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Monday, November 9, 2020

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सनातन धर्म का वैज्ञानिक रहस्य (भाग 1) - दिवाकर शर्मा | Scientific Secret of Sanatan Dharma - Part 1

Posted: 08 Nov 2020 11:36 PM PST

 

वर्तमान समय धर्म के प्रति उदासीनता का समय है | लोगों का संभवतः यह मत है कि धर्म जीवन की उन्नति के लिए आवश्यक नहीं है | किन्तु जब धर्म लुप्त हो जाता है तब अर्थ और काम में फंसे हुए लोग कुत्तों और बंदरों के समान वर्ण संकर हो जाते है | केवल अर्थ और काम से युक्त जीवन पशु जीवन के समान है | धर्म क्या है, इसे इस प्रकार समझें, कि जहाँ धर्म है वहीँ जय है, वहीँ सफलता है, वहीँ सुख है | परन्तु वर्तमान युग विज्ञान का है, तर्क का है | इस समय कोई भी बात कितनी ही उपयोगी क्यों न हो जब तक तर्क और विज्ञान की कसौटी पर खरी न उतरे लोग मानने को तैयार नहीं होते | वेदों को धर्म और विज्ञान का मूलाधार माना जाता है परन्तु दुर्भाग्य से वेदों की अनेक शाखाएं लुप्त हो गयीं है | आध्यात्मिक विषय भी विज्ञान से हीन होकर प्रायः पंगु समान हो गया है | आत्मा और परमात्मा के अर्थ भी प्रत्येक मनुष्य भिन्न भिन्न रूप से करने लगा है | फलस्वरूप समाज में दो विभाग हो गए है – एक अंधविश्वासी और दूसरा जैसा समझ में आये वैसा करने वाला स्वतंत्र उपासक | इन दोनों में भी पक्षपात एवं रोटी की समस्या नें अनेकों बुराइयां पैदा कर दी है | इस प्रकार देश और समाज अपने असली व्यवहारों को नित्य छोड़ता चला जा रहा है | कुछ उसके बिगड़े हुए स्वरुप को पकडे अवश्य है पर उसमें आत्मा शेष है भी या नहीं, या उसकी आत्मा क्या है, इसका उन्हें बिलकुल ज्ञान नहीं |

मानव सभ्यता के प्राचीन काल से लेकर पाश्चात्य वैज्ञानिक अविष्कारों के वर्तमान युग तक समस्त विज्ञान का आधार भूमंडल में केवल चार ही वस्तुएँ है – जल, अग्नि, वायु और मिटटी | इन चरों वस्तुओं के ज्ञान का अर्थ है वेद | जल–सामवेद, अग्नि-ऋग्वेद, वायु-यजुर्वेद और मिटटी अर्थात यथर्ववेद | सनातन धर्म जिसका मूल आधार वेद है उसकी प्रत्येक बात सारगर्भित, वैज्ञानिक, प्राकृतिक नियमों से संबद्ध तथा ऋषियों की अनुभूत है | देश,काल,परिस्थिति के अनुसार या किसी अन्य कारणवश कोई व्यक्ति यदि इस पर पूर्णरूप से इस पर न चल सके तो जितना भी हो सके चले, उस पर भी उसे लाभ होगा |

हमारा देश प्राचीन काल से ही धर्म की प्रधानता के कारण गौरवपूर्ण तथा सबका सिरमौर रहा है | यहाँ सम्पूर्ण कर्म आध्यात्मिक तथा धार्मिक नींव पर ही किये जाते रहे है | भारत की नींव आध्यात्मिक तथा धार्मिक होने के कारण ही उसकी सदा उन्नति रही | परन्तु आजकल लोगों नें अपने उस प्राचीन मार्ग को भुला दिया तथा उसके रहस्य से अनभिज्ञ होने के कारण उसे केवल कल्पित क्रिया मात्र समझ लिया और उसे ढोंग शब्द से संबोधित करना प्रारंभ कर दिया है | भारतवासी मनोमुखी तथा मनस्वतंत्र होकर, अपने मार्ग को भूलकर इधर उधर भटकने लगे तथा अपने अमूल्य हीरे को खोकर दूसरों के कांच पर (जो ऊपर से ही चमकता था) रीझ उठे और उसे ग्रहण करने को लालायित हो उठे | अंत में "इतो नष्टः ततो भ्रष्टः" के अनुसार स्वयं पथभ्रष्ट भी हो गए |

सनातन धर्म का वैज्ञानिक रहस्य के इस क्रम में आज हम आहार से धर्म के संबंध में विचार करते है |

आहार पर हमारे शास्त्रकारों नें बहुत जोर दिया है कि इसमें बड़े विचार की आवश्यकता है और सबमें वैज्ञानिक रहस्य भरा हुआ है | आहार और धर्म का बड़ा निकट संपर्क है | कहा गया है कि इस शरीर रुपी हवन कुंड में हाथ रुपी सुर्वा के द्वारा भगवान रुपी वैश्वानर अग्नि में अन्नरूप शाकल्य का हवन किया जाता है, अतः आहार क्रिया एक प्रकार का यज्ञ है |

शरीर रक्षा तथा आत्मतृप्ति के लिए ही भोजन का विधान है | स्वाद दृष्टी से रसना इन्द्रिय से स्वादरुपी विषयभोग करना लक्ष्य नहीं है | इसलिए आहार यज्ञ के नियम तथा विधान कहे गए है, जिनसे अपना ही कल्याण होता है | गीता के अनुसार – "भोजन का स्थान पवित्र होना चाहिए व एकांत में, स्वयं पवित्र होकर भोजन करना चाहिए | अपवित्र शरीर से अन्न ग्रहण करने पर उससे मन तथा बुद्धि की उन्नति नहीं होती |" इसलिए शास्त्र में कहा गया है कि गोमयलिप्त, समतल, पवित्र स्थान में लघुआसन से बैठ कर भोजन करना चाहिए | भोजन से अपवित्र व्यक्ति का संपर्क नहीं होना चाहिए | इन सब में वैज्ञानिक रहस्य है |

आयु की इच्छा वाले को पूर्वमुख तथा यशेच्छु को दक्षिण दिशा की ओर मुख करके भोजन करना चाहिए | इसका कारण यह है कि पूर्व दिशा से प्राणशक्ति का उदय होता है, प्राणस्वरूप देवता सूर्य इस दिशा से उदय होते है अतः पूर्व की ओर मुख करके भोजन करने से आयु बढती है | दक्षिण की ओर पितृ देवताओं का वास होता है अतः उस ओर मुख करके भोजन करने से यश प्राप्त होता है |

मनु स्मृति में कहा गया है कि – सर पर टोपी, साफा आदि धारण कर तथा पैरों में जूता पहनकर भोजन नहीं करना चाहिए क्योंकि भोजन करते समय जो क्रिया होती है उससे शरीर में ऊष्मा उत्पन्न होती है | यह ऊष्मा शरीर में से केवल दो ही मुख्य मार्ग सर अथवा पाँव से ही निकलती है, अतः यदि ये दोनों ही मार्ग बंद होंगे या ढके हुए होंगे तो ऊष्मा बाहर निकलने के लिए जोर लगायेगी और कुपित होकर सारे शरीर को हानि पहुंचायेगी | भोजन गीले पैरों से करना चाहिए तथा भोजन पश्चात लघुशंका कर लेनी चाहिए | यह सारी क्रियाएँ विज्ञान की कसौटी पर कस कर ऋषियों नें हमारे लाभ के लिए बनायी है |

भोजन करते समय मौन रहना चाहिए ऐसा करने से चबाने की क्रिया अच्छी होती है | विशेष बात यह है कि भोजन करते समय लार उत्पन्न होती है जो भोजन को पचाती है, अतः यदि बातचीत की जायेगी, तो वह लार पर्याप्त मात्रा में न बन सकेगी जिससे भोजन अच्छी तरह नहीं पचेगा |

भोजन को सदैव भगवान का प्रसाद मानकर ग्रहण करना चाहिए | गीता में कहा गया है कि यज्ञ में शेष बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से छूट जाते है और जो पापी लोग अपने शरीर के पोषण के लिए ही पकाते है वे तो पाप को ही खाते है |

भोजन के विषय में रोटी-दाल की अपेक्षा पूड़ी आदि घृत से पके अन्न को शुद्ध माना जाता है | इसका वैज्ञानिक रहस्य यह है कि एक तो घृत स्वयं ही शुद्धिकारक है, दूसरी बात यह है कि जल से बना हुआ पदार्थ जल्दी विकृत हो जाता है क्योंकि कीटाणु जल को शीघ्र ही दूषित एवं विकृत कर देते है परन्तु घृत पर कीटाणुओं का आक्रमण सफल नहीं होता अतः घृत से बना हुआ अन्न, न तो शीघ्र दूषित होता है और न ही विकृत, इसलिए यह पवित्र माना जाता है |

इसी प्रकार भोजन के पात्रों का भी विचार तथा वैज्ञानिक रहस्य है | चांदी, फूल तथा पीतल आदि के बर्तन अधिक पवित्र माने जाते है, वे मिटटी आदि से मांजकर भी साफ़ कर लिए जाते है | परन्तु मिटटी के बर्तनों का बार बार प्रयोग करने का निषेध है | उसका वैज्ञानिक रहस्य यह है कि मिटटी के पात्र में कीटाणु बहुत जल्द और बहुत अधिक संख्या में जम जाते है और उन्हें दूर करने में बड़ी कठिनाई होती है |

शास्त्रकारों नें यहाँ तक वर्णन किया है कि भोजन के समय कौन सी वस्तु कहाँ रखें | जैसे थाल में सामने भात, भात के सम्मुख संस्कार किये हुए प्रदेह जैसे हलुआ, फल-सर्व प्रकार के भक्ष्य पदार्थ-सूखे पदार्थ भोजन करने वाले के दाहिने, द्रव्य-रस-पानी-पना-दूध-रबड़ी-खीर-श्रीखंड आदि बाएँ तरफ, सर्व प्रकार के गुण के विकार को बीच में रखें | इससे कुशलता, सुविधा तथा सुंदरता के साथ आयुर्वेद की दृष्टी से लाभ होता है जो वैज्ञानिक कसौटी पर पूर्ण रूप से खरा उतरता है |

लकड़ी के पाटे पर बैठकर भोजन करने से व्यक्ति के सभी अंग ठीक प्रकार से भोजन क्रिया में काम करते है तथा उस समय विद्युत शक्ति पास होकर न तो किसी अन्य भोजन करने वाले की शक्ति को प्रभावित करेगी न उसके निकट जायेगी | भोजन करते समय प्रत्येक अंग की क्रिया होती है अतः बाहरी वायु बाधा रोकने के लिए व अंदर की शक्ति सुरक्षित रूप से कार्य करे इसके लिए एक वस्त्र पहनकर भोजन नहीं करना चाहिए, ऊपर से दूसरा वस्त्र पहनने का विधान है | यह वस्त्र रेशमी होना चाहिए क्योंकि रेशमी वस्त्र पर ऊपरी बाधाओं का प्रभाव शीघ्र नहीं होता है |

भोजन के पूर्व ही हमारे यहाँ अग्नि में भोज्य पदार्थ की आहुति देना, गौग्रास देना तथा कुत्ता, काक इत्यादि को भोजन निकालने का विधान है जिसे बलि-वैश्वदेव कहा जाता है | इसमें धार्मिक यज्ञ कृत्य के साथ साथ लौकिक उपकारी वैज्ञानिक बात यह है कि इससे भोजन की परीक्षा भी हो जाती है | अग्नि में डालते ही दूषित अन्न से दुर्गन्ध आने लगती है, धुआं दूसरे रंग का निकलता है | मत्स्यपुराण में कहा गया है कि – विषाक्त अन्न को देखकर चकोर के नेत्रों का रंग बदल जाता है तथा भृंगराज, तोता, मैना ये पक्षी विष और सर्प को देखकर अत्यंत उद्धिग्न होकर चिल्लाने लगते है | इस प्रकार अनेकों लाभ तथा वैज्ञानिक चमत्कार इसमें समाविष्ट है |

प्रत्येक मनुष्य में विभिन्न भावना व विभिन्न विद्युत शक्ति होती है | सात्विक में सात्विकी, राजस में राजसी इत्यादि | अतः जिस वृत्ति वाले मनुष्य के साथ अन्न का संपर्क होगा उसकी वैसी ही वृत्ति व उस अन्न में संक्रांत हो जाएगा | भिन्न-भिन्न वृत्तियों का परिणाम एक दूसरे पर अवश्य पड़ेगा | महाभारत में आया है कि द्रोपदी के चीरहरण के समय भीष्म पितामह भी कुछ नहीं बोले, इस अन्याय को देखते रहे | इसका कारण यही था कि उन्होंने दुर्योधन का पापान्न ग्रहण किया था जिससे उनका ज्ञान कुंठित तथा बुद्धि की शुद्धता नष्ट हो गयी थी, तो जब भीष्म पितामह जैसे महात्मा की बुद्धि पर भी अन्न का प्रभाव पड़ सकता है तो फिर साधारण व्यक्ति की बात ही क्या है |

यह तो विज्ञानसिद्ध और प्रमाणित हो चुका है कि हाथ से हाथ का स्पर्श होने पर रोग के बीज एक दूसरे में चले जाते है | रोग ही नहीं बल्कि शारीरिक एवं मानसिक वृत्तियों में भी हेरफेर हो जाता है | अतः हमें आहार तथा उसके नियमों पर विशेष ध्यान देना चाहिए और यथाविधि उसके अनुकूल चलना चाहिए, क्योंकि यदि आहार शुद्ध होगा, तो मन एवं शरीर भी शुद्ध रहेगा, भावना तथा विचार भी शुद्ध रहेंगे और क्रिया भी शुद्ध होगी |

क्रमशः .......          

दिवाकर शर्मा 
संपादक - क्रांतिदूत डॉट इन



शवों से पटी पृथ्वी पर जीवित बचे ही कितने? - संजय तिवारी | Ramcharitmanas Angad Ravana Dialogue

Posted: 08 Nov 2020 09:30 PM PST

 

मैं कुछ भी नही कह रहा। जो भी है वह गोस्वामी तुलसीदास जी के श्रीरामचरितमानस में वर्णित है। मानस की ये चौपाइयां प्रमाणित कर रही हैं कि इस घोर कलियुग में यह पृथ्वी अभी से शवों से अटी पड़ी है। जितने शरीर दिख रहे हैं उनमें से जीवित बहुत ही कम हैं। ज्यादातर मरे हुए हैं। इन मरे हुए शरीरों ने जीवित शरीरों के लिए जीने की राह कठिन कर दी है। ये क्यो और कैसे मरे हैं , यह तो जो मरे हैं , वे खुद तय करेंगे लेकिन यह कड़वी सच्चाई है कि इनके कारण मनुष्यता, मानव गुण, मानव स्वभाव, मानव संस्कार और मानवीय मर्यादाएं बहुत गंभीर रूप से खतरे में है। इसलिए इन मरे हुए शरीरों को पहचान कर उनसे पृथ्वी को बचाने का प्रयास करने का समय आ गया है।

वस्तुतः गोस्वामी जी ने लंका कांड में ऐसे शरीरों को पहचानने की जुगत भी दी है। जब भगवान राम और दशानन के बीच का युद्ध चरम पर पहुच गया था तब अंगद ने रावण को पहले ही मरा हुआ घोषित कर दिया।उसी समय अंगद ने रावण से कहा- तू तो मरा हुआ है, मरे हुए को मारने से क्या फायदा? इस पर रावण बोला– मैं जीवित हूँ, मरा हुआ कैसे? तब अंगद बोले, सिर्फ साँस लेने वालों को जीवित नहीं कहते - साँस तो लुहार का धौंकनी भी लेती है। उसी समय अंगद ने मृत्यु के 14 प्रकार बताए। अंगद द्वारा रावण को बताई गई ये बातें सर्वकालिक हैं। यदि किसी व्यक्ति में इन 14 दुर्गुणों में से एक दुर्गुण भी मौजूद है, तो वह मृतक समान माना जाता है! रामचरितमानस के लंका काण्ड का यह प्रसंग अत्यंत सारगर्भित और शिक्षणीय है । अंगद कहते हैं -

कौल कामबस कृपिन विमूढ़ा।
अतिदरिद्र अजसि अतिबूढ़ा।।
सदारोगबस संतत क्रोधी।
विष्णु विमुख श्रुति संत विरोधी।।
तनुपोषक निंदक अघखानी।
जीवत शव सम चौदह प्रानी।।

1. कामवश: जो व्यक्ति अत्यंत भोगी हो, कामवासना में लिप्त रहता हो, जो संसार के भोगों में उलझा हुआ हो, वह मृत समान है। जिसके मन की इच्छाएं कभी खत्म नहीं होतीं और जो प्राणी सिर्फ अपनी इच्छाओं के अधीन होकर ही जीता है, वह मृत समान है। वह अध्यात्म का सेवन नहीं करता है, सदैव वासना में लीन रहता है।

2. वाम मार्गी: जो व्यक्ति पूरी दुनिया से उल्टा चले, जो संसार की हर बात के पीछे नकारात्मकता खोजता हो; नियमों, परंपराओं और लोक व्यवहार के खिलाफ चलता हो, वह वाम मार्गी कहलाता है। ऐसे काम करने वाले लोग मृत समान माने गए हैं।

3. कंजूस: अति कंजूस व्यक्ति भी मरा हुआ होता है। जो व्यक्ति धर्म कार्य करने में, आर्थिक रूप से किसी कल्याणकारी कार्य में हिस्सा लेने में हिचकता हो, दान करने से बचता हो, ऐसा आदमी भी मृतक समान ही है।
4. अति दरिद्र: गरीबी सबसे बड़ा श्राप है। जो व्यक्ति धन, आत्म-विश्वास, सम्मान और साहस से हीन हो, वह भी मृत ही है। अत्यंत दरिद्र भी मरा हुआ है। गरीब आदमी को दुत्कारना नहीं चाहिए, क्योंकि वह पहले ही मरा हुआ होता है। दरिद्र-नारायण मानकर उनकी मदद करनी चाहिए।

5. विमूढ़: अत्यंत मूढ़ यानी मूर्ख व्यक्ति भी मरा हुआ ही होता है। जिसके पास बुद्धि-विवेक न हो, जो खुद निर्णय न ले सके, यानि हर काम को समझने या निर्णय लेने में किसी अन्य पर आश्रित हो, ऐसा व्यक्ति भी जीवित होते हुए मृतक समान ही है, मूढ़ अध्यात्म को नहीं समझता।

6. अजसि: जिस व्यक्ति को संसार में बदनामी मिली हुई है, वह भी मरा हुआ है। जो घर-परिवार, कुटुंब-समाज, नगर-राष्ट्र, किसी भी ईकाई में सम्मान नहीं पाता, वह व्यक्ति भी मृत समान ही होता है।

7. सदा रोगवश: जो व्यक्ति निरंतर रोगी रहता है, वह भी मरा हुआ है। स्वस्थ शरीर के अभाव में मन विचलित रहता है। नकारात्मकता हावी हो जाती है। व्यक्ति मृत्यु की कामना में लग जाता है। जीवित होते हुए भी रोगी व्यक्ति जीवन के आनंद से वंचित रह जाता है।

8. अति बूढ़ा: अत्यंत वृद्ध व्यक्ति भी मृत समान होता है, क्योंकि वह अन्य लोगों पर आश्रित हो जाता है। शरीर और बुद्धि, दोनों अक्षम हो जाते हैं। ऐसे में कई बार वह स्वयं और उसके परिजन ही उसकी मृत्यु की कामना करने लगते हैं, ताकि उसे इन कष्टों से मुक्ति मिल सके।

9. सतत क्रोधी: 24 घंटे क्रोध में रहने वाला व्यक्ति भी मृतक समान ही है। ऐसा व्यक्ति हर छोटी-बड़ी बात पर क्रोध करता है। क्रोध के कारण मन और बुद्धि दोनों ही उसके नियंत्रण से बाहर होते हैं। जिस व्यक्ति का अपने मन और बुद्धि पर नियंत्रण न हो, वह जीवित होकर भी जीवित नहीं माना जाता। पूर्व जन्म के संस्कार लेकर यह जीव क्रोधी होता है। क्रोधी अनेक जीवों का घात करता है और नरकगामी होता है।

10. अघ खानी: जो व्यक्ति पाप कर्मों से अर्जित धन से अपना और परिवार का पालन-पोषण करता है, वह व्यक्ति भी मृत समान ही है। उसके साथ रहने वाले लोग भी उसी के समान हो जाते हैं। हमेशा मेहनत और ईमानदारी से कमाई करके ही धन प्राप्त करना चाहिए। पाप की कमाई पाप में ही जाती है और पाप की कमाई से नीच गोत्र, निगोद की प्राप्ति होती है।

11. तनु पोषक: ऐसा व्यक्ति जो पूरी तरह से आत्म संतुष्टि और खुद के स्वार्थों के लिए ही जीता है, संसार के किसी अन्य प्राणी के लिए उसके मन में कोई संवेदना न हो, ऐसा व्यक्ति भी मृतक समान ही है। जो लोग खाने-पीने में, वाहनों में स्थान के लिए, हर बात में सिर्फ यही सोचते हैं कि सारी चीजें पहले हमें ही मिल जाएं, बाकी किसी अन्य को मिलें न मिलें, वे मृत समान होते हैं। ऐसे लोग समाज और राष्ट्र के लिए अनुपयोगी होते हैं। शरीर को अपना मानकर उसमें रत रहना मूर्खता है, क्योंकि यह शरीर विनाशी है, नष्ट होने वाला है।

12. निंदक: अकारण निंदा करने वाला व्यक्ति भी मरा हुआ होता है। जिसे दूसरों में सिर्फ कमियाँ ही नजर आती हैं, जो व्यक्ति किसी के अच्छे काम की भी आलोचना करने से नहीं चूकता है, ऐसा व्यक्ति जो किसी के पास भी बैठे, तो सिर्फ किसी न किसी की बुराई ही करे, वह व्यक्ति भी मृत समान होता है। परनिंदा करने से नीच गोत्र का बंध होता है।

13. परमात्म विमुख: जो व्यक्ति ईश्वर यानि परमात्मा का विरोधी है, वह भी मृत समान है। जो व्यक्ति यह सोच लेता है कि कोई परमतत्व है ही नहीं; हम जो करते हैं, वही होता है, संसार हम ही चला रहे हैं, जो परमशक्ति में आस्था नहीं रखता, ऐसा व्यक्ति भी मृत माना जाता है।

14. श्रुति, संत विरोधी: जो संत, ग्रंथ, वेदों का विरोधी है, वह भी मृत समान है। श्रुति और संत, समाज में अनाचार पर नियंत्रण (ब्रेक) का काम करते हैं। अगर गाड़ी में ब्रेक न हो, तो कहीं भी गिरकर एक्सीडेंट हो सकता है। वैसे ही समाज को संतों की जरूरत होती है, वरना समाज में अनाचार पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाएगा।

अब स्वयं सुनिश्चित कीजिये धरती पर जीवित शरीर कितने बचे हैं।

।।ॐ हं हनुमते नमः।।
संजय तिवारी 
संस्थापक – भारत संस्कृति न्यास
वरिष्ठ पत्रकार

 

 


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