विवाद हो या फिर विभिन्न देशों में धार्मिक संस्थाओं द्वारा गरीब-बेसहारा के लिए भोजन की व्यवस्था हो, धर्म की सर्वव्यापकता को संकट के इस क्षण में अस्वीकार नहीं किया जा सकता| वैसे तो महामारी का इतिहास मानवीय सभ्यता के कृषि युग में प्रवेश के साथ ही शुरू हो जाता है|'जूनोटिक प्लेग', 'प्लेग ऑफ एथेंस', 'प्लेग ऑफ साइपिरियन', 'ब्लैक डेथ' हो या बीसवीं सदी के आरंभ में फैला बुबोनिक प्लेग, सभी में समान रूप से धर्म की उपस्थिति दर्ज की गयी है| ऐतिहासिक दस्तावेजों से भी यह सिद्ध होता है कि इन सभी महामारियों ने धार्मिक गुरुओं, विभिन्न धर्मों के अनुयायियों और समाज के अन्य लोगों के प्रति किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया| ओरहान पामुक नामक लेखक इतिहास की सभी महामारियों के समाज और धर्म पर पड़ने वाले प्रभाव में एक आश्चर्यजनक समानता को भी रेखांकित करते हैं| . यह किसी से छिपा नहीं है कि किस प्रकार महामारियों के मध्य अध्यात्म और अदृश्य के प्रति विश्वास उस काल में बढ़ा| इन सबके मध्य स्थानीय देवी-देवताओं, संत-महात्माओं और धर्म के प्रति समाज में स्वीकार्यता भी बढ़ी| जैसे उत्तर भारत में, कुषाण काल में एक किस्म के अज्ञात उच्च बुखार को शांत करने के लिए बौद्ध परंपरा के 'हरिति' की पूजा का प्रचलन बढ़ा था | इसी प्रकार, कालांतर में सर्प दंश से बचाव के लिए मनसा देवी और चेचक के उपाय के तौर पर शीतला माता की पूजा-अर्चना स्थापित हुई| यह भी सत्य है कि यूनानी, सिद्ध, आयुर्वेदिक आदि चिकित्सा पद्धति अलग-अलग धर्मों में लंबे समय तक चले संवाद से भी उभरी| स्पष्ट है कि मनुष्य ने धर्म को अपनी पहचान, भय और व्यग्रताओं को पहचानने और उसके साथ तारतम्य बैठाने के क्रम में अन्वेषित किया और विभिन्न प्रारूपों में स्थापित किया| इसी कवायद में , उसने स्वयं को तलाशने और प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने के क्रम में धर्म की परिधि में भी स्वयं को बांधा होगा| उसका यह धर्म ही शायद गाँधी और विनोबा का 'समन्वय धर्म' है|जिसमें स्वयं के साथ-साथ, अन्य मनुष्य, प्रकृति, जीव-जंतुओं तथा ज्ञात-अज्ञात के साथ 'समन्वय' पर जोर दिया गया| इसी समन्वय को आज के चिंतक के एन गोविन्दाचार्य "प्रकृति केन्द्रित विकास" के रूप में परिभाषित कर रहे हैं | डयूक विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान और मेडिसिन के प्रोफेसर हेरोल्ड कोएंग के तीन दशकों से अधिक के शोध निष्कर्षों से पता चलता है कि, "किसी भी आस्था और अध्यात्म से स्वयं को जोड़ पाने वाले मरीज, किस प्रकार अन्य की तुलना में कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों से लड़ने और उसके दुष्प्रभावों से उभरने में ज्यादा सफल रहे"| कोएंग के अनुसार, वर्तमान में दक्षिणी गोलार्ध के वासी, पश्चिमी देशों की तुलना में कोरोना महामारी के मानसिक दुष्प्रभावों से जल्द निजात प्राप्त कर लेंगे| इसका आधार वे एशिया और अफ्रीका के देशों में धर्म का जीवनदर्शन में घुले-मिले होना बताते हैं| अमेरिकी मेडिकल एसोसिएशन सहित विश्व की कई चिकित्सा संस्थाएं और इनसे जुड़े शोध संस्थानों ने कोविड महामारी के मध्य ही धर्म और चिकित्सा विज्ञान के बीच संवाद की एक नयी पहल शुरू की है| भारत में यह प्रयास तेज होना थे,परन्तु कम पर ऐसे कुछ प्रयास देखने में आ रहे हैं| ऐसे में यह सबके लिए चुनौती होगी कि किस प्रकार व्यक्ति, प्रकृति, समाज और धर्म के बीच ऐसा समन्वय हो | जो सम्पूर्ण मानवीय और लुप्त होते प्रकृति उपहारों के बचाव और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करे| |
*इस हाहाकार को कौन सुनेगा माई- बाप*@ राकेश अचल जी वरिष्ठ पत्रकार ग्वालियर Posted: 24 Sep 2020 11:07 PM PDT कॉरोनकाल में हुई बरबादी से निबटने के लिए 20 लाख करोड़ का विशेष पैकेज देकर भारत भाग्य विधाता बने लोग बाजार का करुण क्रंदन सुनने को तैयार नहीं हैं,जबकि केवल छह दिन में देश का 11 लाख करोड़ रुपया पलक झपकते डूब गया .कहते हैं कि किग्लोबल स्टॉक्स में तेज बिकवाली, कोविड-19 के बढ़ते मामलों और विदेशी फंड में भारी आउटफ्लो से शेयर बाजार में हाहाकार मचा हुआ है। पिछले छह सत्रों में बाजार में लगातार गिरावट आई और इससे निवेशकों की 11 लाख करोड़ रुपये से अधिक रकम डूब गई है। इन 6 कारोबारी सत्रों में बीएसई सेंसेक्स में करीब 2750 अंक यानी 7 फीसदी गिरावट आई है। लेकिन ड्रग-राष्ट्र में उलझे गोदी मीडिया और सरकार को ये सब दिखाई नहीं देता . पूरे देश में जब बैंकें लगातार बचत पर मिलने वाले लाभ घटा रही है तब बाजार में आई इस गिरावट से आम आदमी की कमर का टूटना देश में जैसे कोई घटना है ही नहीं .ठीक है कि ये बाजार दुनिया के बाजारों पर निर्भर हैं लेकिन कोई ये मानने को राजी नहीं कि इसके पीछे सरकारी नीतियों की नाकामी और देश में सरकार के प्रति बढ़ता अविश्वास भी एक बड़ी वजह है .देश की सरकार 'एकला चलो' की नीति पर चलते हुए दावा करती है कि उसकी नीति 'सबका साथ,सबका विकास' है लेकिन पिछले दिनों जिस तरह से देश की संसद में बिना विपक्ष के सारा काम हुआ उससे जाहिर है कि सरकार का सबको साथ लेकर चलने में कोई यकीन नहीं है. आप मानें या न मने लेकिन हकीकत ये है कि कमजोर बाजार धारणा से बीएसई लिस्टेड कंपनियों का बाजार पूंजीकरण घटकर 148.85 लाख करोड़ रुपये रह गया जो 16 सितंबर को 160.08 लाख करोड़ रुपये था। आईआईएफएल सिक्योरिटीज के हेड ऑफ रिसर्च अभिमन्यु सोफट कहते हैं कि , 'बाजार में और गिरावट आ सकती है। स्कॉटलैंड और ब्रिटेन ने कहा है कि वे लॉकडाउन लगाने पर विचार कर रहे हैं। आशंका है कि कई और देश लॉकडाउन लगा सकते हैं। इससे बाजार के हाथ-पैर फूले हुए हैं।'कोविड को लेकर भारत में भी खबरें निराशाजनक हैं.यहां भी कुछ राज्यों ने दोबारा से 'लाकडाउन' का इस्तेमाल शुरू कर दिया है .जाहिर है कि कोविड के कारण स्थितियां धीरे-धीरे बेकाबू हो रहीं है, और सरकार है कि मोर चुगाने में लगी है . बाजार के बारे में अपनी जानकारी शून्य है ,इसलिए अक्सर हमें सुनी-सुनाई बातों पर ही यकीन करना पड़ता है ,लेकिन बाजार में हमारे जैसे असंख्य भारतीयों का पैसा भी लगा है इसलिए हमारी चिंता स्वाभाविक हो जाती है .एलकेपी सिक्योरिटीज के शोध प्रमुख एस रंगनाथन ने कह रहे हैं कि , 'कमजोर वैश्विक रुख के बीच अमेरिका से चिंताजनक आंकड़ों की वजह से बाजारों में गिरावट आई। इसके अलावा कोविड-19 संक्रमण फिर उबरने की चिंता से यूरो क्षेत्र के बाजार टूट गए। भारतीय बाजारों में टीसीएस और इन्फोसिस की अगुवाई में जबर्दस्त नुकसान रहा। इन दोनों कंपनियों के अलावा रिलायंस इंडस्ट्रीज ने पिछले पांच माह के दौरान बाजार में सुधार लाने में मुख्य योगदान दिया।' सवाल ये है कि जब बाजार की हालत इतनी खराब है तो सरकार निवेशकों को भरोसा दिलाने के लिए आगे क्यों नहीं आ रही ?इस गंभीर संकट के समय हमारी वित्त मंत्री मौन साधकर क्यों बैठीं हैं ?क्या सरकार का दायित्व नहीं बनता कि इस संकट के समय उसकी तरफ से कुछ ऐसी घोषणाएं की जाएँ जिससे बाजार की तबियत कुछ तो सुधरे . जानकार बताते हैं कि भारत समेत दुनियाभर में कोरोना के केस लगातार बढ़ रहे हैं। 'कोविड-19 इण्डिया ओआरजी' के मुताबिक भारत में कुल कोरोना के मामले 57 लाख से ज्यादा हो गए हैं। दुनियाभर में यह आंकड़ा 3.21 करोड़ के पार पहुंच गया है। ऐसे में बिजनेस ग्रोथ के आंकड़े में सुधार के कम ही आसार हैं। केयर रेटिंग्स ने अनुमान जताया है कि इकोनॉमी में ग्रोथ चालू वित्त वर्ष के अंत तक शायद ही दिखाई दे। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, वित्त मंत्रालय को भी इकोनॉमी इस वित्त वर्ष में वी शेप रिकवरी की कम ही उम्मीद है। कोढ़ में खाज वाली बात ये है कि सरकार उपभोक्ताओं के साथ खड़े होने के बजाय निर्माताओं के साथ खड़ी है.उनके पक्ष में श्रम क़ानून सुधरे जा रहे हैं,उनके पक्ष में कृषि क़ानून बदले जा रहे हैं .जानकार बताते हैं कि अगर आप इस फेस्टिवल सीजन में टेलीविजन खरीदने का प्लान बना रहे हैं तो आपको यह महंगा पड सकता है। टीवी के दामों में अगले सप्ताह से इजाफा हो सकता है। सरकार एक अक्टूबर से टीवी के ओपन सेल के आयात पर 5 फीसदी कस्टम ड्यूटी लगाएगी। इससे टीवी की कीमत में वृद्धि होने की पूरी संभावना है। वैल्यू एडिशन संग लोकल मैन्यूफैक्चरिंग को बढ़ावा देने हेतु सरकार ने यह कदम उठाने का फैसला किया है। बहरहाल सरकार को न छोटे निवेशकों की फ़िक्र है ,न बाजार की.उसे फ़िक्र है बिहार जीतने की,उसे फ़िक्र है मध्य्रदेश में त्तख्ता पलट से बनी सरकार को बचाये रखने के लिए उप चुनावों की .जनता को बाजार की चिंता छोड़कर सरकार की चिंता में शामिल होना चाहिए ,आखिर सरकार भी तो जनता ने ही बनाई है .जनादेश को ध्वनिमत में बदलने वाली सरकार की आँख जब खुलेगी,तब खुलेगी.फिलहाल तो चौतरफा हाहाकार है जो ध्वनिमत में किसी को सुनाई नहीं दे रहा .बाजार की खराब हालत के कारण डालर के मुकाबले रुपया गिरकर 73.89 पर आ गया है जो पिछले एक महीने का निचला स्तर है.लेकिन सरकार कुछ बोलने वाली नहीं है .आखिर बोले भी तो क्या बोले?स्थितियां बेकाबू जो होती जा रहीं हैं. सरकार को सूझ नहीं रहा कि इस संकट से कैसे निबटा जाये ? मजे की बात ये है कि बाजार के साथ सोना,चांदी और क्रूड सबके भाव नीचे जा रहे हैं लेकिन आम जनता को कोई राहत नहीं मिल रही .जनता की बजाने वाली थाली में आने वाली चीजें चुपचाप मंहगी हो रही हैं,आटा,दाल,चावल ही नहीं अब तो आलू,प्याज आउट टमाटर के दाम भी चोरी-चोरी,चुपके-चुपके रोजा बढ़ते जा रहे हैं ,क्योंकि सरकार ने रोजमर्रा की तमाम चीजों को आवश्यक वस्तु मानने से इंकार करते हुए इन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया है .अब आप जाने और आपका काम जाने .वैसे जागरण के लिए यही सही समय है,जाग जाइये अन्यथा सोते रहिएगा और रट रहिएगा. |
खाकी से खादी की ओर प्रस्थान@ राकेश अचल जी वरिष्ठ पत्रकार ग्वालियर Posted: 24 Sep 2020 11:01 PM PDT जिंदगी भर खाकी वर्दी पहनने वाले भारतीय प्रशासनिक और पुलिस सेवा के बहुत से अफसर सेवानिवृत्त होते ही खादी पहनकर समाज सेवा करने के लिए आतुर होते हैं .इस मामले में नया नाम बिहार के पुलिस महानिदेशक श्री गुप्तेश्वर पांडेय का है .बिहार के इस मुंहफट लोकसेवक ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की अर्जी देकर राजनीति में उतरने के संकेत दिए हैं.बिहार में कुछ लोग पांडेय जी को 'रॉबिनहुड' बनते देखना चाहते हैं . देश की राजनीति है ही इतनी चाशनीदार की हर कोई इसमें डुबकी लगाने को आतुर होता है .एक जमाने मै भी श्रीकांत वर्मा बना चाहता था लेकिन नहीं बन पाया .ठीक इसी तरह जैसे की पांडेय जी 'रॉबिनहुड' बनना चाहते हैं ,लेकिन वे बन सकते हैं. तीन-चार दशक तक भारतीय नौकरशाही से लोकशाही की तरफ मुड़ने वाले अधिकारियों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है. अखिल भारतीय सेवाओं से निकले लोग देश के राष्ट्रपति पद तक पहुंचे हैं इसलिए इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है. केवल पुलिस और प्रशासन की सेवाओं से निवृत्त लोग ही राजनीति में आते हों ये बात भी तो नहीं है. न्यायिक सेवाओं से सेवानिवृत्त लोग भी राजनीति में आते हैं. देश के पूर्व प्रमुख न्यायाधिपति रंजन गोगोई तो ताजा मिसाल हैं ही . राजनीति में हर बिरादरी के लोग हैं.पूर्व सेनाध्यक्ष हैं,किसान हैं,मजदूर हैं,सिपाही हैं,पटवारी हैं .पत्रकार तो हैं ही ,इसलिए गुप्तेश्वर पांडेय का राजनीति की और उन्मुख होना मुझे हैरान नहीं करता,हैरान करने वाली कोई बात नहीं है .लेकिन सब पांडेय जी की तरह राजनीति में कामयाब भी हो सकेंगे या नहीं ये सवाल हर समय बना रहता है. बना रहेगा,क्योंकि शासकीय सेवा में रहने वाले अधिकारी सियासत में घुटनों के बल चल भी पाते हैं और नहीं भी चल पाते . हमारे एक मित्र थे स्वर्गीय अयोध्यानाथ पाठक.बिहार के ही थे.1964 बैच के आईपीएस थे .शुरू से राजनीति में उनकी दिलचस्पी थी. वे जब मध्यप्रदेश में डीआईजी थे तब खुलकर मैदान में आ गए थे. प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय अर्जुन सिंह को उनकी अदाएं बेहद पसंद थीं. पाठक जी ने राजनीति में प्रवेश पाने के लिए तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष रहीं श्रीमती मीरा कुमार का दामन पकड़ा था .उनका स्वभाव भी गुप्तेश्वर पांडेय जी जैसा ही था .परम वाचाल थे .सम्पन्न थे और पुलिस महानिदेशक बनने तक उन्होंने बिहार से अपनी जड़ें कटने नहीं दी थी,लेकिन सेवानिवृत्त होने के बाद वे न वापस बिहार जा पाए और न मध्यप्रदेश की राजनीति में कदम रख पाए .वे अपना सपना अपने साथ लेकर गए . हमारे प्रदेश में अभी एक और आईपीएस अफसर हैं राजाबाबू सिंह .अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक हैं. सीमावर्ती यूपी में बांदा के रहने वाले हैं. जमीन से जुड़े हैं.रामभक्त हैं और नौकरी में आने से पहले राममंदिर-बाबरी मस्जिद आंदोलन में भी सक्रिय रहे हैं .वे भी खाकी त्यागकर खादी का वरण करने के लिए तैयार बैठे हैं .उनका आचरण है भी जनसेवकों जैसा .लेकिन क्या उनका सपना साकार होगा ये रामजी ही जानते हैं .राजाबाबू 1994 बैच के आईपीएस अफसर हैं .ऐसे अफसर राजनीति में ाएँ तो राजनीति की सूरत बदल सकती है ,लेकिन 'मन हौंसिया और करम [भाग्य] गढ़िया' हो तो कुछ नहीं होता .भापुसे से सेवानिवृत्त हुए हमारे एक और मित्र डॉ हरी सिंह राजनीति में प्रवेश के लिए ऐडही-छोटी का जोर लगाकर भी कामयाब नहीं हो पाए.उन्हें कोयला निगम की संचालकी से ही संतोष करना पड़ा .एक पूर्व आईएएस संसद तक पहुंचे उनका नाम भागीरथ प्रसाद था ,लेकिन सबकी किस्मत में राजनीति बदी नहीं होती . बहरहाल जिन गुप्तेश्वर पांडेय जी की आज धूम है मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त है. सौभाग्य इसलिए की ऐसे लोगों से मिलना सबकी किस्मत में नहीं होता .मै कोई दो साल पहले उनसे बिहार में मिला था .वे हमारे दामाद के घर पटना में आये थे .उनसे मिलकर आपको लगेगा ही नहीं की वे किसी राज्य के पुलिस प्रमुख हैं .मुझे वे बेहद सरल लेकिन चपल लगे .उनकी चपलता ही उनकी विशेषता है .वे एक बार पहले भी नौकरी छोड़कर राजनीति में आते-आते रह गए थे,लेकिन अब मुझे लगता है की वे राजनीति में आ ही जायेंगे .उन्हें राजनीति में आ भी जाना चाहिए,क्योंकि राजनीति में आजकल जैसे लोग आ रहे हैं ,वे निराश ही करते हैं . बिहार की राजनीति का जो स्वरूप है उसमें गुप्तेश्वर पांडेय जी के लिए बहुत गुंजाइश है .वे शिखाधारी बाम्हन हैं और इसकी घोषणा करते हुए उन्हें परहेज भी नहीं है ,इसलिए उनकी स्वीकार्यता असंदिग्ध है .वे जिस दल के साथ खड़े होंगे,उस दल के लिए उपयोगी होंगे .अब सवाल ये है की पांडेय जी की पसंद क्या है ?पांडेय जी को पढ़ना उतना आसान नहीं है जितना लोग समझते हैं .बहुचर्चित सुशांत संह राजपूत कांस में उन्होंने रिया चक्रवर्ती के खिलाफ जिस तरह से तर्कपूर्ण ढंग से टिप्पणियां की थीं वे अब उनके काम आ सकतीं हैं. वे बाम्हन होते हुए भी एक ठाकुर के लिए मोर्चे पर थे .बिहार की राजनीति में इसकी इजाजत नहीं है लेकिन उन्होंने जोखिम लिया और इसके पीछे उनकी दूरदृष्टि थी . बिहार में विधानसभा के चुनाव होना हैं ऐसे में यदि कोई राजनीतिक दल उन्हें अपना प्रत्याशी बनाता है तो शायद ही उसे निराश होना पड़े. वे सुशासन बाबू के लिए भी उतने होई उपयोगी हैं जितने की सुशिल मोदी के लिए .बिहार की 'लालू ब्रांड' राजनीति में कोई पांडेय जी को परास्त नहीं कर पायेगा ,हाँ यदि अब पांडेय जी पीछे हटे तो उनके लिए मुश्किल हो जाएगी .लोग अब उन्हें छोड़ेंगे नहीं.उन्हें बिहार में राजनीति का नया 'राबिनहुड' बनना ही पडेगा भले वे रॉबिनहुड की तरह काम न कर पाएं .आजकल राजनीति में जिस अभिनय की जरूरत है उसमें पांडेय जी की कोई सानी नहीं है . राजनीति के पर्दे उठाकर देखें तो आप पाएंगे की देश के हर प्रमुख राजनितिक दल ने नौकरशाहों को अपनाया है .भाजपा और कांग्रेस में तो सेवानिवृत्त नौकरशाह और सेनानायक भरे पड़े हैं ,छोटे दलों में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है .मुझे लगता है की देश की जनता भी पूर्व नौकरशाहों को आसानी से आत्मसात कर लेती है. जब जनरल वीके सिंह राजनीति में खप सकते हैं तो गुप्तेश्वर पांडेय क्यों नहीं ?पांडेय जी तो जिंदगी भर जनता के बीच ही रहे हैं ,वीके सिंह तो नौकरी से मुक्त होने के बाद जनता के बीच आये थे .. बहरहाल तमाशा जारी है. देश का मीडिया परेशान है की किसे सुर्ख़ियों में रखे और किसे छोड़े,क्योंकि मीडिया के सामने एक तरफ पांडेय जी हैं तो दूसरी तरफ दीपिका पादुकोण .दर्शक तो सबके मजे लेता ही है .हम और आप भी इससे अछूते नहीं हैं .कोई अछूता नहीं है. टीवी का पर्दा किसी को अछूत रहने ही नहीं देता .राजनीति भी टीवी की सहोदर है .इसलिए प्रतीक्षा कीजिये राजनीति के नए संस्करण की . |
You are subscribed to email updates from जनवादी पत्रकार संघ. To stop receiving these emails, you may unsubscribe now. | Email delivery powered by Google |
Google, 1600 Amphitheatre Parkway, Mountain View, CA 94043, United States |